श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1231 सारग महला ५ ॥ लाल लाल मोहन गोपाल तू ॥ कीट हसति पाखाण जंत सरब मै प्रतिपाल तू ॥१॥ रहाउ ॥ नह दूरि पूरि हजूरि संगे ॥ सुंदर रसाल तू ॥१॥ नह बरन बरन नह कुलह कुल ॥ नानक प्रभ किरपाल तू ॥२॥९॥१३८॥ {पन्ना 1231} पद्अर्थ: लाल = सुंदर। मोहन = मोह लेने वाला। गोपाल = हे जगत के रक्षक! कीट = कीड़े। हसति = हाथी। पाखाण = पत्थर। सरब मै = सबमें व्यापक। प्रतिपाल = पालने वाला।1। रहाउ। पूरि = व्यापक। हजूरि = हाजर नाजर, प्रत्यक्ष। संगे = साथ। रसाल = सब रसों का घर (आलय)।1। प्रभ = हे प्रभू! किरपाल = दयावान।2। अर्थ: हे जगत-रक्षक प्रभू! तू सुंदर है, तू सुंदर है, तू मन को मोह लेने वाला है। हे सबके पालनहार! कीड़े, हाथी, पत्थरों के (में बसते) जंतु- इन सबमें ही तू मौजूद है।1। रहाउ। हे प्रभू! तू (किसी जीव से) दूर नहीं है, तू सबमें व्यापक है, तू प्रत्यक्ष दिखता है, तू (सब जीवों के) साथ है। तू सुंदर है, तू सब रसों का श्रोत है।1। हे नानक! (कह- हे प्रभू! लोगों द्वारा मिथे हुए) वर्णों में से तेरा कोई वर्ण नहीं है (लोगों द्वारा मिथी हुई) कुलों में से तेरी कोई कुल नहीं है (तू किसी विशेष कुल व वर्ण का पक्ष नहीं करता) तू (सब पर) दयावान रहता है।2।9।138। सारग मः ५ ॥ करत केल बिखै मेल चंद्र सूर मोहे ॥ उपजता बिकार दुंदर नउपरी झुनंतकार सुंदर अनिग भाउ करत फिरत बिनु गोपाल धोहे ॥ रहाउ ॥ तीनि भउने लपटाइ रही काच करमि न जात सही उनमत अंध धंध रचित जैसे महा सागर होहे ॥१॥ उधरे हरि संत दास काटि दीनी जम की फास पतित पावन नामु जा को सिमरि नानक ओहे ॥२॥१०॥१३९॥३॥१३॥१५५॥ {पन्ना 1231} पद्अर्थ: केल = रंग तमाशे। बिखै = विषौ विकार। सूर = सूरज (देवता)। दुंदर = झगड़ालू, खरूदी। नउपरी = नूपुर, झांझरें। झुनंतकार = छनकार। अनिग = अनेकों। भाउ = हाव भाव। धोहे = ठॅग लेती है।1। रहाउ। भउने = भवनों में। लपटाइ रही = चिपकी रहती है। काच करमि = कच्चे कर्म से। न जात सही = सही नहीं जाती। उनमत = मस्त। अंध = अंधे। धंध रचित = घंधों में फसा हुआ। होहे = धक्के।1। उधरे = बच गए। फास = फंदा। पतित पावन = विकारियों को पवित्र करने वाला। जा को = जिस (प्रभू) का। ओहे = उसी प्रभू को।2। अर्थ: हे भाई! (माया अनेकों तरह के) रंग-तमाशे करती है, (जीवों को) विषौ-विकारों संग जोड़ती है, चंद्रमा-सूर्य आदि सब देवते इसने अपने जाल में फसा रखे हैं। हे भाई! (माया के प्रभाव के कारण जीवों के अंदर) झगड़ालू विकार पैदा हो जाते हैं, झांझरों की छनकार की तरह माया जीवों को प्यारी लगती है, यह माया अनेकों हाव-भाव करती फिरती है। जगत-रक्षक प्रभू के बिना माया ने सभी जीवों को ठॅग लिया है।1। रहाउ। हे भाई! माया तीनों भवनों (के जीवों) को चिपकी रहती है, (पुन्य, दान, तीर्थ आदि) कच्चे कर्मों की (इस माया की चोट को) सहा नहीं जा सकता। जीव माया के मोह में मस्त और अंधे हुए रहते हैं, जगत के धंधों में व्यस्त रहते हैं (इस तरह धक्के खाते हैं) जैसे बड़े समुंद्र में धक्के पड़ते हैं।1। हे भाई! (माया के असर से) परमात्मा के संत प्रभू के दास (ही) बचते हैं, प्रभू ने उनकी जमों वाली (आत्मिक मौत के) फंदे काट दिए होते हैं। हे नानक! जिस प्रभू का नाम 'पतित पावन' (पापियों को पवित्र करने वाला) है, उसी का नाम सिमरा कर।2।10।139।155। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु सारंग महला ९ ॥ हरि बिनु तेरो को न सहाई ॥ कां की मात पिता सुत बनिता को काहू को भाई ॥१॥ रहाउ ॥ धनु धरनी अरु स्मपति सगरी जो मानिओ अपनाई ॥ तन छूटै कछु संगि न चालै कहा ताहि लपटाई ॥१॥ दीन दइआल सदा दुख भंजन ता सिउ रुचि न बढाई ॥ नानक कहत जगत सभ मिथिआ जिउ सुपना रैनाई ॥२॥१॥ {पन्ना 1231} पद्अर्थ: तेरो = तेरा। को = कोई (व्यक्ति)। सहाई = सहायक। कां की = किस की? मात = माँ। सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री। कौ = कौन? काहू को = किसी का। भाई = भ्राता।1। रहाउ। धरनी = धरती। अरु = और (अरि = वैरी)। संपति = सम्पक्ति, पदार्थं सगरी = सारी। अपनाई = अपना। छूटै = छिन जाता है, साथ छूट जाता है। संगि = (जीव के) साथ। कहा = क्यों? लपटाई = चिपका रहता है।1। छीन = गरीब। दुख भंजन = दुखों का नाश करने वाला। ता सिउ = उस (प्रभू) से। रुचि = प्यार। न बढाई = नहीं बढ़ाता। मिथिआ = नाशवंत। रैनाई = रात का।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के बिना तेरा (और) कोई भी सहायता करने वाला नहीं है। हे भाई! कौन किसी की माँ? कौन किसी का पिता? कौन किसी का पुत्र? कौन किसी की पत्नी? (जब शरीर से साथ समाप्त हो जाता है तब) कौन किसी का भाई बनता है? (कोई नहीं)।1। रहाउ। हे भाई! यह धन धरती सारी मायश जिन्हें (तू) अपनी समझे बैठा है, जब शरीर से साथ छूटता है, कोई भी चीज़ (जीव के) साथ नहीं जाती। फिर जीव क्यों इनके साथ चिपका रहता है?।1। हे भाई! जो प्रभू गरीबों पर दया करने वाला है, जो सदा (जीवों के) दुखों का नाश करने वाला है, तू उससे प्यार नहीं बढ़ाता। नानक कहता है- हे भाई! जैसे रात का सपना होता है वैसे ही सयारा जगत नाशवंत है।2।1। सारंग महला ९ ॥ कहा मन बिखिआ सिउ लपटाही ॥ या जग महि कोऊ रहनु न पावै इकि आवहि इकि जाही ॥१॥ रहाउ ॥ कां को तनु धनु स्मपति कां की का सिउ नेहु लगाही ॥ जो दीसै सो सगल बिनासै जिउ बादर की छाही ॥१॥ तजि अभिमानु सरणि संतन गहु मुकति होहि छिन माही ॥ जन नानक भगवंत भजन बिनु सुखु सुपनै भी नाही ॥२॥२॥ {पन्ना 1231} पद्अर्थ: कहा = क्यों? मन = हे मन! बिखिआ = माया। सिउ = से। लपटाही = चिपका हुआ है। या जग महि = इस जगत में। इकि = (शब्द 'इक' का बहुवचन)। आवहि = आते हैं, पैदा होते हैं। जाही = जाते हैं, मरते हैं।1। रहाउ। कां को = किस का? संपति = माया। का सिउ = किससे? नेहु = प्यार। लगाही = तू लगा रहा है। सगल = सारा। बिनासै = नाश हो जाने वाला है। बदर = बादल। छाही = छाया।1। तजि = छोड़। गहु = पकड। होहि = तू हो जाएगा। सुपनै = सपने में।2। अर्थ: हे मन! तू क्यों माया से (ही) चिपका रहता है? (देख) इस दुनिया में (सदा के लिए) कोई भी टिका नहीं रह सकता। अनेकों पैदा होते रहते हैं, अनेकों ही मरते रहते हैं।1। रहाउ। हे मन (देख) सदा के लिए ना किसी का शरीर रहता है, ना धन रहता है, ना माया रहती है। तू किससे प्यार बनाए बैठा है? जैसे बादलों की छाया है, वैसे ही जो कुछ दिख रहा है सभ नाशवंत है।1। हे मन! अहंकार छोड़, और, संत जनों की शरण पड़। (इस तरह) एक छिन में तू (माया के बँधनों से) स्वतंत्र हो जाएगा। हे दास नानक! (कह- हे मन!) परमात्मा के भजन के बिना कभी सपने में भी सुख नहीं मिलता।2।2। सारंग महला ९ ॥ कहा नर अपनो जनमु गवावै ॥ माइआ मदि बिखिआ रसि रचिओ राम सरनि नही आवै ॥१॥ रहाउ ॥ इहु संसारु सगल है सुपनो देखि कहा लोभावै ॥ जो उपजै सो सगल बिनासै रहनु न कोऊ पावै ॥१॥ मिथिआ तनु साचो करि मानिओ इह बिधि आपु बंधावै ॥ जन नानक सोऊ जनु मुकता राम भजन चितु लावै ॥२॥३॥ {पन्ना 1231} पद्अर्थ: कहा = क्यों? गवावै = गवाता है। मदि = नशे में। बिखिआ रसि = माया के रस में। रचिओ = व्यस्त रहता है।1। रहाउ। सगल = सारा। देखि = देख के। कहा = क्यों? लोभावै = लोभ में फसता है। उपजै = पैदा होता है। बिनासै = नाश हो जाता है। कोऊ = कोई भी जीव। रहनु न पावै = सदा के लिए नहीं टिक सकता।1। मिथिआ = नाशवंत। साचो = सदा कायम रहने वाला। करि = कर के, ख्याल करके। इह बिधि = इस तरह। आपु = अपने आप को। बंधावै = फसाता है। सोऊ जनु = वही मनुष्य। मुकता = मोह के बँधनों से स्वतंत्र। चितु लावै = चिक्त जोड़ता है।2। अर्थ: हे भाई! पता नहीं मनुष्य क्यों अपना जीवचन व्यर्थ में बरबाद करता है। माया की मस्ती में माया के स्वाद में व्यस्त रहता है, और, परमात्मा की शरण नहीं पड़ता।1। रहाउ। हे भाई! यह सारा जगत सपने जैसा है, इसको देख के, पता नहीं, मनुष्य क्यों लोभ में फसता है। यहाँ तो जो कोई पैदा होता है वह हरेक ही नाश हो जाता है। यहाँ सदा के लिए कोई नहीं टिक सकता।1। हे भाई! यह शरीर नाशवंत है, पर जीव इसको सदा कायम रहने वाला समझे रहता है, इस तरह अपने आप को (मोह की फंदों में) फसाए रखता है। हे दास नानक! वही मनुष्य मोह के बँधनों से स्वतंत्र रहता है, जो परमात्मा के भजन में अपना चिक्त जोड़ के रखता है।2।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |