श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1206 सारग महला ५ ॥ अनदिनु राम के गुण कहीऐ ॥ सगल पदारथ सरब सूख सिधि मन बांछत फल लहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥ आवहु संत प्रान सुखदाते सिमरह प्रभु अबिनासी ॥ अनाथह नाथु दीन दुख भंजन पूरि रहिओ घट वासी ॥१॥ गावत सुनत सुनावत सरधा हरि रसु पी वडभागे ॥ कलि कलेस मिटे सभि तन ते राम नाम लिव जागे ॥२॥ कामु क्रोधु झूठु तजि निंदा हरि सिमरनि बंधन तूटे ॥ मोह मगन अहं अंध ममता गुर किरपा ते छूटे ॥३॥ तू समरथु पारब्रहम सुआमी करि किरपा जनु तेरा ॥ पूरि रहिओ सरब महि ठाकुरु नानक सो प्रभु नेरा ॥४॥१२॥ {पन्ना 1206} पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। कहीअै = आओ, भाई! कहा करें। सगल = सारे। सिधि = सिद्धियां। मन बांछत = मन मांगे। लहीअै = आओ, भाई! प्राप्त करें।1। रहाउ। संत = हे संत जनो! सिमरह = आओ, हम सिमरें। अनाथह नाथु = अनाथों के नाथ। दीन = गरीब। पूरि रहिओ = व्यापक है। घट वासी = सारे शरीर में बसने वाला।1। गावत = गाते हुए। सरधा = श्रद्धा से। पी = पी के। वड भागै = बड़े भाग्यों वाले। कलि = झगड़े। कलेस = दुख। सभि = सारे। ते = से। लिव = लगन। जागे = सचेत हो गए।2। तजि = त्याग के। सिमरनि = सिमरन से। मोह मगन = मोह (के समुंद्र) में डूबे रहना। अहं अंध = अहंकार में अंधे हुए रहना। ममता = अपनत्व। गुर किरपा ते = गुरू की कृपा से।3। समरथु = सारी ताकतों का मालिक। पारब्रहम = हे पारब्रहम! सुआमी = हे स्वामी! जनु = सेवक। सरब महि = सारे जीवों में। नानक = हे नानक! नेरा = (सबके) नजदीक।4। अर्थ: हे भाई! आओ, हम हर वक्त परमात्मा के गुण गाते रहें। (गुण-गान की बरकति से) हे भाई! आओ, सारे पदार्थ, सारे सुख, सारी सिद्धियां, सारे मन-माँगे फल हासिल करें।1। रहाउ। हे संत जनो! आओ, हम प्राण-दाते सुख-दाते अविनाशी प्रभू (का नाम) सिमरें। वह प्रभू अनाथों का नाथ है, वह प्रभू गरीबों के दुखों का नाश करने वाला है, वह प्रभू सब जगह व्यापक है, वह प्रभू सारे शरीरों में मौजूद है।1। हे संत जनो! परमात्मा के गुण श्रद्धा से गाते सुनते-सुनते परमात्मा का नाम-रस पी के बहुत भाग्यशाली बन जाया जाता हैं हे संत जनो! जो मनुष्य परमात्मा के नाम में सुरति जोड़ के (विकारों के हमलों से सदा) सचेत रहते हैं, उनके शरीर में से सारे झगड़े सारे दुख मिट जाते हैं।2। हे संत जनो! काम क्रोध झूठ निंदा छोड़ के परमात्मा का नाम सिमरन से (मनुष्य के अंदर से माया के मोह की सारी) फाहियां टूट जाती हैं। मोह में डूबे रहना, अहंकार में अंधे हुए रहना, माया के कब्जे की लालसा- यह सारे गुरू की कृपा से (मनुष्य के अंदर से) खत्म हो जाते हैं।3। हे पारब्रहम! हे स्वामी! तू सब ताकतों का मालिक है (मेरे पर) मेहर कर (मुझे अपने नाम सिमरन की ख़ैर दे, मैं) तेरा दास हूँ। हे नानक! (कह- हे भाई!) मालिक-प्रभू सब जीवों में व्यापक है, वह प्रभू सबके नजदीक बसता है।4।12। सारग महला ५ ॥ बलिहारी गुरदेव चरन ॥ जा कै संगि पारब्रहमु धिआईऐ उपदेसु हमारी गति करन ॥१॥ रहाउ ॥ दूख रोग भै सगल बिनासे जो आवै हरि संत सरन ॥ आपि जपै अवरह नामु जपावै वड समरथ तारन तरन ॥१॥ जा को मंत्रु उतारै सहसा ऊणे कउ सुभर भरन ॥ हरि दासन की आगिआ मानत ते नाही फुनि गरभ परन ॥२॥ भगतन की टहल कमावत गावत दुख काटे ता के जनम मरन ॥ जा कउ भइओ क्रिपालु बीठुला तिनि हरि हरि अजर जरन ॥३॥ हरि रसहि अघाने सहजि समाने मुख ते नाही जात बरन ॥ गुर प्रसादि नानक संतोखे नामु प्रभू जपि जपि उधरन ॥४॥१३॥ {पन्ना 1206} पद्अर्थ: बलिहारी = सदके, कुर्बान। जा कै संगि = जिस (गुरू) की संगति में। धिआईअै = सिमरा जा सकता है। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।1। रहाउ। भै सगल = सारे डर (शब्द 'भउ' का बहुवचन 'भै' व 'भय')। अवरह = औरों को। तरन = बेड़ी, नाव।1। ज के मंत्रु = जिस (गुरू) का उपदेश। सहसा = सहम। ऊणे कउ = आत्मिक जीवन से वंचित को। सुभर करन = नाको नाक भर देता है। ते = वह मनुष्य (बहुवचन)। फुनि = दोबारा।2। त के = उनके। जा कउ = जिस मनुष्य पर। बीठुला = विष्ठुल, माया के प्रभाव से परे रहने वाला। तिनि = उस (मनुष्य) ने। हरि अजर = जरा रहित हरी को। जरन = (हृदय में) परो लिया।3। हरि रसहि = हरी के नाम रस से। अघाने = तृप्त हो गए। सहजि = आत्मिक अडोलता में। मुख ते = मुँह से। जात बरन = बयान किए जा सकते। प्रसादि = कृपा से। संतोखे = संतोषी हो गए। जपि = जप के। उधरन = संसार समुंद्र से पार लांघ गए।4। अर्थ: हे भाई! (मैं अपने) गुरू के चरणों से बलिहार जाता हूँ, जिसका उपदेश हम जीवों की ऊँची आत्मि्क दशा बना देता है।1। रहाउ। हे भाई! जो मनुष्य हरी के संत गुरदेव की शरण पड़ता है, उसके सारे दुख सारे रोग सारे डर नाश हो जाते हैं। वह मनुष्य बड़ी समर्था वाले हरी का, सबको संसार-समुंद्र से पार लंघाने योग्य हरी का नाम स्वयं जपता है व औरों को जपाता है।1। हे भाई! (मैं अपने गुरू के चरणों से बलिहार जाता हूँ) जिसका उपदेश मनुष्य का सहम दूर कर देता है जो गुरू आत्मिक जीवन से वंचित मनुष्यों को नाको-नाक भर देता है। (हे भाई!) जो मनुष्य हरी के दासों की रज़ा में चलते हैं, वे दोबारा जनम-मरन के चक्करों में नहीं पड़ते।2। हे भाई! संत-जनों की सेवा करते हुए परमात्मा के गुण गाते हुए (गुरू) उनके जनम-मरण के सारे दुख काट देता है। (गुरू की कृपा से) जिस मनुष्य पर माया से निर्लिप प्रभू दयावान होता है, उस मनुष्य ने सदा जवान रहने वाले (जरा रहि अर्थात जिसे बुढ़ापा नहीं आता, उस) परमात्मा को अपने हृदय में बसा लिया है।3। हे नानक! जो मनुष्य ने गुरू की कृपा से परमात्मा के नाम-रस से तृप्त हो जाते हैं, आत्मिक अडोलता में लीन हो जाते हैं (उनकी ऊँची आत्मिक अवस्था) मुँह से बयान नहीं की जा सकती। वे मनुष्य प्रभू का नाम ज पके संतोषी जीवन वाले हो जाते हैं, वे मनुष्य प्रभू का नाम ज पके संसार-समुंद्र से पार लांघ जाते हैं।4।13। सारग महला ५ ॥ गाइओ री मै गुण निधि मंगल गाइओ ॥ भले संजोग भले दिन अउसर जउ गोपालु रीझाइओ ॥१॥ रहाउ ॥ संतह चरन मोरलो माथा ॥ हमरे मसतकि संत धरे हाथा ॥१॥ साधह मंत्रु मोरलो मनूआ ॥ ता ते गतु होए त्रै गुनीआ ॥२॥ भगतह दरसु देखि नैन रंगा ॥ लोभ मोह तूटे भ्रम संगा ॥३॥ कहु नानक सुख सहज अनंदा ॥ खोल्हि भीति मिले परमानंदा ॥४॥१४॥ {पन्ना 1206} पद्अर्थ: री = हे बहिन! (स्त्री लिंग)। गुणनिधि = गुणों का खजाना प्रभू। मंगल = सिफतसालाह के गीत, खुशी के गीत। संजोग = मिलाप के सबब। अउसर = समय। जउ = जब। गोपालु = सृष्टि का पालनहार प्रभू। रीझाइओ = प्रसन्न कर लिया।1। रहाउ। मोरलो = मेरा। मसतकि = माथे पर।1। मंत्रु = उपदेश। ता ते = उस (उपदेश) से। गतु होऐ = दूर हो गए। त्रै गुनीआ = माया के तीन गुण।2। देखि = देख के। नैन = खोल के। रंगा = प्रेम। संगा = साथ।3। सहज = आत्मिक अडोलता। खोलि् = खोल् के। भीति = दीवार, पर्दा। परमानंदा = सबसे ऊँचे आनन्द का मालिक प्रभू।4। अर्थ: हे बहिन! (प्राणों के लिए वह) भले सबब होते हैं, भाग्यशाली दिन होते हैं, सुंदर समय होते हैं, जब (कोई जिंद) सृष्टि के पालनहार प्रभू को प्रसन्न कर ले। हे बहिन! मैं भी उस गुणों के खजाने प्रभू के सिफत-सालाह के गीत गा रही हूँ।1। रहाउ। हे बहिन! मेरा माथा अब संतजनों के चरणों पर है, मेरे माथे पर संत-जनों ने अपने हाथ रखे हैं- (मेरे लिए यह बहुत भाग्यशाली समय है)।1। हे बहिन! गुरू का उपदेश मेरे अंजान मन में आ बसा है, उसकी बरकति से (मेरे अंदर से) माया के तीनों ही गुणों का प्रभाव दूर हो गया है।2। हे बहिन! संतजनों के दर्शन करके मेरी आँखों में (ऐसा) प्रेम पैदा हो गया है कि लोभ मोह भटकना का साथ (मेरे अंदर से) समाप्त हो गया है।3। हे नानक! कह- (हे बहिन! मेरे अंदर से अहंकार की) दीवार तोड़ के सबसे ऊँचे आनंद के मालिक-प्रभू जी मुझे मिल गए हैं (अब मेरे अंदर) आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद बने हुए हैं।4।14। सारग महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ कैसे कहउ मोहि जीअ बेदनाई ॥ दरसन पिआस प्रिअ प्रीति मनोहर मनु न रहै बहु बिधि उमकाई ॥१॥ रहाउ ॥ चितवनि चितवउ प्रिअ प्रीति बैरागी कदि पावउ हरि दरसाई ॥ जतन करउ इहु मनु नही धीरै कोऊ है रे संतु मिलाई ॥१॥ जप तप संजम पुंन सभि होमउ तिसु अरपउ सभि सुख जांई ॥ एक निमख प्रिअ दरसु दिखावै तिसु संतन कै बलि जांई ॥२॥ करउ निहोरा बहुतु बेनती सेवउ दिनु रैनाई ॥ मानु अभिमानु हउ सगल तिआगउ जो प्रिअ बात सुनाई ॥३॥ देखि चरित्र भई हउ बिसमनि गुरि सतिगुरि पुरखि मिलाई ॥ प्रभ रंग दइआल मोहि ग्रिह महि पाइआ जन नानक तपति बुझाई ॥४॥१॥१५॥ {पन्ना 1206-1207} पद्अर्थ: जीअ बेदनाई = दिल की पीड़ा। मोहि = मैं। पिआस = तमन्ना। मनोहर = मन को मोह लेने वाला। प्रिअ मनोहर प्रीति = मन को मोह लेने वाले प्यारे (हरी) की प्रीत। न रहै = टिकता नहीं, धीरज नहीं आता। बहु बिधि = कई तरीकों से। उमकाई = उमंग में आता है।1। रहाउ। चितवनि = सोच। चितवउ = मैं सोचती हूँ। बैरागी = वैरागनि होई हुई। कदि = कब? पावउ = पाऊँ, मैं पाऊँगी। करउ = करूँ, मैं करती हूँ। नही धीरै = धीरज नहीं करता। रे = हे भाई! (पुलिंग)।1। संजम = इन्द्रियों को वश में करने के साधन। पुंन = मिथे हुए धार्मिक कम्र, पुन्य। सभि = सारे। होमउ = मैं भेंट कर दूँगी। अरपउ = मैं दे दूँगी। सुख जांई = सुखों केी जगह। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। तिसु संतन कै = उस (प्रभू) के संतों से। बलि जांई = मैं सदके जाती हूँ।2। निहोरा = तरला, मिन्नत। सेवउ = सेवा करूँ, मैं सेवा करूँगी। रैनाई = रात। हउ = मैं। तिआगउ = मैं छोड़ दूँगी। सुनाई = सुनाए, सुनाएगा।3। देखि = देख के। चरित्र = करिश्मा, तमाशा। बिसमनि = हैरान। गुरि = गुरू ने। सतिगुरि = सतिगुरू ने। पुरखि = प्रभू में। रंग = प्रेम स्वरूप। ग्रिह महि = हृदय घर में। तपति = जलन, तपश।4। अर्थ: हे वीर! मैं अपने दिल की पीड़ा कैसे बगयान करूँ? (नहीं बयान कर सकती)। मेरे अंदर मन को मोह लेने वाले प्यारे प्रभू की प्रीति है उसके दर्शनों की तमन्ना है (दर्शन के बिना मेरा) मन धीरज नहीं धरता, (मेरे अंदर) कई तरीकों से उमंग उठ रही है।1। रहाउ। हे वीर! मैं प्यार की प्रीति से वैरागनि होई हुई हूँ, मैं (हर समय यह) सोच सोचती रहती हूँ कि मैं हरी के दर्शन कब करूँगी। (इस मन को धीरज देने के लिए) मैं यतन करती रहती हूँ, पर ये मन धैर्य नहीं धरता। हे वीर! कोई ऐसा भी संत है जो मुझे प्रभू से मिला दे?।1। हे वीर! यदि कोई आँख झपकने जितने समय के लिए ही मुझे प्यारे के दर्शन करवा दे, तो मैं उस प्यारे के उन संतों के सदके कुर्बान जाऊँ। हे वीर! मैं सारे जप सारे तप सारे संजम सारे पुन्य कुर्बान कर दूँ, सारे सुखों के साधन (प्यारे-प्रभू से मिलने के लिए संत के आगे) भेटा रख दूँगी।2। हे वीर! जो कोई संत मुझे प्यारे प्रभू की सिफतसालाह की बात सुनाए, मैं उसके आगे अपना सारा मान अहंकार त्याग दूँगी। मैं उसके आगे बहुत तरला करूँगी, विनती करूँगी, मैं दिन-रात उसकी सेवा करूँगी।3। हे दास नानक! (कह- हे वीर!) मैं यह करिश्मा देख के हैरान हो गई कि गुरू ने सतिगुरू ने मुझे अकाल-पुरख (के चरणों) में जोड़ दिया। दया का श्रोत प्यार-स्वरूप परमात्मा मैंने अपने हृदय-घर में पा लिया, (और, मेरे अंदर से माया वाली सारी) तपश मिट गई।4।1।15। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |