श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1199 सारग महला ४ ॥ हरि हरि अम्रित नामु देहु पिआरे ॥ जिन ऊपरि गुरमुखि मनु मानिआ तिन के काज सवारे ॥१॥ रहाउ ॥ जो जन दीन भए गुर आगै तिन के दूख निवारे ॥ अनदिनु भगति करहि गुर आगै गुर कै सबदि सवारे ॥१॥ हिरदै नामु अम्रित रसु रसना रसु गावहि रसु बीचारे ॥ गुर परसादि अम्रित रसु चीन्हिआ ओइ पावहि मोख दुआरे ॥२॥ सतिगुरु पुरखु अचलु अचला मति जिसु द्रिड़ता नामु अधारे ॥ तिसु आगै जीउ देवउ अपुना हउ सतिगुर कै बलिहारे ॥३॥ मनमुख भ्रमि दूजै भाइ लागे अंतरि अगिआन गुबारे ॥ सतिगुरु दाता नदरि न आवै ना उरवारि न पारे ॥४॥ सरबे घटि घटि रविआ सुआमी सरब कला कल धारे ॥ नानकु दासनि दासु कहत है करि किरपा लेहु उबारे ॥५॥३॥ {पन्ना 1199} पद्अर्थ: अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला हरी नाम। गुरमुखि मनु = गुरू का मन। मानिआ = पतीज जाता है। काज = सारे काम। सवारे = (गुरू) सवार देता है।1। रहाउ। दीन = निमाणे। निवारे = दूर कर देता है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। करहि = करते हैं (बहुवचन)। गुर आगै = गुरू की हजूरी में, गुरू के सन्मुख रह के। कै सबदि = के शबद से।1। हिरदै = हृदय में। नामु अंम्रित रसु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। रसना = जीभ से। गावहि = गाते हें। बीचारे = मन में बसा के। गुर परसादि = गुरू की कृपा से। चीनि्आ = पहचान लिया। ओइ = (शब्द 'ओह' का बहुवचन) वे लोग। मोख दुआरे = (माया के मोह से) खलासी का रास्ता।2। अचलु = अडोल चिक्त। अचला मति = (माया के मुकाबले पर) अडोल रहने वाला मति वाला। जिसु द्रिढ़ता = जिसके अंदर अडोलता है। अधारे = आसरा। जीउ = जिंद, प्राण। देवउ = देऊँ, मैं भेटा करता हूँ। हउ = मैं।3। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। भ्रमि = भटकना में पड़ के। दूजै भाइ = (प्रभू के बिना) अनरू प्यार में। अगिआन गुबारे = आत्मिक जीवन की ओकर से बेसमझी का घोर अंधेरा। नदरि न आवै = (उनको) दिखाई नहीं देता, (उन्हें) कद्र नहीं पड़ती। उरवारि = (संसार समुंद्र के) इस तरफ।4। सरबे = सबमें। घटि घटि = हरेक शरीर में। रविआ = मौजूद। सरब कला = सारी ताकतों का मालिक। कल = कला, ताकत। धारे = टिका रहा है। नानकु कहत = नानक कहता है। करि = कर के।5। अर्थ: हे प्यारे गुरू! मुझे परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम बख्श हे भाई! जिन मनुष्यों पर गुरू का मन पतीज जाता है, (गुरू) उनके सारे काम सवार देता है।1। रहाउ। हे भाई! जो मनुष्य निमाणे हो के गुरू के दर पर गिर जाते हैं, (गुरू) उनके सारे दुख दूर कर देता है। वे मनुष्य गुरू के सन्मुख रह के हर वक्त परमात्मा की भक्ति करते रहते हैं, गुरू के शबद की बरकति से (उनके जीवन) सुंदर बन जाते हैं।1। हे भाई! जो मनुष्य अपने हृदय में परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस बसाते हैं, जीभ से उसको सलाहते हैं, मन में उस नाम-रस को विचारते हैं, जिन्होंने गुरू की कृपा से आत्मिक जीवन देने वाले नाम-रस को (अपने अंदर) पहचान लिया, वे मनुष्य (विकारों से) खलासी पाने वाला दरवाजा खोज लेते हैं।2। हे भाई! जो गुरू-पुरख अडोल-चिक्त रहने वाला है, जिसकी मति (विकारों के मुकाबले में) सदा अटल रहती है, जिसके अंदर सदा अडोलता टिकी रहती है जिसको सदा हरी-नाम का सहारा है, उस गुरू के आगे मैं अपने प्राण भेट करता हूँ, उस गुरू से मैं (सदा) सदके जाता हूँ।3। हे भाई! (गुरू वाला पासा छोड़ के) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य माया वाली दौड़-भाग के कारण माया के मोह में (ही) फसे रहते हैं, उनके अंदर आत्मिक जीवन की तरफ से बे-समझी का घोर अंधकार (बना रहता है), उनको नाम की दाति देने वाला गुरू दिखता ही नहीं, वह मनुष्य (विकारों भरे संसार-समुंद्र के) ना इस पार ना उस पार (पहुँच सकते हैं, संसार-समुंद्र के बीच ही गोते खाते रहते हैं)।4। हे भाई! जो परमात्मा सबमें व्यापक है, हरेक शरीर में मौजूद है, सारी ताकतों का मालिक है, अपनी कला से सृष्टि को सहारा दे रहा है, उसके दर पर उसके दासों का दास नानक विनती करता है (और कहता है- हे प्रभू!) मेहर करके मुझे (इस संसार-समुंद्र से) बचाए रख।5।3। सारग महला ४ ॥ गोबिद की ऐसी कार कमाइ ॥ जो किछु करे सु सति करि मानहु गुरमुखि नामि रहहु लिव लाइ ॥१॥ रहाउ ॥ गोबिद प्रीति लगी अति मीठी अवर विसरि सभ जाइ ॥ अनदिनु रहसु भइआ मनु मानिआ जोती जोति मिलाइ ॥१॥ जब गुण गाइ तब ही मनु त्रिपतै सांति वसै मनि आइ ॥ गुर किरपाल भए तब पाइआ हरि चरणी चितु लाइ ॥२॥ मति प्रगास भई हरि धिआइआ गिआनि तति लिव लाइ ॥ अंतरि जोति प्रगटी मनु मानिआ हरि सहजि समाधि लगाइ ॥३॥ हिरदै कपटु नित कपटु कमावहि मुखहु हरि हरि सुणाइ ॥ अंतरि लोभु महा गुबारा तुह कूटै दुख खाइ ॥४॥ जब सुप्रसंन भए प्रभ मेरे गुरमुखि परचा लाइ ॥ नानक नाम निरंजनु पाइआ नामु जपत सुखु पाइ ॥५॥४॥ {पन्ना 1199} पद्अर्थ: कार कमाइ = कार कर। करे = (परमात्मा) करता है। से = वह (काम)। सति = अटल, ठीक। करि = कर के, समझ के। मानहु = मानो। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। नामि = हरी नाम में। रहहु लिव लाइ = सुरति जोड़ के टिके रहो।1। रहाउ। अति = बहुत। अवर = और प्रीत। सभ = सारी। विसरि जाइ = भूल जाती है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। रहसु = आत्मिक आनंद। मानिआ = रीझ जाता है। जोती = प्रभू की जोति में। जोति = जिंद, प्राण।1। गाइ = गाता है। त्रिपतै = माया से तृप्त हो जाता है। मनि = मन में। आइ = आ के।2। प्रगास = रोशनी। गिआनि = आत्मिक जीवन की सूझ से। तति = जगत के मूल प्रभू में, तत्व में। लिव लाइ = सुरति जोड़ के। अंतरि = (उसके) अंदर। सहजि = आत्मिक अडोलता से। हरि समाधि लगाइ = परमात्मा की याद में मन एकाग्र करके।3। हिरदै = हृदय में। मुखहु = मुँह से। सुणाइ = सुना के। महा गुबारा = बहुत घोर अंधेरा। कूटै = कूटता है। खाइ = खाता है, सहता है।4। सुप्रसंन = बहुत खुश। गुरमुखि = गुरू से। परचा = (परिचय) प्यार। निरंजनु = (निर+अंजनु) माया की कालिख से रहित, पवित्र।5। अर्थ: हे भाई! परमात्मा की सेवा-भगती की कार इस प्रकार किया कर कि जो कुछ परमात्मा करता है उसको ठीक माना कर, और गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा के नाम में सुरति जोड़ी रखा कर।1। रहाउ। हे भाई! (जिस मनुष्य को अपने मन में) परमात्मा से प्रीति अति मीठी लगती है, उसको (दुनिया वाली) अन्य सारी प्रीत भूल जाती हैं। (उसके अंदर) हर वक्त आत्मिक आनंद बना रहता है, उसका मन (प्रभू की याद में) रीझ जाता है, उसके प्राण परमात्मा की जोति के साथ एक-मेक हुए रहते हैं।1। हे भाई! जब मनुष्य प्रभू के गुण गाता है, तब ही उसका मन (माया की भूख से) तृप्त हो जाता है, उसके मन में शांति आ बसती है। सतिगुरू जी जब उस पर दयावान होते हैं, तब वह मनुष्य परमात्मा के चरणों में चिक्त जोड़ के परमात्मा के साथ मिलाप हासिल कर लेता है।2। हे भाई! आत्मिक आनंद की सूझ के द्वारा जिस मनुष्य ने जगत के मूल-प्रभू में सुरति जोड़ के उसका सिमरन किया, उसकी मति में आत्मिक जीवन का प्रकाश हो गया, उसके अंदर परमात्मा की ज्योति प्रकट हो गई, आत्मिक अडोलता के द्वारा परमात्मा की याद में मन एकाग्र करके उसका मन (उस याद में) रीझ गया।3। पर, हे भाई! (जिन मनुष्यों के) हृदय में ठॅगी बसती है, वह मनुष्य (सिर्फ) मुँह से हरी-नाम सुना-सुना के (अंदर-अंदर से) ठॅगी का व्यवहार करते रहते हैं। हे भाई! (जिस मनुष्य के) हृदय में (सदा) लोभ बसता है, उसके हृदय में माया के मोह का घोर अंधेरा बना रहता है। वह मनुष्य इस प्रकार है जैसे वह दानो के बग़ैर सिर्फ तोह (छिलके) ही कूटता रहता है और तोह कूटने की मुश्किलें ही सहता रहता है।4। हे नानक! जब मेरे प्रभू जी (किसी मनुष्य पर) बहुत प्रसन्न होते हैं, तब वह मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर प्रभू जी के साथ प्यार डालता है, तब वह माया के मोह से निर्लिप करने वाला हरी-नाम मन में बसाता है, और नाम जपते हुए आत्मिक आनंद पाता है।5।4। सारग महला ४ ॥ मेरा मनु राम नामि मनु मानी ॥ मेरै हीअरै सतिगुरि प्रीति लगाई मनि हरि हरि कथा सुखानी ॥१॥ रहाउ ॥ दीन दइआल होवहु जन ऊपरि जन देवहु अकथ कहानी ॥ संत जना मिलि हरि रसु पाइआ हरि मनि तनि मीठ लगानी ॥१॥ हरि कै रंगि रते बैरागी जिन्ह गुरमति नामु पछानी ॥ पुरखै पुरखु मिलिआ सुखु पाइआ सभ चूकी आवण जानी ॥२॥ नैणी बिरहु देखा प्रभ सुआमी रसना नामु वखानी ॥ स्रवणी कीरतनु सुनउ दिनु राती हिरदै हरि हरि भानी ॥३॥ पंच जना गुरि वसगति आणे तउ उनमनि नामि लगानी ॥ जन नानक हरि किरपा धारी हरि रामै नामि समानी ॥४॥५॥ {पन्ना 1199-1200} पद्अर्थ: नामि = नाम में। मानी = मान गया है, रीझ गया है। हीअरै = हृदय में। सतिगुरि = गुरू ने। मनि = मन में। कथा = सिफत सालाह। सुखानी = अच्छी लगती है।1। रहाउ। दीन = गरीब। दइआल = दयावान। जन = दास, सेवक। अकथ = जो बयान ना की जा सके। मिलि = मिल के। रसु = स्वाद। मनि = मन मे। तनि = तन मे।1। कै रंगि = के प्यार रंग में। रते = रंगे हुए। बैरागी = प्रेमी। पुरखै = पुरख को, जीव को। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभू। चूकी = समाप्त हो गई। आवण जानी = जनम मरन का चक्कर।2। नैणी = आँखों से। बिरहु = प्यार भरी तमन्ना। देखा = देखूँ। प्रभ = हे प्रभू! रसना = जीभ से। वखानी = मैं उचारूँ। स्रवणी = कानों से। सुनउ = मैं सुनता रहूँ। हिरदै = हृदय में। भानी = अच्छा लग रहा है।3। पंच जना = कामादिक पाँचों को। गुरि = गुरू ने। आणे = ले आए। तउ = तब से। उनमनि = उनमन अवस्था में, विरह अवस्था में। नामि = नाम में। रामै नामि = परमात्मा के ही नाम में।4। अर्थ: हे भाई! (जब से) गुरू ने मेरे दिल में परमात्मा का प्यार पैदा कर दिया है, (तब से) परमात्मा की सिफत-सालाह मेरे मन को प्यारी लग रही है, (तब से) मेरा मन परमात्मा के नाम में रीझ गया है।1। रहाउ। हे प्रभू जी! मुझ गरीब सेवक पर दया करो, मुझ दास को कभी ना खत्म होने वाली अपनी सिफत-सालाह की दाति बख्शो। हे भाई! जिस मनुष्य ने संत-जनों को मिल के परमात्मा के नाम का स्वाद चखा, उसके मन में उसके हृदय में परमात्मा की सिफत-सालाह मीठी लगने लग जाती है।1। हे भाई! जिन मनुष्यों ने गुरू की मति पर चल कर परमात्मा के साथ सांझ डाल ली, वे मनुष्य परमात्मा के प्यार रंग में रंगे जाते हैं, वे मनुष्य माया के मोह से उपराम हो जाते हैं। हे भाई! जिस मनुष्य को सर्व-व्यापक प्रभू मिल गया, उसको आत्मिक आनंद प्राप्त हो गया।2। हे भाई! हे स्वामी! मेरे अंदर चाहत है कि आँखों से मैं तेरे दर्शन करता रहूँ, जीभ से तेरा नाम जपता रहूँ, कानों से दिन-रात तेरी सिफत-सालाह सुनता रहूँ, और हृदय में तू मुझे प्यारा लगता रहे।3। हे दास नानक! (कह- हे भाई!) जब गुरू ने कामादिक पाँचों को (किसी अति-भाग्यशाली के) वश में कर दिया, तब विरह अवस्था में पहुँच के उसकी सुरति हरी-नाम में जुड़ जाती है। जिस मनुष्य पर प्रभू ने मेहर की, प्रभू के नाम में ही उसकी लीनता हो गई।4।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |