श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सारग महला ५ ॥ पोथी परमेसर का थानु ॥ साधसंगि गावहि गुण गोबिंद पूरन ब्रहम गिआनु ॥१॥ रहाउ ॥ साधिक सिध सगल मुनि लोचहि बिरले लागै धिआनु ॥ जिसहि क्रिपालु होइ मेरा सुआमी पूरन ता को कामु ॥१॥ जा कै रिदै वसै भै भंजनु तिसु जानै सगल जहानु ॥ खिनु पलु बिसरु नही मेरे करते इहु नानकु मांगै दानु ॥२॥९०॥११३॥ {पन्ना 1226}

पद्अर्थ: पोथी = वह पुस्तक जिसमें परमात्मा की सिफत सालाह लिखी हुई है, गुरबाणी। थानु = मिलने की जगह। साध संगि = गुरू की संगति में। गावहि = (जो) गाते हैं। पूरन = सर्व व्यापक। गिआनु = गहरी सांझ।1। रहाउ।

साधिक = जोग साधना करने वाले। सिध = सिद्ध, जोग साधना में सिद्ध जोगी। लोचहि = तमन्ना करते आए हैं। लागै धिआनु = सुरति जुड़ती है। जिसहि = जिस (मनुष्य) पर (क्रिया विशेषण 'ही' के कारण 'जिसु' की 'ु' मात्रा हट गई है)। ता को = उसका। कामु = (हरेक) काम।1।

जा कै रिदै = जिस (मनुष्य) के हृदय में। भै भंजनु = सारे डर दूर करने वाला। बिसरु नही = ना भूंल करते = हे करतार! नानकु मांगै = नानक मांगता है।2।

अर्थ: हे भाई! गुरबाणी (ही) परमात्मा के मिलाप का स्थान है। जो मनुष्य गुरू की संगति में र हके परमात्मा के गुण गाते रहते हैं, वे मनुष्य सर्व-व्यापक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! जोग-साधना करने वाले मनुष्य, जोग-साधना में सिद्ध-हस्त जोगी, सारे ऋषि-मुनि (परमात्मा के साथ मिलाप की) तमन्ना करते आ रहे हैं, पर किसी विरले की सुरति (उसमें) जुड़ती है। जिस मनुष्य पर मेरा मालिक-प्रभू स्वयं दयावान होता है, उसका (यह) काम सफल हो जाता है।1।

हे भाई! सारे डरों का नाश करने वाला परमात्मा जिस मनुष्य के हृदय में आ बसता है उसको सारा जगत जान लेता है (सारे जगत में उसकी शोभा पसर जाती है)। (उस परमात्मा के दर पर) नानक यह दान माँगता है (कि) हे मेरे करतार! (मेरे मन से कभी) एक छिन वास्ते एक पल के लिए भी ना बिसर।2।90।113।

सारग महला ५ ॥ वूठा सरब थाई मेहु ॥ अनद मंगल गाउ हरि जसु पूरन प्रगटिओ नेहु ॥१॥ रहाउ ॥ चारि कुंट दह दिसि जल निधि ऊन थाउ न केहु ॥ क्रिपा निधि गोबिंद पूरन जीअ दानु सभ देहु ॥१॥ सति सति हरि सति सुआमी सति साधसंगेहु ॥ सति ते जन जिन परतीति उपजी नानक नह भरमेहु ॥२॥९१॥११४॥ {पन्ना 1226}

पद्अर्थ: वूठा = बस गया, बसता है। थाई = जगहों में। मेहु = बरखा, आत्मिक आनंद की वर्षा। मंगल = खुखियां। गाउ = गाया करो। पूरन नेहु = सर्व व्यापक प्रभू का प्यार। प्रगटिओ = पैदा हो जाता है।1। रहाउ।

कुंट = कूट, पासा। दह दिसि = दसों दिशाऐं। जल निधि = (जीवन) जल का खजाना प्रभू। ऊन = खाली। केहु = कोई भी। क्रिपा निधि = हे दया के खजाने प्रभू! पूरन = हे सर्व व्रापक! जीअ दानु = जीवन दाति। देहु = तू देता है।1।

सति = सदा कायम रहने वाला। साध संगेहु = सयाध संगति। ते जन = वे मनुष्य (बहुवचन)। परतीति = श्रद्धा। भरमेहु = भटकना।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का यश गाया करो, (जैसे,) बरसात (टोए-टिब्बे) सब जगह होती है (वैसे ही यश गायन करने वालों के हृदयों में) आनंद और खुशियों की बरखा होती है, सर्व-व्यापक परमात्मा का प्यार (हृदय में) पैदा हो जाता है।1। रहाउ।

हे भाई! (जीवन-) जल का खजाना प्रभू चारों कुंटों में दसों दिशाओं में (हर जगह मौजूद है) कोई भी जगह (उसके अस्तित्व से) खाली नहीं है। (उसका इस तरह यश गाया करो-) हे दया के खजाने! हे गोबिंद! हे सर्व-व्यापक! तू सब जीवों को ही जीवन-दाति देता है।1।

हे नानक! (कह- हे भाई!) परमात्मा सदा ही अटल रहने वाला है (जहाँ वह मिलता है, वह) साध-संगति भी धुर से चली आ रही है। जिन मनुष्यों के हृदय में परमात्मा के प्रति श्रद्धा पैदा हो जाती है, वे भी अटल धार्मिक जीवन वाले हो जाते हैं, उनको कोई भटकना नहीं रह जाती।2।91।114।

सारग महला ५ ॥ गोबिद जीउ तू मेरे प्रान अधार ॥ साजन मीत सहाई तुम ही तू मेरो परवार ॥१॥ रहाउ ॥ करु मसतकि धारिओ मेरै माथै साधसंगि गुण गाए ॥ तुमरी क्रिपा ते सभ फल पाए रसकि राम नाम धिआए ॥१॥ अबिचल नीव धराई सतिगुरि कबहू डोलत नाही ॥ गुर नानक जब भए दइआरा सरब सुखा निधि पांही ॥२॥९२॥११५॥ {पन्ना 1226}

पद्अर्थ: गोबिंद जीउ = हे गोबिंदजी! अधार = आसरा।1। रहाउ।

करु = हाथ। मसतकि = माथे पर। मेरै माथै = मेरे माथे पर। साध संगि = साध-संगति में। ते = से। रसकि = प्यार से।1।

अबिचल = ना हिलने वाली, अटल। नीव = (सिमरने की) नींव। सतिगुरि = सतिगुरू ने। कबहू = कभी भी। दइआरा = दयावान। निधि = खजाना। सरब सुखा निधि = सारे सुखों का खजाना प्रभू। पांही = पाहि, प्राप्त कर लेते हैं (बहुवचन)।2।

अर्थ: हे प्रभू जी! तू मेरे प्राणों का आसरा है। तू ही मेरा सज्जन है, तू ही मेरा मित्र है, तू ही मेरी मदद करने वाला है, तू ही मेरीा परिवार है।1। रहाउ।

हे प्रभू! जब तूने मेरे माथे पर मेरे मस्तक पर (अपनी मेहर का) हाथ रखा, तब मैंने साध-संगति में (टिक के तेरी) सिफत-सालाह के गीत गाए हैं। हे प्रभू! तेरी मेहर से मैंने सारे फल हासिल किए हैं, और प्यार से तेरा नाम सिमरा है।1।

हे भाई! सतिगुरू ने (जिन मनुष्यों के हृदय में हरी-नाम सिमरन की) अटल नींव रख दी, वे कभी (माया में) डोलते नहीं हैं। हे नानक! (कह-) जब सतिगुरू जी दयावान होते हैं, वह सारे सुखों के खजाने परमात्मा का मिलाप हासिल कर लेते हैं।2।92।115।

सारग महला ५ ॥ निबही नाम की सचु खेप ॥ लाभु हरि गुण गाइ निधि धनु बिखै माहि अलेप ॥१॥ रहाउ ॥ जीअ जंत सगल संतोखे आपना प्रभु धिआइ ॥ रतन जनमु अपार जीतिओ बहुड़ि जोनि न पाइ ॥१॥ भए क्रिपाल दइआल गोबिद भइआ साधू संगु ॥ हरि चरन रासि नानक पाई लगा प्रभ सिउ रंगु ॥२॥९३॥११६॥ {पन्ना 1226}

पद्अर्थ: निबही = सदा के लिए साथ बना रहता है। सचु = सदा कायम रहने वाला। खेप = व्यापार के लिए लदा हुआ माल। लाभु = कमाई। निधि = (सारे सुखों का) खजाना। बिखै माहि = पदार्थों में। अलेप = निर्लिप।1। रहाउ।

सगल = सारे। संतोखे = संतोख वाला जीवन प्राप्त कर लेते हैं। धिआइ = सिमर के। अपार रतन = बेअंत कीमती। जीतिओ = जीत लिया, विकारों के मुकाबले से बचा लिया। बहुड़ि = मुड़ के, दोबारा, फिर। न पाइ = नहीं पड़ता।1।

साधू संगि = गुरू का साथ, गुरू का मिलाप। रासि = पूँजी, सरमाया। सिउ = साथ। रंगु = प्यार।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम का सदा कायम रहने वाला व्यापार का लादा हुआ माल जिस जीव-बनजारे के साथ सदा का साथ बना लेता है, वह जीव-बंजारा (सदा) परमात्मा के गुण गाता रहता है, यही असल कमाई है, यही असल खजाना है यही असल धन है, (इसकी बरकति से) वह जीव-वणजारा (मायावी) पदार्थों में निर्लिप रहता है।1। रहाउ।

हे भाई! अपने प्रभू का ध्यान धर के सारे जीव संतोख वाला जीवन हासिल कर लेते हैं। जिस भी मनुष्य ने यह बेयंत कीमती मनुष्य-जनम विकारों के हमलों से बचा लिया, वह बार-बार जूनियों में नहीं पड़ता।1।

हे नानक! (कह- हे भाई!) जिस मनुष्य पर प्रभू जी दयावान होते हैं, उसको गुरू का मिलाप हासिल होता है। वह मनुष्य प्रभू के चरणों की प्रीति का सरमाया हासिल कर लेता है, उसका प्रभू के साथ प्यार बन जाता है।2।93।116।

सारग महला ५ ॥ माई री पेखि रही बिसमाद ॥ अनहद धुनी मेरा मनु मोहिओ अचरज ता के स्वाद ॥१॥ रहाउ ॥ मात पिता बंधप है सोई मनि हरि को अहिलाद ॥ साधसंगि गाए गुन गोबिंद बिनसिओ सभु परमाद ॥१॥ डोरी लपटि रही चरनह संगि भ्रम भै सगले खाद ॥ एकु अधारु नानक जन कीआ बहुरि न जोनि भ्रमाद ॥२॥९४॥११७॥ {पन्ना 1226}

पद्अर्थ: री माई = हे माँ! पेखि = देख के। बिसमाद = हैरान। अनहद धुनी = जिसकी जीवन रौंअ एक रस व्याप रही है।1। रहाउ।

बंधप = सबंधी। मनि = मन में। को = का। अहिलाद = खुशी, हुलारा। साध संगि = साध-संगति में। सभु = सारा। परमाद = प्रमाद, भुलेखा, गलती।1।

भै = डर (बहुवचन)। खाद = खाए जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं। अधारु = आसरा। भ्रमाद = भटकते ।2।

अर्थ: हे (मेरी) माँ! (प्रभू के करिश्मे) देख के मैं हैरान हो रही हूँ। जिस प्रभू की जीवन-रौंअ एक-रस (सारे जगत में) रुमक रही है उसने मेरा मन मोह लिया है, उसके (मिलाप के) आनंद भी हैरान करने वाले हैं।1। रहाउ।

हे माँ! (सब जीवों का) माता-पिता संबंधी वह प्रभू ही है। (मेरे) मन में उस प्रभू (के मिलाप) का हुलारा आ रहा है। हे माँ! जिस मनुष्य ने साध-संगति में (टिक के) उसकी सिफत-सालाह के गीत गाए हैं, उसका सारा भरम-भुलेखा दूर हो गया।1।

हे दास नानक! जिस मनुष्य के चिक्त की डोर प्रभू के चरणों के साथ जुड़ी रहती है, उसके सारे भ्रम सारे डर समाप्त हो जाते हैं। जिसने सिर्फ हरी-नाम को अपनी जिंदगी का आसरा बना लिया, वह बार-बार जूनियों में नहीं भटकता।2।94।117।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh