श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1205 सारग महला ५ ॥ ओुइ सुख का सिउ बरनि सुनावत ॥ अनद बिनोद पेखि प्रभ दरसन मनि मंगल गुन गावत ॥१॥ रहाउ ॥ बिसम भई पेखि बिसमादी पूरि रहे किरपावत ॥ पीओ अम्रित नामु अमोलक जिउ चाखि गूंगा मुसकावत ॥१॥ जैसे पवनु बंध करि राखिओ बूझ न आवत जावत ॥ जा कउ रिदै प्रगासु भइओ हरि उआ की कही न जाइ कहावत ॥२॥ आन उपाव जेते किछु कहीअहि तेते सीखे पावत ॥ अचिंत लालु ग्रिह भीतरि प्रगटिओ अगम जैसे परखावत ॥३॥ निरगुण निरंकार अबिनासी अतुलो तुलिओ न जावत ॥ कहु नानक अजरु जिनि जरिआ तिस ही कउ बनि आवत ॥४॥९॥ {पन्ना 1205} पद्अर्थ: का सिउ = किससे? किसके आगे? बरनि = बयान कर के। पेखि प्रभ दरसन = प्रभू के दरसन देख के। मनि = मन में। मंगल = खुशियां।1। रहाउ। ओुइ: शब्द 'ओुह' का बहुवचन। अक्षर 'अ' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'ओइ', यहां 'उइ' पढ़ना है। बिसम = हैरान। पेखि = देख के। बिसमादी = आश्चर्य रूप प्रभू। किरपावत = कृपालु हरी। पीओ = पी लिया। अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। चाखि = चख के।1। पवनु = हवा, प्राण। बंध करि = बाँध के, रोक के। बूझ = समझ। आवत जावत = (प्राणों के) आने से जाने से। जा कउ रिदै = जिसके हृदय में। उआ की कहावत = उस की दशा।2। आन = अन्य, और। उपाव = (शब्द 'उपाउ' का बहुवचन) प्रयत्न, यतन। जेते = जितने भी। कहीअहि = कहे जाते हें। तेते = वे सारे। सीखे = (किसी से) सीखने से। पावत = सीखे जाते हैं। अचिंत = चिता दूर करने वाला हरी। ग्रिह भीतरि = हृदय के अंदर ही। अगम जैसे = कठिन सा। परखावत = (उसका) परखना।3। निरगुण = माया के तीन गुणों से परे। निरंकार = जिसका कोई खास रूप् नहीं बताया जा सकता। अजरु = (अ+जरु) जिसका जरा नहीं व्याप सकता (जरा = बुढ़ापा)। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। जरिआ = जड़ लिया, हृदय में परो लिया। तिस ही ('तिसि' की 'सि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। बनि आवत = फबता है, जानता है।4। अर्थ: हे भाई! प्रभू के दर्शन करते हुए प्रभू के गुण गाते हुए मन में जो खुशिायाँ पैदा होती हैं जो आनंद-करिश्मे पैदा होते हैं, उन सुखों का बया किसी भी तरह से नहीं किया जा सकता।1। रहाउ। हे भाई! उस आश्चर्य-रूप और कृपा के श्रोत सर्व-व्यापक प्रभू के दर्शन करके मैं हैरान हो गई हूँ। जब मैंने उसका आत्मिक जीवन देने वाला अमल्य नाम-जल पीया (तब मेरी हालत ऐसे हो गई) जैसे कोई गूँगा मनुष्य (गुड़ वगैरा) चख के (सिर्फ) मुस्कराता ही है। (स्वाद बता नहीं सकता)।1। हे भाई! जैसे (कोई जोगी) अपने प्राण रोक लेता है, उनके आने-जाने की (किसी और को) समझ नहीं पड़ सकती (इसी तरह) जिस मनुष्य के दिल में परमात्मा का प्रकाश हो जाता है, उस मनुष्य की आत्मिक दशा बयान नहीं की जा सकती।2। हे भाई! (दुनियावी गुण सीखने के लिए) अन्य जितने भी यतन बताए जाते हैं, वे (और से) सीखने से ही सीखे जा सकते हैं। पर चिंता दूर करने वाला सुंदर प्रभू मनुष्य के हृदय-घर के अंदर ही प्रकट हो जाता है (जिसके दिल में प्रकट होता है, उसकी) करनी कठिन सा काम है।3। हे भाई! परमात्मा माया के तीन गुणों की पहुँच से परे है, परमात्मा का कोई स्वरूप बताया नहीं जा सकता, परमात्मा नाश-रहित है, वह अतोल है, उसको तोला नहीं जा सकता। हे नानक! कह- जिस मनुष्य ने उस सदा जवान रहने वाले (बुढ़ापा-रहत) परमात्मा को अपने मन में बसा लिया, उसकी आत्मिक दशा वह स्वयं ही जानता है (बयान नहीं की जा सकती)।4।9। सारग महला ५ ॥ बिखई दिनु रैनि इव ही गुदारै ॥ गोबिंदु न भजै अह्मबुधि माता जनमु जूऐ जिउ हारै ॥१॥ रहाउ ॥ नामु अमोला प्रीति न तिस सिउ पर निंदा हितकारै ॥ छापरु बांधि सवारै त्रिण को दुआरै पावकु जारै ॥१॥ कालर पोट उठावै मूंडहि अम्रितु मन ते डारै ॥ ओढै बसत्र काजर महि परिआ बहुरि बहुरि फिरि झारै ॥२॥ काटै पेडु डाल परि ठाढौ खाइ खाइ मुसकारै ॥ गिरिओ जाइ रसातलि परिओ छिटी छिटी सिर भारै ॥३॥ निरवैरै संगि वैरु रचाए पहुचि न सकै गवारै ॥ कहु नानक संतन का राखा पारब्रहमु निरंकारै ॥४॥१०॥ {पन्ना 1205} पद्अर्थ: बिखई = विषयी विकारी मनुष्य। रैनि = रात। इव ही = इसी तरह (विकारों में) ही। गुदारै = गुजारता है। न भजै = नहीं सिमरता। अहंबुधि = अहंकार। माता = मस्त। जूअै = जूऐ में। जिउ = (जुआरिए) की तरह।1। रहाउ। अमोला = जो अमूल्य है। सिउ = साथ। हितकारै = प्यार करता है। छापरु त्रिण को = तिनकों का छप्पर। बाधि = बाँध के, बना के। दुआरै = (छप्पर के) दरवाजे पर। पावकु = आग। जारै = जलाता है।1। कालर पोट = कलॅर की पोटली। मूंडहि = सिर पर। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। ते = से, में से। डारे = फेंक देता है। ओढै = पहनता है, ओढ़े। काजर महि = काजल में, कालिख भरे कमरे में। परिआ = बैठा हुआ। बहुरि = दोबारा। झारै = झाड़ता है।2। पेडु = पेड़। डाल = अहनी। पारि = पर। ठाढो = खड़ा हुआ। मुसकारै = मुस्कराता है। जाइ = जा के। रसातलि = पाताल में, गहरी जगह में। छिटी छिटी = टुकड़े टुकड़े, हड्डी हड्डी। परिओ सिर भारै = सियर भार जा पड़ा।3। संगि = साथ। गवारै = गवार मूर्ख। नानक = हे नानक!।4। अर्थ: हे भाई! विषयी मनुष्य इसी तरह (विकारों में) ही दिन-रात (अपनी उम्र) गुजारता है। (विषयी मनुष्य) परमात्मा का भजन नहीं करता, अहंकार में मस्ताया हुआ (अपना मानस) जनम (यूँ) हार जाता है जैसे (जुआरिआ) जूए में (बाज़ी हारता है)।1। रहाउ। हे भाई! परमात्मा का नाम बहुत ही कीमती है (विषयी मनुष्य) उसके साथ प्यार नहीं डालता, दूसरों की निंदा करने में रुचि रखता है। (विषयी मनुष्य, मानो) तिनकों का छप्पर बना के (उसको) सजाता रहता है (पर उसके) दरवाजे पर आग जला देता है (जिस कारण हर वक्त उसके जलने का खतरा बना रहता है)।1। हे भाई! (विकारों में फसा हुआ मनुष्य, मानो) कलॅर की पोटली (अपने) सिर पर उठाए फिरता है, और आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (अपने) मन में से (बाहर) फेंक देता है, कालिख (-भरे कमरे) में बैठा हुआ (सफेद) कपड़े पहनता है और (कपड़ों पर पड़ी कालिख़ को) बार-बार झाड़ता रहता ड्ढहै।2। हे भाई! (विकारों में फसा हुआ मनुष्य, मानो, वृख की ही) अहनियों पर खड़ा हुआ (उसी) वृक्ष को काट रहा है, (साथ-साथ ही मिठाई वगैरा) खा-खा के मुस्करा रहा है। (पर वृक्ष के कट जाने पर वह मनुष्य) गहरे गड्ढे में जा गिरता है, सिर भार गिर के हड्डी-हड्डी हो जाता है।3। हे भाई! मूर्ख (विकारी) मनुष्य उस संत-जन के साथ सदा वैर बनाए रखता है जो किसी के साथ भी वैर नहीं करता। (मूर्ख उस संत जन के साथ बराबरी करने का यतन करता है, पर) उसकी बराबरी नहीं कर सकता। हे नानक! कह- (विकारी मूर्ख मनुष्य संत-जनों का कुछ बिगाड़ नहीं सकता, क्योंकि) संत-जनों का रखवाला निरंकार पारब्रहम (सदा स्वयं) है।4।10। सारग महला ५ ॥ अवरि सभि भूले भ्रमत न जानिआ ॥ एकु सुधाखरु जा कै हिरदै वसिआ तिनि बेदहि ततु पछानिआ ॥१॥ रहाउ ॥ परविरति मारगु जेता किछु होईऐ तेता लोग पचारा ॥ जउ लउ रिदै नही परगासा तउ लउ अंध अंधारा ॥१॥ जैसे धरती साधै बहु बिधि बिनु बीजै नही जांमै ॥ राम नाम बिनु मुकति न होई है तुटै नाही अभिमानै ॥२॥ नीरु बिलोवै अति स्रमु पावै नैनू कैसे रीसै ॥ बिनु गुर भेटे मुकति न काहू मिलत नही जगदीसै ॥३॥ खोजत खोजत इहै बीचारिओ सरब सुखा हरि नामा ॥ कहु नानक तिसु भइओ परापति जा कै लेखु मथामा ॥४॥११॥ {पन्ना 1205} पद्अर्थ: अवरि = (शब्द 'अवर' का बहुवचन) और, अन्य। सभि = सारे। भूले = सही जीवन राह से भटके हुए। भ्रमत = भटकते हुए। न जानिआ = आत्मिक जीवन की सूझ नहीं पड़ती। सुधाखरु = शुद्ध अक्षर, पवित्र हरी नाम। जा कै हिरदै = जिस मनुष्य के हृदय में। तिनि = उस (मनुष्य) ने। बेदहि ततु = वे (आदि धर्म पुस्तकों) की अस्लियत।1। रहाउ। परविरति मारगु = दुनियसां के धंधों में व्यस्त रहने वाला जीवन राह। मारगु = रास्ता। जेता = जितना ही। तेता = वह सारा ही। लोग पचारा = जगत को परचाने वाला, लोगों में अपनी इज्जत बनाए रखने वाला। जउ लउ = जब तक। परगासा = रौशनी। अंध अंधारा = घोर अंधेरा।1। जैसे = जिस तरह। साधै = साधता है, तैयार करता है। बहु बिधि = कई तरीकों से। जांमे = पैदा होता है, उगता। मुकति = विकारों से मुक्ति।2। नीरु = पानी। बिलोवै = मथता है। स्रमु = श्रम, मेहनत, थकावट। नैनू = मक्खन। कैसे रीजै = कैसे निकल सकता है? बिनु भेटे = मिले बिना। काहू = किसी को भी। जगदीसै = जगत के मालिक हरी को।3। खोजत = खोज करते हुए। इहै ही = यह ही। सरब = सारे। जा कै मथामा = जिसके माथे पर।4। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य के हृदय में परमात्मा का पवित्र नाम बसता है, उसने (समझो) वेद (आदि धर्म-पुस्तकों) का तत्व समझ लिया। अन्य सारे जीव गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं, (माया की खातिर) भटकते हुए उनको (सही जीवन राह की) सूझ नहीं पड़ती।1। रहाउ। हे भाई! दुनिया के धंधों में व्यस्त रहने वाले जितने भी जीवन-राह हैं, ये सारे लोगों के अपनी इज्जत बनाए रखने वाले रास्ते हैं। जब तक (मनुष्य के) हृदय में (हरी-नाम की) रौशनी नहीं होती, तब तक (आत्मिक जीवन की तरफ से) घोर-अंधकार ही टिका रहता है।1। हे भाई! जैसे (कोई किसान अपनी) जमीन को कई तरीकों से तैयार करता है, पर उस में बीज बीजे बिना कुछ भी नहीं उगता। (इसी तरह) परमात्मा का नाम (हृदय में बीजे) बिना मनुष्य को विकारों से निजात नहीं मिलती, उसके अंदर से अहंकार नहीं खत्म होता।2। हे भाई! जो मनुष्य पानी को ही मथता रहता है वह सिर्फ थकावट ही मोल लेता है, (पानी के मथने से उसमें से) मक्खन नहीं निकल सकता। (वैसे ही) गुरू के मिले बिना किसी को भी मुक्ति (विकारों से खलासी) प्राप्त नहीं होती, मनुष्य परमात्मा को नहीं मिल सकता।3। हे नानक! कह- खोज करते-करते (हमने) यही विचार की है कि परमात्मा का नाम (ही) सारे सुख देने वाला है। पर यह हरी-नाम उस मनुष्य को मिलता है जिसके माथे पर (हरी-नाम की प्राप्ति का) लेख (जागता) है।4।11। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |