श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सारग महला ५ ॥ जा कै राम को बलु होइ ॥ सगल मनोरथ पूरन ताहू के दूखु न बिआपै कोइ ॥१॥ रहाउ ॥ जो जनु भगतु दासु निजु प्रभ का सुणि जीवां तिसु सोइ ॥ उदमु करउ दरसनु पेखन कौ करमि परापति होइ ॥१॥ गुर परसादी द्रिसटि निहारउ दूसर नाही कोइ ॥ दानु देहि नानक अपने कउ चरन जीवां संत धोइ ॥२॥७४॥९७॥ {पन्ना 1223}

पद्अर्थ: जा कै = जिस मनुष्य के हृदय में। को = का। ताहू = उस (मनुष्य) के। न बिआपै = अपना जोर नहीं डाल सकता।1। रहाउ।

निजु = खास अपना। सुणि = सुन के। जीवां = मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। सोइ = शोभा। करउ = करूँ, मैं करता हॅू। कौ = वास्ते। करमि = बख्शिश से, (परमात्मा की) मेहर से।1।

परसादी = कृपा से। निहारउ = मैं देखता हूँ। कउ = को। धोइ = धो के।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा की मेहर का सहारा होता है, उस मनुष्य के सारे मनोरथ पूरे हो जाते हैं, उस पर कोई दुख अपना जोर नहीं डाल सकता।1। रहाउ।

हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का खास अपना दास भगत बन जाता है, मैं उसकी शोभा सुन के आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। मैं उसके दर्शन करने के लिए जतन करता हूँ। पर (संत-जन का दर्शन भी परमात्मा की) मेहर से ही होता है।1।

हे भाई! गुरू की मेहर के सदका मैं अपनी आँखों से देख रहा हूँ कि (परमात्मा के बराबर का) और कोई दूसरा नहीं है। हे नानक! (कह- हे प्रभू!) मुझे अपने दास को ये ख़ैर डाल कि मैं संत-जनों चरण धो-धो के आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहूँ।2।74।97।

सारग महला ५ ॥ जीवतु राम के गुण गाइ ॥ करहु क्रिपा गोपाल बीठुले बिसरि न कब ही जाइ ॥१॥ रहाउ ॥ मनु तनु धनु सभु तुमरा सुआमी आन न दूजी जाइ ॥ जिउ तू राखहि तिव ही रहणा तुम्हरा पैन्है खाइ ॥१॥ साधसंगति कै बलि बलि जाई बहुड़ि न जनमा धाइ ॥ नानक दास तेरी सरणाई जिउ भावै तिवै चलाइ ॥२॥७५॥९८॥ {पन्ना 1223}

पद्अर्थ: जीवतु = आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। गाइ = गा के। गोपाल = हे गोपाल! बीठुले = हे बीठल! (वि+स्थल = माया के प्रभाव से परे टिका हुआ) हे निर्लिप प्रभू! कब ही = कभी भी।1। रहाउ।

सुआमी = हे स्वामी! आन = अन्य। जाइ = जगह, आसरा। पैनै = (जीव) पहनता है। खाइ = खाता है।1।

कै = से। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। जनमा = जनमों में। धाइ = दौड़ऋता, भटकता। जिउ भावै = जैसे तुझे अच्छा लगे। चलाइ = जीवन राह पर चला।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के गुण गा-गा के (मनुष्य) आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। हे सृष्टि के मालिक! हे निर्लिप प्रभू! (मेरे पर) मेहर कर, (मुझे तेरा नाम) कभी ना भूले।1। रहाउ।

हे (मेरे) मालिक! मेरा मन मेरा शरीर मेरा धन- यह सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है। (तेरे बिना) मेरा कोई और आसरा नहीं है। जैसे तू रखता है, वैसे ही (जीव) रह सकते हैं। (हरेक जीव) तेरा ही दिया पहनता है तेरा ही दिया खाता है।1।

हे नानक! (कह-) मैं साध-संगति से सदा सदके जाता हूँ, (साध-संगति की बरकति से जीव) दोबारा जन्मों में नहीं भटकता। हे प्रभू! तेरा दास (नानक) तेरी शरण आया है, जैसे तुझे अच्छा लगे, उसी तरह (मुझे) जीवन-राह पर चला।2।75।98।

सारग महला ५ ॥ मन रे नाम को सुख सार ॥ आन काम बिकार माइआ सगल दीसहि छार ॥१॥ रहाउ ॥ ग्रिहि अंध कूप पतित प्राणी नरक घोर गुबार ॥ अनिक जोनी भ्रमत हारिओ भ्रमत बारं बार ॥१॥ पतित पावन भगति बछल दीन किरपा धार ॥ कर जोड़ि नानकु दानु मांगै साधसंगि उधार ॥२॥७६॥९९॥ {पन्ना 1223}

पद्अर्थ: मन रे = हे मन! को = का। सार = श्रेष्ठ। आन = अन्य। बिकार = बेकार, व्यर्थ। दीसहि = दिखाई देते हैं (बहुवचन)। छार = राख, निकम्मे।1। रहाउ।

ग्रिहि = घर मे। अंध कूप = अंधा कूआँ। पतित = गिरे हुए। घोर गुबार = घोर अंधेरा। हारिओ = थक जाता है। भ्रमत = भटकते हुए। बारे बार = बार बार।1।

पतित पावन = हे विकारियों को पवित्र करने वाले! भगति वछल = हे भगती से प्यार करने वाले! दीन = गरीब। कर = हाथ (बहुवचन)। जोड़ि = जोड़ के। मांगै = माँगता है। साध संगि = साध-संगति में (रख के)। उधार = संसार समुंद्र से पार लंघा ले।2।

अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा के नाम सिमरन का सुख (और सभी सुखों से) उक्तम है। हे मन! (निरी) माया की खातिर ही और-और काम (आत्मिक जीवन के लिए) व्यर्थ हैं, वे सारे राख (समान ही) दिखते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! (सिर्फ माया की खातिर दौड़-भाग करने वाला) प्राणी घोर अंधेरे नर्क समान गृहस्त के अंधे कूएँ में गिरा रहता है। वह अनेकों जूनियों में भटकता बार-बार भटकता थक जाता है (जीवन-सक्ता गवा बैठता है)।1।

हे विकारियों को पवित्र करने वाले! हे भगती से प्यार करने वाले! हे गरीबों पर मेहर करने वाले! (तेरा दास) नानक दोनों हाथ जोड़ के यह दान माँगता है कि साध-संगति में रख के (मुझे माया-ग्रसित अंधे कूएँ में से) बचा ले।2।76।99।

सारग महला ५ ॥ बिराजित राम को परताप ॥ आधि बिआधि उपाधि सभ नासी बिनसे तीनै ताप ॥१॥ रहाउ ॥ त्रिसना बुझी पूरन सभ आसा चूके सोग संताप ॥ गुण गावत अचुत अबिनासी मन तन आतम ध्राप ॥१॥ काम क्रोध लोभ मद मतसर साधू कै संगि खाप ॥ भगति वछल भै काटनहारे नानक के माई बाप ॥२॥७७॥१००॥ {पन्ना 1223}

पद्अर्थ: बिराजित = बिराजा हुआ, टिका हुआ। को = का। परताप = बल। आधि = मानसिक रोग। बिआधि = शरीरिक रोग। उपाधि = झगड़े बखेड़े। तीनै = यह तीनों ही।1। रहाउ।

सोग = ग़म। संताप = कलेश। अचुत = (अ+च्युत = ना नाश होने वाला) अविनाशी। आतम = जिंद। ध्राप = तृप्त हो जाते हैं।1।

मद = नशा, मस्ती। मतसर = ईष्या। कै संगि = की संगति में (रख के)। खाप = नाश कर। भै = डर (शब्द 'भउ' का बहुवचन)।2।

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य के हृदय में) परमात्मा के नाम का बल आ टिकता है, उसके अंदर से आधि-बिआधि और उपाधि- ये तीनों ही ताप बिल्कुल ही समाप्त हो जाते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! (जिस मनुष्य के अंदर हरी-नाम का बल है, उसकी) तृष्णा मिट जाती है, उसकी हरेक आशा पूरी हो जाती है, उसके अंदर से ग़म-कलेश खत्म हो जाते हैं। अविनाशी और नाश-रहित प्रभू के गुण गाते-गाते उसका मन उसका तन उसकी जिंद (की तृष्णा) तृप्त हो जाते हैं।1।

हे भगती से प्यार करने वाले! हे सारे डर दूर करने वाले! हे नानक के माता-पिता (ष्की तरह पालना करने वाले!) मुझे साध-संगति में रख के (मेरे अंदर से) काम-क्रोध-लोभ-अहंकार और ईष्या (आदिक विकार) नाश कर।2।77।100।

सारग महला ५ ॥ आतुरु नाम बिनु संसार ॥ त्रिपति न होवत कूकरी आसा इतु लागो बिखिआ छार ॥१॥ रहाउ ॥ पाइ ठगउरी आपि भुलाइओ जनमत बारो बार ॥ हरि का सिमरनु निमख न सिमरिओ जमकंकर करत खुआर ॥१॥ होहु क्रिपाल दीन दुख भंजन तेरिआ संतह की रावार ॥ नानक दासु दरसु प्रभ जाचै मन तन को आधार ॥२॥७८॥१०१॥ {पन्ना 1223}

पद्अर्थ: आतुर = दुखी, व्याकुल। त्रिपति = तृप्ति, तसल्ली, शांति। कूकरी = कुक्ती (के स्वभाव वाली)। ईतु = इस में। लागो = (जगत) लगा रहता है। बिखिआ = माया। छार = राख, निकम्मी।1। रहाउ।

पाइ = पा के। ठगउरी = ठॅग बूटी। भुलाइओ = गगलत रास्ते डाल रखा है। बारो बार = बार बार। निमख्र = निमेष, आँख झपकने जितना समय। कंकर = किंकर, नौकर। जम कंकर = जमदूत।1।

दीन दुख भंजन = हे गरीबों का दुख नाश करने वाले! रावार = चरण धूल। जाचै = माँगता है (एकवचन)। का = को। आधार = आसरा।2।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के) नाम को भुला के जगत व्याकुल हुआ रहता है, इस राख समान माया में ही लगा रहता है (चिपका रहता है) कुक्ती के स्वभाव वाली (जगत की) लालसा कभी नहीं अघाती।1। रहाउ।

(पर, हे भाई! जीव के भी क्या वश? परमात्मा ने माया की) ठॅग-बूटी डाल के स्वयं ही (जगत को) गलत राह पर डाल रखा है, (कुमार्ग पर पड़ कर जीव) बार-बार जूनियों में रहता है, आँख झपकने जितने समय के लिए भी (जीव) परमातमा (के नाम) का सिमरन नहीं करता, जमदूत इसको ख्वार करते रहते हैं।1।

हे प्रभू! हे गरीबों का दुख नाश करने वाले! (दास नानक पर) दयावान हो, (तेरा दास) तेरे संत-जनों के चरणों की धूड़ बना रहे। (तेरा) दास नानक तेरे दर्शन माँगता है, यही (इसके) मन का तन का आसरा है।2।78।101।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh