श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1230 सारग महला ५ ॥ हरि हरे हरि मुखहु बोलि हरि हरे मनि धारे ॥१॥ रहाउ ॥ स्रवन सुनन भगति करन अनिक पातिक पुनहचरन ॥ सरन परन साधू आन बानि बिसारे ॥१॥ हरि चरन प्रीति नीत नीति पावना महि महा पुनीत ॥ सेवक भै दूरि करन कलिमल दोख जारे ॥ कहत मुकत सुनत मुकत रहत जनम रहते ॥ राम राम सार भूत नानक ततु बीचारे ॥२॥४॥१३३॥ {पन्ना 1230} पद्अर्थ: मुखहु = मुँह से। बोलि = उचारा कर। मनि = मन में। धारे = बसाए रख।1। रहाउ। स्रवन = कानों से। पातिक = पाप। पुनहचरन = (पापों की निर्विति के लिए किए गए) पछतावे के कर्म, पश्चाताप वाले कर्म। साधू = गुरू। आन = अन्य। बानि = आदत।1। नीति नीति = नित्य नित्य, सदा सदा। पावन = पवित्र। भै = डर (शब्द 'भउ' का बहुवचन)। कलिमल = पाप। दोख = पाप। जारे = जला देता है। मुकत = विकारों से बचा हुआ। रहत = सद जीवन मर्यादा रखते हुए। रहते = बच जाते हैं। सार भूत = सब से श्रेष्ठ पदार्थ। ततु = अस्लियत।2। अर्थ: हे भाई! सदा सदा ही परमात्मा का नाम अपने मुँह से उचारा कर और अपने मन में बसाए रख।1। रहाउ। हे भाई! परमात्मा का नाम कानों से सुनना प्रभू की भक्ति करनी - यही है अनेकों पापों को दूर करने के लिए किए हुए पछतावे-मात्र धार्मिक कर्म। हे भाई! गुरू की शरण पड़े रहना- ये उद्यम अन्य (बुरी) आदतों को (मन में से) दूर कर देता है।1। हे भाई! सदा सदा प्रभू के चरणों से प्यार बनाए रखना- ये जीवन को बहुत ही पवित्र बना देता है। प्रभू-चरणों से प्रीति सेवक के सारे डर दूर करने वाली है, सेवक के सारे पाप विकार जला देती है। हे भाई! प्रभू का नाम सिमरने वाले और सुनने वाले विकारों से बचे रहते हैं, सदाचार (सुचॅजी रहणी) रखने वाले जूनियों से बच जाते हैं। हे भाई! नानक (सारी विचारों का यह) सारांश बताता है कि परमात्मा का नाम सबसे श्रेष्ठ है।2।4।133। सारग महला ५ ॥ नाम भगति मागु संत तिआगि सगल कामी ॥१॥ रहाउ ॥ प्रीति लाइ हरि धिआइ गुन गुोबिंद सदा गाइ ॥ हरि जन की रेन बांछु दैनहार सुआमी ॥१॥ सरब कुसल सुख बिस्राम आनदा आनंद नाम जम की कछु नाहि त्रास सिमरि अंतरजामी ॥ एक सरन गोबिंद चरन संसार सगल ताप हरन ॥ नाव रूप साधसंग नानक पारगरामी ॥२॥५॥१३४॥ {पन्ना 1230} पद्अर्थ: मागु = मांगता रह। कामी = काम।1। रहाउ। लाइ = लगा के। गाइ = गाया कर। रेन = चरन धूल। बांछु = मांगता रह, चाहत कर। दैनहार = देने की समर्थता वाले से।1। गुोबिंद: अक्षर 'ग' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'गोबिंद', यहां 'गुबिंद' पढ़ना है। सरब = सारे। कुसल = सुख। बिस्राम = विश्राम, ठिकाना। त्रास = डर। अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। ताप हरन = दुख दूर करने वाला। नाव = नाँव, बेड़ी। नाव रूप = नाँव जैसा है। पारगरामी = (संसार समुंद्र से) पार लंघाने वाला।2। अर्थ: हे भाई! और सारे काम छोड़ के (भी) संत जनों से परमात्मा के नाम की भक्ति माँगता रहा कर।1। रहाउ। हे भाई! प्यार से परमात्मा के नाम का ध्यान धरा कर, सदा गोबिंद के गुण गाता रहा कर। उस सब कुछ दे सकने वाले मालिक-प्रभू से संतजनों के चरणों की धूल माँगता रहा कर।1। हे भाई! परमात्मा का नाम सारे सुखों का सारी खुशियों का, सारे आनंदों का श्रोत है। हरेक के दिल की जानने वाले प्रभू का नाम सिमरा कर, जमों का (भी) कोई डर नहीं रह जाता। हे नानक! एक परमात्मा के चरणों की शरण जगत के सारे दुख-कलेश दूर करने योग्य है। (यह शरण साध-संगति में ही मिलती है, और) साध-संगति बेड़ी की तरह (संसार-समुंद्र से) पार लंघाने वाली है।2।5।134। सारग महला ५ ॥ गुन लाल गावउ गुर देखे ॥ पंचा ते एकु छूटा जउ साधसंगि पग रउ ॥१॥ रहाउ ॥ द्रिसटउ कछु संगि न जाइ मानु तिआगि मोहा ॥ एकै हरि प्रीति लाइ मिलि साधसंगि सोहा ॥१॥ पाइओ है गुण निधानु सगल आस पूरी ॥ नानक मनि अनंद भए गुरि बिखम गार्ह तोरी ॥२॥६॥१३५॥ {पन्ना 1230} पद्अर्थ: गुन लाल = सुंदर प्रभू के गुण। गावउ = मैं गाता हूँ। गुर देखे = गुरू के दर्शन करके। पंचा ते = (कामादिक) पाँचों से। ऐकु = मन। जउ = जब। साध संगि = साध-संगति में। पग रउ = मैं पकड़ू (हरी के चरन)।1। रहाउ। द्रिसटउ = दृष्टमान, दिखाई देता जगत। संगि = साथ। जाइ = जाता। मानु = अहंकार। मिलि = मिल के। सोहा = जीवन सुंदर बन जाता है।1। गुण निधान = गुणों का खजाना हरी। मनि = मन में। गुरि = गुरू ने। बिखम = मुश्किल। गार्ह = गांठ। तोरी = तोड़ दी है।2। अर्थ: हे भाई! जब गुरू का दर्शन करके मैं सुंदर हरी के गुण गाता हूँ, जब गुरू की संगति में टिक के मैं (प्रभू के चरन) पकड़ता हूँ, तब (मेरा यह) मन (कामादिक) पाँचों (के पँजे) से निकल जाता है।1। रहाउ। हे भाई! (यह जो) दिखाई देता जगत (है, इस में से) कुछ भी (किसी के) साथ नहीं जाता (इसलिए इसका) मान और मोह छोड़ दे। साध-संगति में मिल के एक परमात्मा के चरणों के साथ प्रीत जोड़ (इस तरह जीवन) सुंदर बन जाता है।1। हे नानक! (कह- हे भाई!) मैंने गुणों का खजाना प्रभू पा लिया है, मेरी सारी आशा पूरी हो गई है। गुरू ने (मेरे अंदर से माया के मोह की) कठिन गाँठ खोल दी है, अब मेरे मन में आनंद ही आनंद बन गए हैं।2।6।135। सारग महला ५ ॥ मनि बिरागैगी ॥ खोजती दरसार ॥१॥ रहाउ ॥ साधू संतन सेवि कै प्रिउ हीअरै धिआइओ ॥ आनंद रूपी पेखि कै हउ महलु पावउगी ॥१॥ काम करी सभ तिआगि कै हउ सरणि परउगी ॥ नानक सुआमी गरि मिले हउ गुर मनावउगी ॥२॥७॥१३६॥ {पन्ना 1230} पद्अर्थ: मनि = मन में। बिरागैरी = वैरागवान होगी (मेरी जिंद), (मेरी जिंद) वैरागवान होती है। खोजती = खोज करती करती। दरसार = दर्शन।1। रहाउ। सेवि कै = सेवा करके। प्रिउ = प्यारा प्रभू। हीअरै = हृदय में। पेखि कै = देख के, दर्शन कर के। हउ = मैं। महलु = (प्रभू चरणों में) ठिकाना। पावउगी = मैं प्राप्त करूँगी।1। काम करी = काम कार, काम धंधे। गर = गले से। गुर मनावउगी = मैं गुरू की प्रसन्नता हासिल करूँगी।2। अर्थ: हे सखी! (प्रभू के) दर्शनों के यतन करती-करती मेरी जिंद मन में वैराग वाली होती जा रही है।1। रहाउ। हे सखी! संत जनों की सेवा करके (साध-संगति की बरकति से) मैंने प्यारे प्रभू को अपने हृदय में बसा लिया है, और, उस आनंद-स्वरूप के दर्शन करके मैंने उसके चरणों में ठिकाना प्राप्त कर लिया है।1। हे सखी! (जगत के) काम-धंधों का सारा मोह छोड़ के मैं प्रभू की शरण पड़ी रहती हूँ। हे नानक! (कह- हे सखी! जिस गुरू की कृपा से) मालिक-प्रभू जी (मेरे) गले से आ लगे हैं, मैं (उस) गुरू की प्रसन्नता प्राप्त करती रहती हूँ।2।7।136। सारग महला ५ ॥ ऐसी होइ परी ॥ जानते दइआर ॥१॥ रहाउ ॥ मातर पितर तिआगि कै मनु संतन पाहि बेचाइओ ॥ जाति जनम कुल खोईऐ हउ गावउ हरि हरी ॥१॥ लोक कुट्मब ते टूटीऐ प्रभ किरति किरति करी ॥ गुरि मो कउ उपदेसिआ नानक सेवि एक हरी ॥२॥८॥१३७॥ {पन्ना 1230} पद्अर्थ: अैसी = ऐसी हालत। होइ परी = हो गई है। जानते = जानता है। दइआर = दयालु प्रभू।1। रहाउ। मातर = माँ। पितर = पिता। तिआगि कै = (मोह) छोड़ के। पाहि = पास। बेचाइओ = बेच दिया है। खोईअै = गवा दी है। हउ = मैं। गावउ = गाता रहता हूँ।1। ते = से। टूटीअै = टूट गई है। किरति = कृत्य, निहाल। करी = कर दिया है। गुरि = गुरू ने। मो कउ = मुझे। नानक = हे नानक! सेवि = सेवा कर, शरण पड़ा रह।2। अर्थ: हे भाई! (मेरे मन की हालत) ऐसी हो गई है (और, इस हालत को) दयालु प्रभू (स्वयं) जानता है।1। रहाउ। हे भाई! (गुरू के उपदेश की बरकति से) माता-पिता (आदि संबन्धियों का मोह) छोड़ के मैंने अपना मन संत जनों के हवाले कर दिया है, मैंने (ऊँची) जाति कुल जनम (का गुमान) छोड़ दिया है, और मैं (हर वक्त) परमात्मा की सिफत-सालाह ही करता हूँ (अपने कुल आदि को सराहने की जगह)।1। हे नानक! (कह- हे भाई! गुरू के उपदेश की बरकति से मेरी प्रीति) लोगों से कुटुंब से टूट गई है, प्रभू ने मुझे निहाल-निहाल कर दिया है। गुरू ने मुझे शिक्षा दी है कि सदा एक परमात्मा की शरण पड़ा रह।2।8।137। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |