श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1193 ईठ मीत कोऊ सखा नाहि ॥ आपि बीजि आपे ही खांहि ॥ जा कै कीन्है होत बिकार ॥ से छोडि चलिआ खिन महि गवार ॥५॥ माइआ मोहि बहु भरमिआ ॥ किरत रेख करि करमिआ ॥ करणैहारु अलिपतु आपि ॥ नही लेपु प्रभ पुंन पापि ॥६॥ राखि लेहु गोबिंद दइआल ॥ तेरी सरणि पूरन क्रिपाल ॥ तुझ बिनु दूजा नही ठाउ ॥ करि किरपा प्रभ देहु नाउ ॥७॥ तू करता तू करणहारु ॥ तू ऊचा तू बहु अपारु ॥ करि किरपा लड़ि लेहु लाइ ॥ नानक दास प्रभ की सरणाइ ॥८॥२॥ {पन्ना 1193} पद्अर्थ: ईठ = ईष्ट, प्यारे। सखा = साथी। बीजि = बीज के, (अच्छे बुरे) कर्म करके। आपे = स्वयं ही। खांहि = (जीव उन किए कर्मों का) फल भोगते हैं। जा कै कीनै = जिन पदार्थों के इकट्ठा करने से। होत = (पैदा) होते हैं। से = वह पदार्थ (बहुवचन)। गवार = मूर्ख मनुष्य।5। मोहि = मोह में (फस के)। भरमिआ = भटकता है। किरत = किए हुए कर्म। किरत रेख = (पिछले) किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार। करि = करे, करता है। करमिआ = (और वैसे ही) कर्म। करणैहारु = सब कुछ कर सकने वाला। अलिपतु = निर्लिप, जिस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता। लेपु = असर, प्रभाव। पुंन = (मिथे हुए) पुन्यों के कारण। पापि = पाप के कारण।6। गोबिंद = हे गोबिंद! क्रिपाल = हे कृपालु! ठाउ = जगह। करि = करके।7। करणहारु = सब कुछ कर सकने की समर्था वाला। अपारु = बेअंत, जिसकी हस्ती का परला छोर नहीं मिल सकता (अ+पारु)। करि = कर के। लड़ि = पल्ले से। नानक = हे नानक!।8। अर्थ: हे भाई! प्यारे मित्रों में से कोई भी (आखिर तक साथ निभाने वाला) साथी नहीं बन सकता। (सारे जीव अच्छे-बुरे) कर्म स्वयं करके स्वयं ही (उन किए कर्मां का) फल भोगते हैं (कोई मित्र मदद नहीं कर सकता)। हे भाई! जिन पदार्थां को इकट्ठा करने से (मनुष्य के मन में अनेकों तरह के) विकार पैदा होते हैं (जब अंत समय आता है, तब) मूर्ख एक पल में ही उन (पदार्थां) को छोड़ के (यहाँ से) चल पड़ता है।5। हे भाई! (परमात्मा का सिमरन भुला के मनुष्य) माया के मोह के कारण बहुत भटकता फिरता है, (पिछले) किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार (मनुष्य वैसे ही) कर्म करता जाता है। हे भाई! सब कुछ कर सकने के समर्थ परमात्मा स्वयं निर्लिप है (उसके ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता)। प्रभू पर ना तो (जीवों द्वारा मिथे हुए) पुन्य कर्मों (के किए जाने से पैदा होने वाले अहंकार आदि) का असर होता है, ना किसी पाप के कारण (भाव, उस प्रभू को ना अहंकार ना विकार अपने असर तले ला सकता है)।6। हे दया के श्रोत गोबिंद! हे सर्व-व्यापक! हे कृपालु! मैं तेरी शरण आया हॅूँ, मेरी रक्षा कर। तेरे बिना मेरी और कोई जगह नहीं। हे प्रभू! मेहर करके मुझे अपना नाम बख्श।7। हे नानक! प्रभू के दास प्रभू की शरण में पड़े रहते हैं (और, उसके दर पर प्रार्थना करते हैं- हे प्रभू!) तू (सब जीवों को) पैदा करने वाला है, तू सब कुछ कर सकने की समर्था रखता है, तू सबसे ऊँचा है, तू बड़ा बेअंत है, मेहर कर (हमें) अपने पल्ले से लगाए रख।8।2। बसंत की वार महलु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि का नामु धिआइ कै होहु हरिआ भाई ॥ करमि लिखंतै पाईऐ इह रुति सुहाई ॥ वणु त्रिणु त्रिभवणु मउलिआ अम्रित फलु पाई ॥ मिलि साधू सुखु ऊपजै लथी सभ छाई ॥ नानकु सिमरै एकु नामु फिरि बहुड़ि न धाई ॥१॥ {पन्ना 1193} पद्अर्थ: महलु = शरीर (यहाँ शब्द 'महला' की जगह शब्द 'महलु' का प्रयोग किया गया है)। महलु ५ = शरीर पाँचवाँ, गुरू नानक का पाँचवाँ शरीर अर्थात गुरू अरजन। हरिआ = आत्मिक जीवन वाला। करमि = बख्शिश के लेख से। इह रुति = नाम जपने की ये मानस जनम की ऋतु। सुहाई = सुंदर। मउलिआ = खिली हुई। छाई = कालिख़, मैल। धाई = भटकना। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सिमर के आत्मिक जीवन वाला बन जा (जैसे पानी मिलने से वृक्ष हरा-भरा हो जाता है)। (नाम जपने से मनुष्य-जन्म का) ये खूबसूरत समय (पूर्बले किए कर्मों के अनुसार प्रभू द्वारा) लिखे बख्शिश के लेखों के अंकुरित होने से ही मिलता है। (जैसे वर्षा से) जंगल बनस्पति सारा जगत खिल उठता है, (वैसे ही उस मनुष्य का रोम-रोम खिल उठता है जो) अमृत-नाम रूपी फल हासिल कर लेता है। गुरू को मिल के (उसके हृदय में) सुख पैदा होता है, उसके मन की मैल उतर जाती है। नानक (भी) प्रभू का ही नाम सिमरता है (और जो मनुष्य सिमरता है उसको) बार-बार जनम-मरण के चक्करों में भटकना नहीं पड़ता।1। पंजे बधे महाबली करि सचा ढोआ ॥ आपणे चरण जपाइअनु विचि दयु खड़ोआ ॥ रोग सोग सभि मिटि गए नित नवा निरोआ ॥ दिनु रैणि नामु धिआइदा फिरि पाइ न मोआ ॥ जिस ते उपजिआ नानका सोई फिरि होआ ॥२॥ पद्अर्थ: पंजे = पाँचों कामादिक विकार। बली = बलवान। ढोआ = भेटा। जपाइअनु = उसने जपाए। विचि = उसके हृदय में। दयु = दयालु प्रभू। सभि = सारे। निरोआ = रोग रहित, आरोग्य। रैणि = रात। मोआ = मौत, जनम-मरण का चक्कर। अर्थ: जिस मनुष्य ने (प्रभू का सिमरन रूपी) सच्ची भेटा (प्रभू की हजूरी में) पेश की है, प्रभू ने उसके कामादिक पाँचों ही बड़े बली विकार बाँध दिए हैं, (जिसके कारण) उसके सारे ही रोग मिट जाते हैं, वह सदा पवित्र-आत्मा और अरोग रहता है। वह मनुष्य दिन-रात परमात्मा का नाम सिमरता है, उसको जनम-मरण का चक्कर नहीं लगाना पड़ता। हे नानक! जिस परमात्मा से वह पैदा हुआ था (सिमरन की बरकति से) उसी का रूप हो जाता है।2। किथहु उपजै कह रहै कह माहि समावै ॥ जीअ जंत सभि खसम के कउणु कीमति पावै ॥ कहनि धिआइनि सुणनि नित से भगत सुहावै ॥ अगमु अगोचरु साहिबो दूसरु लवै न लावै ॥ सचु पूरै गुरि उपदेसिआ नानकु सुणावै ॥३॥१॥ {पन्ना 1193} पद्अर्थ: कह माहि = किस में? समावै = लीन हो जाता है। कहनि = कहते हैं। सुहावै = सुंदर लगते हैं। लवै न लावै = बराबरी नहीं कर सकता। गुरि = गुरू ने। उपदेसिआ = नजदीक दिखा दिया है। सचु = सदा स्थिर प्रभू। अगोचरु = अ+गो+चरु। गो = इन्द्रियां। अर्थ: सारे जीव पति-प्रभू के पैदा किए हुए हैं, कोई भी (अपने पैदा करने वाले के गुणों का) मूल्य नहीं डाल सकता, (कोई नहीं बता सकता कि) प्रभू कहाँ से पैदा होता है कहाँ रहता है और कहाँ लीन हो जाता है। जो जो उस प्रभू के गुण उचारते हैं याद करते हैं वे भगत सुंदर (जीवन वाले) हो जाते हैं। परमात्मा अपहुँच है, इन्द्रियों की पहुँच से परे है सबका मालिक है, कोई उसकी बराबरी नहीं कर सकता। नानक उस सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह सुनाता है, पूरे गुरू ने वह प्रभू नज़दीक दिखा दिया है (अंदर बसता दिखा दिया है)।3।1। बसंतु बाणी भगतां की ॥ कबीर जी घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मउली धरती मउलिआ अकासु ॥ घटि घटि मउलिआ आतम प्रगासु ॥१॥ राजा रामु मउलिआ अनत भाइ ॥ जह देखउ तह रहिआ समाइ ॥१॥ रहाउ ॥ दुतीआ मउले चारि बेद ॥ सिम्रिति मउली सिउ कतेब ॥२॥ संकरु मउलिओ जोग धिआन ॥ कबीर को सुआमी सभ समान ॥३॥१॥ {पन्ना 1193} पद्अर्थ: मउली = खिली हुई, टहक रही, सुंदर लग रही है। घटि घटि = हरेक घट में। मउलिआ = खिला हुआ है, चमक रहा है, भाव मार रहा है। प्रगासु = प्रकाश, ज्योति। आतम प्रगासु = आत्मा का प्रकाश, परमात्मा की ज्योति की रौशनी।1। राजा = प्रकाश स्वरूप। अनत = अनंत। अनत भाइ = अनंत भाव में, बेअंत तरीकों से। जह = जिधर। देखउ = मैं देखता हूँ। तह = उधर। समाइ रहिआ = भरपूर है।1। रहाउ। दुतीआ = दूसरी बात (यह है); और (सुनो)। सिउ कतेब = मुसलमानी धर्म पुस्तकों सहित।2। संकरु = शिव। सभ = हर जगह। समान = एक जैसा।3। अर्थ: (सारे जगत का मालिक) जोति-स्वरूप परमात्मा (अपने बनाए जगत में) अनेकों तरह से अपना प्रकाश कर रहा है। मैं जिधर देखता हूँ, उधर ही वह भरपूर (दिखता) है।1। रहाउ। हरेक घट में उस परमात्मा का ही प्रकाश है। धरती और आकाश (उसी की जोति के प्रकाश से) खिले हुए हैं।1। (सिर्फ धरती और आकाश ही नहीं) चारों वेद, स्मृतियाँ और कतेब (इस्लामी धर्म पुस्तकें) - यह सारे भी परमात्मा की ही ज्योति से प्रकट हुए हैं।2। जेग-समाधि लगाने वाला शिव भी (प्रभू की जोति की बरकति से) खिला। (सिरे की बात यह कि) कबीर का मालिक (-प्रभू) सब जगह एक जैसा ही खिल रहा है।3। शबद का भाव: परमात्मा सर्व-व्यापक है, उसी ही की जोति का प्रकाश हर जगह हो रहा है। पंडित जन माते पड़्हि पुरान ॥ जोगी माते जोग धिआन ॥ संनिआसी माते अहमेव ॥ तपसी माते तप कै भेव ॥१॥ सभ मद माते कोऊ न जाग ॥ संग ही चोर घरु मुसन लाग ॥१॥ रहाउ ॥ जागै सुकदेउ अरु अकूरु ॥ हणवंतु जागै धरि लंकूरु ॥ संकरु जागै चरन सेव ॥ कलि जागे नामा जैदेव ॥२॥ जागत सोवत बहु प्रकार ॥ गुरमुखि जागै सोई सारु ॥ इसु देही के अधिक काम ॥ कहि कबीर भजि राम नाम ॥३॥२॥ {पन्ना 1193-1194} पद्अर्थ: जन = लोक। (नोट: शब्द 'जन' जब किसी श्रेणी के साथ प्रयोग होता है तो उसका अर्थ होता है 'उस श्रेणी के आम लोग')। माते = मतवाले हुए, मस्ते हुए, अहंकारी। पढ़ि = पढ़ के। अहंमेव = अहंकार। भेव = भेद, मर्म।1। संग ही = साथ ही, अंदर ही। मुसन लाग = ठगने लग जाते हैं।1। रहाउ। सुकदेउ = (सं: शुक) बयास के एक पुत्र का नाम है। ये पैदा होते हुए ही भगत था, इसने बहुत कठिन तप किए। राजा परीक्षित को इसी ऋषि ने भागवत पुराण सुनाया था। अकूर = अक्रूर = कंस का भाई, कृष्ण जी का मामा और भगत। लंकूरु = (सं: लांगुल) पूछल। धरि = धार के।2। बहु प्रकार = कई किस्मों का। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। सारु = श्रेष्ठ। सोई = वह जागना। देही = देह धारी, जीव। अधिक = बहुत।3। अर्थ: सब जीव (किसी ना किसी विकार में) मतवाले होए हुए हैं, कोई नहीं जागता (दिखाई देता)। और, इन जीवों के अंदर से ही (उठ के कामादिक) चोर इनका (हृदय-रूप) घर लूट रहे हैं।1। रहाउ। पण्डित लोग पुराण (आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़ के अहंकार में हैं; जोगी जोग-साधना के गुमान में मतवाले फिरते हैं, सन्यासी (सन्यास के) अ हंकार में डूबे हुए हैं; तपस्वी इसलिए मस्ताए हुए हैं कि उन्होंने तप का भेद पा लिया है।1। (जगत में कोई विरले-विरले जागे, विरले-विरले मायश के प्रभाव से बचे); जागता रहा शुकदेव ऋषि और अक्रूर भगत; जागता रहा हनुमान पूछल धार के भी (भाव, लोग उसको पूँछ वाला ही कहते हैं)। प्रभू-चरणों की सेवा करके जागा शिव जी। (अब के समय) कलियुग में जागते रहे भगत नामदेव और जैदेव जी।2। जागना और सोए रहना (भी) कई किस्मों का है (चोर भी तो रात को जागते ही हैं)। वह जागना श्रेष्ठ है जो गुरमुखों का जागना है (भाव, जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रहके माया के हमलों की तरफ से सचेत रहता है, वही जाग रहा है)। कबीर कहता है- हे भाई! प्रभू का नाम सिमर (के सचेत रह, यह सिमरन) जीव के बहुत काम आता है।3।2। नोट: कबीर जी बनारस के रहने वाले थे। भगत नामदेव जी बंबई के जिला सतारा के, और जैदेव जी बँगाल के रहने वाले। कबीर जी इन दोनों भगतों का जिक्र करते हैं। उस जमाने में इन दोनों भक्तों की शोभा सारे जमाने में पसरी हुई थी, जब कोई अखबारों का रिवाज नहीं था, कोई रेल गाड़ियाँ भी नहीं थीं। शबद का भाव: अगर मनुष्य प्रभू का नाम बिसार दे, तो कामादिक अनेकों विकार उसके आचरण को, आत्मिक जीवन को गिरा देते हैं। कोई पण्डित हो जोगी हो, सन्यासी हो तपस्वी हो, किसी का लिहाज़ नहीं करते। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |