श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1217 सारग महला ५ ॥ करहु गति दइआल संतहु मोरी ॥ तुम समरथ कारन करना तूटी तुम ही जोरी ॥१॥ रहाउ ॥ जनम जनम के बिखई तुम तारे सुमति संगि तुमारै पाई ॥ अनिक जोनि भ्रमते प्रभ बिसरत सासि सासि हरि गाई ॥१॥ जो जो संगि मिले साधू कै ते ते पतित पुनीता ॥ कहु नानक जा के वडभागा तिनि जनमु पदारथु जीता ॥२॥४२॥६५॥ {पन्ना 1217} पद्अर्थ: गति = उच्च आत्मिक अवस्था। दइआल = हे दया के श्रोत! स्ंतहु = हे संत जनो! मोरी = मेरी। समरथ = सब ताकतों के मालिक। कारन करना = जगत का मूल। करना = करण, जगत। जोरी = जोड़ी।1। रहाउ। बिखई = विषयी, विकारी। सुमति = श्रेष्ठ बुद्धि। संगि = संगत में। भ्रमते = भटकते। बिसरत = बिसारते हुए। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। गाई = गाया।1। संगि = साथ। साधू कै संगि = गुरू की संगति में। ते ते = वह सारे। पतित = विकारों में गिरे हुए। पुनीता = पवित्र, स्वच्छ जीवन वाले। जा के = जिस (मनुष्य) के। तिनि = उस (मनुष्य) ने। जनमु पदारथु = कीमती मनुष्य जन्म।2। अर्थ: हे दया के श्रोत संतजनो! (मेहर कर के) मेरी उच्च आत्मिक अवस्था कर दो। तुम सब ताकतों के मालिक और जगत के मूल परमात्मा का रूप हो। परमात्मा से टूटी हुई सुरति को तुम ही जोड़ने वाले हो।1। रहाउ। हे संत जनो! अनेकों जन्मों के विकारियों को तुम (विकारों से) बचा लेते हो, तुम्हारी संगति में रहने से श्रेष्ठ-बुद्धि प्राप्त हो जाती है। परमात्मा को भुला के अनेकों जूनियों में भटकते हुओं ने भी (तुम्हारी संगति में) हरेक साँस के साथ प्रभू की सिफत-सालाह आरम्भ कर दी।1। हे भाई! जो जो मनुष्य गुरू की संगति में मिलते हैं, वे सारे विकारों (भरे जीवन) से (हट कर) स्वच्छ जीवन वाले बन जाते हैं। हे नानक! कह- जिस मनुष्य के बड़े भाग्य जाग उठे, उसने (संत जनों की संगति में रह के) ये कीमती मनुष्य जन्म (विकारों के आगे) हारने से बचा लिया।2।42।65। सारग महला ५ ॥ ठाकुर बिनती करन जनु आइओ ॥ सरब सूख आनंद सहज रस सुनत तुहारो नाइओ ॥१॥ रहाउ ॥ क्रिपा निधान सूख के सागर जसु सभ महि जा को छाइओ ॥ संतसंगि रंग तुम कीए अपना आपु द्रिसटाइओ ॥१॥ नैनहु संगि संतन की सेवा चरन झारी केसाइओ ॥ आठ पहर दरसनु संतन का सुखु नानक इहु पाइओ ॥२॥४३॥६६॥ {पन्ना 1217} पद्अर्थ: ठाकुर = हे मालिक प्रभू! जनु = (तेरा) दास। सरब = सारे। सहज = आत्मिक अडोलता। सुनत = सुनते हुए। तुहारो नाइओ = तेरा नाम।1। रहाउ। क्रिपा निधान = हे मेहर के खजाने! सागर = हे समुंद्र! जसु = शोभा। जा को = जिसका। छाइओ = बिखरा हुआ। रंग = आनंद करिश्मे। आपु = अपने आप को। द्रिसटाइओ = प्रकट करता है।1। नैनहु संगि = आँखों के साथ। झारी = मैं झाड़ता हूँ। केसाइओ = केसों से।2। अर्थ: हे (मेरे) मालिक-प्रभू! (तेरा) दास (तेरे दर पे) विनती करने आया है। तेरा नाम सुनते हुए आत्मिक अडोकलता के सारे सुख सारे आनंद सारे रस (मिल जाते हैं)।1। रहाउ। हे दया के खजाने! हे सुखों के समुंद्र! (तू ऐसा है) जिसकी शोभा सारी सृष्टि में अपना प्रभाव डालती है। संतों की संगति में तू अनेकों आनंद-करिश्मे करता है, और, अपने आप को प्रकट करता है।1। हे नानक! (कह- हे प्रभू! मेहर कर) आँखों से (दर्शन कर के) मैं संत जनों की सेवा करता रहूँ, उनके चरन अपने केसों से झाड़ता रहूँ। मैं आठों पहर संत जनों के दर्शन करता रहूँ, मुझे यह सुख मिला रहे।2।43।66। सारग महला ५ ॥ जा की राम नाम लिव लागी ॥ सजनु सुरिदा सुहेला सहजे सो कहीऐ बडभागी ॥१॥ रहाउ ॥ रहित बिकार अलप माइआ ते अह्मबुधि बिखु तिआगी ॥ दरस पिआस आस एकहि की टेक हीऐं प्रिअ पागी ॥१॥ अचिंत सोइ जागनु उठि बैसनु अचिंत हसत बैरागी ॥ कहु नानक जिनि जगतु ठगाना सु माइआ हरि जन ठागी ॥२॥४४॥६७॥ {पन्ना 1217} पद्अर्थ: जा की लिव = जिस मनुष्य की लगन। सजनु = भला मनुष्य। सुरिदा = सुंदर हृदय वाला। सुहेला = सुखी। सहजे = आत्मिक अडोलता में टिका हुआ। कहीअै = कहा जा सकता है।1। रहाउ। रहित = बचा हुआ। अलप = अलिप्त, निर्लिप। ते = से। अहंबुधि = अहंकार वाली बुद्धि। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। पिआस = तमन्ना। आस = उम्मीद। ऐकहि की = एक परमात्मा की ही। टेक = आसरा। हीअैं = हृदय में। प्रिअ लागी = प्यारे के पैरों की, प्यारे के चरणों की।1। अचिंत = चिंता रहित। सोइ जागनु = सो के जागना। उठि बैसनु = उठ के बैठना। सोइ...बैसनु = सोते हुए जागते हुए उठते हुए बैठे हुए। हसत = हसते हुए। बैरागी = वैराग करते हुए। जिनि = जिस (माया) ने। हरि जन = हरी के जनों ने।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य की लगन परमात्मा के नाम के साथ लग जाती है, वह भला मनुष्य बन जाता है, वह सुंदर हृदय वाला हो जाता है, वह सुखी हो जाता है, वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। उसको बहुत भाग्यशाली कहना चाहिए।1। रहाउ। हे भाई! (जिस मनुष्य की सुरति परमात्मा के नाम में जुड़ती है, वह) विकारों से बचा रहता है, माया से निर्लिप रहता है, आत्मिक मौत लाने वाला अहंकार-जहर वह त्याग देता है। उसको सिर्फ परमात्मा के दर्शनों की तमन्ना और इन्तजार बना रहता है, वह मनुष्य अपने हृदय में प्यारे प्रभू के चरणों का आसरा बनाए रखता है।1। हे भाई! (परमात्मा के नाम में सुरति जोड़ के रखने वाला मनुष्य) सोता-जागता उठता-बैठता, हसता, वैराग करता - हर वक्त ही चिंता-रहित रहता है। हे नानक! कह-जिस माया ने सारे जगत को भरमाया है, संत जनों ने उस माया को अपने वश में रखा हुआ है।2।44।67। सारग महला ५ ॥ अब जन ऊपरि को न पुकारै ॥ पूकारन कउ जो उदमु करता गुरु परमेसरु ता कउ मारै ॥१॥ रहाउ ॥ निरवैरै संगि वैरु रचावै हरि दरगह ओहु हारै ॥ आदि जुगादि प्रभ की वडिआई जन की पैज सवारै ॥१॥ निरभउ भए सगल भउ मिटिआ चरन कमल आधारै ॥ गुर कै बचनि जपिओ नाउ नानक प्रगट भइओ संसारै ॥२॥४५॥६८॥ {पन्ना 1217} पद्अर्थ: को = कोई (मनुष्य)। पुकारै = दूषण लगाता, उंगली करता। पूकारन कउ = दूषण लगाने के लिए। ता कउ = उस (मनुष्य) को। मारै = (आत्मिक मौत) मारता है, आत्मिक जीवन तुच्छ कर देता है।1। रहाउ। संगि = साथ। रचावै = सहेड़ता है। हारै = हार जाता है, जीवन बाज़ी हार जाता है, आत्मिक जीवन के तोल में पूरा नहीं उतरता। जुगादि = जुगासें के आरम्भ से। वडिआई = बिरद। पैज = इज्जत।1। सगल = सारा। आधारै = आसरे, आसरा लेने से। कै बचनि = के बचन से, के बचन पर चलने से। संसारै = संसार में।2। अर्थ: हे भाई! (जब मनुष्य गुरू के वचनों पर चल कर हरी-नाम जपता है) तब उस सेवक पर कोई मनुष्य कोई दूषण नहीं लगा सकता। जो मनुष्य प्रभू के सेवक पर दूषणबाज़ी का यतन करता है, गुरू परमात्मा उसका आत्मिक जीवन नीच कर देता है।1। रहाउ। हे भाई! जो मनुष्य कभी किसी के साथ वैर नहीं करता, उसके साथ जो भी वैर कमाता है, वह मनुष्य परमात्मा की दरगाह में आत्मिक जीवन की कसौटी पर पूरा नहीं उतरता। हे भाई! जगत के आरम्भ से, जुगों की शुरूवात से ही परमात्मा का यह गुण (बिरद) चला आ रहा है कि वह अपने सेवक की लाज रखता है।1। हे भाई! परमात्मा के सुदर चरणों का आसरा लेने से प्रभू का सेवक निर्भय हो जाता है, उसका (दुनियावी) हरेक डर मिट जाता है। हे नानक! (कह-) गुरू के उपदेश पर चल के जिसने भी परमात्मा का नाम जपा, वह जगत में नामवर (मशहूर) हो गया।2।45।68। सारग महला ५ ॥ हरि जन छोडिआ सगला आपु ॥ जिउ जानहु तिउ रखहु गुसाई पेखि जीवां परतापु ॥१॥ रहाउ ॥ गुर उपदेसि साध की संगति बिनसिओ सगल संतापु ॥ मित्र सत्र पेखि समतु बीचारिओ सगल स्मभाखन जापु ॥१॥ तपति बुझी सीतल आघाने सुनि अनहद बिसम भए बिसमाद ॥ अनदु भइआ नानक मनि साचा पूरन पूरे नाद ॥२॥४६॥६९॥ {पन्ना 1217} पद्अर्थ: हरि जन = प्रभू के सेवकों ने। आपु = स्वै भाव, अहम्। गुसाई = हे जगत के साई! पेखि = देख के। जीवां = मैं जीता हूँ, मुझे आत्मिक जीवन प्राप्त होता है।1। रहाउ। गुर उपदेसि = गुरू के उपदेश से। संतापु = दुख कलेश। सत्र = शत्रु, वैरी। समतु = एक समान। संभाखनु = बोल चाल।1। तपति = जलन। आघाने = तृप्त हो गए। सुनि = सुन के। अनहद = एक रस नाम की धुनि। बिसम = हैरान, आश्चर्य। मनि = मन मे। साचा = सदा कायम रहने वाला। पूरन = पूरे तौर पर। पूरे नाद = नाद पूरे हो जाते हैं, नाद बजते हें, सिफतसालाह की घनघोर होती है (जैसे, शंख पूरना = शंख बजाना)।2। अर्थ: हे प्रभू! (जैसे) तेरे भक्तों ने स्वै भाव त्यागा होता है (और, तेरे दर पर आरजू करते हैं वैसे ही मैं भी स्वै-भाव छोड़ के विनती करता हूँ-) हे जगत के पति! जैसे हो सके वैसे (इस माया के हाथ से) मेरी रक्षा कर। तेरा प्रताप देख के मैं आत्मिक जीवन हासिल करता रहूँ।1। रहाउ। हे भाई! गुरू के उपदेश से, साध-संगति की बरकति से (जिस मनुष्य के अंदर से) सारा दुख-कलेश नाश हो जाता है, वह अपने मित्रों-वैरियों को देख के (सबमें प्रभू की ही जोति) एक-समान समझता है, परमात्मा के नाम का सिमरन ही उसकी हर वक्त की बोलचाल है।1। हे नानक! (जिन मनुष्यों के) मन में सदा-स्थिर प्रभू आ बसता है, (उनके अंदर की) जलन बुझ जाती है, (उनका हृदय) शांत हो जाता है, वह (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो जाते हैं; एक-रस नाम की धुनि सुन के वह आश्चर्य हुए रहते हैं, उनके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है (जैसे कि उनके अंदर) पूरे तौर पर शंख आदि नाद बज रहे हैं।2।46।69। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |