श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1221 सारग महला ५ ॥ साचे सतिगुरू दातारा ॥ दरसनु देखि सगल दुख नासहि चरन कमल बलिहारा ॥१॥ रहाउ ॥ सति परमेसरु सति साध जन निहचलु हरि का नाउ ॥ भगति भावनी पारब्रहम की अबिनासी गुण गाउ ॥१॥ अगमु अगोचरु मिति नही पाईऐ सगल घटा आधारु ॥ नानक वाहु वाहु कहु ता कउ जा का अंतु न पारु ॥२॥६३॥८६॥ {पन्ना 1221} पद्अर्थ: साचे = हे सदा कायम रहने वाले! दातारा = हे सब दातें देने वाले! देखि = देख के। सगल = सारे। नासहि = नाश हो जाते हैं। बलिहार = सदके।1। रहाउ। सति = सदा स्थिर। सति = अटल आत्मिक जीवन वाले। साध जन = संत जन। निहचलु = कभी ना डोलने वाला। भावनी = श्रद्धा (से)। अबिनासी गुण = कभी ना नाश होने वाले प्रभू के गुण। गाउ = गाया करो।1। अगमु = अपहुँच। अगोचरु = (अ+गो+चरु) गो = इन्द्रियां; चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। मिति = माप, बड़प्पन का अंदाजा। घट = शरीर। आधारु = आसरा। वाहु वाहु कहु = सिफतसालाह करो। ता कउ = उस प्रभू को। जा का = जिस प्रभू का। पारु = परला छोर। वाहु वाह = धन्य धन्य।2। अर्थ: हे सदा कायम रहने वाले! हे सतिगुरू! हे सब दातें देने वाले प्रभू! तेरे दर्शन करके (जीव के) सारे दुख नाश हो जाते हैं। मैं तेरे सुंदर चरणों से सदके जाता हूँ।1। रहाउ। हे भाई! परमेश्वर सदा कायम रहने वाला है, (उसके) संत जन अटल जीवन वाले होते हैं। हे भाई! परमात्मा का नाम अटल रहने वाला है। हे भाई! (पूरी) श्रद्धा से उस परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए, उस कभी ना नाश होने वाले प्रभू के गुण गाया करो।1। हे नानक! परमात्मा अपहुँच है, उस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। वह कितना बड़ा है- यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। वह परमात्मा सारे शरीरों का आसरा है। हे भाई! उस प्रभू की सिफत-सालाह किया करो, जिसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, जिसके गुणों का परला छोर नहीं ढूँढा जा सकता।2।63।86। सारग महला ५ ॥ गुर के चरन बसे मन मेरै ॥ पूरि रहिओ ठाकुरु सभ थाई निकटि बसै सभ नेरै ॥१॥ रहाउ ॥ बंधन तोरि राम लिव लाई संतसंगि बनि आई ॥ जनमु पदारथु भइओ पुनीता इछा सगल पुजाई ॥१॥ जा कउ क्रिपा करहु प्रभ मेरे सो हरि का जसु गावै ॥ आठ पहर गोबिंद गुन गावै जनु नानकु सद बलि जावै ॥२॥६४॥८७॥ {पन्ना 1221} पद्अर्थ: मन मेरै = मेरे मन में। पूरि रहिओ = व्यापक है। ठाकुरु = मालिक प्रभू। निकटि = नजदीक। सभ नेरे = सबके नजदीक।1। रहाउ। बंधन = माया के मोह के फंदे। तोरि = तोड़ के। संत संगि = गुरू के साथ। बनि आई = प्रीत बनी है। जनमु पदारथु = कीमती मनुष्य जनम। पुनीता = पवित्र। इछा सगल = सारी मनोकामनाएं। पुजाई = (गुरू ने) पूरी कर दीं।1। जा कउ = जिस (मनुष्य) पर। प्रभ = हे प्रभू! जसु = सिफतसालाह। सद = सदा। बलि जावै = सदके होता है।2। अर्थ: हे भाई! (जब से) गुरू के चरण मेरे मन में बस गए हैं, (मुझे निष्चय हो गया है कि) मालिक-प्रभू हर जगह मौजूद है, (मेरे) नजदीक बस रहा है, सबक पास बस रहा है।1। रहाउ। हे भाई! (जब से) गुरू के साथ मुझे प्यार हुआ है (उसने मेरे माया के मोह के) बंधन तोड़ के मेरी सुरति परमात्मा के साथ जोड़ दी है, मेरा कीमती मनुष्य जनम पवित्र हो गया है। (गुरू ने) मेरी सारी मनोकामनाएं पूरी कर दी हैं।1। हे मेरे प्रभू! तू जिस मनुष्य पर मेहर करता है, वह, हे हरी! तेरी सिफतसालाह के गीत गाता है। हे भाई! जो मनुष्य आठों पहर (हर वक्त) परमात्मा के गुण गाता है, दास नानक उससे सदा कुर्बान जाता है।2।64।87। सारग महला ५ ॥ जीवनु तउ गनीऐ हरि पेखा ॥ करहु क्रिपा प्रीतम मनमोहन फोरि भरम की रेखा ॥१॥ रहाउ ॥ कहत सुनत किछु सांति न उपजत बिनु बिसास किआ सेखां ॥ प्रभू तिआगि आन जो चाहत ता कै मुखि लागै कालेखा ॥१॥ जा कै रासि सरब सुख सुआमी आन न मानत भेखा ॥ नानक दरस मगन मनु मोहिओ पूरन अरथ बिसेखा ॥२॥६५॥८८॥ {पन्ना 1221} पद्अर्थ: जीवनु = (असल) जिंदगी। तउ = तब (ही)। गनीअै = समझढी जानी चाहिए। पेखा = (अगर) मैं देख लूँ। प्रीतम = हे प्रीतम! फोरि = तोड़ के। भरम = भटकना। रेखा = (मन पर) लकीर, पिछले संस्कार।1। रहाउ। कहत सुनत = कहते सुनते। बिसास = श्रद्धा, विश्वास। सेखां = विशेषता, लाभ, गुण। तिआगि = छोड़ के। आन = अन्य (पदार्थ)। ता कै मुखि = उस के मुँह पर। कालेखा = कालिख।1। जा कै = जिसके पल्ले, जिसके हृदय में। रासि = पूँजी, सरमाया। सरब सूख = सारे सुख देने वाला। आन भेखा = और (दिखावे के) धार्मिक पहरावे, अन्य भेष। न मानत = नहीं मानता। मगन = मस्त। अरथ = अर्थ, जरूरतें। बिसेखा = विशेष तौर पर, खास।2। अर्थ: हे भाई! अगर मैं (इसी मनुष्य जन्म में) परमात्मा के दर्शन कर सकूँ, तब ही (मेरा यह असल मनुष्य) जीवन समझा जा सकता है। हे प्रीतम प्रभू! हे मन को मोह लेने वाले प्रभू! (मेरे मन में से पिछले जन्मों के) भटकना के संस्कार दूर कर।1। रहाउ। हे भाई! सिर्फ कहने-सुनने से (मनुष्य के मन में) कोई शांति पैदा नहीं होती। श्रद्धा के बिना (ज़ुबानी कहने-सुनने का) कोई लाभ नहीं होता। जो मनुष्य (ज़बानी तो ज्ञान की बहुत सारी बातें करता है, पर) प्रभू को भुला के और-और (पदार्थों की) तड़प रखता है, उसके माथे पर (माया के मोह की) कालिख लगी रहती है।1। हे नानक! (कह- हे भाई!) जिस मनुष्य के हृदय में सारे सुख देने वाले प्रभू के नाम का सरमाया है, वह अन्य (दिखावे के) धार्मिक भेखों को नहीं मानता फिरता। वह तो (प्रभू के) दर्शग्न में मस्त रहता है, उसका मन (प्रभू के दर्शनों से) मोहिआ जाता है। (प्रभू की कृपा से) उसकी सारी आवश्यक्ताएं विशेष तौर पर पूरी होती रहती हैं।2।65।88। सारग महला ५ ॥ सिमरन राम को इकु नाम ॥ कलमल दगध होहि खिन अंतरि कोटि दान इसनान ॥१॥ रहाउ ॥ आन जंजार ब्रिथा स्रमु घालत बिनु हरि फोकट गिआन ॥ जनम मरन संकट ते छूटै जगदीस भजन सुख धिआन ॥१॥ तेरी सरनि पूरन सुख सागर करि किरपा देवहु दान ॥ सिमरि सिमरि नानक प्रभ जीवै बिनसि जाइ अभिमान ॥२॥६६॥८९॥ पद्अर्थ: इकु = सिर्फ। को = का। कलमल = पाप। दगध होहि = जल जाते हैं (बहुवचन)। कोटि = करोड़ों।1। रहाउ। आन जंजार = अन्य (मायावी) जंजालों के लिए। ब्रिथा = व्यर्थ। स्रमु = श्रम, मेहनत। फोकट = फोके। संकट ते = कष्ट से। जगदीस = जगत का मालिक (जगत+ईश)। धिआन = सुरति।1। सुख सागर = हे सुखों के समुंद्र! करि = कर के। सिमरि = सिमर के। प्रभ = हे प्रभू! जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करो।2। अर्थ: हे भाई! अगर सिर्फ परमात्मा के नाम का ही सिमरन किया जाए, तो एक छिन में (जीव के सारे) पाप जल जाते हैं (उसको, जैसे) करोड़ों दान और तीर्थ-स्नान (करने का फल मिल गया)।1। रहाउ। हे भाई! (अगर मनुष्य माया के ही) और-और जंजालों के लिए व्यर्थ की दौड़-भाग करता रहता है (औक्र हरी-नाम नहीं सिमरता, तो) परमात्मा के नाम के बिना (निरी) ज्ञान की बातें सभ फोकी ही हैं। जब मनुष्य परमात्मा के भजन के आनंद में सुरति जोड़ता है, तब ही वह जनम-मरण के चक्करों के कष्ट से बचता है।1। हे नानक! (कह-) हे सुखों के समुंद्र प्रभू! हे पूरन प्रभू! मैं तेरी शरण आया हूँ, मेहर कर के मुझे अपने नाम की दाति दे। तेरा नाम सिमर-सिमर के आत्मिक जीवन मिलता है, और (मन में से) अहंकार नाश हो जाता है।2।66।89। सारग महला ५ ॥ धूरतु सोई जि धुर कउ लागै ॥ सोई धुरंधरु सोई बसुंधरु हरि एक प्रेम रस पागै ॥१॥ रहाउ ॥ बलबंच करै न जानै लाभै सो धूरतु नही मूड़्हा ॥ सुआरथु तिआगि असारथि रचिओ नह सिमरै प्रभु रूड़ा ॥१॥ सोई चतुरु सिआणा पंडितु सो सूरा सो दानां ॥ साधसंगि जिनि हरि हरि जपिओ नानक सो परवाना ॥२॥६७॥९०॥ {पन्ना 1221} पद्अर्थ: धूरतु = धूर्त, चतुर। सोई = वही मनुष्य। जि = जो। धुर कउ = सबके मूल के चरणों में। धुरंधरु = भार उठाने वाला, मुखी। बसुंधरु = (वसु = धन) धन धरण करने वाला, धनी। पागै = मस्त रहता है।1। रहाउ। बलबंच = ठॅगियां। धूरतु = चतुर। मूढ़ा = मूर्ख। सुआरथु = अपनी (असल) गरज़, मतलब। असारथ = घाटे वाले काम में। रूढ़ा = सुंदर।1। सूरा = सूरमा। दानां = समझदार (wise)। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। परवाना = कबूल।2। अर्थ: हे भाई! वही मनुष्य (असल) चतुर है जो जगत के मूल-प्रभू के चरणों में जुड़ा रहता है। वही मनुष्य मुखी है वही मनुष्य धनी है, जो सिर्फ परमात्मा के प्यार-रस में मस्त रहता है।1। रहाउ। पर, हे भाई! जो मनुष्य (औरों के साथ) ठॅगियां मारता है (वह अपना असल) लाभ नहीं समझता, वह चतुर नहीं वह मूर्ख है। वह अपने असल स्वार्थ को छोड़ के घाटे वाले काम में व्यस्त रहता है, (क्योंकि) वह सुंदर प्रभू का नाम नहीं सिमरता।1। हे भाई! वही मनुष्य चतुर और समझदार है, वही मनुष्य पण्डित, शूरवीर और दाना है, जिसने साध-संगति में टिक के हरी-नाम जपा है। हे नानक! वही मनुष्य (परमात्मा की हजूरी में) कबूल होता है।2।67।90। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |