श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सारग महला ५ ॥ अब मोरो ठाकुर सिउ मनु मानां ॥ साध क्रिपाल दइआल भए है इहु छेदिओ दुसटु बिगाना ॥१॥ रहाउ ॥ तुम ही सुंदर तुमहि सिआने तुम ही सुघर सुजाना ॥ सगल जोग अरु गिआन धिआन इक निमख न कीमति जानां ॥१॥ तुम ही नाइक तुम्हहि छत्रपति तुम पूरि रहे भगवाना ॥ पावउ दानु संत सेवा हरि नानक सद कुरबानां ॥२॥६॥२९॥ {पन्ना 1210}

पद्अर्थ: मोरो मनु = मेरा मन। सिउ = साथ। मानां = रीझ गया है। छेदिओ = काट दिया है। दुसटु = बुरा। बिगाना = बेगानापन।1। रहाउ।

सुघर = सुंदर आत्मिक घाड़त वाला। सुजाना = समझदार। सगल = सारे। अरु = और। निमख = आँख झपकने जितना समय। कीमति = मूल्य, सार, कद्र।1।

नाइक = नायक, मालिक। छत्रपति = राजा। पूरि रहे = सब जगह मौजूद है। पावउ = पाऊँ, मैं हासिल करूँ। दान = ख़ैर। सद = सदा।2।

अर्थ: हे भाई! जब संतजन मेरे पर प्रसन्न हुए, दयावान हुए, (तब मैंने अपने अंदर से परमात्मा से) यह दुष्ट बेगानगी को काट डाला। अब मेरा मन मालिक-प्रभू के साथ (सदा) रीझा रहता है।1। रहाउ।

अब, हे प्रभू! तू ही मुझे सुंदर लगता है, तू ही समझदार प्रतीत होता है, तू ही सुंदर आत्मिक घाड़त वाला और सुजान दिखता है। जोग-साधन, ज्ञान-चर्चा करने वाले और समाधियाँ लगाने वाले- इन सभी ने, हे प्रभू! आँख झपकने जितने समय के लिए भी तेरी कद्र नहीं समझी।1।

हे भगवान! तू ही (सब जीवों का) मालिक है, तू ही (सब राजाओं का) राजा है, तू सारी सृष्टि में व्यापक है। हे नानक! (कह-) हे हरी! (मेहर कर, तेरे दर से) मैं संत जनों की सेवा की ख़ैर हासिल करूँ, मैं संत जनों से सदा सदके जाऊँ।2।6।29।

सारग महला ५ ॥ मेरै मनि चीति आए प्रिअ रंगा ॥ बिसरिओ धंधु बंधु माइआ को रजनि सबाई जंगा ॥१॥ रहाउ ॥ हरि सेवउ हरि रिदै बसावउ हरि पाइआ सतसंगा ॥ ऐसो मिलिओ मनोहरु प्रीतमु सुख पाए मुख मंगा ॥१॥ प्रिउ अपना गुरि बसि करि दीना भोगउ भोग निसंगा ॥ निरभउ भए नानक भउ मिटिआ हरि पाइओ पाठंगा ॥२॥७॥३०॥ {पन्ना 1210}

पद्अर्थ: मेरै मनि = मेरे मन में। मेरै चिति = मेरे चिक्त में प्रिअ रंगा = प्यारे के करिश्मे। माइआ को धंधु = माया का धंधा। माइआ को बंधु = माया (के मोह) का बंधन। रजनि = (उम्र की) रात। सबाई = सारी। जंगा = (कामादिकों से) युद्ध (करते हुए)।1। रहाउ।

सेवउ = मैं सिमरता हूँ। रिदै = हृदय में। बसावउ = मैं बसाता हूँ। मनोहर = मन को मोहने वाला। सुख मुख मंगा = मुँह मांगे सुख।1।

गुरि = गुरू ने। बसि = वश में। भोगउ = मैं भोगता हॅू। भोग = प्रभू मिलाप का आनंद। निसंगा = (कामादिको की) रुकावट के बिना। पाठंगा = आसरा।2।

अर्थ: हे भाई! (जब सें साध-संगति की बरकति से) प्यारे प्रभे करिश्मे मेरे मन में मेरे चिक्त में आ बसे हैं, मुझे माया वाली भटकना भूल गई है, माया के मोह की फाही समाप्त हो गई है, मेरी सारी उम्र-रात (विकारों से) जंग करती हुई बीत रही है।1। रहाउ।

हे भाई! जब से मैंने प्रभू की साध-संगति प्राप्त की है, मैं परमात्मा का सिमरन करता रहता हूँ, मैं परमात्मा को अपने हृदय में बसाए रखता हूँ। मन को मोहने वाला प्रीतम-प्रभू इस तरह मुझे मिल गया है कि मैंने मुँह-माँगे सुख हासिल कर लिए हैं।1।

हे भाई! गुरू ने प्यारा प्रभू मेरे (प्यार के) वश में कर दिया है, अब (कामादिकों की) रुकावट के बिना मैं उसके मिलाप का आत्मिक आनंद लेता रहता हूँ। हे नानक! (कह-) मैंने (जीवन का) आसरा प्रभू पा लिया है, मेरा हरेक डर मिट गया है, मैं (कामादिकों के हमलों के खतरे से) निडर हो गया हूँ।2।7।30।

सारग महला ५ ॥ हरि जीउ के दरसन कउ कुरबानी ॥ बचन नाद मेरे स्रवनहु पूरे देहा प्रिअ अंकि समानी ॥१॥ रहाउ ॥ छूटरि ते गुरि कीई सुोहागनि हरि पाइओ सुघड़ सुजानी ॥ जिह घर महि बैसनु नही पावत सो थानु मिलिओ बासानी ॥१॥ उन्ह कै बसि आइओ भगति बछलु जिनि राखी आन संतानी ॥ कहु नानक हरि संगि मनु मानिआ सभ चूकी काणि लुोकानी ॥२॥८॥३१॥ {पन्ना 1210}

पद्अर्थ: कउ = को। कुरबानी = सदके। बचन नाद = सिफतसालाह की बाणी की आवाजें। स्रवनह = कानों में। पूरे = भरे रहते हैं। देहा = (मेरा) शरीर। प्रिअ अंकि = प्यारे की गोद में।1। रहाउ।

छूटरि = छुटॅड़। ते = से। गुरि = गुरू ने।

'सुोहागनि' अक्षर 'स' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द 'सोहागनि' है यहाँ 'सुहागनि' पढ़ना है ।

सुहाग वाली, पति वाली। सुघड़ = सुंदर आत्मिक घाड़त वाला। जिह घरि महि = जिस घर में, जिन प्रभू चरणों में। बैसनु = बैठना। बासानी = बसने के लिए।1।

उन् कै बसि = उन (संत जनों) के वश में। भगति बछलु = भगती से प्यार करने वाला प्रभू। जिनि = जिस (प्रभू) ने। आन = इज्जत, लाज। संतानी = संता की। संगि = साथ। मानिआ = रीझ गया है। चूकी = समाप्त हो गई है। काणि = मुथाजी। लुोकानी = लोगों की (असल शब्द 'लाकानी' है यहाँ 'लुकानी' पढ़ना है)।2।

अर्थ: हे भाई! मैं प्रभू जी के दर्शनों से सदके हूँ। उसकी सिफतसालाह के गीत मेरे कानों में भरे रहते हैं, मेरा शरीर उसकी गोद में लीन रहता है (यह सारी गुरू की ही कृपा है)।1। रहाउ।

हे भाई! गुरू ने मुझे छॅुटड़ से सोगनि बना दिया है, मैंने सुंदर आत्मिक घाड़त वाले सुजान प्रभू का मिलाप हासिल कर लिया है। (मेरे मन को) वह (हरी-चरण-) स्थल बसने के लिए मिल गया है, जिस जगह पर (पहले कभी यह) टिकता ही नहीं था।1।

हे भाई! भक्ति से प्यार करने वाला परमात्मा जिसने (सदा अपने) संतों की लाज रखी है उन संत-जनों के प्यार के वश में आया रहता है। हे नानक! कह- (संत-जनों की कृपा से) मेरा मन परमात्मा के साथ रीझ गया है, (मेरे अंदर से) लोगों की मुथाजी समाप्त हो गई है।2।8।31।

सारग महला ५ ॥ अब मेरो पंचा ते संगु तूटा ॥ दरसनु देखि भए मनि आनद गुर किरपा ते छूटा ॥१॥ रहाउ ॥ बिखम थान बहुत बहु धरीआ अनिक राख सूरूटा ॥ बिखम गार्ह करु पहुचै नाही संत सानथ भए लूटा ॥१॥ बहुतु खजाने मेरै पालै परिआ अमोल लाल आखूटा ॥ जन नानक प्रभि किरपा धारी तउ मन महि हरि रसु घूटा ॥२॥९॥३२॥ {पन्ना 1210}

पद्अर्थ: मेरो संगु = मेरा साथ। पंचा ते = कामादिक पाँचों से। देखि = देख के। मनि = मन में। किरपा ते = कृपा से। छूटा = स्वतंत्र हो गया हूँ।1। रहाउ।

बिखम थान = वह जगह जहाँ पहुँचना बहुत मुश्किल है। धरीआ = (नाम खजाना) रखा हुआ है। राख = रखवाले, कामादिक रखवाले। सूरूटा = सूरमे। गार् = गार्ह, गड्ढा, खाई। करु = हाथ। सानथ = साथी।1।

मेरै पालै = मेरे पल्ले, मेरे काबू। अखूटा = अखॅुट। प्रभि = प्रभू ने। घूटा = घूट घूट करके पीता।2।

अर्थ: हे भाई! गुरू की मेहर से मैं (कामादिक की मार से) बच गया हूँ। अब (कामादिक) पाँचों से मेरा साथ समाप्त हो गया है (मेरे अंद रनाम-खजाना छुपा पड़ा था, गुरू के माध्यम से उसके) दर्शन करके मेरे मन में खुशियाँ ही खुशियाँ बन गई हैं।1। रहाउ।

हे भाई! जिस जगह नाम-खजाने रखे हुए थे, वहाँ पहुँचना बहुत ही मुश्किल था (क्योंकि कामादिक) अनेकों सूरमे (राह में) रखवाले बने हुए थे (पहरेदार बन के खड़े थे)। (उसके चारों तरफ माया के मोह की) बड़ी गहरी खाई बनी हुई थी, (उस खजाने तक) हाथ नहीं था पहुँचता। जब संत-जन मेरे साथी बन गए, (वह ठिकाना) लूट लिया।1।

(संत जनों की किरपा से) हरी-नाम के अमूल्य लालों के बहुत सारे खजाने मुझे मिल गए। हे दास नानक! (कह-) जब प्रभू ने मेरे ऊपर मेहर की, तब मैं अपने मन में हरी-नाम का रस पीने लग गया।2।9।32।

सारग महला ५ ॥ अब मेरो ठाकुर सिउ मनु लीना ॥ प्रान दानु गुरि पूरै दीआ उरझाइओ जिउ जल मीना ॥१॥ रहाउ ॥ काम क्रोध लोभ मद मतसर इह अरपि सगल दानु कीना ॥ मंत्र द्रिड़ाइ हरि अउखधु गुरि दीओ तउ मिलिओ सगल प्रबीना ॥१॥ ग्रिहु तेरा तू ठाकुरु मेरा गुरि हउ खोई प्रभु दीना ॥ कहु नानक मै सहज घरु पाइआ हरि भगति भंडार खजीना ॥२॥१०॥३३॥ {पन्ना 1210}

पद्अर्थ: ठाकुर सिउ = मालिक प्रभू से। लीना = लीन हो गया, ऐक मेक हो गया। प्रान दानु = आत्मिक जीवन की खैर। गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। उरझाइओ = (गुरू ने ठासकुर से) अच्छी तरह जोड़ दिया है। मीना = मछली।1। रहाउ।

मद = अहंकार। मतसर = ईष्या। अरपि = अरप के। अरपि दानु कीना = अरप के दान कर दिए हैं, सदा के लिए छोड़ दिए हैं। मंत्रु = उपदेश। द्रिढ़ाइ = (हृदय में) पक्का कर के। अउखधु = दवा दारू। गुरि = गुरू ने। तउ = तब। सगल प्रबीना = सारे गुरू में प्रवीण प्रभू।1।

ग्रिहु = हृदय घर। ठाकुरु = मालिक। गुरि = गुरू ने। हउ = अहंकार। खोई = दूर कर दी है। सहज घरु = आत्मिक अडोलता वाली जगह। पाइआ = पा लिया है। खजीना = खजाने।2।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरू ने मुझे आत्मिक जीवन की दाति बख्शी है, मुझे ठाकुर प्रभू के साथ यूँ जोड़ दिया है जैसे मछली पानी के साथ। अब मेरा मन ठाकुर-प्रभू के साथ ऐक-मेक हुआ रहता है।1। रहाउ।

हे भाई! जब से गुरू ने (अपना) उपदेश मेरे हृदय में पक्का कर के मुझे हरी-नाम की दवाई दी है, तब से मुझे सारे गुणों में प्रवीण गुरू मिल गया है, और, मैंने (अपने अंदर से) काम क्रोध लोभ अहंकार ईष्या (आदि सारे विकार) सदा के लिए निकाल दिए हैं।1।

हे प्रभू! (अब मेरा हृदय) तेरा घर बन गया है, तू (सचमुच) मेरे (इस घर का) मालिक बन गया है। हे भाई! गुरू ने मेरे अहंकार को दूर कर दिया है, मुझे प्रभू से मिला दिया है। हे नानक! कह- (गुरू की कृपा से) मैंने आत्मिक अडोलता का श्रोत पा लिया है। मैंने परमात्मा की भक्ति के भण्डारे खजाने पा लिए हैं।2।10।33।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh