श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1225 सारग महला ५ ॥ त्रिसना चलत बहु परकारि ॥ पूरन होत न कतहु बातहि अंति परती हारि ॥१॥ रहाउ ॥ सांति सूख न सहजु उपजै इहै इसु बिउहारि ॥ आप पर का कछु न जानै काम क्रोधहि जारि ॥१॥ संसार सागरु दुखि बिआपिओ दास लेवहु तारि ॥ चरन कमल सरणाइ नानक सद सदा बलिहारि ॥२॥८४॥१०७॥ {पन्ना 1225} पद्अर्थ: त्रिसना = माया की लालच। चलत = चलती है, दौड़ भाग करती है। बहु परकारि = कई तरीकों से। कतहु बातहि = किसी भी बात से। अंति = आखिर। परती हारि = हार जाती है, सफल नहीं होती।1। रहाउ। सहजु = आत्मिक अडोलता। इहै = यह ही। इसु बिउहार = इस तृष्णा का व्यवहार है। जानै = जानती। क्रोधहि = क्रोध से। जारि = जारे, जला देती है। आप = अपना। पर का = पराया।1। सागरु = समुंद्र। दुखि = दुख में। बिआपिओ = फसा रहता है। लेवहु तारि = तू तार लेता है। सद = सदा। बलिहारि = मैं सदके जाता हूँ।2। अर्थ: हे भाई! (मनुष्य के अंदर) तृष्णा कई तरीकों से दौड़-भाग करती रहती है। किसी भी बात से (यह तृष्णा) तृप्त नहीं होती, (जिंदगी के आखिर तक) यह सफल नहीं होती (और-और बढ़ती ही रहती है)।1। रहाउ। हे भाई! (तृष्धा के कारण मनुष्य के मन में कभी) शांति पैदा नहीं होती, आनंद नहीं बनता, आत्मिक अडोलता नहीं उपजती। बस! इस तृष्णा का (सदा) यही व्यवहार है। काम और क्रोध से (यह तृष्णा मनुष्य का अंदरला) जला देती है, किसी का लिहज़ नहीं करतीै।1। हे भाई! तृष्णा के कारण जीव पर संसार-समुंद्र अपना जोर डाले रखता है, (जीव) दुख में फसा रहता है। (पर, हे प्रभू!) तू अपने सेवकों को (इस संसार-समुंद्र से) पार लंघा लेता है। हे नानक! कह- (हे प्रभू!) मैं (भी) तेरे सुंदर चरणों की शरण आया हूँ, मैं तुझसे सदा-सदा सदके जाता हूँ।2।84।107। सारग महला ५ ॥ रे पापी तै कवन की मति लीन ॥ निमख घरी न सिमरि सुआमी जीउ पिंडु जिनि दीन ॥१॥ रहाउ ॥ खात पीवत सवंत सुखीआ नामु सिमरत खीन ॥ गरभ उदर बिललाट करता तहां होवत दीन ॥१॥ महा माद बिकार बाधा अनिक जोनि भ्रमीन ॥ गोबिंद बिसरे कवन दुख गनीअहि सुखु नानक हरि पद चीन्ह ॥२॥८५॥१०८॥ {पन्ना 1225} पद्अर्थ: रे पापी = हे पापी! (रे = पुलिंग)। तै = तू। कवन की = किस (बुरे) की? निमख = निमेष, आॅम्ंख झपकने जितना समय। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। जिनि = जिस (प्रभू) ने।1। रहाउ। सवंत = सोता। खीन = क्षीण, कमजोर, आलसी। गरभ = माँ का पेट। उदर = पेट। दीन = निमाणा।1। माद = मस्ती। बापा = बंधा हुआ। कवन दुख = कौन कौन से दुख? गनीअहि = गिने जाएं। चीन् = चीन्ह, पहचान करने से, सांझ डालने से।2। अर्थ: हे पापी! तूने किस की (बुरी) मति ले ली है? जिस मालिक-प्रभू ने तुझे यह जिंद दी, यह शरीर दिया, उसको तू बघड़ी भर के लिए भी आँख झपकने जितने समय के लिए भी याद नहीं करता।1। रहाउ। हे पापी! खाता, पीता, सोता तो तू खुश रहता है पर प्रभू का नाम सिमरते हुए तू आलसी हो जाता है। जब तू माँ के पेट में था, तब बिलकता था, तब तू गरीबड़ा सा बना रहता था।1। हे पापी! बड़े-बड़े विकारों की मस्ती में बंधा हुआ तू अनेकों जूनियों में भटकता आ रहा है। हे नानक! (कह- हे भाई!) परमात्मा का नाम भूलने से इतने दुख आते हैं कि गिने नहीं जा सकते। परमात्मा के चरणों से सांझ डालने से ही सुख मिलता है।2।85।108। सारग महला ५ ॥ माई री चरनह ओट गही ॥ दरसनु पेखि मेरा मनु मोहिओ दुरमति जात बही ॥१॥ रहाउ ॥ अगह अगाधि ऊच अबिनासी कीमति जात न कही ॥ जलि थलि पेखि पेखि मनु बिगसिओ पूरि रहिओ स्रब मही ॥१॥ दीन दइआल प्रीतम मनमोहन मिलि साधह कीनो सही ॥ सिमरि सिमरि जीवत हरि नानक जम की भीर न फही ॥२॥८६॥१०९॥ {पन्ना 1225} पद्अर्थ: माई री = हे माँ! (री = स्त्रीलिंग। 'कहत कबीर सुनहु री लोई')। ओट = आसरा। गही = पकड़ी। जात बही = बह गई है।1। रहाउ। अगह = अथाह। अगाधि = बेअंत गहरा। जलि = जल में। थलि = थल पर। पेखि = देख के। बिगसिओ = प्रसन्न हो रहा है। पूरि रहिओ = व्यापक है। स्रब मही = सारी धरती में।1। मिलि साधह = साधु जनों को मिल के। कीनो सही = सही किया है, देखा है। भीर = भीड़ (में)। न फही = नहीं फसते।2। अर्थ: हे माँ! (जब का) परमात्मा के चरणों का आसरा लिया है, (उसके) दर्शन करके मेरा मन मोहा गया है, (मेरे अंदर से) बुरी मति बह गई है।1। रहाउ। हे माँ! वह परमात्मा अथाह है बेअंत गहरा है, बहुत ऊँचा है, कभी नहीं मरता, उसका मूल्य नहीं पाया जा सकता। जल में धरती में (हर जगह उसको) देख के मेरा मन खिला रहता है। हे माँ! वह सारी सृष्टि में व्यापक है।1। हे माँ! साध-संगति में मिल के गरीबों पर दया करने वाले और मन को मोह लेने वाले प्रीतम का मैंने दर्शन किया है। हे नानक! (कह- हे माँ!) परमात्मा का नाम सिमर-सिमर के आत्मिक जीवन मिलता है, और जमों के चुंगल में नहीं फसता।2।86।109। सारग महला ५ ॥ माई री मनु मेरो मतवारो ॥ पेखि दइआल अनद सुख पूरन हरि रसि रपिओ खुमारो ॥१॥ रहाउ ॥ निरमल भए ऊजल जसु गावत बहुरि न होवत कारो ॥ चरन कमल सिउ डोरी राची भेटिओ पुरखु अपारो ॥१॥ करु गहि लीने सरबसु दीने दीपक भइओ उजारो ॥ नानक नामि रसिक बैरागी कुलह समूहां तारो ॥२॥८७॥११०॥ {पन्ना 1225} पद्अर्थ: मतवारो = मतवाला, मस्त। पेखि = देख के। रसि = रस से। रपिओ = रंगा गया है। खुमारो = मस्ती।1। रहाउ। जसु = सिफतसालाह का गीत। बहुरि = दोबारा। कारो = काला। सिउ = साथ। डोरी राची = सुरति जुड़ी रहती है। भेटिओ = मिल जाता है।1। करु = हाथ (एकवचन)। गहि = पकड़ के। सरबसु = सर्वस्व, सारा धन पदार्थ, सब कुछ। दीपक = दीया। नामि = नाम से। रसिक = रसिया, प्रेमी। बैरागी = वैरागवान।2। अर्थ: हे माँ! मेरा मन (प्रभू के दीदार में) मस्त हो रहा है। उस दया के सोमे प्रभू का दर्शन करके मेरे अंदर पूरी तरह से आत्मिक आनंद सुख बना हुआ है, मेरा मन प्रेम-रस से रंगा गया है और मस्त है।1। रहाउ। हे माँ! परमात्मा का यश गाते हुए जिस मनुष्य का मन निर्मल-उज्जवल हो जाता है, वह दोबारा (विकारों से) काला नहीं होता। (सिफतसालाह की बरकति से) जिस मनुष्य के मन की डोर प्रभू के सुंदर चरणों के साथ जुड़ती है, उसको बेअंत प्रभू मिल जाता है।1। हे माँ! जिस मनुष्य का हाथ पकड़ के प्रभू उसको अपना बना लेता है, उसको सब कुछ बख्शता है, उसके अंदर (नाम के) दीए का प्रकाश हो जाता है। हे नानक! परमात्मा के नाम में प्रीत प्रेम जोड़ने वाला मनुष्य अपनी सारी कुलों को (संसार-समुंद्र से) पार लंघा लेता है।2।87।110। सारग महला ५ ॥ माई री आन सिमरि मरि जांहि ॥ तिआगि गोबिदु जीअन को दाता माइआ संगि लपटाहि ॥१॥ रहाउ ॥ नामु बिसारि चलहि अन मारगि नरक घोर महि पाहि ॥ अनिक सजांई गणत न आवै गरभै गरभि भ्रमाहि ॥१॥ से धनवंते से पतिवंते हरि की सरणि समाहि ॥ गुर प्रसादि नानक जगु जीतिओ बहुरि न आवहि जांहि ॥२॥८८॥१११॥ {पन्ना 1225} पद्अर्थ: आन = (अन्य) (प्रभू के बिना) कई और। सिमरि = सिमर के। मरि जांहि = मर जाते हैं, आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। तिआगि = त्याग के, भुला के। जीअन को = सारे जीवों का। संगि = साथ। लपटाहि = लिपटे रहते हैं।1। रहाउ। बिसारि = विसार के। चलहि = चलते हैं (बहुवचन)। अन मारगि = और रास्ते पर। पाहि = पड़ते हैं। गणत = गिनती। गरभै गरभि = हरेक जून में। भ्रमाहि = भटकते हैं।1। से = वे (बहुवचन)। पतिवंते = इज्जत वाले। समाहि = लीन रहते हैं। गुर प्रसादि = गुरू की कृपा से। बहुरि = दोबारा, फिर। आवहि = पैदा होते हैं। जांहि = मरते हैं।2। अर्थ: हे माँ! सारे जीवों को दातें देने वाले परमात्मा को छोड़ के जो मनुष्य (सदा) माया के साथ चिपके रहते हैं, वह (प्रभू के बिना) और को मन में बसाए रख के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं।1। रहाउ। हे माँ! जो मनुष्य परमात्मा का नाम भुला के और (जीवन-) राह पर चलते हैं, वे भयानक नर्क में पड़े रहते हैं। उनको इतनी सजाएं मिलती रहती हैं कि उनकी गिनती नहीं हो सकती। वे हरेक जून में भटकते फिरते हैं।1। हे माँ! जो मनुष्य परमात्मा की शरण में टिके रहते हैं, वे धन वाले हैं, वे इज्जत वाले हैं। हे नानक! (कह- हे माँ!) गुरू की मेहर से उन्होंने जगत (के मोह) को जीत लिया है, वे बार-बार ना पैदा होते हैं ना मरते हैं।2।88।111। सारग महला ५ ॥ हरि काटी कुटिलता कुठारि ॥ भ्रम बन दहन भए खिन भीतरि राम नाम परहारि ॥१॥ रहाउ ॥ काम क्रोध निंदा परहरीआ काढे साधू कै संगि मारि ॥ जनमु पदारथु गुरमुखि जीतिआ बहुरि न जूऐ हारि ॥१॥ आठ पहर प्रभ के गुण गावह पूरन सबदि बीचारि ॥ नानक दासनि दासु जनु तेरा पुनह पुनह नमसकारि ॥२॥८९॥११२॥ {पन्ना 1225-1226} पद्अर्थ: कुटिल = टेढ़ी चालें चलने वाला, खोटा। कुटिलता = मन का टेढ़, खोट। कुठारि = कुहाड़े से। भ्रम = भटकता। भ्रम बन = भटकना के जंगल। दहन भऐ = जल गए। परहारि = प्रहार, चोट से।1। रहाउ। परहरीआ = दूर कर दी। साधू कै संगि = गुरू की संगति में। मारि = मार के। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। बहुरि = दोबारा। जूअै = जूए में। हारि = हार के।1। गावह = गाओ भाई! हम गाएं (वर्तमानकाल, उक्तम पुरख, बहुवचन)। सबदि = शबद से। बीचारि = विचार के, मन में बसा के। दासनि दासु = दासों का दास। पुनह पुनह = बार बार।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने (जिस मनुष्य के) मन का खोट (मानो) कुहाड़े से काट दिया, उसके अंदर से प्रभू के नाम की चोट से एक छिन में ही भटकना के जंगलों के जंगल ही जल (के राख हो) गए।1। रहाउ। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य गुरू की संगति में रह के काम क्रोध निंदा आदि विकारों को (अपने अंदर से) दूर कर देता है मार-मार के निकाल देता है गुरमुख इस कीमती मनुष्य जनम को (विकारों के मुकाबले में) कामयाब बना लेता है, फिर कभी इसको जूए में हार के नहीं जाता।1। हे भाई! आओ, मिल के सर्व-व्यापक प्रभू के गुणों को गुरू-शबद के द्वारा मन में बसा के आठों पहर उसके गुण गाते रहें। हे नानक! (कह-) हे प्रभू! मैं तेरे दासों का दास हूँ, (तेरे दर पर ही) बार-बार नमस्कार करता हूँ।2।89।112। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |