श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सारग महला ५ ॥ हरि के नाम की गति ठांढी ॥ बेद पुरान सिम्रिति साधू जन खोजत खोजत काढी ॥१॥ रहाउ ॥ सिव बिरंच अरु इंद्र लोक ता महि जलतौ फिरिआ ॥ सिमरि सिमरि सुआमी भए सीतल दूखु दरदु भ्रमु हिरिआ ॥१॥ जो जो तरिओ पुरातनु नवतनु भगति भाइ हरि देवा ॥ नानक की बेनंती प्रभ जीउ मिलै संत जन सेवा ॥२॥५२॥७५॥ {पन्ना 1219}

पद्अर्थ: गति = हालत, तासीर, प्रभाव। ठांढी = ठंढक देने वाली, शांति देने वाली। खोजत = खोज करते हुए। काढी = कही है, बताई है।1। रहाउ।

सिव = शिव (-लोक)। बिरंच = ब्रहमा, ब्रहम (-लोक)। अरु = और (अरि = वैरी)। ता महि = उन (लोगों) में। जलतौ = (तृष्णा की आग) जलता ही। सिमरि = सिमर के। सीतल = शांत, ठंडा। हिरिआ = दूर कर लिया।1।

जो जो = जो (भगत)। पुरातनु = पुराने समय का। नवतनु = नए समय का, नया। भाइ = प्रेम से (भाउ = प्रेम)। प्रभ जीउ = हे प्रभू जी! मिलै = मिल जाए।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम शांति देने वाली गति है- यही बातें वेदों-पुराणों-स्मृतियों और साधु-जनों ने खोज-खोज के बताई हैं।1। रहाउ।

हे भाई! शिव-लोक, ब्रहम-लोक, इन्द्र-लोक - इन (लोकों) में पहुँच हुआ भी तृष्णा की आग में जलता ही फिरता है। स्वामी-प्रभू का नाम सिमर-सिमर के जीव शांत मन हो जाते हैं। (सिमरन की बरकति से) सारा दुख-दर्द और भटकना दूर हो जाता है।1।

हे भाई! पुराने समय का चाहे नए समय का जो जो भी (भगत) संसार-समुंद्र से पार लांघा है, वह प्रभू-देव की भक्ति की बरकति से प्रेम की बरकति से ही लांघा है। हे प्रभू जी! (तेरे दास) नानक की (तेरे दर पर यही) बिनती है कि (मुझे तेरे) संतजनों की (शरण में रह के) सेवा करने का मौका मिल जाए।2।52।75।

सारग महला ५ ॥ जिहवे अम्रित गुण हरि गाउ ॥ हरि हरि बोलि कथा सुनि हरि की उचरहु प्रभ को नाउ ॥१॥ रहाउ ॥ राम नामु रतन धनु संचहु मनि तनि लावहु भाउ ॥ आन बिभूत मिथिआ करि मानहु साचा इहै सुआउ ॥१॥ जीअ प्रान मुकति को दाता एकस सिउ लिव लाउ ॥ कहु नानक ता की सरणाई देत सगल अपिआउ ॥२॥५३॥७६॥ {पन्ना 1219}

पद्अर्थ: जिहवे = हे (मेरी) जीभ! अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले। गाउ = गाया कर। को = का।1। रहाउ।

रतन धनु = कीमती धन। संचहु = इकट्ठा किया कर। मनि = मन में। तनि = तन मे। भाउ = प्रेम। आन = अन्य। बिभूत = ऐश्वर्य, धन पदार्थ। मिथिआ = नाशवंत। साचा = सदा कायम रहने वाला। सुआउ = मनोरथ।1।

को = का। जीअ = जिंद। ऐकस सिउ = एक (परमात्मा) के साथ ही। लिव = लगन। ता की = उस (परमात्मा) की। सगल = सारे। अपिआउ = भोजन, खाने।2।

अर्थ: हे (मेरी) जीभ! परमात्मा के आत्मिक जीवन देने वाले आत्मिक गुण गाया कर। हे भाई! परमात्मा का नाम उचारा कर, प्रभू की सिफत सालाह सुना कर, प्रभू का नाम उचारा कर।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा का नाम ही कीमती धन है, ये धन एकत्र किया कर। अपने मन में अपने हृदय में प्रभू का प्यार बनाया कर। हे भाई! (नाम के बिना) और सारे धन-पदार्थों को नाशवंत समझ। (परमात्मा का नाम ही) सदा कायम रहने वाला जीवन-मनोरथ है।1।

हे भाई! सिर्फ परमात्मा (के नाम) से लगन पैदा कर, परमात्मा ही जिंद देने वाला है, प्राण देने वाला है, मुक्ति (उच्च आत्मिक दशा) देने वाला है। हे नानक! कह- (हे भाई!) उस परमात्मा की शरण पड़ा रह जो सारे खाने-पीने के पदार्थ देता है।2।53।76।

सारग महला ५ ॥ होती नही कवन कछु करणी ॥ इहै ओट पाई मिलि संतह गोपाल एक की सरणी ॥१॥ रहाउ ॥ पंच दोख छिद्र इआ तन महि बिखै बिआधि की करणी ॥ आस अपार दिनस गणि राखे ग्रसत जात बलु जरणी ॥१॥ अनाथह नाथ दइआल सुख सागर सरब दोख भै हरणी ॥ मनि बांछत चितवत नानक दास पेखि जीवा प्रभ चरणी ॥२॥५४॥७७॥ {पन्ना 1219}

पद्अर्थ: होती नही = नहीं हो सकती। करणी = अच्छी कार, अच्छा करतब। मिलि = मिल के। ओट = आसरा।1। रहाउ।

पंच दोख = (कामादिक) पाँच विकार। छिद्र = ऐब। इआ तन महि = इस शरीर में। बिखै = विषौ विकार। बिआधि = विकार। बिआधि की करणी = विकारों वाली करतूत। अपार = अ+पार, बेअंत। गणि राखे = गिन के रखे हुए, थोड़े। ग्रसत जात = ग्रसा जा रहा है। बलु = ताकत को। जरणी = जरा, बुढ़ापा।1।

अनाथह नाथ = हे अनाथों के नाथ! सुख सागर = हे सुखों के समुंद्र! सरब दोख भै हरणी = हे सारे ऐब और डर दूर करने वाले! मनि बांछत = मन मांगी मुराद। चितवत = चितवता रहता है। पेखि = देख के। जीवा = जीऊँ, जीवित रहूँ, आत्मिक जीवन हासिल करता रहूँ।2।

अर्थ: हे भाई! मुझसे कोई सही काम नहीं हो सकता। संत जनों को मिल के सिर्फ परमात्मा की शरण पड़े रहना- सिर्फ यही आसरा मैंने ढूँढा है।1। रहाउ।

हे भाई! (कामादिक) पाँचों विकार व अन्य ऐब (जीव के) इस शरीर में टिके रहते हैं, विषौ-विकारों वाली करणी (जीव की) बनी रहती है। (जीव की) आशाएं बेअंत होती हैं, पर जिंदगी के दिन गिने-चुने होते हैं। बुढ़ापा (जीव के शारीरिक) बल को खाए जाता है।1।

हे दास नानक! (कह-) हे अनाथों के नाथ प्रभू! हे दया के सोमे प्रभू! हे सुखों के समुंद्र! हे (जीवों के) सारे विकार और डर दूर करने वाले! (तेरा दास तेरे दर से यह) मन-माँगी मुराद चाहता है कि हे प्रभू! तेरे चरणों के दर्शन करके मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहूँ।2।58।77।

सारग महला ५ ॥ फीके हरि के नाम बिनु साद ॥ अम्रित रसु कीरतनु हरि गाईऐ अहिनिसि पूरन नाद ॥१॥ रहाउ ॥ सिमरत सांति महा सुखु पाईऐ मिटि जाहि सगल बिखाद ॥ हरि हरि लाभु साधसंगि पाईऐ घरि लै आवहु लादि ॥१॥ सभ ते ऊच ऊच ते ऊचो अंतु नही मरजाद ॥ बरनि न साकउ नानक महिमा पेखि रहे बिसमाद ॥२॥५५॥७८॥

पद्अर्थ: फीके = बेस्वादे। साद = (मायावी पदार्थों के) स्वाद। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। गाईअै = गाना चाहिए। अहि = दिन। निसि = रात। पूरन नाद = नाद पूरे जाएंगे, (आत्मिक आनंद के) बाजे बजेंगे।1। रहाउ।

सिमरत = सिमरते हुए। पाईअै = प्राप्त करते हैं। बिखाद = दुख कलेश, झगड़े। साध संगि = गुरू की संगति में। घरि = हृदय घर में। लादि = लाद के।1।

मरजाद = मर्यादा (का)। साकउ = सकूँ। बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता। महिमा = वडिआई। पेखि = देख के। बिसमादु = हैरान।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना (मायावी पदार्थों के) स्वाद फीके हैं। हे भाई! प्रभू का कीर्तन ही आत्मिक जीवन देने वाला रस है, हरी का कीर्तन ही गाना चाहिए (जो मनुष्य गाता है, उसके अंदर) दिन-रात आत्मिक आनंद के बाजे बजते रहते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा का नाम सिमरने से आत्मिक शांति मिलती है बहुत सुख प्राप्त होता है, (अंदर से) सारे दुख-कलेश मिट जाते हैं। पर परमात्मा का नाम सिमरने का यह लाभ साध-संगति में ही मिलता है। (जो मनुष्य गुरू की संगति में मिल के बैठते हैं वह) अपने हृदय-घर में ये कमाई कर के ले आते हैं।1।

हे नानक! (कह- हे भाई!) परमात्मा सबसे ऊँचा है, ऊँचों से भी ऊँचा है, उसकी सीमाओं का अंत नहीं पाया जा सकता। मैं उसकी महिमा (वडिआई) बयान नहीं कर सकता, देख के ही हैरान रह जाता हूँ।2।55।78।

सारग महला ५ ॥ आइओ सुनन पड़न कउ बाणी ॥ नामु विसारि लगहि अन लालचि बिरथा जनमु पराणी ॥१॥ रहाउ ॥ समझु अचेत चेति मन मेरे कथी संतन अकथ कहाणी ॥ लाभु लैहु हरि रिदै अराधहु छुटकै आवण जाणी ॥१॥ उदमु सकति सिआणप तुम्हरी देहि त नामु वखाणी ॥ सेई भगत भगति से लागे नानक जो प्रभ भाणी ॥२॥५६॥७९॥ {पन्ना 1219}

पद्अर्थ: बाणी = प्रभू की सिफतसालाह की बाणी। विसारि = भुला के। लगहि = (जो) लगते हैं (बहुवचन)। अन्य लालचि = और लालच में। जनमु पराणी = उन प्राणियों का जन्म।1। रहाउ।

अचेत मन = हे गाफिल मन! कथी = बयान की है। संतन = संतां ने। अकथ कहाणी = अकथ प्रभू की सिफतसालाह। अकथ = अ+कथ, जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। रिदै = हृदय में। छुटकै = समाप्त हो जाती है।1।

सकति = शक्ति, ताकत। देहि = अगर तू दे। त = तो। वखाणी = मैं उचारूँ। सेई = वह ही (बहुवचन)। प्रभ भाणी = प्रभू को भा गए।2।

अर्थ: हे भाई! (जगत में जीव) परमात्मा की सिफतसालाह सुनने-पढ़ने के लिए आया है (यही है इसका असल जनम-मनोरथ)। पर, जो प्राणी (परमात्मा का) नाम भुला के और ही लालच में लगे रहते हैं, उनका मनुष्य जन्म व्यर्थ चला जाता है।1। रहाउ।

हे मेरे गाफिल मन! होश कर, अकथ प्रभू की जो सिफतसालाह संत जनों ने बताई है उसको याद किया कर। हे भाई! परमात्मा को अपने हृदय में बसाओ, यह लाभ कमाओ। (इस लाभ से) जनम-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है।1।

हे नानक! (कह-) हे प्रभू! तेरा ही दियश हुआ उद्यम तेरी ही दी हुई शक्ति और समझदारी (हम जीव बरत सकते हैं), अगर तू (उद्यम-शक्ति-समझदारी) बख्शे, तब ही मैं नाम जप सकता हूँ। हे भाई! वही मनुष्य भगत (बन सकते हैं) वही परमात्मा की भक्ति में लग सकते हैं, जो प्रभू को पसंद आ जाते हैं।2।56।79।

सारग महला ५ ॥ धनवंत नाम के वणजारे ॥ सांझी करहु नाम धनु खाटहु गुर का सबदु वीचारे ॥१॥ रहाउ ॥ छोडहु कपटु होइ निरवैरा सो प्रभु संगि निहारे ॥ सचु धनु वणजहु सचु धनु संचहु कबहू न आवहु हारे ॥१॥ खात खरचत किछु निखुटत नाही अगनत भरे भंडारे ॥ कहु नानक सोभा संगि जावहु पारब्रहम कै दुआरे ॥२॥५७॥८०॥ {पन्ना 1219-1220}

पद्अर्थ: धनवंत = धनाढ, अमीर। वणजारे = व्यापारी, वणज करने वाले। सांझी = भाईवाली। सांझी करहु = सांझ डालो। वीचारे = विचार के, मन में बसा के।1। रहाउ।

कपटु = ठॅगी, फरेब। होइ = हो के। सो प्रभु = वह प्रभू! संगि = (सब जीवों के) साथ। निहारे = देखता है। सचु = सदा कायम रहने वाला। वणजहु = वणज करो। संचहु = इकट्ठा करो। हारे = हार के।1।

खात = खाते हुए। खरचत = खर्चते हुए, औरों को बाँटते हुए। निखुटत नाही = खत्म नहीं होता। संगि = साथ। कै दुआरे = के दर पर।2।

अर्थ: हे भाई! असल धनाढ मनुष्य वे हैं जो परमात्मा के नाम का व्यापार करते हैं। उनके साथ सांझ बनाओ, और गुरू का शबद अपने मन में बसा के परमात्मा का नाम-धन कमाओ।1। रहाउ।

हे भाई! (अपने अंदर से) निर्वैर हो के (दूसरों के साथ) ठॅगी करनी छोड़ो, वह परमात्मा (तुम्हारे) साथ (बसता हुआ, तुम्हारे हरेक काम को) देख रहा है। सदा कायम रहने वाले धन का व्यापार करो, सदा कायम रहने वाला धन एकत्र करो। कभी भी जीवन बाजी हार के नहीं आओगे।1।

हे भाई! (प्रभू के दर पर नाम-धन के) अनगिनत खजाने भरे हुए हैं, इसको स्वयं इस्तेमाल करने से व औरों को इस्तेमाल करवाने से कोई कमी नहीं आती। हे नानक! कह- (हे भाई!) (नाम-धन कमा के) परमात्मा के दर पर इज्जत के साथ जाओगे।5।57।80।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh