श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बसंतु महला ९ ॥ कहा भूलिओ रे झूठे लोभ लाग ॥ कछु बिगरिओ नाहिन अजहु जाग ॥१॥ रहाउ ॥ सम सुपनै कै इहु जगु जानु ॥ बिनसै छिन मै साची मानु ॥१॥ संगि तेरै हरि बसत नीत ॥ निस बासुर भजु ताहि मीत ॥२॥ बार अंत की होइ सहाइ ॥ कहु नानक गुन ता के गाइ ॥३॥५॥ {पन्ना 1187}

पद्अर्थ: कहा भूलिओ = कहाँ भटक रहा है? रे = हे भाई! लोभि = लोभ में। लागि = लग के। नाहिन = नहीं। अजहु = अब भी। जागु = सचेत हो, समझदार बन।1। रहाउ।

सम = बराबर। जानु = समझ। छिन महि = एक छिन में। साची मानु = यह बात सच्ची मान।1।

संगि = साथ। नीत = सदा। निसि = रात। बासुर = दिन। भजु ताहि = उसका भजन किया कर। मीत = हे मित्र!।2।

बार अंत की = अंत के समय। सहाइ = सहायक, मददगार। ता के = उस (प्रभू) के।3।

अर्थ: हे भाई! नाशवंत दुनिया के लोभ में फस के (हरी-नाम से टूट के) कहाँ भटकता फिरता है? अब तो समझदार बन, (और, परमात्मा का नाम जपा कर। अगर बाकी की उम्र सिमरन में गुजार ले, तो भी तेरा) कुछ बिगड़ा नहीं।1। रहाउ।

हे भाई! इस जगत को सपने (में देखे पदार्थों) के बराबर समझ। इह बात सच्ची मान कि (यह जगत) एक छिन में नाश हो जाता है।1।

हे मित्र! परमात्मा सदा तेरे साथ बसता है। तू दिन-रात उसका ही भजन किया कर।2।

हे नानक! कह- (हे भाई!) आखिरी समय में परमात्मा ही मददगार बनता है। तू (सदा) उसके गुण गाया कर।3।5।

बसंतु महला १ असटपदीआ घरु १ दुतुकीआ    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जगु कऊआ नामु नही चीति ॥ नामु बिसारि गिरै देखु भीति ॥ मनूआ डोलै चीति अनीति ॥ जग सिउ तूटी झूठ परीति ॥१॥ कामु क्रोधु बिखु बजरु भारु ॥ नाम बिना कैसे गुन चारु ॥१॥ रहाउ ॥ घरु बालू का घूमन घेरि ॥ बरखसि बाणी बुदबुदा हेरि ॥ मात्र बूंद ते धरि चकु फेरि ॥ सरब जोति नामै की चेरि ॥२॥ सरब उपाइ गुरू सिरि मोरु ॥ भगति करउ पग लागउ तोर ॥ नामि रतो चाहउ तुझ ओरु ॥ नामु दुराइ चलै सो चोरु ॥३॥ पति खोई बिखु अंचलि पाइ ॥ साच नामि रतो पति सिउ घरि जाइ ॥ जो किछु कीन्हसि प्रभु रजाइ ॥ भै मानै निरभउ मेरी माइ ॥४॥ कामनि चाहै सुंदरि भोगु ॥ पान फूल मीठे रस रोग ॥ खीलै बिगसै तेतो सोग ॥ प्रभ सरणागति कीन्हसि होग ॥५॥ कापड़ु पहिरसि अधिकु सीगारु ॥ माटी फूली रूपु बिकारु ॥ आसा मनसा बांधो बारु ॥ नाम बिना सूना घरु बारु ॥६॥ गाछहु पुत्री राज कुआरि ॥ नामु भणहु सचु दोतु सवारि ॥ प्रिउ सेवहु प्रभ प्रेम अधारि ॥ गुर सबदी बिखु तिआस निवारि ॥७॥ मोहनि मोहि लीआ मनु मोहि ॥ गुर कै सबदि पछाना तोहि ॥ नानक ठाढे चाहहि प्रभू दुआरि ॥ तेरे नामि संतोखे किरपा धारि ॥८॥१॥ {पन्ना 1187}

पद्अर्थ: जगु = जगत, माया ग्रसित जीव। चीति = चिक्त में। गिरै = गिरता है। देखु = (हे भाई!) देख। भीति = भिक्ति, चोगा। अनीति = बदनीति। सिउ = साथ। तूटी = टूट जाती है, सदा नहीं निभती।1।

बिखु = जहर। बजरु = बज्र, कठोर। गुन चारु = गुणों वाला आचार (आचरण)।1। रहाउ।

बालू = रेत। बरखसि = बरखा होने पर। बाणी = बनावट। हेरि = देख। ते = से। धरि = बना देता है। फेरि = फेर के। नामै की = नाम की ही। चेरि = चेरी, दासी।2।

सिरिमोरु = शिरोमणी। करउ = मैं करूँ। पग तोर = तेरे चरणों में। नामि = नाम में। ओरु = पासा, आसरा। दुराइ = छुपा के। चलै = जीवन पथ पर चलता है।3।

पति = इज्जत। अंचलि पाइ = पल्ले बाँध के। कीन्सि = करता है। माइ = हे माँ!।4।

कामनि = स्त्री। सुदरि = सुंदर। खीलै = खेलती है, ख्लि्लियाँ उड़ाती है। बिगसै = खिली है, खुश होती है। तेतो = उतना ही (ज्यादा)। कीन्सि = करता है।5।

पहिरसि = पहनती है। अधिकु = बहुत। माटी = मिट्टी की मूर्ति, काया। फूली = फूलती है, माण करती है। बारु = दरवाजा (जिस रास्ते से प्रभू से मिला जा सकता है)। घरु बारु = घर बार, हृदय।6।

गाछहु = जाओ (मुझे गलत रास्ते पर डालने के यतन ना करो)। पुत्री राज कुआरि = हे पुत्री! हे राज कुमारी! हे मेरी जिंदे! दोतु = अमृत बेला, सवेरा, दिन। सवारि = सवार के, संभाल के। अधारि = आसरे से। तिआस = माया की तृष्णा।7।

मोहनि = मोहन ने। मनु मोहि = मेरा मन। तोहि = (हे प्रभू) तुझे। ठाढे = खड़े हुए। दुआरि = दर पे। नामि = नाम में। किरपा धारि = मेहर कर।8।

अर्थ: (हे भाई!) देख, जिसके चिक्त में परमात्मा का नाम नहीं है वह माया-ग्रसित जीव कौए (के स्वभाव वाला) है; प्रभू का नाम भुला के (वह कौए की तरह) चौगे पर गिरता है, उसका मन (माया की ओर ही) डोलता रहता है, उसके चिक्त में (सदा) खोट ही होता है। पर दुनिया की माया के साथ यह प्रीति झूठी है, कभी भी साथ नहीं निभती।1।

(हे भाई!) काम और क्रोध (मानो) जहर है (जो आत्मिक जीवन को समाप्त कर देता है), यह (जैसे) एक करड़ा बज्र बोझ है (जिसके नीचे दब के आत्मिक जीवन मर जाता है)। गुणों वाला आचरण (आत्मिक जीवन) परमात्मा का नाम सिमरन के बिना कभी बन ही नहीं सकता।1।

(हे भाई!) देख, जैसे बवंडर में रेत का घर बना हुआ हो, जैसे बरखा के वक्त बुलबुला बन जाता है (वैसे ही इस शरीर की भी हस्ती है, जिसको सृजनहार ने अपनी कुदरति का) चक्का घुमा के (पिता के वीर्य की) बूँद मात्र से रच दिया है (जैसे कोई कुम्हार चक्का घुमा के मिट्टी से बर्तन बना देता है)। (सो, हे भाई! यदि तूने आत्मिक मौत से बचना है तो अपनी जिंद को) उस प्रभू के नाम की दासी बना जिसकी ज्योति सब जीवों में मौजूद है।2।

हे प्रभू! तू सारे जीव पैदा करके सब के सिर पर शिरोमणि है, गुरू है। मेरी यह तमन्ना है कि मैं तेरी भगती करूँ, मैं तेरे चरणों में लगा रहूँ, तेरे नाम-रंग में रंगा रहूँ और तेरा ही पल्ला पकड़े रखूँ। जो मनुष्य तेरे नाम को (अपनी जिंद से) दूर-दूर रख के (जीवन-पथ पर) चलता है वह तेरा चोर है।3।

हे मेरी माँ! जो मनुष्य (विकारों की) जहर ही पल्ले बाँधता है वह अपनी इज्जत गवा लेता है, पर जो व्यक्ति सदा-स्थिर परमात्मा के नाम-रंग में रंगा जाता है, वह प्रभू के देश में आदर से जाता है। (उसको ये यकीन होता है कि) प्रभू जो कुछ करता है अपनी रज़ा में करता है (किसी और का उसकी रज़ा में कोई दख़ल नहीं), और जो व्यक्ति उसके डर-अदब में रहने लग जाता है वह (इस जीवन-यात्रा में काम-क्रोध आदि की ओर से) बे-फिक्र हो के चलता है।4।

सुंदर जीव-स्त्री दुनिया के बढ़िया पदार्थों के भोग की अभिलाषा करती है, पर ये पान फूल मीठे पदार्थों के सवाद- यह सब और, और विकार और रोग ही पैदा करते हैं। जितना ज्यादा वह इन भोगों में खिल्लियाँ उड़ाती है और खुश होती है उतना ही ज्यादा दुख-रोग व्यापता है। पर, जो जीव-स्त्री प्रभू की शरण में आ जाती है (वह रजा में चलती है उसको निष्चय हो जाता है कि) जो कुछ प्रभू करता है वही होता है।5।

जो जीव-स्त्री सुंदर-सुंदर कपड़े पहनती है बढ़-चढ़ के श्रृंगार करती है, अपनी काया को देख-देख के फूली नहीं समाती, उसका रूप उसको और ज्यादा विकारों की तरफ प्रेरित करता है, दुनियाँ की आशाएं और ख़्वाहिशें उसके (दसवें) दरवाजे को बँद कर देती हैं, परमात्मा के नाम के बिना उसका हृदय-घर सूना ही रहता है।6।

हे जिंदे! उठ उद्यम कर, तू सारे जगत के राजा-प्रभू की अंश है, तू राज-पुत्री है, तू राज कुमारी है, अमृत बेला की संभाल कर के नित्य उस सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू का नाम सिमर। प्रभू के प्रेम के आसरे रह के उस प्रीतम की सेवा-भक्ति कर, और गुरू के शबद में जुड़ के माया की तृष्णा को दूर कर। यह तृष्णा जहर है जो तेरे आत्मिक जीवन को मार देगी।7।

हे नानक! (प्रार्थना कर और कह-) तुझ मोहन ने (अपने करिश्मों से) मेरा मन मोह लिया है, (कृपा कर ताकि) मैं गुरू के शबद के माध्यम से तुझे पहचान सकूँ। हे प्रभू! हम जीव तेरे दर पर खड़े (विनती करते हैं), कृपा कर, तेरे नाम में जुड़ के हम संतोष धारण कर सकें।8।1।

बसंतु महला १ ॥ मनु भूलउ भरमसि आइ जाइ ॥ अति लुबध लुभानउ बिखम माइ ॥ नह असथिरु दीसै एक भाइ ॥ जिउ मीन कुंडलीआ कंठि पाइ ॥१॥ मनु भूलउ समझसि साच नाइ ॥ गुर सबदु बीचारे सहज भाइ ॥१॥ रहाउ ॥ मनु भूलउ भरमसि भवर तार ॥ बिल बिरथे चाहै बहु बिकार ॥ मैगल जिउ फाससि कामहार ॥ कड़ि बंधनि बाधिओ सीस मार ॥२॥ मनु मुगधौ दादरु भगतिहीनु ॥ दरि भ्रसट सरापी नाम बीनु ॥ ता कै जाति न पाती नाम लीन ॥ सभि दूख सखाई गुणह बीन ॥३॥ मनु चलै न जाई ठाकि राखु ॥ बिनु हरि रस राते पति न साखु ॥ तू आपे सुरता आपि राखु ॥ धरि धारण देखै जाणै आपि ॥४॥ आपि भुलाए किसु कहउ जाइ ॥ गुरु मेले बिरथा कहउ माइ ॥ अवगण छोडउ गुण कमाइ ॥ गुर सबदी राता सचि समाइ ॥५॥ सतिगुर मिलिऐ मति ऊतम होइ ॥ मनु निरमलु हउमै कढै धोइ ॥ सदा मुकतु बंधि न सकै कोइ ॥ सदा नामु वखाणै अउरु न कोइ ॥६॥ मनु हरि कै भाणै आवै जाइ ॥ सभ महि एको किछु कहणु न जाइ ॥ सभु हुकमो वरतै हुकमि समाइ ॥ दूख सूख सभ तिसु रजाइ ॥७॥ तू अभुलु न भूलौ कदे नाहि ॥ गुर सबदु सुणाए मति अगाहि ॥ तू मोटउ ठाकुरु सबद माहि ॥ मनु नानक मानिआ सचु सलाहि ॥८॥२॥ {पन्ना 1187-1188}

पद्अर्थ: भरमसि = भटकता है। आइ जाइ = आता है जाता है, दौड़ भाग करता है। अति = बहुत। लुबध = लालची। लुभानउ = लालच में फसा हुआ है। बिखम माइ = मुश्किल माया, वह माया जिससे बचना बहुत मुश्किल है। ऐक भाइ = एक परमात्मा के प्यार में। मीन = मछली। कंठि = गले में।1।

साचि नाइ = सदा स्थिर प्रभू के नाम में (जुड़ के)। सहज = आत्मिक अडोलता। भाइ = प्रेम में। सहज भाइ = अडोलता के भाव में।1। रहाउ।

भवर तार = भौरे की तरह। बिल = इन्द्रियां। बिरथे बिकार = व्यर्थ विकार। मैगल = हाथी (मदकल)। कामहार = कामातुर, काम अधीन। कड़ि = कड़ के, बँध के। बंधनि = बँधन से, रस्से से। सीस मार = सिर पे मार।2।

मुगधौ = मूर्ख। दादरु = मेंढक। दरि भ्रसट = दर से गिरा हुआ। बीनु = बगैर, बिना। गुणह बीन = गुणहीन।3।

ठाकि = रोक के। सासु = एतबार। सुरता = ध्यान रखने वाला। राखु = रखवाला। धारि = धारण करके, पैदा करके। धारण = धरती, धरणी।4।

कहउ = मैं कहूँ। बिरथा = (व्यथा) दुख, पीड़ा। माइ = हे माँ! कमाइ = बिहाज के, कमा के। सचि = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में।5।

उतम = श्रेष्ठ। धोइ = धो के। बंधि न सकै = बाँध नहीं सकता।6।

भाणै = रजा में। आवै जाइ = भटकता है। हुकमि = हुकम में।7।

अगाहि = अगाध। सलाहि = सलाह के, सिफत सालाह करके।8।

अर्थ: (माया के मोह के कारण) गलत राह पर पड़ा हुआ मन सदा-स्थिर प्रभू के नाम में (जुड़ के ही) अपनी भूल को समझता है। (जब मन) गुरू के शबद को विचारता है तब यह आत्मिक अडोलता के भाव में (टिकता है)।1। रहाउ।

(माया के मोह के कारण) गलत रास्ते पर पड़ा हुआ मन भटकता है (माया की खातिर ही) दौड़-भाग करता रहता है, बड़ा लालची हुआ रहता है, उस माया के लालच में फसा रहता है, जिसके फंदे में से निकलना बहुत मुश्किल है (जब तक मन माया के अधीन रहता है, तब तक) यह कभी ठहराव की अवस्था में नहीं दिखता, एक प्रभू के प्रेम में (मगन) नहीं दिखता। जैसे मछली (भिक्ती के लालच में) अपने गले में कुंडी डलवा लेती है, (वैसे ही मन माया की गुलामी में अपने आप को फसा लेता है)।1।

(माया के प्रभाव के कारण) गलत रास्ते पर पड़ा हुआ मन भौरे की तरह भटकता है, मन इन्द्रियों के द्वारा बहुत सारे व्यर्थ के विकार करना चाहता है, यह मन कामातुर हाथी की तरह फसता है जो जंजीरों से कड़ों से बाँधा जाता है और सिर पर चोटें सहता है।2।

मूर्ख मन भगती से वंचित रहता है, (यह मूर्ख मन, मानो) मेंढक है (जो नजदीक ही उगे हुए कमल के फूल की कद्र नहीं जानता)। (गलत राह पर पड़ा हुआ मन) प्रभू के दर से गिरा हुआ है, (जैसे) श्रापित है, परमात्मा के नाम से वंचित है। जो मनुष्य नाम से ख़ाली है उसकी ना कोई अच्छी जाति मानी जाती है ना अच्छी कुल, कोई उसका नाम तक नहीं लेता, वह आत्मिक गुणों से वंचित रहता है, सारे दुख ही दुख उसके साथी बने रहते हैं।3।

हे भाई! ये मन चंचल है, इसको रोक के रख ताकि यह (विकारों के पीछे) भटकता ना फिरे। परमात्मा के नाम-रस में रंगे जाने के बिना ना कभी इज्जत मिलती है ना कोई ऐतबार करता है।

सृष्टि रच के परमात्मा स्वयं ही (इसकी आवश्यक्ताएं भी) जानता है (इस वास्ते, हे भाई! प्रभू के दर पर अरदास कर और कह- हे प्रभू!) तू स्वयं ही (हम जीवों की अरदासें) सुनने वाला है, और स्वयं ही हमारा रखवाला है।4।

हे माँ! मैं प्रभू के बिना और किसको जा के कहूँ? प्रभू स्वयं ही (जीवों को) गलत राह पर डालता है, प्रभू स्वयं ही गुरू मिलाता है, सो, मैं गुरू के दर पर ही दिल का दुख कह सकता हूँ। गुरू की सहायता से ही गुण कमा के अवगुण त्याग सकता हूँ। जो मनुष्य गुरू के शबद में मस्त रहता है, वह उस सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा (की याद) में लीन रहता है।5।

यदि गुरू मिल जाए तो (मनुष्य की) मति श्रेष्ठ हो जाती है, मन पवित्र हो जाता है, वह मनुष्य अपने मन में से अहंकार की मैल धो के निकाल देता है, वह विकारों से सदा बचा रहता है, कोई (विकार) उसको काबू नहीं कर सकता, वह सदा परमात्मा का नाम सिमरता है, कोई और (शुगल उसको अपनी तरफ खींच) नहीं सकते।6।

(पर, जीव के भी क्या वश? इस मन की कोई पेश नहीं चलती) यह मन परमात्मा की रज़ा अनुसार (माया के मोह में) भटकता फिरता है, वह प्रभू स्वयं ही सब जीवों में बसता है (उसकी रज़ा के उलट) कोई हील-हुज्जत नहीं की जा सकती। हर जगह प्रभू का हुकम ही चल रहा है, सारी सृष्टि प्रभू के हुकम में ही बँधी रहती है। (जीव को होने वाले) सारे दुख और सुख उस परमात्मा की रजा के अनुसार ही हैं।7।

हे प्रभू! तू अभुल है, गलती नहीं करता, तूझमें कभी भी कोई कमी नहीं आती। (तेरी रजा के अनुसार) गुरू जिसको अपना शबद सुनाता है उस मनुष्य की मति भी अगाध (गहरी) हो जाती है (भाव, वह भी गहरी समझ वाला हो जाता है और किसी तरह की कोई कमी-बेशी उस पर प्रभाव नहीं डाल सकती)। हे प्रभू! तू बड़ा (पालनहार) मालिक है और गुरू के शबद में बसता है (भाव, जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ता है उसको तेरे दर्शन हो जाते हैं)।

उस सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू की सिफत-सालाह कर के नानक का मन (उसकी याद में) पतीज गया है।8।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh