श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सारग महला ५ ॥ रे मूड़्हे तू किउ सिमरत अब नाही ॥ नरक घोर महि उरध तपु करता निमख निमख गुण गांही ॥१॥ रहाउ ॥ अनिक जनम भ्रमतौ ही आइओ मानस जनमु दुलभाही ॥ गरभ जोनि छोडि जउ निकसिओ तउ लागो अन ठांही ॥१॥ करहि बुराई ठगाई दिनु रैनि निहफल करम कमाही ॥ कणु नाही तुह गाहण लागे धाइ धाइ दुख पांही ॥२॥ मिथिआ संगि कूड़ि लपटाइओ उरझि परिओ कुसमांही ॥ धरम राइ जब पकरसि बवरे तउ काल मुखा उठि जाही ॥३॥ सो मिलिआ जो प्रभू मिलाइआ जिसु मसतकि लेखु लिखांही ॥ कहु नानक तिन्ह जन बलिहारी जो अलिप रहे मन मांही ॥४॥२॥१६॥ {पन्ना 1207}

पद्अर्थ: रे मूढ़े = हे मूर्ख! अब = इस मनुष्य जनम में, अब। घोर = भयानक। उरध = उल्टा, उल्टा लटक के। निमख = आँख झपकने जितना समय। निमख निमख = पल पल, हर वक्त। गांही = तू गाता था।1। रहाउ।

भ्रमतो = भटकता। दुलभाही = दुर्लभ। छोडि = छोड़ के। जउ = जब। निकसिओ = निकला, जगत में आया। तउ = तब। अन = अन्य, और। अन ठांही = और जगह ।1।

क्रहि = तू करता है, करे। रैनि = रात। कमाही = तू कमाता है। निहफल = जिनसे कोई फल नहीं मिलता। कणु = दाने। तुह = दानों से खाली ऊपर के छिल्लड़। धाइ धाइ = दौड़ दौड़ के। पांही = पाते हैं।2।

मिथिआ = नाशवंत (माया)। संगि = साथ। कूड़ि = झूठ में, नाशवंत जगत में। कुसमांही = फूलों में, कुसुंभ के फूलों में। जब = जिस समय। पकरसि = पकड़ेगा। बवरे = हे कमले! काल मुखा = काले मुँह वाला। उठि = उठ के। जाही = तू जाएगा।3।

सो = वह (मनुष्य) ही। जो = जिस मनुष्य को। जिसु मसतकि = जिस (मनुष्य) के माथे पर। नानक = हे नानक! जो = जो मनुष्य। अलिप = अलिप्त, निर्लिप। मांही = में।4।

अर्थ: हे मूर्ख! अब (जनम ले के) तू क्यों परमात्मा को नहीं सिमरता? (जब) तू भयानक नर्क (जैसे माँ के पेट) में (था तब तू) उल्टा (लटका हुआ) तप करता था, (वहाँ तू) हर वक्त परमात्मा के गुण गाता था।1। रहाउ।

हे मूर्ख! तू अनेकों ही जन्मों में भटकता आया है। अब तुझे दुर्लभ मनुष जन्म मिला है। पर माँ का पेट छोड़ के जब तू जगत में आ गया, तब तू (सिमरन को छोड़ के) और-और जगहों में व्यस्त हो गया।1।

हे मूर्ख! तू दिन-रात बुराईयाँ करता है, ठॅगीयां करता है, तू सदा वही काम करता रहता है जिनसे कुछ भी हाथ नहीं आता। (देख, जो किसान उन) तूहों को गाहते रहते हैं, जिनमें दाने नहीं होते, वे दौड़-दौड़ के दुख (ही) पाते हैं।

हे कमले! तू नाशवंत माया के संग नाशवंत जगत के साथ चिपका रहता है, तू कुसंभ के फूलों के साथ ही प्यार डाले बैठा है। जब तुझे धर्मराज आ के पकड़ेगा (जब मौत आ गई) तब (बुरे कामों की) कालिख़ ही मुँह पर लगवा के (यहाँ से) चला जाएगा।3।

(पर, हे भाई! जीवों के भी क्या वश?) वह मनुष्य (ही परमात्मा को) मिलता है जिस मनुष्य को परमात्मा स्वयं मिलाता है, जिस मनुष्य के माथे पर (प्रभू-मिलाप के) लेख लिखे होते हैं। हे नानक! कह- मैं उन मनुष्यों से कुर्बान जाता हूँ, जो (प्रभू-मिलाप की बरकति से) मन में (माया से) निर्लिप रहते हैं।4।2।16।

सारग महला ५ ॥ किउ जीवनु प्रीतम बिनु माई ॥ जा के बिछुरत होत मिरतका ग्रिह महि रहनु न पाई ॥१॥ रहाउ ॥ जीअ हींअ प्रान को दाता जा कै संगि सुहाई ॥ करहु क्रिपा संतहु मोहि अपुनी प्रभ मंगल गुण गाई ॥१॥ चरन संतन के माथे मेरे ऊपरि नैनहु धूरि बांछाईं ॥ जिह प्रसादि मिलीऐ प्रभ नानक बलि बलि ता कै हउ जाई ॥२॥३॥१७॥ {पन्ना 1207}

पद्अर्थ: किउं = कैसे? नहीं हो सकता। जीवनु = आत्मिक जीवन। प्रीतम बिनु = प्यारे प्रभू (की याद) के बिना। माई = हे माँ? बिछुरत = बिछुड़ने से। मिरतका = मुरदा। ग्रिह = घर।1। रहाउ।

जीअ को दाता = जिंद का दाता। हींअ को दाता = हृदय का देने वाला। प्रान को दाता = प्राणों का देने वाला। जा कै संगि = जिसके साथ, जिसकी ज्योति शरीर में होते हुए। सुहाई = (शरीर) सुंदर लगता है। संतहु = हे संत जनो! मंगल = सिफतसालाह के गीत। गाई = मैं गाऊँ।1।

नैनहु = आँखों में। धूरि = (संतों के चरणों की) धूल। बांछाई = मैं (लगानी) चाहता हूँ। जिह प्रसादि = जिस (गुरू) की कृपा से। बलि बलि ता कै = उस से सदा कुर्बान। हउ = मैं। जाई = जाईं, मैं जाता हूँ।2।

अर्थ: हे (मेरी) माँ! जिस परमात्मा की जोति शरीर से विछुड़ने से शरीर मुर्दा हो जाता है, (और मुर्दा शरीर) घर में टिका नहीं रह सकता, उस प्रीतम प्रभू की याद के बिना आत्मिक जीवन हासिल नहीं हो सकता।1।

हे संत जनो! मेरे पर अपनी मेहर करो, मैं उस परमात्मा के गुण सिफत-सालाह के गीत गाता रहूँ, जो (सब जीवों को) जिंद (प्राण) देने वाला है हृदय देने वाला है प्राण देने वाला है, और, जिसकी संगति में ही (यह शरीर) सुंदर लगता है।1।

हे माँ! मेरी तमन्ना है कि संत जनों के चरण मेरे माथे पर टिके रहें, संत-जनों के चरणों की धूल मेरी आँखों को लगती रहे। हे नानक! (कह-) जिन संत-जनों की कृपा से परमात्मा को मिला जा सकता है, मैं उनसे सदके जाता हूँ।2।3।!7।

सारग महला ५ ॥ उआ अउसर कै हउ बलि जाई ॥ आठ पहर अपना प्रभु सिमरनु वडभागी हरि पांई ॥१॥ रहाउ ॥ भलो कबीरु दासु दासन को ऊतमु सैनु जनु नाई ॥ ऊच ते ऊच नामदेउ समदरसी रविदास ठाकुर बणि आई ॥१॥ जीउ पिंडु तनु धनु साधन का इहु मनु संत रेनाई ॥ संत प्रतापि भरम सभि नासे नानक मिले गुसाई ॥२॥४॥१८॥ {पन्ना 1207}

पद्अर्थ: अउसर = अवसर, समय, मौका। उआ अउसर कै = उस समय से। हउ = मैं। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। वडभागी = बड़े भाग्यों से। पांई = मैं पा लिया है, मैंने ढूँढ लिया है।1। रहाउ।

भलो = अच्छा, श्रेष्ठ। को = का। दासु दासन को = दासों का दास। जनु = दास। ते = से। समदरसी = (सबको) एक सी निगाह से देखने वाला, सबमें एक ही की जोति देखने वाला। बणि आई = प्रीत बन गई।1।

जीउ = जिंद, प्राण। पिंडु = शरीर। साधन का = संत जनों का। रेनाई = चरण धूड़। संत प्रतापि = संतों के प्रताप से। सभि = सारे। गुसाई = धरती का पति।2।

अर्थ: हे भाई! मैं उस अवसर के सदके जाता हूँ (जब मुझे संत जनों की संगति प्राप्त हुई)। (अब मुझे) आठों पहर अपने प्रभू का सिमरन (मिल गया है), और बहुत भाग्यों से मैंने हरी को पा लिया है।1। रहाउ।

हे भाई! कबीर (परमात्मा के) दासों का दास बन के भला बन गया, सैण नाई संत जनों का दास बन के उक्तम जीवन वाला हो गया। (संत जनों की संगत से) नामदेव ऊँचे से ऊँचे जीवन वाला बना, और सबमें परमात्मा की जोति देखने वाला बन गया, (संत जनों की कृपा से ही) रविदास की परमात्मा से प्रीति बन गई।1।

हे नानक! (कह- हे भाई!) मेरी यह जिंद, मेरा यह शरीर, ये तन, ये धन - सब कुछ संत जनों का हो चुका है, मेरा यह मन संत जनों के चरणों की धूड़ बना रहता है। संत जनों के प्रताप से सारे भरम नाश हो जाते हैं और जगत का पति प्रभू मिल जाता है।2।4।18।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh