श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु सारग चउपदे महला १ घरु १

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

अपुने ठाकुर की हउ चेरी ॥ चरन गहे जगजीवन प्रभ के हउमै मारि निबेरी ॥१॥ रहाउ ॥ पूरन परम जोति परमेसर प्रीतम प्रान हमारे ॥ मोहन मोहि लीआ मनु मेरा समझसि सबदु बीचारे ॥१॥ मनमुख हीन होछी मति झूठी मनि तनि पीर सरीरे ॥ जब की राम रंगीलै राती राम जपत मन धीरे ॥२॥ हउमै छोडि भई बैरागनि तब साची सुरति समानी ॥ अकुल निरंजन सिउ मनु मानिआ बिसरी लाज लुोकानी ॥३॥ भूर भविख नाही तुम जैसे मेरे प्रीतम प्रान अधारा ॥ हरि कै नामि रती सोहागनि नानक राम भतारा ॥४॥१॥ {पन्ना 1197}

पद्अर्थ: ठाकुर की = मालिक प्रभू की। हउ = मैं। चेरी = दासी। गहे = पकड़े। मारि = मार के। निबेरी = खत्म कर दी है।1। रहाउ।

पूरन = सबमें व्यापक। जोति = रोशनी का श्रोत। बीचारे = विचार के।1।

मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। हीन = कमजोर, निर्बल। होछी = थोड़ विक्ती। मनि = मन में। तनि = तन में। सरीरे = शरीर में। राती = रंगी हुई। धीरे = धीरज धरता है।2।

बैरागनि = वैराग वाली, माया से उपराम। समानी = लीन रहती है। अकुल = जिसकी कोई खास कुल नहीं। निरंजन = (निर+अंजन। अंजन = कालिख, सुरमा, माया के मोह की कालिख) माया के प्रभाव से परे। लोकु = दुनिया, जगत। लुोकानी = जगत की, दुनिया की (अक्षर 'ल' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'लोकानी', यहां 'लुकानी' पढ़ना है)।3।

भूर = भूत, बीता हुआ समय। भविख = भविष्य, आने वाला समय। अधारा = आसरा। नामि = नाम में। सोहागनि = अच्छे भाग्यों वाली। भतार = पति।4।

अर्थ: जब से मैं अपने मालिक-प्रभू की दासी बन गई हूँ, तब से मैंने जगत के जीवन-प्रभू के चरण पकड़े हैं, उसने मेरे अहंकार को मार के समाप्त कर डाला है।1। रहाउ।

जब का मोहन-प्रभू ने मेरा मन (अपने प्यार में) मोह लिया है तब से मेरा मन गुरू का शबद विचार-विचार के ये समझ रहा है, कि परमेश्वर सबमें व्यापक है सबसे ऊँचा आत्मिक जीवन की रौशनी देने वाला है, मेरा प्यारा है और मेरे प्राणों का (सहारा) है।1।

जब तक मैं अपने मन के पीछे चलता रहा, मैं कमजोर रहा (विकार मेरे ऊपर हावी रहे), मेरी अक्ल होछी ही रही, झूठ में ही लगी रही (इस कारण) मेरे मन में, मेरे शरीर में दुख-कलेश उठते रहे। पर, जब से मैं रंगीले राम (के प्यार में) रंगी गई हूँ, मेरा मन उस राम को सिमर-सिमर के धैर्य-वान होता जा रहा है।2।

जब से (ठाकुर-प्रभू की दासी बन के) मैं अहंकार को त्याग के माया-मोह की तरफ से उपराम हो चुकी हूँ, तब से मेरी सुरति सदा कायम रहने वाले सदा कायम रहने वाले प्रभू की याद में लीन रहती है; मेरा मन उस प्रभू की याद में भीगा रहता है जो माया के प्रभाव से रहित है और जिसका कोई खास कुल नहीं है। (मुझे अहंकार नहीं रहा, इसलिए) मैं लोक-लाज (भी) भुला बैठा हूँ।3।

हे मेरे प्रीतम! हे मेरे प्राणों के आसरे प्रभू! अब मुझे तेरे जैसा कोई नहीं दिखता, ना पिछले बीते हुए समयों में, ना अब, और ना ही आने वाले वक्त में।

हे नानक! (कह-) जिस जीव-स्त्री ने परमात्मा को अपना पति मान लिया है, जो प्रभू के नाम में रंगी रहती है, वह सौभाग्यशाली बन जाती है।4।1।

सारग महला १ ॥ हरि बिनु किउ रहीऐ दुखु बिआपै ॥ जिहवा सादु न फीकी रस बिनु बिनु प्रभ कालु संतापै ॥१॥ रहाउ ॥ जब लगु दरसु न परसै प्रीतम तब लगु भूख पिआसी ॥ दरसनु देखत ही मनु मानिआ जल रसि कमल बिगासी ॥१॥ ऊनवि घनहरु गरजै बरसै कोकिल मोर बैरागै ॥ तरवर बिरख बिहंग भुइअंगम घरि पिरु धन सोहागै ॥२॥ कुचिल कुरूपि कुनारि कुलखनी पिर का सहजु न जानिआ ॥ हरि रस रंगि रसन नही त्रिपती दुरमति दूख समानिआ ॥३॥ आइ न जावै ना दुखु पावै ना दुख दरदु सरीरे ॥ नानक प्रभ ते सहज सुहेली प्रभ देखत ही मनु धीरे ॥४॥२॥ {पन्ना 1197}

पद्अर्थ: किउ कहीअै = कहा नहीं जा सकता, मन को धीरज नहीं आता, जीवन सुखी नहीं हो सकता। बिआपै = जोर डाल लेता है, दबा लेता है। जिहवा = जीभ। सादु = स्वाद, मिठास। फीकी = फीके बोल बोलने वाली। संतापै = दुखी करता है। कालु = मौत (का डर)।1। रहाउ।

दरसु प्रीतम = प्रीतम का दर्शन। न परसै = नहीं परसता, नहीं छूता। मानिआ = रीझ जाता है। रसि = रस में, आनंद में। बिगासी = खिलता है।1।

ऊनवि = झुक के। घनहरु = बादल। बैरागै = वैराग में, हिल्लोरों में। तरवर = वृक्ष। बिरख = (वृषभ) बैल। बिहंग = पंछी। भुइअंगम = साँप। घरि = घर में, हृदय में। पिरु = पति। धन = स्त्री। सोहागै = सोहाग का आनंद लेती है, अपने आपको भागशाली समझती है।2।

कुचिल = गंदी रहित बहित वाली। कुरूपि = कोझे रूप वाली। कुनारि = बुरी स्त्री। कुलखनी = बुरे लक्ष्णों वाली। सहजु = (मिलाप का) आनंद। रसन = जीभ। त्रिपती = अघाई हुई, चस्कों से पलटी हुई।3।

प्रभ ते = प्रभू से, प्रभू (के मिलाप) से। सहज सुहेली = सहज का सुख पाने वाली, अडोलता का आनंद पाने वाली। धीरे = धैर्य पकड़ता है।4।

अर्थ: परमात्मा का सिमरन किए बिना मनुष्य सुखी जीवन नहीं जी सकता, दुख (सदा इसके मन पर) दबाव डाले रखते हैं। (सिमरन के बिना मनुष्य की) जीभ में (बोलने की) मिठास नहीं पैदा होती, मिठास के बिना होने के कारण सदा कड़वे व कठोर बोल बोलती है। प्रभू के सिमरन के बिना मौत का डर (भी) दुखी करता रहता है।1। रहाउ।

जब तक मनुष्य प्रीतम-प्रभू का दीदार नहीं करता, तब तक माया की भूख और प्यास अपना जोर डाले रखती है। दीदार करते ही मन प्रभू की याद में रीझ जाता है (और ऐसे खिलता है, जैसे) कमल का फूल जल के आनंद में खिलता है।1।

जब बादल झुक-झुक के गरजता है और बरसता है तब कोयल, मोर, वृक्ष, बैल, पंछी, साँप (आदिक) उल्लास में आते हैं, (इसी तरह जिस जीव-स्त्री के) हृदय-घर में पति-प्रभू आ बसता है वह जीव-स्त्री अपने आप को भाग्यशाली समझती है।2।

(पर, जिस जीव-स्त्री ने) पति-प्रभू के मिलाप का आनंद नहीं पाया, वह गंदी रहत-बहत वाली कुचील, कुरूप, बुरे से बुरे लक्षणों वाली कुलक्ष्णी ही रहती है। जिसकी जीभ प्रभू के आनंद के रंग में (रच के) चस्कों से नहीं मुड़ी, वह जीव-स्त्री दुर्मति के कारण दुखों में ही ग्रसी रहती है।3।

हे नानक! प्रभू के मिलाप से अडोलता का आनंद पाने वाली जीव-स्त्री का मन प्रभू का दीदार कर के धैर्यवान रहता है, वह जनम-मरण के चक्करों में नहीं पड़ती, उसके ना मन को ना तन को कोई कलेश व्यापता है।4।2।

सारग महला १ ॥ दूरि नाही मेरो प्रभु पिआरा ॥ सतिगुर बचनि मेरो मनु मानिआ हरि पाए प्रान अधारा ॥१॥ रहाउ ॥ इन बिधि हरि मिलीऐ वर कामनि धन सोहागु पिआरी ॥ जाति बरन कुल सहसा चूका गुरमति सबदि बीचारी ॥१॥ जिसु मनु मानै अभिमानु न ता कउ हिंसा लोभु विसारे ॥ सहजि रवै वरु कामणि पिर की गुरमुखि रंगि सवारे ॥२॥ जारउ ऐसी प्रीति कुट्मब सनबंधी माइआ मोह पसारी ॥ जिसु अंतरि प्रीति राम रसु नाही दुबिधा करम बिकारी ॥३॥ अंतरि रतन पदारथ हित कौ दुरै न लाल पिआरी ॥ नानक गुरमुखि नामु अमोलकु जुगि जुगि अंतरि धारी ॥४॥३॥ {पन्ना 1197-1198}

पद्अर्थ: सतिगुर बचनि = गुरू के उपदेश में। मानिआ = पतीज गया है। प्रान अधारा = जिंदगी का आसरा।1। रहाउ।

इन बिधि = इस तरीके से। हरि वर मिलीअै = हरी पति को मिलते हैं। कामनि = हे जीव स्त्री! सोहागु = सौभाग्य। धन = जीव स्त्री। सहसा = भरम। बीचारी = विचारवान।1।

हिंसा = निर्दयता। सहजि = अडोल अवस्था में। रवै = माणती है, भोगती है, पाती है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। रंगि = प्रेम में।2।

जारउ = मैं जला दॅूँ। दुबिधा = मेर तेर। बिकारी = विकारों में।3।

हित = प्यार। कौ = को, की खातिर। हित कौ = प्रेम पैदा करने की खातिर। दुरै न = नहीं छुपती, गुप्त नहीं रहती। लाल पिआरी = प्रभू की प्यारी। जुगि जुगि = हरेक युग में, सदा ही। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर।4।

अर्थ: जब से मेरा मन गुरू के (इस) वचन में यकीन ले आया है (कि) मेरा प्यारा प्रभू (मुझसे) दूर नहीं है, तब से (मुझे यह प्रतीत हो रहा है कि) मैंने अपने प्राणों का सहारा-प्रभू को ढूँढ लिया है।1। रहाउ।

हे जीव-स्त्री! इस तरीके से ही (भाव, उस प्रभू के अंग-संग होने के यकीन करने पर ही) पति-प्रभू मिलता है, (जिसे मिल गया है) उस जीव-स्त्री के सौ-भाग्य जाग उठे हैं, वह पति-प्रभू को प्यारी हो गई है। गुरू की मति ले के गुरू के शबद द्वारा वह जीव-स्त्री विचारवान हो जाती है, जाति-वर्ण-कुल (आदि के) बारे में उसका भ्रम दूर हो जाता है।1।

जिस का मन (ये) मान जाता है (कि प्रभू सदा मेरे अंग-संग है) उसको अहंकार नहीं रहता, वह निर्दयता और लालच को (अपने अंदर से) भुला देती है, पति-प्रभू की प्यारी वह जीव-स्त्री अडोल अवस्था में टिक के पति-प्रभू को मिली रहती है, गुरू की शरण पड़ कर प्रभू के प्यार में वह अपने आप को सवारती है।2।

मैं परिवार और संबन्धियों के ऐसे मोह-प्यार को (अपने अंदर से) जला दूं जो (मेरे अंदर) माया के मोह का पसारा ही पसारता है। जिसके हृदय में प्रभू का प्यार नहीं, प्रभू-मिलाप का आनंद नहीं (उपजता), वह मेर-तेर और (अन्य) विकार भरे कामों में प्रवृक्त रहती है।3।

जिस जीव-स्त्री के हृदय में प्रभू-चरणों का प्यार पैदा करने के लिए प्रभू की सिफत-सालाह के रत्न मौजूद हैं, प्रभू की वह प्यारी जीव-स्त्री (जगत में) छुपी नहीं रहती। हे नानक! हरेक युग में ही (भाव, सदा से ही ऐसी जीव-स्त्री) गुरू की शरण पड़ कर अपने हृदय में प्रभू का अमोलक-नाम धारण करती आई है (भाव, जगत के आरंभ से ही ये मर्यादा चली आ रही है कि प्रभू की सिफत-सालाह करने से प्रभू-चरणों से प्यार बनता है)।4।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh