श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सारग महला ५ ॥ हरि हरि संत जना की जीवनि ॥ बिखै रस भोग अम्रित सुख सागर राम नाम रसु पीवनि ॥१॥ रहाउ ॥ संचनि राम नाम धनु रतना मन तन भीतरि सीवनि ॥ हरि रंग रांग भए मन लाला राम नाम रस खीवनि ॥१॥ जिउ मीना जल सिउ उरझानो राम नाम संगि लीवनि ॥ नानक संत चात्रिक की निआई हरि बूंद पान सुख थीवनि ॥२॥६८॥९१॥ {पन्ना 1222}

पद्अर्थ: जीवनि = जीवनी, जीवन रहित। बिखै भोग = विषयों के भोग। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले। पीवनि = पीते हैं (वर्तमान काल, अन्नपुरख, बहुवचन)।1।

संचनि = इकट्ठा करते हैं। सीवनि = परोते हैं। रांग भऐ = रंगे जाते हैं। खीवनि = मस्त रहते हैं।1।

मीना = मछली। सिउ = से। उरझानो = लिपटी रहती है। संगि = साथ। लीवनि = लिव जोड़े रखते हैं। चात्रिक = पपीहा। निआई = की तरह। पान = पी के। थीवनि = होते हैं।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भगत आत्मिक जीवन देने वाले सुखों के समुंद्र हरी-नाम का रस (सदा) पीते रहते हैं, यही उनके लिए दुनिया वाले विषौ भोगों का स्वाद है- यह ही जिंदगी संत जनों की।1। रहाउ।

हे भाई! संत जन परमात्मा का नाम-धन एकत्र करते हैं, नाम-रत्न इकट्ठा करते हैं, और अपने मन में हृदय में (उनको) परो (सिल के) रखते हैं। परमात्मा के नाम-रंग के साथ रंग के उनका मन गाढ़े रंग वाला हुआ रहता है, वे हरी-नाम के रस से मस्त रहते हैं।1।

हे भाई! जैसे मछली पानी से लिपटी रहती है (पानी के बिना जी नहीं सकती) वैसे ही संत जन हरी-नाम में लीन रहते हैं। हे नानक! संत जन पपीहे की तरह हैं (जैसे पपीहा स्वाति नक्षत्र की बरखा की बूँद पी के तृप्त होता है, वैसे संत जन) परमात्मा के नाम की बूँद पी के सुखी होते हैं।2।68।91।

सारग महला ५ ॥ हरि के नामहीन बेताल ॥ जेता करन करावन तेता सभि बंधन जंजाल ॥१॥ रहाउ ॥ बिनु प्रभ सेव करत अन सेवा बिरथा काटै काल ॥ जब जमु आइ संघारै प्रानी तब तुमरो कउनु हवाल ॥१॥ राखि लेहु दास अपुने कउ सदा सदा किरपाल ॥ सुख निधान नानक प्रभु मेरा साधसंगि धन माल ॥२॥६९॥९२॥ {पन्ना 1222}

पद्अर्थ: हीन = बगैर। बेताल = भूतने, भूत प्रेत। जेता = जितना कुछ। सभि = सारे।1। रहाउ।

अन = अन्य, और (की)। काटै = गुजारता है। काल = (जिंदगी का) समय। संघारै = (जान से) मारता है। प्रानी = हे प्राणी! कउन हवाल = क्या हाल?।1।

किरपाल = हे कृपालु! सुख निधान = सुखों का खजाना। साधर संगि = साध-संगति में।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम से जो मनुष्य वंचित रहते हैं (आत्मिक-जीवन की कसवटी के अनुसार) वे भूत-प्रेत ही हैं। (ऐसे मनुष्य) जितना कुछ करते हैं और करवाते हैं, उनके सारे काम माया के फंदे माया के जंजाल (बढ़ाते हैं)।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा की भगती के बिना और-और की सेवा करते हुए (मनुष्य अपनी जिंदगी का) समय व्यर्थ बिताता है। हे प्राणी! (अगर तू हरी-नाम के बिना ही रहा, तो) जब जमराज आ के मारता है, तब (सोच) तेरा क्या हाल होगा?।1।

हे सदा ही दया के श्रोत! अपने दास (नानक) की स्वयं रक्षा कर (और, अपना नाम बख्श)। हे नानक! (कह- हे भाई!) मेरा प्रभू सारे सुखों का खजाना है, उसका नाम-धन साध-संगति में ही मिलता है।2।69।92।

सारग महला ५ ॥ मनि तनि राम को बिउहारु ॥ प्रेम भगति गुन गावन गीधे पोहत नह संसारु ॥१॥ रहाउ ॥ स्रवणी कीरतनु सिमरनु सुआमी इहु साध को आचारु ॥ चरन कमल असथिति रिद अंतरि पूजा प्रान को आधारु ॥१॥ प्रभ दीन दइआल सुनहु बेनंती किरपा अपनी धारु ॥ नामु निधानु उचरउ नित रसना नानक सद बलिहारु ॥२॥७०॥९३॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में। को = का। बिउहार = आहर। गीधो = गिझे हुए। संसारु = जगत (का मोह)।1। रहाउ।

स्रवणी = कानों से। आचारु = नित्य की कार। असथिति = स्थित, टिकाव। रिद = हृदय। आधारु = आसरा।1।

प्रभ = हे प्रभू! निधानु = खजाना। उचरउ = मैं उचरता रहूँ। नित = सदा। रसना = जीभ से। सद = सदा।2।

अर्थ: हे भाई! जिन मनुष्यों के मन में हृदय में (सदा) परमात्मा का (नाम सिमरन का ही) आहर है, जो मनुष्य प्रभू-प्रेम और हरी-भगती (के मतवाले हैं) जो प्रभू के गुण गाने में गिझे (प्रेम से मस्त) हुए हैं, उनको जगत (का मोह) पोह नहीं सकता।1। रहाउ।

हे भाई! कानों से मालिक-प्रभू की सिफतसालाह सुननी, (जीभ से मालिक का नाम) सिमरना- संत-जनों की यह नित्य की करणी हुआ करती है। उनके हृदय में परमात्मा के सुंदर चरणों का टिकाव हमेशा बना रहता है, प्रभू की पूजा-भगती उनके प्राणों का आसरा होता है।1।

हे नानक! (कह-) हे दीनों पर दया करने वाले प्रभू! (मेरी) बिनती सुन, (मेरे पर) अपनील मेहर कर। तेरा नाम ही (मेरे वास्ते सब पदार्थों का) खजाना है (मेहर कर, मैं यह नाम) जीभ से सदा उचारता रहूँ, और तुझसे सदा सदके होता रहूँ।2।70।93।

सारग महला ५ ॥ हरि के नामहीन मति थोरी ॥ सिमरत नाहि सिरीधर ठाकुर मिलत अंध दुख घोरी ॥१॥ रहाउ ॥ हरि के नाम सिउ प्रीति न लागी अनिक भेख बहु जोरी ॥ तूटत बार न लागै ता कउ जिउ गागरि जल फोरी ॥१॥ करि किरपा भगति रसु दीजै मनु खचित प्रेम रस खोरी ॥ नानक दास तेरी सरणाई प्रभ बिनु आन न होरी ॥२॥७१॥९४॥ {पन्ना 1222}

पद्अर्थ: हीन = विहीन। थोरी = थोड़ी, होछी। सिरीधर = लक्ष्मी का आसरा प्रभू। अंध = (माया के मोह में) अंधे हो चुके मनुष्यों को। घोरी = घोर, भयानक।1। रहाउ।

सिउ = साथ। भेख = (दिखावे मात्र) धार्मिक पहरावे। जोरी = जोड़ी (प्रीत)। बार = समय। ता कउ तूटत = उस (प्रीत) के टूटते हुए। फोरी = टूटी हुई।1।

दीजै = दे। खचित = मस्त रहे। खोरी = खुमारी में। आन = अन्य, और दूसरा।2।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम से वंचित रहते हैं, उनकी मति होछी सी ही बन जाती है। वे लक्ष्मी-पति मालिक-प्रभू का नाम नहीं सिमरते। माया के मोह में अंधे हो चुके उन मनुष्यों को भयानक (आत्मिक) दुख-कलेश होते रहते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम से प्यार नहीं डालते, पर अनेकों धार्मिक भेषों से प्रीत जोड़ी रखते हैं, उनकी इस प्रीत के टूटते देर नहीं लगती, जैसे टूटी हुई गागर में पानी नहीं ठहर सकता।1।

हे नानक! (कह- हे प्रभू!) मेहर कर, मुझे अपनी भगती का स्वाद बख्श, मेरा मन तेरे प्रेम-रस की ख़ुमारी में मस्त रहे। हे प्रभू! (तेरा) दास नानक तेरी शरण आया है। हे प्रभू! तेरे बिना मेरा और कोई दूसरा सहारा नहीं है।2।71।94।

सारग महला ५ ॥ चितवउ वा अउसर मन माहि ॥ होइ इकत्र मिलहु संत साजन गुण गोबिंद नित गाहि ॥१॥ रहाउ ॥ बिनु हरि भजन जेते काम करीअहि तेते बिरथे जांहि ॥ पूरन परमानंद मनि मीठो तिसु बिनु दूसर नाहि ॥१॥ जप तप संजम करम सुख साधन तुलि न कछूऐ लाहि ॥ चरन कमल नानक मनु बेधिओ चरनह संगि समाहि ॥२॥७२॥९५॥ {पन्ना 1222}

पद्अर्थ: चितवउ = मैं चितवता रहता हूँ। वा अउसर = वह अवसर, वह समय। मिलउ = मैं मिलूँ। नित = सदा। गाहि = गाते हैं।1। रहाउ।

जेते = जितने ही। करीअहि = किए जाते हैं। तेते = वह सारे। बिरथे = व्यर्थ, निष्फल। जाहि = जाते हैं। मनि = मन में। मीठो = मीठा।1।

संजमु = इन्द्रियों को विकारों से रोकने का साधन। सुख साधन7 = सुख प्राप्त करने के साधन। कछूअै = कुछ भी। तुलि = (गुण गाने के) बराबर। लाहि = लहहि, समझते। बेधिओ = भेद गया। संगि = साथ। समाहि = लीन रहते हैं।2।

अर्थ: हे भाई! मैं तो अपने मन उस मौके का इन्तजार करता रहता हूँ, जब में संतों-सज्जनों को मिलूँ जो नित्य इकट्ठे हो के परमात्मा के गुण गाते रहते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा के भजन के बिना और जितने भी काम किए जाते हैं, वे सारे (जिंद के हिसाब से) व्यर्थ चले जाते हैं। सर्व-व्यापक और सब से ऊँचे आनंद के मालिक का नाम मन में मीठा लगना- यही है असल लाभदायक काम, (क्योंकि) उस परमात्मा के बिना और कोई (साथी) नहीं है।1।

हे नानक! (कह-) जप-तप-संजम आदि हठ-कर्म और सुख की तलाश के और साधन - परमात्मा के नाम की बराबरी नहीं कर सकते और संत-जन इनको कुछ भी नहीं समझते (तुच्छ समझते हैं)। संत जनों का मन परमात्मा के सुंदर चरणों में भेदा रहता है, संत जन परमात्मा के चरणों में ही लीन रहते हैं।2।72।95।

सारग महला ५ ॥ मेरा प्रभु संगे अंतरजामी ॥ आगै कुसल पाछै खेम सूखा सिमरत नामु सुआमी ॥१॥ रहाउ ॥ साजन मीत सखा हरि मेरै गुन गुोपाल हरि राइआ ॥ बिसरि न जाई निमख हिरदै ते पूरै गुरू मिलाइआ ॥१॥ करि किरपा राखे दास अपने जीअ जंत वसि जा कै ॥ एका लिव पूरन परमेसुर भउ नही नानक ता कै ॥२॥७३॥९६॥ {पन्ना 1222-1223}

पद्अर्थ: संगे = साथ ही। अंतरजामी = (हरेक के) दिल की जानने वाला। आगै = आगे आने वाले समय में, परलोक में। पाछै = गुजर चुके समय में, इस लोक में। कुसल, खेम = सुख शांति।1। रहाउ।

मेरै = मेरे लिए, मेरे मन में। राइआ = राजा, बादशाह। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। ते = से। पूरै गुरू = पूरे गुरू ने।1।

गुोपाल: अक्षर 'ग' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'गोपाल', यहां 'गुपाल' पढ़ना है

करि = कर के। राख = रक्षा करता है। वसि जा कै = जिसके वश में। लिव = लगन। पूरन = सर्व व्यापक। ता कै = उसके मन में।2।

अर्थ: हे भाई! सबके दिल की जानने वाला मेरा प्रभू (हर वक्त मेरे) साथ है- (जिस मनुष्य को यही निश्चय बन जाता है, उसको) मालिक-प्रभू का नाम सिमरते हुए परलोक और इस लोक में सदा सुख-आनंद बना रहता है।1। रहाउ।

हे भाई! जिस मनुष्य को पूरे गुरू ने परमात्मा से मिला दिया, उसके हृदय से परमात्मा की याद पलक झपकने जितने समय के लिए भरूी नहीं भूलती (उसे यह विश्वास रहता है कि) प्रभू ही मेरे लिए सज्जन-मित्र है, गोपाल-प्रभू-पातिशाह के गुण ही मेरे (असल) साथी हैं।1।

हे नानक! (कह- हे भाई!) जिस परमात्मा के वश में सारे जीव-जंतु हैं, वह मेहर करके अपने दासों की रक्षा खुद करता आया है। जिस मनुष्य के अंदर सर्व-व्यापक परमात्मा की ही हर वक्त प्रीति है, उसके मन में (किसी प्रकार का कोई) डर नहीं रहता।2।73।96।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh