श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सारग महला ५ ॥ मेरै गुरि मोरो सहसा उतारिआ ॥ तिसु गुर कै जाईऐ बलिहारी सदा सदा हउ वारिआ ॥१॥ रहाउ ॥ गुर का नामु जपिओ दिनु राती गुर के चरन मनि धारिआ ॥ गुर की धूरि करउ नित मजनु किलविख मैलु उतारिआ ॥१॥ गुर पूरे की करउ नित सेवा गुरु अपना नमसकारिआ ॥ सरब फला दीन्हे गुरि पूरै नानक गुरि निसतारिआ ॥२॥४७॥७०॥ {पन्ना 1218}

पद्अर्थ: मेरै गुरि = मेरे गुरू ने। मोरो = मेरा। सहसा = सहम, दोचिक्ता पन। कै = से। वारिआ = कुर्बान, सदके।1। रहाउ।

मनि = मन मे। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। मजनु = स्नान। किलविख = पाप।1।

सरब = सारे। गुरि = गुरू ने। निसतारिओ = पार लंघा दिया है।2।

अर्थ: हे भाई! मेरे गुरू ने (मेरे अंदर से हर वक्त का) सहम दूर कर दिया है। हे भाई! मैं (उस गुरू से) सदा सदा ही सदके जाता हूँ।1। रहाउ।

हे भाई! मैं दिन-रात (अपने) गुरू का नाम याद रखता हूँ, मैं अपने मन में गुरू के चरण टिकाए रखता हूँ (भाव, अदब-सत्कार से गुरू की याद हृदय में बसाए रखता हूँ)। मैं सदा गुरू के चरणों की धूड़ में स्नान करता रहता हूँ, (इस स्नान ने मेरे मन से) पापों की मैल उतार दी है।1।

हे भाई! मैं सदा पूरे गुरू की (बताई हुई) सेवा करता हूँ, गुरू के आगे सिर झुकाए रखता हूँ। हे नानक! (कह- हे भाई!) पूरे गुरू ने मुझे (दुनिया के) सारे (मुँह-माँगे) फल दिए हैं, गुरू ने (मुझे जगत के विकारों से) पार लंघा लिया है।2।47।70।

सारग महला ५ ॥ सिमरत नामु प्रान गति पावै ॥ मिटहि कलेस त्रास सभ नासै साधसंगि हितु लावै ॥१॥ रहाउ ॥ हरि हरि हरि हरि मनि आराधे रसना हरि जसु गावै ॥ तजि अभिमानु काम क्रोधु निंदा बासुदेव रंगु लावै ॥१॥ दामोदर दइआल आराधहु गोबिंद करत सुोहावै ॥ कहु नानक सभ की होइ रेना हरि हरि दरसि समावै ॥२॥४८॥७१॥ {पन्ना 1218}

पद्अर्थ: सिमरत = सिमरते हुए। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। मिटहि = मिट जाते हैं (बहुवचन)। त्रास = डरा। सभ = सारा। हितु = प्यार।1। रहाउ।

मनि = मन में। आराधे = आराधता है, सिमरता है। रसना = जीभ से। तजि = त्याग के। वासुदेव रंगु = परमात्मा का प्यार।1।

दामोदर = दाम+उदर, परमात्मा। आराधहु = सिमरा करो। सुोहावै = सुंदर लगता है।

'सुोहावै' अक्षर 'स' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'सोहावै, यहां 'सुहावै' पढ़ना है।

रेना = चरणों की धूल। दरसि = दर्शन में।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सिमरते हुए मनुष्य जीवन की ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है। जो मनुष्य साध-संगति में प्यार डालता है, उसके सारे कलेश मिट जाते हैं, उसका हरेक डर दूर हो जाता है।1। रहाउ।

हे भाई! (जो मनुष्य) सदा (अपने) मन में परमात्मा की आराधना करता रहता है, जो अपनी जीभ से प्रभू की सिफतसालाह गाता रहता है, वह मनुष्य (अपने अंदर से) काम-क्रोध-अहंकार-निंदा (आदि विकार) दूर करके (अपने अंदर) परमात्मा का प्रेम पैदा कर लेता है।1।

हे भाई! दया के श्रोत परमात्मा का नाम सिमरते रहा करो। गोबिंद (का नाम) सिमरते हुए ही जीवन सुंदर बनता है। हे नानक! कह- सबकी चरण-धूल हो के मनुष्य परमात्मा के दर्शन में लीन हुआ रहता है।2।48।71।

सारग महला ५ ॥ अपुने गुर पूरे बलिहारै ॥ प्रगट प्रतापु कीओ नाम को राखे राखनहारै ॥१॥ रहाउ ॥ निरभउ कीए सेवक दास अपने सगले दूख बिदारै ॥ आन उपाव तिआगि जन सगले चरन कमल रिद धारै ॥१॥ प्रान अधार मीत साजन प्रभ एकै एकंकारै ॥ सभ ते ऊच ठाकुरु नानक का बार बार नमसकारै ॥२॥४९॥७२॥ {पन्ना 1218}

पद्अर्थ: बलिहारै = सदके। को = का। राखनहारै = रक्षा करने वाले ने।1। रहाउ।

बिदारै = नाश कर देता है। आन = अन्य, और। उपाव = (शब्द 'उपाउ' का बहुवचन) प्रयत्प, उपाय। तिआगि = त्याग के। धारै = टिकाता है। रिद = हृदय में। सगले उपाव = सारे उपाय।1।

अधार = आसरा। ऐकंकारै = परमात्मा (ही)। ते = से। ठाकुरु = मालिक प्रभू। बार बार = मुड़ मुड़ के।2।

अर्थ: हे भाई! मैं अपने गुरू से कुर्बान जाता हूँ। (गुरू परमात्मा के) नाम का प्रताप (जगत में) प्रसिद्ध करता है। रक्षा करने की समर्थता वाला प्रभू (नाम जपने वालों को अनेकों दुखों से) बचाता है।1। रहाउ।

हे भाई! (गुरू की कृपा से ही) प्रभू अपने सेवकों दासों को (दुखों विकारों के मुकाबले के लिए) दलेर कर देता है, (सेवकों के) सारे दुख नाश करता है। (प्रभू का) सेवक (भी) और सारे उपाय छोड़ के परमात्मा के सुंदर चरण (अपने) हृदय में बसाए रखता है।1।

हे भाई! (जो मनुष्य गुरू की मेहर से नाम जपते हैं, उनको ये निश्चय हो जाता है कि) सिर्फ परमात्मा ही सिर्फ प्रभू ही प्राणों का आसरा है और सज्जन-मित्र है। हे भाई! (दास) नानक का (तो परमात्मा ही) सबसे ऊँचा मालिक है। (नानक) सदा बार-बार (परमात्मा को ही) सिर झुकाता है।2।49।72।

सारग महला ५ ॥ बिनु हरि है को कहा बतावहु ॥ सुख समूह करुणा मै करता तिसु प्रभ सदा धिआवहु ॥१॥ रहाउ ॥ जा कै सूति परोए जंता तिसु प्रभ का जसु गावहु ॥ सिमरि ठाकुरु जिनि सभु किछु दीना आन कहा पहि जावहु ॥१॥ सफल सेवा सुआमी मेरे की मन बांछत फल पावहु ॥ कहु नानक लाभु लाहा लै चालहु सुख सेती घरि जावहु ॥२॥५०॥७३॥ {पन्ना 1218}

पद्अर्थ: को = कौन? कहा = कहाँ? बतावहु = बताओ। सुख समूह = सारे सुखों का मूल। करुणा मै = करुणामय, तरस रूप। करता = करतार।1। रहाउ।

सूति = सूत्र में। जा कै सूति = जिस के हुकम रूपी धागे में। जसु = यश, सिफत सालाह का गीत। सिमरि = सिरा करो। जिनि = जिस (ठाकुर) ने। कहा = कहाँ? आन पहि = किसी और के पास।1।

सफल = फल देने वाली। सेवा = भक्ति। मन बांछत = मन मांगे। लाहा = लाभ। लै = ले के। सेती = साथ। घरि = घर में, प्रभू के चरणों में।2।

अर्थ: हे भाई! बताओ, परमात्मा के बिना और कौन (सहायता करने वाला) है और कहाँ है? वह सृजनहार सारे सुखों का श्रोत है, वह प्रभू करुणामय है। हे भाई! सदा उसका सिमरन करते रहो।1। रहाउ।

हे भाई! जिस परमात्मा के (हुकम-रूप) धागे में सारे जीव परोए हुए हैं, उसकी सिफत-सालाह के गीत गाते रहा करो। जिस (मालिक-प्रभू) ने हरेक चीज दी हुई है उसका सिमरन8 किया करो। (उसका आसरा छोड़ के) और कहाँ किसके पास जाते हो?।1।

हे भाई! मेरे मालिक-प्रभू की ही भक्ति सारे फल देने वाली है (उसके दर से ही) मान-माँगे फल प्रासप्त कर सकते हो। हे नानक! कह- हे भाई! (जगत से परमात्मा की भक्ति का) लाभ कमा के चलो, बड़े आनंद से प्रभू के चरणों में पहुँचोगे।2।50।73।

सारग महला ५ ॥ ठाकुर तुम्ह सरणाई आइआ ॥ उतरि गइओ मेरे मन का संसा जब ते दरसनु पाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ अनबोलत मेरी बिरथा जानी अपना नामु जपाइआ ॥ दुख नाठे सुख सहजि समाए अनद अनद गुण गाइआ ॥१॥ बाह पकरि कढि लीने अपुने ग्रिह अंध कूप ते माइआ ॥ कहु नानक गुरि बंधन काटे बिछुरत आनि मिलाइआ ॥२॥५१॥७४॥ {पन्ना 1218}

पद्अर्थ: ठाकुर = हे मालिक प्रभू! संसा = सहम। जब ते = जब से।1। रहाउ।

अन बोलत = बिना बोले। बिरथा = व्यथा, पीड़ा, दुख। जानी = तूने जान ली है। नाठे = भाग गए हैं। सहजि = आत्मिक अडोलता में। अनद = आनंद।1।

पकरि = पकड़ के। ग्रिह अंध कूप ते माइआ = माया (के) अंध कूप गृह से, माया के अंधे कूएँ घर से। गुरि = गुरू ने। आनि = ला के।2।

अर्थ: हे (मेरे) मालिक-प्रभू! (मैं) तेरी शरण आया हूँ। जब से मैंने तेरे दर्शन किए हैं (तब से ही) मेरे मन से (हरेक) सहम उतर गया है।1। रहाउ।ै

हे (मेरे) मालिक-प्रभू! तूने (सदा ही मेरे) बिना बोले मेरा दुख समझ लिया है, तूने खुद ही मुझसे अपना नाम जपाया है। जब से बड़े आनंद से मैं तेरे गुण गाता हूँ, मेरे (सारे) दुख दूर हो गए हैं, सुखों में आत्मिक अडोलता में मैं मगन रहता हूँ।1।

हे भाई! (परमात्मा) अपने (सेवकों) की बाँह पकड़ के उनको माया के (मोह के) अंधे कूएँ में से अंधेरे घर में से निकाल लेता है। हे नानक! कह- गुरू ने (जिस मनुष्य के माया के मोह के) फंदों को काट दिया, (प्रभू चरणों से) उस विछुड़े हुए को ला के (प्रभू चरणों में) मिला दिया।2।51।74।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh