श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जोइ खसमु है जाइआ ॥ पूति बापु खेलाइआ ॥ बिनु स्रवणा खीरु पिलाइआ ॥१॥ देखहु लोगा कलि को भाउ ॥ सुति मुकलाई अपनी माउ ॥१॥ रहाउ ॥ पगा बिनु हुरीआ मारता ॥ बदनै बिनु खिर खिर हासता ॥ निद्रा बिनु नरु पै सोवै ॥ बिनु बासन खीरु बिलोवै ॥२॥ बिनु असथन गऊ लवेरी ॥ पैडे बिनु बाट घनेरी ॥ बिनु सतिगुर बाट न पाई ॥ कहु कबीर समझाई ॥३॥३॥ {पन्ना 1194}

पद्अर्थ: जोइ = स्त्री (ने)। जाइआ = पैदा किया, जन्म दिया। पूति = पूत्र (मन) ने। खेलाइआ = खेलने लगाया है। स्रवण = (सं: स्रवण = flowing, trickling, oozing, दूध का बहना, सिंमना) थन। खीरु = दूध।1।

को = का। भाउ = प्रभाव। सुति = पुत्र ने। मुकलाई = ब्याह ली है। माउ = माँ। कलि = प्रभू से विछोड़ा।1। रहाउ।

नोट: इस सारे शबद में कबीर जी माया का हाल बता रहे हैं, माया-ग्रसित जीव की दशा बयान कर रहे हैं; और 'कलि को भाउ' शब्द का प्रयोग कर रहे हैं। यही शब्द गुरू नानक देव जी ने बरते हैं आसा राग के एक शबद में, जहाँ आप माया-ग्रसित जगत की हालत बताते हैं; आप फरमाते हैं;

ताल मदीरे घट के घाट॥ दोलक दुनीआ वाजै वाज॥
नारदु नाचै कलि का भाउ॥ जती सती कहि राखहि पाउ॥1॥

इन शब्दों की सांझ इस नतीजे पर पहुँचाती है कि गुरू नानक देव जी के पास भगत कबीर जी की बाणी मौजूद थी। मूर्ति-पूजा और भरमों-वहमों के अंधेरे में फंसे हुए भारत में जब गुरू नानक देव जी किसी रॅबी-प्यारे की तलाश करने चले, तो ये बात कुदरती थी कि जहाँ-कहीं आपको हम-ख्याल के बारे में पता चला, उसको मिलने अथवा उसकी बाणी हासिल करने गए।

पग = पैर। हुरीआ = छलांगे। बदन = मुँह। खिर खिर = खिल खिल। हासता = हसता है। निद्रा = मोह की नींद। पै = बेपरवाह हो के। बासन = बर्तन। बिलोवै = मथता है।2।

असथन = स्तन, थन। बिनु असथन = बिना स्थनों के, थनों के बगैर (भाव, इस माया से सुख नहीं मिलता)। पैडे बिनु = (इसका असल तो ऐसा है कि इसको) कोई पैंडा नहीं, बगैर रास्ते के। बाट घनेरी = लंबी बाट, जीवन का सही रास्ता।3।

अर्थ: हे लोगो! देखो, कलियुग का अजीब प्रभाव पड़ रहा है (भाव, प्रभू से विछुड़ने के कारण जीव पर अजीब दबाव पड़ रहा है)। (मन-रूप) पुत्र ने अपनी माँ (-माया) को ब्याह लिया है।1। रहाउ।

स्त्री ने पति को जन्म दिया है (भाव, जिस मन को माया ने जन्म दिया है, वही इसको भोगने वाला बन जाता है)। मन-पुत्र ने पिता-जीवात्मा को खेलने लगा दिया है। (यह मन) थनों के बिना ही (जीवात्मा को) दूध पिला रहा है (भाव, नाशवंत पदार्थों के स्वाद में डाल रहा है)।1।

(इस मन के) कोई पैर नहीं हैं, पर छलांगे लगाता फिरता है; (इसका) मुँह नहीं, पर खिड़-खिड़ के हसता फिरता है। (जीव का असल तो ऐसा है कि इसको माया की) नींद नहीं व्याप सकती थी, पर ('कलि को भाउ' देखो) जीव लंबी तान के सोया हुआ है; और बर्तन के बग़ैर ही दूध दुहे जा रहा है (भाव, शेखचिल्ली की तरह सपने संजोता रहता है)।2।

(इस माया-रूप) गाय से सुख तो नहीं मिल सकते, पर यह (मन को) झूठे पदार्थों-रूप दूध में मोह रही है। (अपनी असल बिरती के मुताबिक तो इस जीव को कोई भटकना नहीं होनी चाहिए, पर 'कलि का भाउ' देखो) लंबे रास्ते (चौरासी के चक्करों में) पड़ा हुआ है। हे कबीर! (इस जगत को) समझा के बता कि सतिगुरू के बिना जीवन-सफर का सही रास्ता नहीं मिल सकता।3।3।

नोट: 'बिनु सतिगुर घाट न पाई' - इस तुक से स्पष्ट होता है कि सारे शबद में 'कलि को भाउ' के कारण जीव के गलत राह पर पड़ने का हाल बताया गया है। किसी असंभव व संभव बात का यहाँ वर्णन नहीं, जैसे कि टीकाकार लिख रहे हैं। 'बाट' से विछुड़ने का जिकर है, और असल 'बाट' गुरू से ही मिलती है।

शबद का भाव: गुरू की रहिबरी के बिना मन माया की नींद में सोया रहता है। यही है कलियुग का प्रभाव।

प्रहलाद पठाए पड़न साल ॥ संगि सखा बहु लीए बाल ॥ मो कउ कहा पड़्हावसि आल जाल ॥ मेरी पटीआ लिखि देहु स्री गुोपाल ॥१॥ नही छोडउ रे बाबा राम नाम ॥ मेरो अउर पड़्हन सिउ नही कामु ॥१॥ रहाउ ॥ संडै मरकै कहिओ जाइ ॥ प्रहलाद बुलाए बेगि धाइ ॥ तू राम कहन की छोडु बानि ॥ तुझु तुरतु छडाऊ मेरो कहिओ मानि ॥२॥ मो कउ कहा सतावहु बार बार ॥ प्रभि जल थल गिरि कीए पहार ॥ इकु रामु न छोडउ गुरहि गारि ॥ मो कउ घालि जारि भावै मारि डारि ॥३॥ काढि खड़गु कोपिओ रिसाइ ॥ तुझ राखनहारो मोहि बताइ ॥ प्रभ थ्मभ ते निकसे कै बिसथार ॥ हरनाखसु छेदिओ नख बिदार ॥४॥ ओइ परम पुरख देवाधि देव ॥ भगति हेति नरसिंघ भेव ॥ कहि कबीर को लखै न पार ॥ प्रहलाद उधारे अनिक बार ॥५॥४॥ {पन्ना 1194}

पद्अर्थ: पठाऐ = भेजा। पढ़नसाल = पाठशाला। संगि = (अपने) साथ। सखा = मित्र, साथी। बाल = बालक। कहा पढ़ावसि = तू क्यों पढ़ाता है? आल जाल = घर के धंधे (आल = घर। जाल = धंधे)। पटीआ = छोटी सी तख़्ती।1।

गुोपाल: अक्षर 'ग' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'गोपाल', यहां 'गुपाल' पढ़ना है।

रे बाबा = हे बाबा! छोडउ = मैं छोड़ता हूँ, मैं छोड़ूँगा। मेरो नही कामु = मेरा कोई काम नहीं, मुझे कोई जरूरत नहीं।1। रहाउ।

बेगि = जल्दी। बुलाऐ = बुलाया। बानि = आदत। मानि = मान ले। बार बार = बारंबार। प्रभि = प्रभू ने। गिरि = पहाड़। गुरहि = गुरू को। गारि = गाली। घालि जारि = जला दे। भावै = चाहे। मारि डारि = मार दे।3।

खड़गु = तलवार। रिसाइ = खिझ के। कोपिओ = क्रोध में आया। मोहि = मुझे। बताइ = बता। ते = से। निकसे = निकल आए। कै = कर के। कै बिसथारु = विस्तार कर के, भयानक रूप धार के। छेदिओ = चीर दिया, मार दिया। नख = नाखूनों से। बिदार = फाड़ के।4।

देवाधिदेव = देव अधिदेव, देवताओं से बड़ा देवता। हेति = खातिर। भगति हेति = भगती के हित में, भगती से प्यार करके। भेव = रूप। कहि = कहे, कहता है। को = कोई जीव। पार = अंत। उधारे = बचाए। अनिक बार = अनेकों बार, अनेकों कष्टों से।5।

अर्थ: प्रहलाद को (उसें पिता हर्णाकष्यप ने) पाठशाला में पढ़ने भेजा, (प्रहलाद ने अपने) साथ कई बालक साथ ले लिए। (जब अध्यापक कुछ और आल-जंजाल पढ़ाने लगा, तो प्रहलाद ने कहा, हे बाबा!) मुझे ऊल-जलूल क्यों पढ़ाता है? मेरी इस पटिआ पर 'श्री गोपाल श्री गोपाल' लिख दो।1।

हे बाबा! मैं परमात्मा का नाम सिमरना नहीं छोड़ूँगा। नाम के बिना कोई और बात पढ़ने से मेरा कोई वास्ता नहीं है।1। रहाउ।

(प्रहलाद के अध्यापक) संडे मरके (अमरक) ने जाकर (हर्णाकश्यप को यह बात) कह दी। उसने जल्दी से प्रहलाद को बुला लिया। (अध्यापक ने प्रहलाद को समझाया) तू परमात्मा के नाम के सिमरन की आदत को छोड़ दे, मैं तुझे तुरंत छुड़वा लूँगा।2।

(प्रहलाद ने उक्तर दिया, ये बात कह कर) मुझे क्यों बार-बार परेशान करते हो? जिस प्रभू ने पानी, धरती, पहाड़ आदि सारी सृष्टि बनाई, मैं उस राम को सिमरना नहीं छोड़ूँगा। (उसको छोड़ने से) मेरे गुरू को गाली लगती है (भाव, मेरे गुरू की बदनामी होती है)। मुझे चाहे जला भी दे, चाहे मार दे।3।

(हर्णाकश्यप) खिझ के क्रोध में आया, तलवार (म्यान से) निकाल के (कहने लगा-) मुझे वह बता जो तुझे बचाने वाला है। प्रभू भयानक रूप धार के खम्भे में से निकल आया, और उसने अपने नाखूनों से चीर के हर्णाकश्यप को मार दिया।4।

कबीर कहता है- प्रभू जी परम-पुरख हैं, देवताओं के भी बड़े देवता हैं, प्रहलाद की भक्ति से प्रसन्न होकर प्रभू ने नरसिंघ का रूप धारा, प्रहलाद को अनेकों कष्टों से बचाया। कोई जीव उस प्रभू की ताकत का अंत नहीं पा सकता।5।4।

शबद का भाव: निर्भय प्रभू का सिमरन करने से मनुष्य के अंदर निर्भयता आ जाती है।

इसु तन मन मधे मदन चोर ॥ जिनि गिआन रतनु हिरि लीन मोर ॥ मै अनाथु प्रभ कहउ काहि ॥ को को न बिगूतो मै को आहि ॥१॥ माधउ दारुन दुखु सहिओ न जाइ ॥ मेरो चपल बुधि सिउ कहा बसाइ ॥१॥ रहाउ ॥ सनक सनंदन सिव सुकादि ॥ नाभि कमल जाने ब्रहमादि ॥ कबि जन जोगी जटाधारि ॥ सभ आपन अउसर चले सारि ॥२॥ तू अथाहु मोहि थाह नाहि ॥ प्रभ दीना नाथ दुखु कहउ काहि ॥ मोरो जनम मरन दुखु आथि धीर ॥ सुख सागर गुन रउ कबीर ॥३॥५॥ {पन्ना 1194}

पद्अर्थ: मधे = में। मदन = कामदेव। जिनि = जिस (कामदेव) ने। हिरि लीन = चुरा लिया है। मोर = मेरा। अनाथु = आजज़। कहउ काहि = मैं किसको कहूँ? को = कौन? मै को आहि = मैं कौन हूँ, मेरी क्या बिसात है?।1।

दारुन = भयानक, डरावना। मेरो कहा बसाइ = मेरा क्या वश चल सकता है? मेरी कोई पेश नहीं पड़ती। चपल = चंचल। सिउ = साथ।1। रहाउ।

सुकादि = शुकदेव आदि। नाभि कमल जाने = कमल की नाभि से पैदा होए हुए। ब्रमादि = ब्रहमा आदि। कबि = कवि। अउसर = अवसर। अउसर सारि = समय संभाल के, समय बिता के ('काम से डरते-डरते) दिन कटी करके।2।

मोहि = मुझे। थाह = (तेरे गुणों का) अंत। कहउ काहि = किसको बताऊँ? आथि = माया। जनम मरन दुखु = जनम से ले कर मरने तक का दुख, सारी उम्र का दुख। धीर = कम कर, हटा। सुख सागर = हे सुखों के सागर! रउ = रवूँ, सिमरूँ।3।

अर्थ: हे मेरे माधो! अपनी चंचल मति के आगे मेरी कोई पेश नहीं चलती। यह अति-भयंकर दुख (अब) मुझसे सहा नहीं जाता।1। रहाउ।

(मेरी 'चंचल बुधि' के कारण, अब) मेरे इस तन-मन में कामदेव चोर आ बसा है, जिसने ज्ञान-रूप मेरा रत्न (मेरे अंदर से) चुरा लिया है (भाव, जिसने मेरी समझ बिगाड़ दी है)। हे प्रभू! मैं (बड़ा) आजिज़ हो गया हूँ, (अपना दुख तेरे बिना और) किसको बताऊँ? (इस काम के हाथ से) कौन-कौन दुखी नहीं हुआ? मुझ (गरीब) की क्या बिसात है?।1।

सनक, सनंदन, शिव, शुकदेव जैसे (बड़े-बड़े ऋषि-तपस्वी) कमल की नाभि से जन्मे ब्रहमा आदि, कवि लोग, जोगी और जटाधारी साधू- ये सब (काम से डरते-डरते) अपने-अपने समय में दिन-काट कर चले गए।2।

हे कबीर! (काम आदि से बचने के लिए एक ही प्रभू का आसरा है, उसके आगे इस तरह अरजोई कर-) हे सुखों के सागर प्रभू! हे दीनानाथ प्रभू! तू बड़े गहरे जिगरे वाला है, मैं (तेरे गंभीर समुंदर जैसे महा विशाल दिल की) थाह नहीं लगा सकता। मैं और किस के आगे अरज़ोई करूँ? माया से पैदा हुआ यह मेरा सारी उम्र का दुख दूर कर, ता कि मैं तेरे गुण याद कर सकूँ।3।5।

शबद का भाव: माया के शूरवीर कामादिकों से बचने का एक-मात्र रास्ता है। वह यह कि प्रभू के दर पर गिर कर उससे उसके सिमरन की दाति माँगें।

नाइकु एकु बनजारे पाच ॥ बरध पचीसक संगु काच ॥ नउ बहीआं दस गोनि आहि ॥ कसनि बहतरि लागी ताहि ॥१॥ मोहि ऐसे बनज सिउ नहीन काजु ॥ जिह घटै मूलु नित बढै बिआजु ॥ रहाउ ॥ सात सूत मिलि बनजु कीन ॥ करम भावनी संग लीन ॥ तीनि जगाती करत रारि ॥ चलो बनजारा हाथ झारि ॥२॥ पूंजी हिरानी बनजु टूट ॥ दह दिस टांडो गइओ फूटि ॥ कहि कबीर मन सरसी काज ॥ सहज समानो त भरम भाज ॥३॥६॥ {पन्ना 1194-1195}

पद्अर्थ: नाइकु = शाह (जीव)। बनजारे = वणज करने वाले व्यापारी। पाच = पाँच ज्ञान इन्द्रियां। बरध = बैल। पचीसक = पच्चिस (प्रकृतियां)। संगु = साथ। काच = कच्चा। नउ = नौ दरवाजे, नौ श्रोत। बहीआं = लंबे डंडे जिनकी सहायता से छटें लादी जाती हैं। दस = ज्ञान इन्द्रियां और कर्म इन्द्रियाँ। गोनि = छूटें। आहि = हैं। कसन = कसने वाली, खींचने वाली, रस्सियाँ जिनसे छटें सिली जाती हैं। बहतरि = बहक्तर नाड़ियाँ। ताहि = उन छटों में।1।

जिह = जिस व्यापर से। रहाउ।

सात सूत = सूत सात (आशा-तृष्णा आदि) कई किस्मों के सूत्र का। मिलि = (पांच बनजारों ने) मिल के। करम भावनी = कीए हुए कर्मों के संस्कार। तीनि = तीन गुण। जगाती = मसूलिए, वसूल करने वाले। रारि = तकरार, झगड़े। चलो = चल पड़ा। हाथ झारि = हाथ झाड़ के, खाली हाथ।2।

हिरानी = गायब हो गई, गवा ली। टांडो = काफला (शरीर)। मन = हे मन! सरसी = सँवरेगा। सहज समानो = अगर सहज में लीन होएगा।3।

अर्थ: मुझे ऐसा व्यापार करने की आवश्यक्ता नहीं, जिस वणज के करने से मूल घटता जाए और ब्याज बढ़ता जाए (भाव, ज्यों-ज्यों उम्र गुजरे त्यों-त्यों विकारों का भार बढ़ता जाए)। रहाउ।

जीव (मानो) एक शाह है, पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ (इस शाह के) बनजारे हैं। पच्चिस प्रकृतियाँ (काफ़िले के) बैल हैं। पर ये सारा साथ कच्चा ही है। नौ दरवाजे (मानो) बहियाँ हैं, दस इन्द्रियाँ छटें हैं, बहक्तर नाड़ियाँ (छटों को सीने के लिए) रस्सियाँ हैं जो इन (इन्द्रिय-रूपी छटों) को लगी हुई हैं।1।

(ये ज्ञान-इन्द्रियाँ) मिल के कई किस्मों के सूत्र (भाव, विकारों) का वणज कर रहे हैं, किए हुए कर्मों के संस्कारों को इन्होंने (अपनी सहायता के लिए) साथ ले लिया है (भाव, ये पिछले संस्कार और भी विकारों की तरफ़ प्रेरते जा रहे हैं)। तीन गुण (-रूपी) मसूलिए (और) झगड़ा बढ़ाते हैं, (नतीजा ये निकलता है कि) वणजारा (जीव) खाली हाथ चला जाता है।2।

जब (श्वासों की) राशि छिन जाती है, तब वणज समाप्त हो जाता है, और काफ़िला (शरीर) दसों दिशाओं में बिखर जाता है। कबीर कहता है - हे मन! यदि तू सहज अवस्था में लीन हो जाए और तेरी भटकना समाप्त हो जाए तो तेरा काम सँवर जाएगा।3।6।

शबद का भाव: मनुष्य को विकारों का वणज हमेशा घाटेवाला रहता है। ज्यों-ज्यों उम्र कम होती जाती है, त्यों-त्यों विकारों का भार बढ़ता जाता है, आखिर में जीव यहाँ से खाली हाथ चला जाता है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh