श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सारग महला ५ दुपदे घरु ४    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मोहन घरि आवहु करउ जोदरीआ ॥ मानु करउ अभिमानै बोलउ भूल चूक तेरी प्रिअ चिरीआ ॥१॥ रहाउ ॥ निकटि सुनउ अरु पेखउ नाही भरमि भरमि दुख भरीआ ॥ होइ क्रिपाल गुर लाहि पारदो मिलउ लाल मनु हरीआ ॥१॥ एक निमख जे बिसरै सुआमी जानउ कोटि दिनस लख बरीआ ॥ साधसंगति की भीर जउ पाई तउ नानक हरि संगि मिरीआ ॥२॥१॥२४॥ {पन्ना 1209}

पद्अर्थ: मोहन = हे मन को मोहने वाले! घरि = (मेरे हृदय-) घर में। करउ = मैं करती हूँ। जोदरीआ = जोदड़ी, मिन्नत। अभिमानै = अहंकार से। बोलउ = बोलती हूँ। भूल चूक = गलतियां, कमियां। प्रिअ = हे प्यारे! तेरी चिरीआ = तेरी चेरी, तेरी दासी।1। रहाउ।

निकटि = नजदीक। सुनउ = सुनती हूँ। अरु = और। पेखउ = देखती हूँ। भरमि = भटक के। गुर = हे गुरू! होइ = हो के। लाहि = दूर कर। पारदो = पर्दा, भिक्ति। मिलउ = मैं मिल सकूँ। हरीआ = हरा भरा।1।

निमख = आँख झपकने जितना समय। जानउ = मैं जानती हूँ। कोटि = करोड़ों। बरीआ = साल, वर्षं भीर = भीड़। जउ = जब। तउ = तब। नानक = हे नानक! संगि = साथ। मिरीआ = मिल गई।2।

अर्थ: हे मोहन प्रभू! मैं मिन्नत करती हॅूँ मेरे हृदय-घर में आ बस। हे मोहन! मैं (सदा) मान करती रहती हूँ, मैं (सदा) अहंकार की बात करती हूँ, मैं बहुत सारी भूलें-चूकें करती हूँ, (फिर भी) हे प्यारे! मैं तेरी (ही) दासी हूँ।1। रहाउ।

हे मोहन! मैं सुनती हूँ (तू) नजदीक (बसता है), पर मैं (तुझे) देख नहीं सकती। सदा भटक-भटक के मैं दुखों में फसी रहती हूँ। हे गुरू! अगर तू दयावान हो के (मेरे अंदर से माया के मोह का) पर्दा दूर कर दे, मैं (सुंदर) लाल (प्रभू) को मिल जाऊँ, और, मेरा मन (आत्मिक जीवन से) हरा-भरा हो जाए।1।

हे भाई! अगर आँख झपकने जितने समय के लिए भी मालिक-प्रभू (मन से) भूल जाए, तो मैं ऐसे समझती हूँ कि करोड़ों दिन लाखों वर्ष गुजर गए हैं। हे नानक! (कह-) जब मुझे साध-संगति का समागम प्राप्त हुआ, तब परमात्मा से मेल हो गया।2।1।24।

सारग महला ५ ॥ अब किआ सोचउ सोच बिसारी ॥ करणा सा सोई करि रहिआ देहि नाउ बलिहारी ॥१॥ रहाउ ॥ चहु दिस फूलि रही बिखिआ बिखु गुर मंत्रु मूखि गरुड़ारी ॥ हाथ देइ राखिओ करि अपुना जिउ जल कमला अलिपारी ॥१॥ हउ नाही किछु मै किआ होसा सभ तुम ही कल धारी ॥ नानक भागि परिओ हरि पाछै राखु संत सदकारी ॥२॥२॥२५॥ {पन्ना 1209}

पद्अर्थ: सोचउ = मैं सोचूँ। किआ सोचउ = मैं कौन से सोचें सोचूँ? बिसारी = छोड़ दी है। सा = थी। बलिहारी = मैं सदके हूँ।1। रहाउ।

चहु दिस = चारों तरफ, सारे जगत में। बिखिआ = माया। बिखु = जहर। मूखि = मुँह में। गरुतारी = (साँप का जहर काटने वाला) गरुड़ मंत्र। देइ = दे के। राखिओ = रक्षा की। करि = कर के, बना के। अलिपारी = अलिप्त, निर्लिप।1।

हउ = मैं। होसा = होसां, होऊँगा, हो सकता हूँ। कल = कला, सक्ता। धारी = टिकाई हुई है। भागि = भाग के। पाछै = शरन। राखु = रक्षा कर। हरि = हे हरी! सदकारी = सदका।2।

अर्थ: हे प्रभू! मुझे अपना नाम बख्श, मैं कुर्बान जाता हूँ। (तेरो नाम की बरकति से) अब मैं और कौ-कौन सी सोचें सोचूँ? मैंने हरेक सोच बिसयार दी है। (हे भाई! उसके नाम के सदका अब मुझे यकीन बन गया है कि) जो कुछ करना चाहता हूँ वही कुछ वह कर रहा है।1। रहाउ।

हे भाई! सारे जगत में माया (सर्पनी) की जहर बढ़-फूल रही है (इससे वही बचता है जिसके) मुँह में गुरू के उपदेश (वाला) गरुड़-मंत्र है। हे भाई! जिस मनुष्य को प्रभू अपना हाथ दे के अपना बना के रक्षा करता है, वह जगत में इस प्रकार निर्लिप रहता है जैसे पानी में कमल का फूल।1।

हे नानक! (कह- हे प्रभू!) ना तो अब ही मेरी कोई बिसात है, ना ही आगे मेरी कोई समर्थता हो सकती है। हर जगह तूने ही अपनी सक्ता टिकाई हुई है। हे हरी! (माया सर्पनी से बचने के लिए) मैं भाग के तेरे संतों की शरण पड़ा हूँ, संत-शरण के सदके मेरी रक्षा कर।2।2।25।

सारग महला ५ ॥ अब मोहि सरब उपाव बिरकाते ॥ करण कारण समरथ सुआमी हरि एकसु ते मेरी गाते ॥१॥ रहाउ ॥ देखे नाना रूप बहु रंगा अन नाही तुम भांते ॥ देंहि अधारु सरब कउ ठाकुर जीअ प्रान सुखदाते ॥१॥ भ्रमतौ भ्रमतौ हारि जउ परिओ तउ गुर मिलि चरन पराते ॥ कहु नानक मै सरब सुखु पाइआ इह सूखि बिहानी राते ॥२॥३॥२६॥ {पन्ना 1209}

पद्अर्थ: अब = अब (गुर मिलि)। मोहि = मैं। उपाव = (शब्द 'उपाउ' का बहुवचन)। बिकराते = छज्ञेड़ दिण् हैं। करण = जगत। करण कारण = हे जगत के मूल! समरथ = हे सारी ताकतों के मालिक! सुआमी = हे मालिक! ऐकसु ते = एक तुझसे ही। गाते = गति, उच्च आत्मिक अवस्था।1। रहाउ।

नाना = कई किस्मों के। बहु = अनेकों। अन = अन्य, कई और। भांते = भांति, जैसा। देंहि = तू देता है (यह 'ं' वनंगी मात्र है राहबरी के लिए। जब भी कहीं वर्तमान काल मध्यम पुरुष एक वचन की क्रिया हो, तब उसके 'ह' के साथ बिंदी 'ं' का उच्चारण करना है)। अधारु = आसरा। ठाकुर = हे ठाकुर! जीअ दाते = हे जिंद के देने वाले! प्रान दाते = हे प्राण देने वाले! सुख दाते = हे सुख देने वाले!।1।

भ्रमतो = भटकते हुए। जउ = जब। हारि परिओ = थक गया। तउ = तब। गुर मिलि = गुरू को मिल के। पराते = पहचान लिए, कद्र समझ ली। सरब सुख = सारे सुख देने वाला। सूखि = सुख में, आनंद में। बिहानी = बीत रही है। राते = जिंदगी की रात।2।

अर्थ: हे जगत के मूल हरी! हे सारी ताकतों के मालिक स्वामी! (गुरू को मिल के) अब मैंने और सारे उपाय त्याग दिए हैं, (मुझे निश्चय हो गया है कि) सिर्फ तेरे दर से ही मेरी ऊँची आत्मिक अवस्था बन सकती है।1। रहाउ।

हे प्रभू! मैंने (जगत के) अनेकों कई किस्मों के रूप-रंग देख लिए हैं, तेरे जैसा (सुंदर) और कोई नहीं है। हे ठाकुर! हे जिंद के दाते! हे प्राण दाते! हे सुख दाते! सब जीवों को तू ही आसरा देता है।1।

हे नानक! कह- हे भाई! भटकते-भटकते जब मैं थक गया, तब गुरू को मिल के मैंने परमात्मा की कद्र समझ ली। अब मैंने सारे सुख देने वाले प्रभू को पा लिया है, और मेरी (जिंदगी की) रात सुख-आनंद में व्यतीत हो रही है।2।3।26।

सारग महला ५ ॥ अब मोहि लबधिओ है हरि टेका ॥ गुर दइआल भए सुखदाई अंधुलै माणिकु देखा ॥१॥ रहाउ ॥ काटे अगिआन तिमर निरमलीआ बुधि बिगास बिबेका ॥ जिउ जल तरंग फेनु जल होई है सेवक ठाकुर भए एका ॥१॥ जह ते उठिओ तह ही आइओ सभ ही एकै एका ॥ नानक द्रिसटि आइओ स्रब ठाई प्राणपती हरि समका ॥२॥४॥२७॥ {पन्ना 1209}

पद्अर्थ: मोहि = मैं। लबधिओ = पा लिया है। टेका = आसरा। दइआल = दयावान। अंधुलै = मैं अंधे ने। माणिकु = नाम मोती। देखा = देख लिया है।1। रहाउ।

अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझी। तिमर = अंधेरे। निरमलीआ = पवित्र। बुधि = बुद्धि, अकल। बिगास = प्रकाश। बिबेका = (अच्छे बुरे की) परख करने की शक्ति। फेनु = झाग। ठाकुर = मालिक प्रभू।1।

जह ते = जिस जगह से। द्रिसटि आइओ = दिखा दे गया है। स्रब ठाई = सब जगह। समका = एक समान।2।

अर्थ: हे भाई! जब से सारे सुख देने वाले सतिगुरू जी (मेरे ऊपर) दयावान हुए हैं, मैं अंधे ने नाम-मोती देख लिया है, और, अब मैंने परमात्मा का आसरा पा लिया है।1। रहाउ।

हे भाई! (गुरू की कृपा से मेरे अंदर से) आत्मिक जीवन से बेसमझी के के अंधेरे काटे गए हैं, मेरी बुद्धि निर्मल हो गई है, मेरे अंदर अच्छे-बुरे की परख की शक्ति का प्रकाश हो गया है। (मुझे समझ आ गया है कि) जैसे पानी की लहरें और झाग सब कुछ पानी ही हो जाता है, वैसे ही मालिक-प्रभू और उसके सेवक एक-रूप हो जाते हैं।1।

हे नानक! (कह- गुरू की कृपा से यह समझ आ गई है कि) जिस प्रभू से यह जीव उपजता है उसमें ही लीन होता है, यह सारी रचना ही एक प्रभू का खेल-पसारा है। (गुरू की किरपा से) दिखाई दे गया है कि प्राणों का मालिक हरी सब जगह एक समान बस रहा है।2।4।27।

सारग महला ५ ॥ मेरा मनु एकै ही प्रिअ मांगै ॥ पेखि आइओ सरब थान देस प्रिअ रोम न समसरि लागै ॥१॥ रहाउ ॥ मै नीरे अनिक भोजन बहु बिंजन तिन सिउ द्रिसटि न करै रुचांगै ॥ हरि रसु चाहै प्रिअ प्रिअ मुखि टेरै जिउ अलि कमला लोभांगै ॥१॥ गुण निधान मनमोहन लालन सुखदाई सरबांगै ॥ गुरि नानक प्रभ पाहि पठाइओ मिलहु सखा गलि लागै ॥२॥५॥२८॥ {पन्ना 1209}

पद्अर्थ: ऐकै ही प्रिअ = सिर्फ प्यारे प्रभू का (दर्शन) ही। मांगै = मांगता है (एक वचन)। पेखि = देख के। समसरि = बराबर।1। रहाउ।

नीरे = परोसे, थाल में डाल के रखे। बिंजन = स्वादिष्ट पदार्थ। द्रिसटि = दृष्टि, निगाह। रुचांगै = रुचि। रसु = स्वाद। प्रिउ = हे प्यारे! मुखि = मुँह से। टेरै = बोलता है। अलि = भौरा। कमला = कमल का फूल। लोभांगै = ललचाता है।1।

गुण निधान = हे गुणों के खजाने! लालन = हे सुंदर लाल! सरबांगै = हे सब जीवों में व्यापक! गुरि = गुरू ने। नानक = हे नानक! (कह)। पाहि = पास। पठाइओ = भेजा है। सखा = हे मित्र! गलि लागै = गले से लग के।2।

अर्थ: हे भाई! मेरा मन सिर्फ प्यारे प्रभू के ही दर्शन माँगता है। मैं सारे देश सारी जगह देख आया हूँ, (उनमें से कोई भी सुंदरता में) प्यारे (प्रभू) के एक रोम जितनी भी बराबरी नहीं कर सकता।1। रहाउ।

हे भाई! मैं अनेकों भोजन, अनेकों स्वादिष्ट व्यंञन परोस के रखता हूँ, (मेरा मन) उनकी तरफ निगाह भी नहीं करता, (इसकी) उनकी ओर कोई रुचि नहीं। हे भाई! जैसे भौरा कमल के फूल के लिए ललचाता ह, वैसे ही (मेरा मन) परमातमा (के नाम) का स्वाद (ही) माँगता है, मुँह से 'हे प्यारे प्रभू! हे प्यारे प्रभू!' ही बोलता रहता है।1।

हे नानक! (कह-) हे गुणों के खजाने! हे मन को मोहने वाले! हे सोहणे लाल! ळे सारे सुख देने वाले! हे सब जीवों में व्यापक! हे प्रभू! हे मित्र प्रभू! मुझे गुरू ने (तेरे) पास भेजा है, मुझे गले लग के मिल।2।5।28।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh