श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1198 सारंग महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि के संत जना की हम धूरि ॥ मिलि सतसंगति परम पदु पाइआ आतम रामु रहिआ भरपूरि ॥१॥ रहाउ ॥ सतिगुरु संतु मिलै सांति पाईऐ किलविख दुख काटे सभि दूरि ॥ आतम जोति भई परफूलित पुरखु निरंजनु देखिआ हजूरि ॥१॥ वडै भागि सतसंगति पाई हरि हरि नामु रहिआ भरपूरि ॥ अठसठि तीरथ मजनु कीआ सतसंगति पग नाए धूरि ॥२॥ दुरमति बिकार मलीन मति होछी हिरदा कुसुधु लागा मोह कूरु ॥ बिनु करमा किउ संगति पाईऐ हउमै बिआपि रहिआ मनु झूरि ॥३॥ होहु दइआल क्रिपा करि हरि जी मागउ सतसंगति पग धूरि ॥ नानक संतु मिलै हरि पाईऐ जनु हरि भेटिआ रामु हजूरि ॥४॥१॥ {पन्ना 1198} पद्अर्थ: हम = हम, मैं। धूरि = चरणों की धूल। मिलि = मिल के। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। आतमरामु = परमात्मा। भरपूरि = सर्व व्यापक।1। रहाउ। पाईअै = प्राप्त कर ली जाती है। किलविख = पाप। सभि = सारे। आतम जोति = अंतरात्मा, जिंद, प्राण। परफूलित = प्रफुल्लित, खिली हुई। पुरख निरंजनु = निर्लिप प्रभू (निर+अंजनु। अंजनु = माया के मोह की कालिख)। हजूरि = हाजर नाजर।1। वडै भागि = बड़ी किस्मत से। अठ सठि = (8+60) अढ़सठ। मजनु = स्नान। पग धूरि = चरणों की धूल। नाऐ = नहा के, नहाऐ।2। दुरमति = खोटी मति। मलीन मति = (विकारों की मैल से) मैली हो चुकी मति। कुसुधु = (कु+सुधु) गंदी, मैली। कूरु = कूड़, झूठ। बिनु करमा = (प्रभू की) मेहर के बिना। बिआपि रहिआ = फसा रहता है। झूरि = झुरता है।3। दइआल = दयावान। मागउ = मैं माँगता हूँ। पग धूरि = चरणों की धूल। संतु = गुरू। पाईअै = पा लेते हैं। जनु हरि = हरि जनु, हरी का दास, गुरू। हजूरि = अंग संग (बसता)।4। अर्थ: हे भाई! मैं परमात्मा के संत-जनों के चरणों की धूड़ (हुआ रहता हूँ)। संत-जनों की संगति में मिल के सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा प्राप्त हो जाता है, और परमात्मा सब जगह बसता दिखाई देता है।1। रहाउ। हे भाई! जब गुरू-संत मिल जाता है, तब आत्मिक शीतलता प्राप्त हो जाती है, गुरू (मनुष्य के) सारे पाप सारे दुख काट के दूर कर देता है। (गुरू को मिलने से) प्राण खिल उठते हैं, निर्लिप और सर्व-व्यापक प्रभू अंग-संग बसता दिख जाता है।1। हे भाई! जिस मनुष्य ने बड़ी किस्मत से साध-संगति प्राप्त कर ली, उसने सब जगह भरपूर परमात्मा का नाम (दिल में बसा लिया), सत्संगियों के चरणों की धूड़ में नहा के उसने (मानो) अढ़सठ तीर्थों का स्नान कर लिया।2। हे भाई! जिस मनुष्य को माया का झूठा मोह चिपका रहता है, उसका हृदय (विकारों से) गंदा (हुआ रहता है), उसकी मति विकारों से खोटी मैली और होछी हुई रहती है। हे भाई! परमात्मा की मेहर के बिना साध-संगति का मिलाप हासिल नहीं होता, अहंकार में फसा हुआ मनुष्य का मन सदा चिंता-फिक्र में टिका रहता है।3। हे प्रभू जी! (मेरे पर) दयावान हो, मेहर कर। मैं (तेरे दर से) सत्संगियों के चरणों की धूड़ माँगता हूँ। हे नानक! जब गुरू मिल जाता है, तब परमात्मा मिल जाता है। जिसको परमात्मा का दास (गुरू) मिलता है, उसको परमात्मा अंग-संग बसता दिखता है।4।1। सारंग महला ४ ॥ गोबिंद चरनन कउ बलिहारी ॥ भवजलु जगतु न जाई तरणा जपि हरि हरि पारि उतारी ॥१॥ रहाउ ॥ हिरदै प्रतीति बनी प्रभ केरी सेवा सुरति बीचारी ॥ अनदिनु राम नामु जपि हिरदै सरब कला गुणकारी ॥१॥ प्रभु अगम अगोचरु रविआ स्रब ठाई मनि तनि अलख अपारी ॥ गुर किरपाल भए तब पाइआ हिरदै अलखु लखारी ॥२॥ अंतरि हरि नामु सरब धरणीधर साकत कउ दूरि भइआ अहंकारी ॥ त्रिसना जलत न कबहू बूझहि जूऐ बाजी हारी ॥३॥ ऊठत बैठत हरि गुन गावहि गुरि किंचत किरपा धारी ॥ नानक जिन कउ नदरि भई है तिन की पैज सवारी ॥४॥२॥ {पन्ना 1198} पद्अर्थ: कउ = को, से। बलिहारी = सदके। भवजलु = संसार समुंद्र। न जाई तरणा = पार नहीं लांघा जा सकता। जपि = जपा के। पारि उतारी = पार लंघा लेता है।1। रहाउ। हिरदै = हृदय में। प्रतीति = श्रद्धा। केरी = की। सेवा = भगती। बीचारी = परमात्मा के गुणों की विचार करने वाला। अनदिनु = हर रोज। सरब कला = सारी ताकतों का मालिक। गुणकारी = गुण पैदा करने वाला।1। अगम = अपहुँच। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। रविआ = मौजूद। स्रब ठाई = हर जगह। मनि = (हरेक के) मन में। तनि = (हरेक के) तन में। अलख = अदृश्य। अपारी = (अ+पार) जिसका परला किनारा नहीं ढूँढा जा सकता, बेअंत। किरपाल = दयावान।2। सरब अंतरि = हरेक के अंदर। धरणी धर = धरती का आसरा प्रभू। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। जलत = जल रहे। न बूझहि = नहीं समझते। जूअै = जूए में।3। गावहि = गाते हैं। गुरि = गुरू ने। किंचत = थोड़ी जितनी भी। नानक = हे नानक! नदरि = मेहर की निगाह। पैज = इज्जत, लाज।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के चरणों से सदके जाना चाहिए। हे भाई! (परमात्मा का नाम जपने के बिना) जगत (के विकारों) के संसार-समुंद्र से पार नहीं लांघा जा सकता। हे भाई! (परमात्मा का नाम) जपा कर, परमात्मा (विकार-भरे जगत से) पार लंघा देता है।1। रहाउ। हे भाई! सारी ताकतों के मालिक सारे गुणों के मालिक परमात्मा का नाम हर वक्त हृदय में जप के (मनुष्य के) हृदय में परमात्मा के प्रति श्रद्धा बन जाती है, मनुष्य की सुरति सेवा-भक्ति में जुड़ी रहती है, परमात्मा के गुण मन में बसते हैं।1। हे भाई! (जो) परमात्मा (जीवों की) पहुँच से परे है (जीवों की) ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे है, (जो) सब जगह मौजूद है, सबके मन में तन में बसता है, अदृश्य है और बेअंत है वह परमात्मा तब मिल जाता है जब (मनुष्य पर) सतिगुरू जी दयावान होते हैं, तब मनुष्य उस अदृश्य प्रभू को अपने दिल में (ही) देख लेता है।2। हे भाई! धरती के आसरे परमात्मा का नाम सब जीवों के अंदर मौजूद है, पर परमात्मा से टूटे हुए अहंकारी मनुष्यों को कहीं दूर बसता प्रतीत होता है। माया की तृष्णा की आग में जल रहे वह मनुष्य कभी भी (इस भेद को) नहीं समझते, उन्होंने मनुष्य-जीवन की बाज़ी हारी हुई होती है (जैसे जुआरिए ने) जूए में (अपना धन)।3। हे नानक! जिन मनुष्यों पर गुरू ने थोड़ी जितनी भी मेहर कर दी, वे उठते-बैठते हर वक्त परमात्मा के गुण गाते रहते हैं। हे भाई! जिन पर परमात्मा की मेहर की निगाह हुई, परमात्मा ने उनकी (लोक-परलोक में) लाज रख ली।4।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |