श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1188 बसंतु महला १ ॥ दरसन की पिआस जिसु नर होइ ॥ एकतु राचै परहरि दोइ ॥ दूरि दरदु मथि अम्रितु खाइ ॥ गुरमुखि बूझै एक समाइ ॥१॥ तेरे दरसन कउ केती बिललाइ ॥ विरला को चीनसि गुर सबदि मिलाइ ॥१॥ रहाउ ॥ बेद वखाणि कहहि इकु कहीऐ ॥ ओहु बेअंतु अंतु किनि लहीऐ ॥ एको करता जिनि जगु कीआ ॥ बाझु कला धरि गगनु धरीआ ॥२॥ एको गिआनु धिआनु धुनि बाणी ॥ एकु निरालमु अकथ कहाणी ॥ एको सबदु सचा नीसाणु ॥ पूरे गुर ते जाणै जाणु ॥३॥ एको धरमु द्रिड़ै सचु कोई ॥ गुरमति पूरा जुगि जुगि सोई ॥ अनहदि राता एक लिव तार ॥ ओहु गुरमुखि पावै अलख अपार ॥४॥ एको तखतु एको पातिसाहु ॥ सरबी थाई वेपरवाहु ॥ तिस का कीआ त्रिभवण सारु ॥ ओहु अगमु अगोचरु एकंकारु ॥५॥ एका मूरति साचा नाउ ॥ तिथै निबड़ै साचु निआउ ॥ साची करणी पति परवाणु ॥ साची दरगह पावै माणु ॥६॥ एका भगति एको है भाउ ॥ बिनु भै भगती आवउ जाउ ॥ गुर ते समझि रहै मिहमाणु ॥ हरि रसि राता जनु परवाणु ॥७॥ इत उत देखउ सहजे रावउ ॥ तुझ बिनु ठाकुर किसै न भावउ ॥ नानक हउमै सबदि जलाइआ ॥ सतिगुरि साचा दरसु दिखाइआ ॥८॥३॥ {पन्ना 1188} पद्अर्थ: ऐकतु = एक (परमात्मा) में ही। परहरि = त्याग के। दोइ = द्वैत, किसी और आसरे की झाक। मथि = मथ के। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के ऐक समाइ = एक प्रभू के नाम में लीन हो जाता है।1। केती = बेअंत दुनिया। बिललाइ = तरले लेती है, विलकती है। चीनसि = पहचानता है। मिलाइ = मिल के।1। रहाउ। वखाणि = व्याख्या करके। कहीअै = सिमरना चाहिए। किनि = किस ने? जिनि = जिस प्रभू ने। कला = (कोई दिखता) वसीला। धरि = धरती। गगनु = आकाश। धरीआ = टिकाया है।2। धुनि = रौंअ, लगन। बाणी = सिफतसालाह। निरालमु = (निर् आलम्ब) जिसको किसी और आसरे की जरूरत नहीं। अकथ = जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। नीसाणु = परवाना, राहदारी। ते = से। जाणु = सुजान मनुष्य।3। सारु = मूल, तत्व। अगमु = अपहुँच। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। ऐकंकारु = एक स्वयं ही स्वयं।5। मूरति = स्वरूप। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। तिथै = उस प्रभू की हजूरी में। निबड़ै = निबड़ता है, चलता है। साची = सदा एक रस रहने वाली सच्ची। करणी = आचरण। पति = इज्जत। परवाणु = प्रवान, कबूल।6। भाउ = प्रेम। आवउ जाउ = पैदा होना मरना (बना रहता है)। ते = से। समझि = शिक्षा ले के। मिहमाणु = मेहमान। रसि = रस में।7। इत उत = लोक परलोक में। देखउ = मैं देखता हूँ। सहजे = सहज में, आत्मिक अडोलता में। रावउ = मैं सिमरता हूँ। ठाकुर = हे ठाकुर! सबदि = शबद से। सतिगुरि = गुरू ने।8। अर्थ: हे प्रभू! बेअंत दुनिया तेरे दर्शन के लिए तरले लेती है, पर कोई विरला मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ के (तेरे स्वरूप को) पहचानता है।1। रहाउ। जिस मनुष्य को परमात्मा के दर्शन की तमन्ना होती है, वह प्रभू के बिना और आसरे छोड़ के एक परमात्मा के नाम में ही मस्त रहता है। (जैसे दूध मथ के, बार-बार मथानी हिला के, मक्खन निकाला जाता है, वैसे ही) वह मनुष्य बार-बार सिमर के आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस चखता है, और उसका दुख-कलेश दूर हो जाता है। गुरू की शरण पड़ के वह (परमात्मा के सही स्वरूप को) समझ लेता है, और उस एक प्रभू के नाम में लीन रहता है।1। वेद आदि धर्म पुस्तक भी व्याख्या करके यही कहते हैं कि एक उस परमात्मा को सिमरना चाहिए जो बेअंत है और जिस का अंत किसी जीव ने नहीं पाया। वह एक स्वयं ही स्वयं करतार है जिसने जगत रचा है, जिसने किसी दिखाई देते सहारे के बिना ही धरती और आकाश को ठहराया हुआ है।2। समझदार मनुष्य पूरे गुरू से समझ लेता है कि परमात्मा की सिफतसालाह की लगन ही असल ज्ञान है और असल ध्यान (जोड़ना) है। एक परमात्मा ही ऐसा है जिसको किसी सहारे की आवश्यक्ता नहीं, उस अकॅथ प्रभू की सिफतसालाह करनी चाहिए, उसकी सिफत-सालाह का शबद ही (मनुष्य के पास जीव-पथ में) सच्चा परवाना है।3। जो कोई मनुष्य अपने हृदय में यह निश्चय बैठा लेता है कि सदा-स्थिर प्रभू का नाम सिमरना हीएक मात्र ठीक धर्म है, वही गुरू की मति का आसरा ले के सदा के लिए (विकारों के मुकाबले पर) अडोल हो जाता है; वह मनुष्य एक-तार सुरति जोड़ के अविनाशी प्रभू में मस्त रहता है, गुरू की शरण पड़ के वह मनुष्य अदृष्य और बेअंत प्रभू के दर्शन कर लेता है।4। (जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ता है उसे यकीन बन जाता है कि सारे जगत का मालिक परमात्मा ही सदा-स्थिर) एकम्-एक पातशाह है (और उसी का ही सदा-स्थिर रहने वाला) एकम्-एक तख़्त है, वह पातिशाह सब जगहों में व्यापक है (सारे जगत की कार चलाता हुआ भी वह सदा) बेफिक्र रहता है। सारा जगत उसी प्रभू का बनाया हुआ है, वही तीनों भवनों का मूल है, पर वह अपहँुच है, मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों की उस तक पहुँच नहीं हो सकती, (हर जगह) वह स्वयं ही स्वयं है।5। (ये सारा संसार उसी) एक परमात्मा का स्वरूप है, उसका नाम सदा-स्थिर रहने वाला है, उसकी दरगाह में सदा-स्थिर न्याय ही चलता है। जिस मनुष्य ने सदा-स्थिर प्रभू की सलाह को अपना कर्तव्य बनाया है उसको सच्ची दरगाह में आदर मिलता है सम्मान मिलता है, दरगाह में वह कबूल होता है।6। (जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ता है उसको निश्चय हो जाता है कि) परमात्मा की भगती परमात्मा के साथ प्यार ही एक-मात्र जीवन-राह है। जो मनुष्य भगती से वंचित है प्रभू के डर-अदब से खाली है उसको पैदा होने-मरने का चक्कर मिला रहता है। जो मनुष्य गुरू से शिक्षा ले के (जगत में) मेहमान (बन के) जीता है और परमात्मा के नाम-रस में मस्त रहता है वह मनुष्य (प्रभू की हजूरी में) कबूल होता है।7। हे ठाकुर! मैं (गुरू की कृपा से) इधर-उधर (हर जगह) तुझे ही (व्यापक) देखता हूँ और आत्मिक अडोलता में टिक के तुझे सिमरता हूँ, तेरे बिना मैं किसी और के साथ प्रीति नहीं जोड़ता। हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरू के शबद में जुड़ के अपने अहंकार को जला लिया है, गुरू ने उसको प्रभू के सदा के लिए टिके रहने वाले दर्शन करवा दिए हैं।8।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |