श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सारंग महला ५ चउपदे घरु ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि भजि आन करम बिकार ॥ मान मोहु न बुझत त्रिसना काल ग्रस संसार ॥१॥ रहाउ ॥ खात पीवत हसत सोवत अउध बिती असार ॥ नरक उदरि भ्रमंत जलतो जमहि कीनी सार ॥१॥ पर द्रोह करत बिकार निंदा पाप रत कर झार ॥ बिना सतिगुर बूझ नाही तम मोह महां अंधार ॥२॥ बिखु ठगउरी खाइ मूठो चिति न सिरजनहार ॥ गोबिंद गुपत होइ रहिओ निआरो मातंग मति अहंकार ॥३॥ करि क्रिपा प्रभ संत राखे चरन कमल अधार ॥ कर जोरि नानकु सरनि आइओ गुोपाल पुरख अपार ॥४॥१॥१२९॥ {पन्ना 1229}

पद्अर्थ: भजि = भजन किया कर। आन करम = अन्य कर्मं बिकार = बेकार, व्यर्थ। काल = आत्मिक मौत। काल ग्रसत = आत्मिक मौत का ग्रसा हुआ।1। रहाउ।

सोवत = सोते हुए। अउध = उम्र। बिती = बीत जाती है। असार = बेसमझी में। उदरि = पेट में। जलतो = जलता, दुखी होता। जमहि = जमों ने। सार = संभाल।1।

पर द्रोह = दूसरों से ठगी। पाप रत = पापों में मस्त। कर झार = हाथ झाड़ के, हाथ धो के। बूझ = आत्मिक जीवन की समझ। तम मोह = मोह का अंधेरा। अंधार = अंधेरा।1।

बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। ठगउरी = ठग बूटी माया। मूठो = लूटा जाता है। चिति = चिक्त में। गुपत = छुपा हुआ। निआरो = अलग। मातंग = हाथी।3।

करि = कर के। अधार = आसरा। कर = हाथ (बहुवचन)। जोरि = जोड़ के। गुोपाल (असल शब्द है 'गोपाल', यहां 'गुपाल' पढ़ना है)। अपार = हे बेअंत!।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम का भजन किया कर, (भजन के बिना) अन्य काम (जिंद के लिए) व्यर्थ हैं। (अन्य कर्मों से) अहंकार और मोह (पैदा होता है), तृष्णा नहीं मिटती, दुनिया आत्मिक मौत में फसी रहती है।1। रहाउ।

हे भाई! खाते पीते हसते हुए सोए हुए (इस तरह मनुष्य की) उम्र बेसमझी में बीतती जाती है। नर्क समान हरेक जून में (जीव) भटकता है दुखी होता है, जमों के वश पड़ा रहता है।1।

हे भाई! (भजन से टूट के) मनुष्य दूसरों से ठॅगी करता है, निंदा आदि कुकर्म करता है, बेपरवाह हो के पापों में मस्त रहता है। गुरू की शरण के बिना (मनुष्य को) आत्मिक जीवन की समझ नहीं पड़ती, मोह के घोर अंधकार में पड़ा रहता है।2।

हे भाई! आत्मक मौत लाने वाली माया-ठॅग-बूटी खा के मनुष्य (का आत्मिक सरमाया) लूटा जाता है, इसके मन में परमात्मा की याद नहीं होती, अहंकार की मति के कारण हाथी की तरह (फूला रहता है, इसके अंदर ही) परमात्मा छुपा बैठा है, पर उससे अलग ही रहता है।3।

हे भाई! प्रभू जी ने मेहर करके अपने संतों को अपने सुंदर चरणों के आसरे (इस 'बिखु ठगउरी' से) बचाए रखा है।

हे गोपाल! हे अकाल पुरख! हे बेअंत! छोनों हाथ जोड़ कर नानक (तेरी) शरण आया है (इसकी भी रक्षा कर)।4।1।129।

सारग महला ५ घरु ६ पड़ताल    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सुभ बचन बोलि गुन अमोल ॥ किंकरी बिकार ॥ देखु री बीचार ॥ गुर सबदु धिआइ महलु पाइ ॥ हरि संगि रंग करती महा केल ॥१॥ रहाउ ॥ सुपन री संसारु ॥ मिथनी बिसथारु ॥ सखी काइ मोहि मोहिली प्रिअ प्रीति रिदै मेल ॥१॥ सरब री प्रीति पिआरु ॥ प्रभु सदा री दइआरु ॥ कांएं आन आन रुचीऐ ॥ हरि संगि संगि खचीऐ ॥ जउ साधसंग पाए ॥ कहु नानक हरि धिआए ॥ अब रहे जमहि मेल ॥२॥१॥१३०॥ {पन्ना 1229}

पद्अर्थ: बोलि = उचारा कर। किंकरी = दासी (किंकर = दास)। किंकरी बिकार = हे विकारों की दासी! री = हे जीव स्त्री! महलु = प्रभू चरणों में जगह। संगि = साथ। रंग करती = आनंद भोगती। केल = आनंद।1। रहाउ।

मिथनी = नाशवंत। सखी = हे सखी! काइ = क्यों? मोहि = मोह में। मोहिली = मोह में फसी है। प्रिअ प्रीति = प्यारे की प्रीति। रिदै = हृदय में।1।

दइआरु = दयालु। कांऐं = क्यों? आन आन = और और (पदार्थों में)। रुचीअै = प्रीत बनाई हुई है। संगि = साथ। खचीअै = मस्त रहना चाहिए। जउ = जब। रहे = समाप्त हो जाता है। जमहि मेल = जमों से वाह।2।

अर्थ: हे विकारों की दासी (हो चुकी जीव-स्त्री)! होश कर (बिचार के देख)। परमात्मा के अमूल्य गुण (सभी वचनों से) शुभ वचन हैं- इनका उच्चारण किया कर। (हे जीव-स्त्री!) गुरू का शबद अपने मन में टिकाए रख (और, शबद की बरकति से) प्रभू-चरणों में ठिकाना प्राप्त कर। (जो जीव-स्त्री प्रभू-चरणों में टिकती है, वह) परमात्मा में जुड़ के बड़े आत्मिक आनंद भोगती है।1। रहाउ।

हे सखी! यह जगत सपने जैसा है, (इसका सारा) पसारा नाशवंत है। तू इस के मोह में क्यों फसी हुई है? प्रीतम प्रभू की प्रीति अपने हृदय में बसाए रख।1।

हे सखी! प्रभू सदा ही दया का घर है, वह सब जीवों से प्रीत करता है प्यार करता है। हे सखी! (उसको भुला के) और-और पदार्थों में प्यार नहीं डालना चाहिए। सदा परमात्मा के प्यार में ही मस्त रहना चाहिए। हे नानक! कह- जब (कोई भाग्यशाली मनुष्य) साध-संगति का मिलाप करता है और परमात्मा का ध्यान धरता है, तब जमों से उसका सामना नहीं पड़ता।2।1।130।

सारग महला ५ ॥ कंचना बहु दत करा ॥ भूमि दानु अरपि धरा ॥ मन अनिक सोच पवित्र करत ॥ नाही रे नाम तुलि मन चरन कमल लागे ॥१॥ रहाउ ॥ चारि बेद जिहव भने ॥ दस असट खसट स्रवन सुने ॥ नही तुलि गोबिद नाम धुने ॥ मन चरन कमल लागे ॥१॥ बरत संधि सोच चार ॥ क्रिआ कुंटि निराहार ॥ अपरस करत पाकसार ॥ निवली करम बहु बिसथार ॥ धूप दीप करते हरि नाम तुलि न लागे ॥ राम दइआर सुनि दीन बेनती ॥ देहु दरसु नैन पेखउ जन नानक नाम मिसट लागे ॥२॥२॥१३१॥ {पन्ना 1229}

पद्अर्थ: कंचना = सोना। दत करा = दान किया। भूमि = जमीन। अरपि = अर्पित करके। धरा = धर दी, दे दी। सोच = स्वच्छता। करत = करता। रे मन = हे मन! तुलि = समान, बराबर। लागे = लागि, लगा रह।1। रहाउ।

जिहव भने = जीभ से उचारता है। दस असट = अठसरह पुराण। खसट = छे शास्त्र। स्रवन = कानों से। नाम धुने = नाम की धुनि। मन = हे मन!।1।

संधि = संधिआ। सोच चार = स्वच्छाचार, पवित्रतता (शरीरिक)। क्रिआ कुंटि = चार कुंटों में भ्रमण। निराहार = भूखे रह के। पाकसार = पाकशाल, रसोई। अपरस = अ+परस, किसी से नहीं छूना। निवली करम = (कब्ज से बचने के लिए) पेट की आँतों को चक्कर देना। न लागे = नहीं पहुँचते। राम दइआर = हे दयाल हरी! दीन बेनती = गरीब की विनती। पेखउ = मैं देखूँ। मिसट = मीठा।2।

अर्थ: हे मन! अगर कोई मनुष्य बहुत सोना दान करता है, जमीन अरप के दान करता है, कई तरह के स्वच्छता भरी क्रियाओं से (शरीर को) पवित्र करता है, (यह उद्यम) परमात्मा के नाम के बराबर नहीं हैं। हे मन! परमात्मा के सुंदर चरणों में जुडा रह।1। रहाउ।

हे मन! अगर कोई मनुष्य चारों वेद अपनी जीभ से उचारता रहता है, अठारह पुराण और छह शास्त्र कानों से सुनता रहता है (यह काम) परमात्मा की लगन के बराबर नहीं हैं। हे मन! प्रभू के सुंदर चरणों में प्रीत बनाए रख।1।

हे मन! व्रत, संध्या, शारीरिक पवित्रता, (तीर्थ-यात्रा आदि के लिए) चार कुंटों में भूखे रहके भटकते फिरना, बिना किसी से छूए अपनी रसोई तैयार करनी, (आँतों को घुमाने का अभ्यास), निवली कर्म करना, और ऐसे पसारे पसारने, (देव-पूजा के लिए) धूपें-धुखानीं दीए जगाने- ये सारे ही उद्यम परमात्मा के नाम की बराबरी नहीं करते।

हे दास नानक! (कह-) हे दया के श्रोत प्रभू! मेरी गरीब की विनती सुन। अपने दर्शन दे, मैं तुझे अपनी आँखों से (सदा) देखता रहूँ, तेरा नाम मुझे मीठा लगता रहे।2।2।131।

सारग महला ५ ॥ राम राम राम जापि रमत राम सहाई ॥१॥ रहाउ ॥ संतन कै चरन लागे काम क्रोध लोभ तिआगे गुर गोपाल भए क्रिपाल लबधि अपनी पाई ॥१॥ बिनसे भ्रम मोह अंध टूटे माइआ के बंध पूरन सरबत्र ठाकुर नह कोऊ बैराई ॥ सुआमी सुप्रसंन भए जनम मरन दोख गए संतन कै चरन लागि नानक गुन गाई ॥२॥३॥१३२॥ {पन्ना 1229-1230}

पद्अर्थ: जापि = जपा कर। रमत = जपते हुए। सहाई = मददगार।1। रहाउ।

कै चरन = के चरणों में। तिआगे = त्याग के। लबधि = जिस वस्तु को ढूँढते थे।1।

अंध = अंधे (करने वाले)। बंध = बंधन, फंदे। पूरन = व्यापक। सरबत्र = सब जगह। बैराई = वैरी। सुप्रसंन = दयावान। दोख = पाप। लागि = लग के। गाई = गाती है।2।

अर्थ: हे भाई! सदा सदा परमात्मा (के नाम का जाप) जपा कर, (नाम) जपते हुए (वह) परमात्मा (हर जगह) सहायता करने वाला है।1।

हे भाई! जो मनुष्य संत-जनों के चरण लगते हैं, काम, क्रोध लोभ (आदि विकार) छोड़ देते हैं, उन पर गुर-गोपाल मेहरवान होता है, उनको अपनी वह नाम-वस्तु मिल जाती है जिसकी (अनेकों जन्मों से) तलाश करते आ रहे थे।1।

हे नानक! जो मनुष्य संत जनों के चरणों से लग के परमात्मा के गुण गाते रहते हैं, उन पर मालिक-प्रभू प्रसन्न हो जाते हैं, उनके जनम-मरण के चक्कर और पाप सभ समाप्त हो जाते हैं। उनके अंदर से भ्रम और मोह के अंधेरे नाश हो जाते हैं, माया के मोह के फंदे टूट जाते हैं, प्रभू-मालिक उनको हर जगह व्यापक दिखाई देता है, कोई भी उन्हें वेरी नहीं लगता।2।3।132।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh