श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सारग महला ४ ॥ जपि मन राम नामु पड़्हु सारु ॥ राम नाम बिनु थिरु नही कोई होरु निहफल सभु बिसथारु ॥१॥ रहाउ ॥ किआ लीजै किआ तजीऐ बउरे जो दीसै सो छारु ॥ जिसु बिखिआ कउ तुम्ह अपुनी करि जानहु सा छाडि जाहु सिरि भारु ॥१॥ तिलु तिलु पलु पलु अउध फुनि घाटै बूझि न सकै गवारु ॥ सो किछु करै जि साथि न चालै इहु साकत का आचारु ॥२॥ संत जना कै संगि मिलु बउरे तउ पावहि मोख दुआरु ॥ बिनु सतसंग सुखु किनै न पाइआ जाइ पूछहु बेद बीचारु ॥३॥ राणा राउ सभै कोऊ चालै झूठु छोडि जाइ पासारु ॥ नानक संत सदा थिरु निहचलु जिन राम नामु आधारु ॥४॥६॥ {पन्ना 1200}

पद्अर्थ: मन = हे मन! सारु = श्रेष्ठ (काम)। थिरु = टिका हुआ। निहफल = व्यर्थ। बिसथारु = पसारा।1। रहाउ।

किआ लीजै = कुछ भी अपना नहीं बनाया जा सकता। तजीअै = छोड़ा जा सकता। बउरे = हे कमले! छारु = राख, नाशवंत। बिखिआ = माया। सा = वह (माया)। सिरि = सिर पर।1।

अउध = उम्र। घाटै = घटती जा रही है। गवारु = मूर्ख। जि = जो। साकत = परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य। आचारु = कर्तव्य।2।

कै संगि = के साथ। तउ = तब। मोख दुआरु = (माया के मोह से) खलासी का दरवाजा। किनै = किसी ने भी। जाइ = जा के।3।

राणा = राजा। राउ = अमीर। सभै कोऊ = हर कोई। पासारु = पसारा। निहचलु = अडोल चिक्त। आधारु = आसरा।4।

अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा का नाम जपा कर, परमात्मा का नाम पढ़ा कर, (यही) श्रेष्ठ (कर्म) है। हे मन! परमात्मा के नाम के बिना और कोई (यहाँ) सदा कायम रहने वाला नहीं है। और सारा पसारा ऐसा है जिससे (आत्मिक जीवन के लिए) कोई फल नहीं मिलता।1। रहाउ।

हे कमले मन! जो कुछ (जगत में) दिखाई दे रहा है वह (सब) नाशवंत है, इस में ना कुछ अपना बनाया जा सकता है ना छोड़ा जा सकता है। हे कमले! जिस माया को तू अपनी समझी बैठा है, वह तो छोड़ जाएगा, (उसकी खातिर किए हुए पापों का) भार ही अपने सिर पर (ले जाएगा)।1।

हे भाई! रक्ती-रक्ती कर के, पल-पल कर के उम्र घटती जाती है, पर मूर्ख मनुष्य (यह बात) समझ नहीं सकता, (मूर्ख) वही कुछ करता रहता है जो (आखिरी समय में) इसके साथ नहीं जाता। परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य का सदा यही कर्तव्य रहता है।2।

हे कमले! संत-जनों के साथ मिल बैठा कर, तब ही तू (माया के मोह से) खलासी का द्वार ढूँढ सकेगा। बेशक वेद (आदिक और धर्म-पुस्तकों) का भी विचार जा के पूछ के देख लो (सब यही बताएंगे कि) साध-संगति के बिना किसी ने भी आत्मिक आनंद नहीं पाया।3।

हे भाई! कोई राजा हो, बादशाह हो, हर कोई (यहाँ से आखिर) चला जाता है, इस नाशवंत जगत-पसारे को छोड़ जाता है। हे नानक! परमात्मा के नाम को जिन्होंने अपने जीवन का आसरा बनाया है वे संत-जन (इस मोहनी माया के पसारे में) अडोल-चिक्त रहते हैं।4।6।

सारग महला ४ घरु ३ दुपदा    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ काहे पूत झगरत हउ संगि बाप ॥ जिन के जणे बडीरे तुम हउ तिन सिउ झगरत पाप ॥१॥ रहाउ ॥ जिसु धन का तुम गरबु करत हउ सो धनु किसहि न आप ॥ खिन महि छोडि जाइ बिखिआ रसु तउ लागै पछुताप ॥१॥ जो तुमरे प्रभ होते सुआमी हरि तिन के जापहु जाप ॥ उपदेसु करत नानक जन तुम कउ जउ सुनहु तउ जाइ संताप ॥२॥१॥७॥ {पन्ना 1200}

पद्अर्थ: पूत = हे पुत्र! काहे झगरत हउ = क्यों झगड़ा करते हो? संगि बाप = पिता से। जणे = पैदा हुए। बडीरे = बड़े किए हुए, पाले हुए। पाप = बुरा काम।1। रहाउ।

गरबु = अहंकार। किसहि न आप = किसी का भी अपना नहीं। महि = में। जाइ = जाता है। बिखिआ = माया। रसु = स्वाद। तउ = तब। पछुताप = पछतावा।1।

जो प्रभ = जो प्रभू जी। सुआमी = मालिक। जापहु = जाप जपते रहो। नानक = हे नानक! जन = परमात्मा के सेवक। तुम कउ = तुम्हें। जउ = जो। तउ = तो। जाइ = दूर हो जाएगा। संताप = मानसिक दुख कलेश।2।

अर्थ: हे पुत्र! (दुनिया के धन की खातिर) पिता से क्यों झगड़ा करते हो? हे पुत्र! जिन माता-पिता ने पैदा किया और पाला होता है, उनके साथ (धन की खातिर) झगड़ा करना बुरा काम है।1। रहाउ।

हे पुत्र! जिस धन का तुम गुमान करते हो, वह धन (कभी भी) किसी का अपना नहीं बना। हरेक मनुष्य माया का चस्का (आखिरी वक्त) एक छिन् में ही छोड़ के चला जाता है (जब छोड़ता है) तब उसको (छोड़ने की) आह लगती है।1।

हे पुत्र! जो प्रभू जी तुम्हारे (हम सभी के) मालिक हैं, उनके नाम का जाप किया करो।

हे नानक! (कह- हे पुत्र!) प्रभू के दास जो उपदेश तुम्हें करते हैं अगर वह उपदेश तुम (ध्यान से) सुनो तो (तुम्हारे अंदर से) मानसिक दुख-कलेश दूर हो जाए।2।1।7।

उथानका: गुरू अरजन साहिब को गुरूता-गद्दी मिलने पर उनके बड़े भ्राता बाबा पृथ्वी चंद ने पिता गुरू रामदास जी की विरोधता की । तब उन्होंने यह उपदेश किया। वैसे, "परथाइ साखी महा पुरख बोलदे, साझी सगल जहानै"।

सारग महला ४ घरु ५ दुपदे पड़ताल    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जपि मन जगंनाथ जगदीसरो जगजीवनो मनमोहन सिउ प्रीति लागी मै हरि हरि हरि टेक सभ दिनसु सभ राति ॥१॥ रहाउ ॥ हरि की उपमा अनिक अनिक अनिक गुन गावत सुक नारद ब्रहमादिक तव गुन सुआमी गनिन न जाति ॥ तू हरि बेअंतु तू हरि बेअंतु तू हरि सुआमी तू आपे ही जानहि आपनी भांति ॥१॥ हरि कै निकटि निकटि हरि निकट ही बसते ते हरि के जन साधू हरि भगात ॥ ते हरि के जन हरि सिउ रलि मिले जैसे जन नानक सललै सलल मिलाति ॥२॥१॥८॥ {पन्ना 1200}

पद्अर्थ: मन = हे मन! जगंनाथ = जगत का पति। जगदीसरो = जगत का ईश्वर। जग जीवनो = जगत का जीवन, जगत का सहारा, जगत को पैदा करने वाला। मन मोहन = मन को मोह लेने वाला। सिउ = साथ। टेक = आसरा।1। रहाउ।

उपमा = वडिआई। अनिक = अनेकों। सुक = शुक देव ऋषि। नारद = ब्रहमा का पुत्र नारद ऋषि। ब्रहमादिक = ब्रहमा व अन्य देवते। तव = तेरे। सुआमी = हे स्वामी! गनिन न जात = गिने नहीं जा सकते। आपे = आप ही। भांति = किस्म, तरीके।1।

हरि कै निकटि = परमात्मा के नजदीक। निकट ही = ('निकटि' की 'टि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है) बसते = बसते हैं। ते = वे (बहुवचन)। भगात = भगत। सिउ = साथ। रलि मिले = एक-मेक हो गए। सललै = पानी में। सलल = पानी।2।

अर्थ: हे (मेरे) मन! जगत के मालिक परमात्मा का नाम जपा कर (उसका नाम जपने से उस) मन के मोहने वाले परमात्मा के साथ प्यार बन जाता है। मुझे तो सारा दिन सारी रात उसी परमात्मा का ही सहारा है।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा की अनेकों उपमाएं हैं। हे स्वामी प्रभू! शुकदेव, नारद, ब्रहमा आदि देवतागण तेरे गुण गाते रहते हैं, तेरे गुण गिने नहीं जा सकते। हे हरी! हे स्वामी! तू बेअंत है, अपनी अवस्था तू स्वयं ही जानता है।1।

हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नजदीक बसते हें, वे मनुष्य परमात्मा के साधु-जन हैं परमात्मा के भक्त हैं। हे दास नानक! परमात्मा के वह सेवक परमात्मा के साथ एक-मेक हो जाते हैं, जैसे पानी में पानी मिल जाता है।2।1।8।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh