श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1202 सारग महला ४ पड़ताल ॥ जपि मन गोविंदु हरि गोविंदु गुणी निधानु सभ स्रिसटि का प्रभो मेरे मन हरि बोलि हरि पुरखु अबिनासी ॥१॥ रहाउ ॥ हरि का नामु अम्रितु हरि हरि हरे सो पीऐ जिसु रामु पिआसी ॥ हरि आपि दइआलु दइआ करि मेलै जिसु सतिगुरू सो जनु हरि हरि अम्रित नामु चखासी ॥१॥ जो जन सेवहि सद सदा मेरा हरि हरे तिन का सभु दूखु भरमु भउ जासी ॥ जनु नानकु नामु लए तां जीवै जिउ चात्रिकु जलि पीऐ त्रिपतासी ॥२॥५॥१२॥ {पन्ना 1202} पद्अर्थ: मन = हे मन! गुणी निधानु = गुणों का खजाना। प्रभो = प्रभू, मालिक। पुरखु = सर्व व्यापक। अबिनासी = नाश रहित।1। रहाउ। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला, अमृत। सो = वह मनुष्य (एक वचन)। पीअै = पीता है। पिआसी = पिलाएगा। करि = कर के। चखासी = चखेगा।1। सेवहि = सिमरते हैं (बहुवचन)। सभु = सारा। जासी = दूर हो जाएगा। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करता है। चात्रिक = पपीहा। जलि = जल से। जलि पीअै = जल पीने से। त्रिपतासी = तृप्त हो जाता है।2। अर्थ: हे (मेरे) मन! गोबिंद (का नाम) जप, हरी (का नाम) जप। हरी गुणों का खजाना है, सारी सृष्टि का मालिक है। हे मेरे मन! परमात्मा का नाम उचारा कर, वह परमात्मा सर्व-व्यापक है, नाश-रहित है।1। रहाउ। हे मेरे मन! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला जल है (अमृत है), (यह जल) वह मनुष्य पीता है, जिसको परमात्मा (स्वयं) पिलाता है। दया का घर प्रभू जिस मनुष्य को गुरू मिलाता है, वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम-जल चखता है।1। हे मेरे मन! जो मनुष्य सदा ही सदा ही परमात्मा का नाम सिमरते रहते हैं, उनका हरेक दुख, उनका हरेक भरम, उनका हरेक डर दूर हो जाता है। (प्रभू का) दास नानक (भी जब) प्रभू का नाम जपता है तब आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है, जैसे पपीहा (Üवाति नक्षत्र की वर्षा का) पानी पीने से तृप्त हो जाता है।2।5।12। सारग महला ४ ॥ जपि मन सिरी रामु ॥ राम रमत रामु ॥ सति सति रामु ॥ बोलहु भईआ सद राम रामु रामु रवि रहिआ सरबगे ॥१॥ रहाउ ॥ रामु आपे आपि आपे सभु करता रामु आपे आपि आपि सभतु जगे ॥ जिसु आपि क्रिपा करे मेरा राम राम राम राइ सो जनु राम नाम लिव लागे ॥१॥ राम नाम की उपमा देखहु हरि संतहु जो भगत जनां की पति राखै विचि कलिजुग अगे ॥ जन नानक का अंगु कीआ मेरै राम राइ दुसमन दूख गए सभि भगे ॥२॥६॥१३॥ {पन्ना 1202} पद्अर्थ: मन = हे मन! रमत = व्यापक, हर जगह मौजूद। सति = सदा कायम रहने वाला। भईआ = हे भाई! सद = सदा। रवि रहिआ = व्यापक है। सरबगे = (सर्वत्र) सब कुछ जानने वाला।1। रहाउ। आपे = आप ही। करता = करने वाला। सभतु = सब जगह। जगे = जगत में। राम राइ = राम राजा, प्रभू पातशाह। लिव = लगन।1। उपमा = वडिआई। पति = इज्जत। कलिजुग = विकारों भरा जगत। अगे = आग में, विकारों की आग में। अंगु = पक्ष। मेरै राम राइ = मेरे प्रभू पातशाह ने। सभि = सारे। गऐ भगे = भाग गए, भाग जाते हैं।2। अर्थ: हे (मेरे) मन! श्री राम (का नाम) जपा कर, (उस राम का) जो सब जगह मौजूद है (व्यापक है), जो सदा ही सदा ही कायम रहने वाला है। हे भाई! सदा राम का नाम बोला करो, सब जगहों में विद्यमान है, वह सब कुछ जानने वाला है।1। रहाउ। हे भाई! वह राम (सब जगह) स्वयं ही स्वयं है, स्वयं ही सब कुछ पैदा करने वाला है, जगत में हर जगह खुद ही खुद मौजूद है। हे भाई! जिस मनुष्य पर वह मेरा प्यारा राम मेहर करता है, वह मनुष्य राम के नाम की लगन में जुड़ता है।1। हे संत जनो! उस परमात्मा के नाम की वडिआई देखो, जो इस विकारो-भरे जगत की विकारों की आग में अपने भक्तों की स्वयं इज्जत रखता है। हे नानक! (कह- हे भाई!) मेरे प्रभू-पातशाह ने (अपने जिस) सेवक का पक्ष किया, उसके सारे वैरी उसके सारे दुख दूर हो गए।2।6।13। सारंग महला ५ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सतिगुर मूरति कउ बलि जाउ ॥ अंतरि पिआस चात्रिक जिउ जल की सफल दरसनु कदि पांउ ॥१॥ रहाउ ॥ अनाथा को नाथु सरब प्रतिपालकु भगति वछलु हरि नाउ ॥ जा कउ कोइ न राखै प्राणी तिसु तू देहि असराउ ॥१॥ निधरिआ धर निगतिआ गति निथाविआ तू थाउ ॥ दह दिस जांउ तहां तू संगे तेरी कीरति करम कमाउ ॥२॥ एकसु ते लाख लाख ते एका तेरी गति मिति कहि न सकाउ ॥ तू बेअंतु तेरी मिति नही पाईऐ सभु तेरो खेलु दिखाउ ॥३॥ साधन का संगु साध सिउ गोसटि हरि साधन सिउ लिव लाउ ॥ जन नानक पाइआ है गुरमति हरि देहु दरसु मनि चाउ ॥४॥१॥ {पन्ना 1202} पद्अर्थ: सतिगुर मूरति = सतिगुरू का वजूद, सतिगुरू। कउ = को, से। बलि जाउ = बलिहार जाऊँ। अंतरि = (मेरे) अंदर। पिआस = तांघ, तमन्ना। चात्रिक = पपीहा। सफल दरसनु = सारे मनोरथ पूरे करने वाले (गुरू) का दर्शन। कदि = कब।1। रहाउ। को = का। नाथ = खसम। प्रतिपालकु = पालने वाला। भगति वछलु = भक्ति को प्यार करने वाला। जा कउ = जिस को। तिसु = उस (मनुष्य) को। तू देहि = तू देता है। असराउ = आसरा।1। धर = आसरा। गति = अच्छी सुचॅजी हालत, दशा। दहदिस = दसों दिशाओं में। जांउ = मैं जाता हूँ। संगे = साथ ही। कीरति = सिफतसालाह। कमाउ = मैं कमाता हॅूँ।2। ऐकसु ते = (तुझ) एक से ही। लाख = लाखों जगत। ते = से। गति = हालत। मिति = अंदाजा। पाईअै = पाया जा सकता। खेलु = तमाशा। दिखाउ = दिखाऊँ, मैं देखता हू।3। साधन का संगु = संत जनों का साथ। सिउ = साथ। गोसटि = गोष्ठी, विचार चर्चा। लिव = लगन, प्रीत। लाउ = लगाऊँ, मैं लगाता हूँ। जन नानक = हे दास नानक! गुरमति = गुरू की मति पर चल के। हरि = हे हरी! मनि = (मेरे) मन में। चाउ = तमन्ना, चाव, उमंग।4। अर्थ: हे भाई! मैं (तो अपने) गुरू से बलिहार जाता हूँ। जैसे पपीहे को (Üवाति नक्षत्र की बरखा के) पानी की प्यास होती है, (वैसे ही) मेरे अंदर ये चाहत रहती है कि मैं (गुरू के द्वारा) कभी उस हरी के दर्शन करूँगा जो सारी मुरादें पूरी करने वाला है।1। रहाउ। हे प्रभू! तू निखसमों का खसम है (निआसरों का आसरा है), तू सब जीवों की पालना करने वाला है। हे हरी! तेरा नाम ही है 'भगति वछलु' (भगती को प्यार करने वाला)। हे प्रभू! जिस मनुष्य की अन्य कोई प्राणी रक्षा नहीं कर सकता, तू (स्वयं) उसको (अपना) आसरा देता है।1। हे प्रभू! जिनका और कोई सहारा नहीं होता, तू उनका सहारा बनता है, बुरी-खराब हालत वालों की (दुर्दशा में फंसे हुओं की) तू अच्छी हालत बनाता है, जिन्हें कहीं कोई आसरा नहीं मिलता, तू उनका सहारा है। हे प्रभू! दसों दिशाओं में जिधर मैं जाता हूँ, वहाँ ही तू (मेरे) साथ ही दिखाई देता है, (तेरी मेहर से) मैं तेरी सिॅफतसालाह की कार कमाता हूँ।2। हे प्रभू! तुझ एक से लाखों ब्रहमण्ड बनते हैं, और, लाखों ब्रहमण्डों से (फिर) तू एक स्वयं ही स्वयं बन जाता है। मैं बता नहीं सकता कि तू किस तरह का है और कितना बड़ा है। हे प्रभू! तू बेअंत है, तेरी हस्ती का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। यह सारा जगत मैं तो तेरा ही रचा हुआ तमाशा देखता हूँ।3। (हे प्रभू! तेरे चरणों में जुड़ने के लिए) मैं संत-जनों का संग करता हूँ, मैं संत-जनों के साथ (तेरे गुणों की) विचार-चर्चा करता रहता हूँ, तेरे संत-जनों की संगति में रह के तेरे चरणों में सुरति जोड़ता हूँ। हे दास नानक! (कह- हे प्रभू!) गुरू की मति पर चलने से ही तेरा मिलाप होता है। हे हरी! (मेरे) मन में (बड़ी) तमन्ना है, (मुझे) अपने दर्शन दे।4।1। सारग महला ५ ॥ हरि जीउ अंतरजामी जान ॥ करत बुराई मानुख ते छपाई साखी भूत पवान ॥१॥ रहाउ ॥ बैसनौ नामु करत खट करमा अंतरि लोभ जूठान ॥ संत सभा की निंदा करते डूबे सभ अगिआन ॥१॥ करहि सोम पाकु हिरहि पर दरबा अंतरि झूठ गुमान ॥ सासत्र बेद की बिधि नही जाणहि बिआपे मन कै मान ॥२॥ संधिआ काल करहि सभि वरता जिउ सफरी द्मफान ॥ प्रभू भुलाए ऊझड़ि पाए निहफल सभि करमान ॥३॥ सो गिआनी सो बैसनौ पड़्हिआ जिसु करी क्रिपा भगवान ॥ ओुनि सतिगुरु सेवि परम पदु पाइआ उधरिआ सगल बिस्वान ॥४॥ किआ हम कथह किछु कथि नही जाणह प्रभ भावै तिवै बुोलान ॥ साधसंगति की धूरि इक मांगउ जन नानक पइओ सरान ॥५॥२॥ {पन्ना 1202-1203} पद्अर्थ: अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। जान = सुजान, समझदार। मानुख ते = मनुष्यों से। साखी = देखने वाला, साक्षी। भूत = पिछले किए समय का। पवान = भवान, भविष्य का।1। रहाउ। बैसनौ = विष्णू का भगत, हरेक किस्म की स्वच्छता रखने वाला। खट करमा = शास्त्रों के अनुसार आवश्यक मिथे हुए छे कर्म (दान देना और लेना, विद्या पढ़नी और पढ़ानी, यज्ञ करना और कराना)। जूठान = मलीन करने वाला। अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझी।1। करहि = करते हैं। सोम पाक = (स्वयं पाक) अपने हाथों से भोजन तैयार करना। हिरहि = चुराते हैं। दरबा = धन। गुमान = अहंकार। बिधि = विधि, ढंग, तरीका, मर्यादा। बिआपे = फसे हुए। मन कै मान = मन के मान में।2। सभि = सारे। सफरी = मदारी। दंफान = तमाशा। ऊझड़ि = कुमार्ग। करमन = कर्म।3। गिआनी = ज्ञानवान। पढ़िआ = विद्वान। जिसु = जिस पर। ओुनि = उस ने (अक्षर 'अ' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'अुनि' व उनि, यहां 'ओनि' पढ़ना है)। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। बिस्वान = (विश्व) जगत।4। कथह = हम कह सकते हैं। नही जाणह = हम नहीं जानते। बुोलान = बोलाता है (असल शब्द है 'बोलान', यहां 'बुलान' पढ़ना है)। मांगउ = मैं माँगता हूँ। सरान = शरण।5। अर्थ: हे भाई! प्रभू जी हरेक के दिल की जानने वाले हैं और सुजान हैं। (जो मनुष्य) और मनुष्यों से छुपा के कोई बुरा काम करता है (वह यह नहीं जानता कि) परमात्मा तो पिछले बीते कर्मों से ले के आगे भविष्य के किए जाने वाले सारे कर्मों को देखने वाला है।1। रहाउ। हे भाई! (जो मनुष्य) अपने आप को वैश्णव कहलवाते हैं, (शास्त्रों में बताए हुए) छह कर्म भी करते हैं, (पर, अगर उनके) अंदर (मन को) मैला करने वाला लोभ बस रहा है (अगर वह) साध-संगति की निंदा करते हैं (तो वे सारे मनुष्य) आत्मिक जीवन के पक्ष से बेसमझी के कारण (संसार-समुंद्र में) डूब जाते हैं।1। हे भाई! (इस तरह के वैश्णव कहलवाने वाले मनुष्य) अपने हाथों से अपना भोजन तैयार करते हैं पर पराया धन चुराते हैं, उनके अंदर झूठ बसता है अहंकार बसता है। वे मनुष्य (अपनी धर्म-पुस्तकों) वेद-शास्त्रों की आत्मिक मर्यादा नहीं समझते, वे तो अपने मन के अहंकार में ही फसे रहते हैं।2। हे भाई! (इस तरह के वैश्णव कहलवाने वाले वैसे तो) तीन समय संध्या करते हैं, सारे व्रत भी रखते हैं (पर उनका ये सारा उद्यम ऐसे ही है) जैसे किसी मदारी का तमाशा (रोटी कमाने के लिए)। (पर, उनके भी क्या वश?) प्रभू ने स्वयं ही उनको सही रास्ते से भटकाया है, गलत राह पर डाला हुआ है, उनके सारे (किए हुए धार्मिक) कर्म व्यर्थ जाते हैं।3। हे भाई! असल ज्ञानवान वह मनुष्य है, असल वैश्णव वह है, असल विद्वान वह है, जिस पर परमात्मा ने मेहर की है, (जिसकी बरकति से) उसने गुरू की शरण पड़ कर सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल किया है, (ऐसे मनुष्य की संगति में) सारा जगत ही (संसार-समुंद्र से) पार लांघ जाता है।4। पर, हे भाई! हम जीव (परमात्मा की रजा के बारे) क्या कह सकते हैं? हम कुछ कहना नहीं जानते। जैसे प्रभू को अच्छा लगता है वैसे ही वह हम जीवों को बोलने के लिए प्रेरित करता है। हे दास नानक! (कह- हे भाई!) मैं तो प्रभू की शरण पड़ा हूँ (और उसके दर से) सिर्फ साध-संगति (के चरणों) की धूड़ ही माँगता हूँ।5।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |