श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बसंतु हिंडोलु घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ माता जूठी पिता भी जूठा जूठे ही फल लागे ॥ आवहि जूठे जाहि भी जूठे जूठे मरहि अभागे ॥१॥ कहु पंडित सूचा कवनु ठाउ ॥ जहां बैसि हउ भोजनु खाउ ॥१॥ रहाउ ॥ जिहबा जूठी बोलत जूठा करन नेत्र सभि जूठे ॥ इंद्री की जूठि उतरसि नाही ब्रहम अगनि के लूठे ॥२॥ अगनि भी जूठी पानी जूठा जूठी बैसि पकाइआ ॥ जूठी करछी परोसन लागा जूठे ही बैठि खाइआ ॥३॥ गोबरु जूठा चउका जूठा जूठी दीनी कारा ॥ कहि कबीर तेई नर सूचे साची परी बिचारा ॥४॥१॥७॥ {पन्ना 1195}

पद्अर्थ: जूठी = अपवित्र। फॅल लागे = लगे हुए फल, बाल बच्चे। आवहि = पैदा होते हैं। जाहि = मर जाते हैं। अभागे = बद नसीब। जूठे = अपवित्र ही।1।

पंडित = हे पंडित! कवनु ठाउ = कौन सी जगह? बैसि = बैठ के। हउ = मैं।1। रहाउ।

जिहबा = जीभ। बोलत = वचन जो बोले जाते हैं। करन = कान। सभि = सारे। जूठि = अपवित्रता। लूठे = हे जले हुए! अगनि के लूठे = हे आग के जले हुए! ब्रहम अगनि = ब्राहमण होने के अहंकार की आग।2।

बैसि = बैठ के। परोसन लागा = (भोजन) बाँटने लगा।3।

गोबर = पशू मल (जिससे चौके को पोचा लगाया जाता है)। कारा = चौके की बाहरी लकीरें। कहि = कहे, कहता है। तेई = वही।4।

अर्थ: हे पंडित! बता, वह कौन सी जगह है जो पवित्र है, जहाँ बैठ के मैं रोटी खा सकूँ (ता कि पूरी तरह से पवित्रता बनी रह सके) ?।1। रहाउ।

माँ अपवित्र, पिता अपवित्र, इनके द्वारा पैदा किए हुए बाल-बच्चे भी अपवित्र; (जगत में जो भी) पैदा होते हैं वह अपवित्र, जो मरते हैं वे भी अपवित्र; अभागे जीव अपवित्र ही मर जाते हैं।1।

(मनुष्य की) जीभ मैली, बोल भी बुरे, कान आँखें सारे अपवित्र, (इसने ज्यादा) काम-चेष्टा (ऐसी है जिस) की मैल उतरती ही नहीं। हे ब्राहमण-पन के अहंकार की अग्नि में जले हुए! (बता, पवित्र कौन सी चीज़ हुई?)।2।

आग झूठी, पानी झूठा, पकाने वाली झूठी, कड़छी झूठी जिससे (सब्ज़ी आदि) बाँटता है, वह प्राणी भी झूठा जो बैठ के खाता है।3।

गोबर झूठा, चौका झूठा, झूठी ही उस चौके के चारों तरफ़ डाली हुई (हदबंदी की) लकीरें। कबीर कहता है- सिर्फ वही मनुष्य पवित्र हैं जिन्हें परमात्मा की समझ आ गई है।4।1।7।

शबद का भाव: त्रैगुणी माया के असर तले प्रभू को बिसार के जीव अपवित्र बने रहते हैं, हर जगह माया का प्रभाव है। लकीरें खींच के चौका बनाने से जगह पवित्र नहीं हो जाती। सिर्फ वही व्यक्ति पवित्र हैं जिनको परमात्मा की सूझ पड़ जाती है।

रामानंद जी घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ कत जाईऐ रे घर लागो रंगु ॥ मेरा चितु न चलै मनु भइओ पंगु ॥१॥ रहाउ ॥ एक दिवस मन भई उमंग ॥ घसि चंदन चोआ बहु सुगंध ॥ पूजन चाली ब्रहम ठाइ ॥ सो ब्रहमु बताइओ गुर मन ही माहि ॥१॥ जहा जाईऐ तह जल पखान ॥ तू पूरि रहिओ है सभ समान ॥ बेद पुरान सभ देखे जोइ ॥ ऊहां तउ जाईऐ जउ ईहां न होइ ॥२॥ सतिगुर मै बलिहारी तोर ॥ जिनि सकल बिकल भ्रम काटे मोर ॥ रामानंद सुआमी रमत ब्रहम ॥ गुर का सबदु काटै कोटि करम ॥३॥१॥ {पन्ना 1195}

पद्अर्थ: कत = और कहाँ? रे = हे भाई! रंगु = मौज। घर = हृदय रूप घर में ही। न चलै = भटकता नहीं है। पंगु = पिंगला, जो हिल जुल नलहीं सकता, स्थिर।1। रहाउ।

दिवस = दिन। उमंग = चाह, तमन्ना, ख्वाहिश। घसि = घिसा के। चोआ = इत्र। बहु = कई। सुगंध = सुगंधियाँ। ब्रहम ठाइ = ठाकुर द्वारे, मन्दिर में।1।

जोइ = ढूँढ के, खोज के। तह = वहाँ। जल पखान = (तीर्थों पर) पानी, (मन्दिरों में) पत्थर। समान = एक सा। ऊहाँ = वहाँ (तीर्थों और मन्दिरों में)। तउ = तो ही। जउ = अगर। ईहाँ = यहीं (हृदय में)।2।

बलिहारी तोर = तुझसे सदके। जिनि = जिस ने। बिकल = कठिन। भ्रम = वहम, भुलेखे। मोर = मेरे। रामानंद सुआमी = रामानंद का प्रभू। रमत = सब जगह मौजूद है। कोटि = करोड़ों। करम = (किए हुए बुरे) काम।3।1।

अर्थ: हे भाई! और कहाँ जाऐं? (अब) हृदय-घर में ही मौज बन गई है; मेरा मन अब डोलता नहीं, स्थिर हो गया है।1। रहाउ।

एक दिन मेरे मन में भी यह चाहत पैदा हुई थी, मैंने चंदन घिसा के इत्र व अन्य कई सुगंधियाँ ले लीं, और मैं मन्दिर में पूजा करने चल पड़ी। पर अब तो मुझे वह परमात्मा (जिसको मैं मन्दिर में रहता समझती थी) मेरे गुरू ने मेरे मन में ही बसता दिखा दिया है।1।

(तीर्थों पर जाऐं चाहे मन्दिरों में जाऐं) जहाँ भी जाऐं वहाँ पानी है अथवा पत्थर हैं। हे प्रभू! तू तो हर जगह एक समान भरपूर (व्यापक) है, वेद-पुराण आदि धर्म-पुस्तकें भी खोज के देख ली हैं। सो तीर्थों पर मन्दिरों में तब ही जाने की जरूरत है अगर परमात्मा मेरे मन में ना बसता हो।2।

हे सतिगुरू! मैं तुझसे सदके जाता हूँ, जिसने मेरे सारे मुश्किल भुलेखे दूर कर दिए हैं। रामानंद का मालिक प्रभू हर जगह मौजूद है (और, गुरू के माध्यम से मिलता है, क्योंकि) गुरू का शबद करोड़ों (किए हुए बुरे) कर्मों का नाश कर देता है।3।1।

नोट: भगत रामानंद जी जाति के ब्राहमण थे। पर, धर्म-नायक ब्राहमणों के द्वारा डाले हुए भुलेखों का इस शबद में खण्डन करते हैं कि तीर्थों के स्नान और मूर्ति-पूजा से मन की अवस्था ऊँची नहीं हो सकती। अगर पूरे गुरू की शरण पड़ें, तो सारे भुलेखे दूर हो जाते हैं, और, परमात्मा हर जगह व्यापक और अपने अंदर बसता दिखता है। सतिगुरू का शबद ही जन्मों-जन्मांतरों के किए हुए दुष्कर्मों का नाश करने में समर्थ है।

ज़रूरी नोट: इस शबद का भाव पूरी तरह से गुरमति से मिलता है। पर, फिर भी भगत-बाणी के विरोधी सज्जन अपनी किताब में भगत परमानन्द जी के बारे में इस प्रकार लिखते हैं;

"भगत रामानंद जी मूर्ति-पूजक और वेदांत मत के पक्के श्रद्धालू थे। इन्होंने काशी में आ के छूआ-छात के आशय की वैरागी मत की नई शाखा चलाई। गुसाई जी ने कर्म-काण्ड में बहुत समय तक बिरती रखी, जनेऊ-तिलक आदि चिन्हों के तो आखिर तक पाबंद रहे।"

इससे आगे भगत जी का यह शबद लिख के फिर यूँ कहते हैं;

"उक्त शबद में वेदांत मत की झलक है, पर आप बैरागी थे। मन्दिर की पूजा का वर्णन उल्टा है, इससे हैरानी होती है कि यह शबद आप के मत के विरुद्ध क्यों है आप की क्रिया कर्म-काण्ड थी।"

और

"गुसाई जी हमेशा पीले वस्त्र पहनते थे, ये विष्णू जी का रंग माना गया है।"

शबद के शब्द 'रामानंद सुआमी' को इस सज्जन जी ने समझने की कोशिश नहीं की, या फिर खण्डन करने के उतावलेपन में जान-बूझ के समझना नहीं चाहते थे, सो इन शब्दों के बारे में लिखते हैं;

"भगत जी ने अपने आप को 'स्वामी' करके लिखा है, पता नहीं किस ख्याल से? हो सकता है कि यह शबद उनके किसी चेले की रचना हो। क्या सारी आयू में रामानंद जी ने एक शबद उचारण किया?"

आईए, अब इन ऐतराज़ों पर ध्यान से विचार करें। ये ऐतराज़ दो हिस्सों में बाँटे जा सकते हैं, एक वह जो भगत जी के इस शबद के विरोध में किए गए हैं, और दूसरे वो जो उनके जीवन-चर्या के विरुद्ध हैं।

शबद के विरोध में निम्नलिखित ऐतराज़ है- 1. उक्त शबद में वेदांत की झलक है। 2. मन्दिर की पूजा का जिकर उल्टा है, इससे हैरानी होती है कि ये शबद आप के मत के विरुद्ध क्यों है। 3. भगत जी ने अपने आप को 'स्वामी' कर के लिखा है, पता नहीं किस ख्याल से? हो सकता है कि यह शबद उनके किसी चेले की रचना हो। 4. क्या सारी जीवन-काल में रामानंद जी ने सिर्फ एक ही शबद उचारा?

इन ऐतराजों पर विचार:

अगर इस शबद में वेदांत की झलक है तो वह नीचे दी गई तुकों में ही हो सकती होगी;

अ. सो ब्रहमु बताइओ गुर मन ही माहि॥
आ. तू पूरि रहिओ है सभ समान॥
इ. रामानंद सुआमी रमत ब्रहम॥

पाठक-गण स्वयं ही इमानदारी से देख लें कि इन तुकों में कौन सा ख्याल गुरमति के उलट है।

रामानंद जी तो अपना मत इस शबद में ये बता रहे हैं कि तीर्थों पर स्नान और मूर्ति-पूजा से मन के भ्रम काटे नहीं जा सकते। पर जिन लोगों ने भगत जी के अपने शब्दों पर ऐतबार नहीं करना, उनके साथ किसी तरह की विचार-चर्चा का कोई लाभ नहीं निकल सकता।

तुक 'रामानंद सुआमी रमत ब्रहम' पर ऐतराज़ करने वाले सज्जन से समझा है कि भगत रामानंद जी ने अपने आप को 'सुआमी' कहा है। फिर खुद ही अंदाजा लगाते हैं कि ये शबद उनके किसी चेले की रचना होगी। यदि उक्त सज्जन जान-बूझ के भोले नहीं बन रहे, तो इस तुक का अर्थ यूँ है - रामानंद का स्वामी ब्रहम हर जगह रमा हुआ है। इसी तरह गुरू अरजन साहिब ने भी सारंग राग में शबद नंबर 136 में अकाल पुरख के दर्शनों की तमन्ना करते हुए यूँ कहा है;

नानक सुआमी गरि मिले, हउ गुर मनाउगी॥ नानक सुआमी- नानक का स्वामी;
इसी तरह 'रामानंद सुआमी' का अर्थ हुआ 'रामानंद का स्वामी'।

गुरबाणी का व्याकरण थोड़ा सा भी समझने वाला सज्जन समझ लेगा कि यहाँ शब्द 'नानक' संबंधकारक एकवचन है।

इसी तरह धनासरी राग के छंत में गुरू नानक देव जी कहते हैं;

नानक साहिबु अगम अगोचरु, जीवा सची नाई॥

और

नानक साहिबु अवरु न दूजा, नामि तेरे वडिआई॥
यहाँ दोनों तुकों में 'नानक साहिबु' का अर्थ है 'नानक का साहिब'।

सिख धर्म का अंजान विरोधी ही यह कहेगा कि गुरू नानक देव जी ने यहाँ अपने आप को 'साहिबु' कहा है।

यह ऐतराज़ कोई वजनदार नहीं लगता। अगर रामानंद जी ने सारी उम्र सिर्फ यही शबद उचारा होता, तो भी इस शबद की सच्चाई किसी भी हालत में कम नहीं हो जाती। हो सकता है कि उन्होंने सारी उम्र सिर्फ उतने ही प्रचार पर जोर दिया हो जिसका शबद में वर्णन है। ये तीन बंद छोटे से लगते हैं, पर ध्यान से देखें तो पता चलता है कि इनमें कितनी सारी सच्चाई छुपी हुई है- (अ) . मन्दिर में जा के किसी पत्थर की मूर्ति को चोआ-चंदन लगा के पूजने की आवश्क्ता नहीं। (आ) . तीर्थों पर नहाने से मन के भ्रम नहीं काटे जाने। (इ) . गुरू की शरण आओ। गुरू ही बताता है कि (ई) . परमात्मा हृदय-मन्दिर में बस रहा है। (उ) . और परमात्मा हर जगह बस रहा है। (ऊ) . गुरू का शबद ही करोंड़ों कर्मों के संस्कार नाश करने के समर्थ है।

अगर बाणी उच्चारण करना ही किसी महापुरुष की आत्मिक उच्चता का मापदण्ड बनाऐंगे, बहुत बड़ी गलती कर रहे होगे। गुरू हरिगोबिंद साहिब, गुरू हरि राय साहिब, और गुरू हरि क्रिशन साहिब ने कोई भी शबद नहीं उचारा था। गुरू अंगद साहिब संन 1539 से सन् 1552 तक 13 साल के करीब गुरुता की जिम्मेवारी निभाते रहे, 150 महीनों से ज्यादा बने। पर उनके शलोक 150 भी नहीं हैं। शलोक भी आम तौर पर दो-दो तुक वाले ही हैं। अगर ऐसे ही हिसाब लगाना है तो गुरू अंगद साहिब जी ने एक-एक महीने में दो-दो तुकें भी नहीं उचारी। पर कम बाणी के उचारने से उनमें और गुरू नानक पातशाह में कोई दूरी कोई अंतर नहीं माना जा सकता।

ऐतराज़ करने वाले सज्जन को शबद में तो कोई ऐतराज़ वाली बात नहीं मिल सकी, ज्यादा जोर वे इसी बात पर देते गए हैं कि रामानंद जी वैरागी थे, तिलक-जनेऊ धारण करते थे, छूआ-छात को मानने वाले थे, पीले कपड़े पहनते थे इत्यादिक।

पर, सिख-इतिहास के अनुसार बाबा लहिणा जी देवी के भगत थे, हर साल पैरों में घुँघरूँे बाँध के देवी के दर्शनों को जाते थे; देवी के भगत के लिए छूआ-छूत को मानना अति-आवश्यक है, गले में देवी का मौली का अॅटा भी पहनते थे, घर आ के नौ-रात्रों में देवी की कँचके बैठाते थे, जनेऊ तो था ही आवश्यक। (गुरू) अमर दास जी 19 साल हर वर्ष तीर्थों पर जाते रहे, ब्राहमणों द्वारा बताए और सारे कर्म-काण्ड भी करते रहे थे।

क्या सिख-धर्म के विरोधी हमें ये कहानियाँ सुना-सुना के कहे जाएंगे, और क्या हमने भी ये मान लेना है कि इन गुरू साहिबान की बाणी इनके जीवन यर्थाथ के उलट थी?

भगत रामानंद जी कभी वैरागी मत के होंगे, तिलक-जनेऊ पहनते होंगे, छूआ-छूत के हामी होंगे, और भी बहुत सी बातें कही जा सकती हैं। पर हमने तो ये देखना है कि गुरू के दर पर आ के भगत रामानंद जी क्या बन गए। वे स्वयं कहते हैं- (अ) . "सो ब्रहमु बताइओ गुर मन ही माहि, (आ) . जिनि सकल बिकल भ्रम काटे मोर, (इ) . गुर का सबदु काटै कोटि करम॥ "

सो, जैसे बाबा लहिणा जी और (गुरू) अमर दास जी का जीवन गुरू-दर पर आ के गुरमति के अनुकूल हो गया, वैसे ही रामानंद जी का जीवन गुरू के पास आ के गुरमति के अनुसार बन गया।

बसंतु बाणी नामदेउ जी की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ साहिबु संकटवै सेवकु भजै ॥ चिरंकाल न जीवै दोऊ कुल लजै ॥१॥ तेरी भगति न छोडउ भावै लोगु हसै ॥ चरन कमल मेरे हीअरे बसैं ॥१॥ रहाउ ॥ जैसे अपने धनहि प्रानी मरनु मांडै ॥ तैसे संत जनां राम नामु न छाडैं ॥२॥ गंगा गइआ गोदावरी संसार के कामा ॥ नाराइणु सुप्रसंन होइ त सेवकु नामा ॥३॥१॥ {पन्ना 1195}

पद्अर्थ: संकटवै = संकट दे। भजै = भाग जाए, छोड़ जाए। चिरंकाल = बहुत समय। लजै = लाज लगाता है, बदनाम कराता है।1।

हसै = मजाक करे। हीअरे = हृदय में।1। रहाउ।

धनहि = धन की खातिर। प्रानी = जीव, व्यक्ति। मांडै = ठान लेता है। मरनु मांडै = मरना ठान लेता है, मरने पर तुल जाता है।2।

संसार के = दुनिया को खुश करने वाले। नामा = हे नाम देव! त = तब ही।3।

अर्थ: हे प्रभू! कमल फूल जैसे कामल तेरे चरण मेरे हृदय में बसते हैं, (और मुझे बहुत अच्छे लगते हैं, अब) जगत चाहे मजाक उड़ाता रहे, मैं तेरी भक्ति नहीं छोड़ूँगा।1। रहाउ।

अगर मालिक अपने नौकर को कष्ट दे, और नौकर (उस कष्ट से डरता) भाग जाए, (जिंद को कष्टों से बचाने के लिए भागता) नौकर सदा तो जीवित नहीं रहता, पर (मालिक को पीठ दे के) अपनी दोनों कुलें बदनाम कर लेता है। (हे प्रभू! लोगों के इस ठॅठे-मजाक से डर के मैंने तेरे दर से भाग नहीं जाना)।1।

जैसे अपना धन बचाने की खातिर मनुष्य मरने पर भी तुल जाता है, वैसे ही प्रभू के भगत भी प्रभू का नाम (धन) नहीं छोड़ते (उनके पास भी प्रभू का नाम ही धन है)।2।

गंगा, गया, गोदावरी (आदि तीर्थों पर जाना- ये) दुनिया को ही खुश करने वाले काम हैं; पर, हे नामदेव! भगत वही है जिस पर प्रभू स्वयं प्रसन्न हो जाए (और अपने नाम की दाति दे)।3।1।

भाव: प्रीत का स्वरूप- चाहे कष्ट आएं, चाहे लोग हँसी उड़ाएं, भगत-जन प्रभू की भक्ति नहीं त्यागते।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh