श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सारंग महला ९ ॥ मन करि कबहू न हरि गुन गाइओ ॥ बिखिआसकत रहिओ निसि बासुर कीनो अपनो भाइओ ॥१॥ रहाउ ॥ गुर उपदेसु सुनिओ नहि काननि पर दारा लपटाइओ ॥ पर निंदा कारनि बहु धावत समझिओ नह समझाइओ ॥१॥ कहा कहउ मै अपुनी करनी जिह बिधि जनमु गवाइओ ॥ कहि नानक सभ अउगन मो महि राखि लेहु सरनाइओ ॥२॥४॥३॥१३॥१३९॥४॥१५९॥ {पन्ना 1232}

पद्अर्थ: मन करि = मन से, मन लगा के। कबहू = कभी भी। बिखिआसकत = (बिख्या+आसक्त। बिख्या = माया। आसक्त = लंपट) माया के साथ लिपटा हुआ। निस = रात। बासुर = दिन। अपनो भाइओ = जो अपने आप को अच्छा लगता था।1। रहाउ।

कहा = क्या? कहाउ = मैं कहूँ। करनी = आचरण। जिह बिधि = जिस तरीके से। कहि = कहे, कहता है। मो महि = मेरे अंदर।2।

अर्थ: हे प्रभू! मैं मन लगा के कभी भी तेरे गुण नहीं गाता रहा। मैं दिन-रात माया में ही मगन रहा, वही कुछ करता रहा, जो मुझे अपने आप को अच्छा लगता था।1। रहाउ।

हे हरी! मैंने कानों से गुरू की शिक्षा (कभी) नहीं सुनी, पराई स्त्री के लिए काम-वासना रखता रहा। दूसरों की निंदा करने के लिए बहुत दौड़-भाग करता रहा। समझाने पर भी मैं (कभी) नहीं समझा (कि ये काम बुरा है)।1।

हे हरी! जिस तरह मैंने अपना जीवन व्यर्थ गवा लिया, वह मैं कहाँ तब अपनी करतूत बताऊँ? नानक कहता है- हे प्रभू! मेरे अंदर सारे अवगुण ही हैं। मुझे अपनी शरण में रख।2।4।3।13।139।4।159।

शबदों का वेरवा:
गुरू नानक देव जी---------------3
गुरू रामदास जी-----------------13
गुरू अरजन देव जी-------------139
गुरू तेग बहादर जी--------------4
कुल------------------------------159


रागु सारग असटपदीआ महला १ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

हरि बिनु किउ जीवा मेरी माई ॥ जै जगदीस तेरा जसु जाचउ मै हरि बिनु रहनु न जाई ॥१॥ रहाउ ॥ हरि की पिआस पिआसी कामनि देखउ रैनि सबाई ॥ स्रीधर नाथ मेरा मनु लीना प्रभु जानै पीर पराई ॥१॥ गणत सरीरि पीर है हरि बिनु गुर सबदी हरि पांई ॥ होहु दइआल क्रिपा करि हरि जीउ हरि सिउ रहां समाई ॥२॥ ऐसी रवत रवहु मन मेरे हरि चरणी चितु लाई ॥ बिसम भए गुण गाइ मनोहर निरभउ सहजि समाई ॥३॥ हिरदै नामु सदा धुनि निहचल घटै न कीमति पाई ॥ बिनु नावै सभु कोई निरधनु सतिगुरि बूझ बुझाई ॥४॥ प्रीतम प्रान भए सुनि सजनी दूत मुए बिखु खाई ॥ जब की उपजी तब की तैसी रंगुल भई मनि भाई ॥५॥ सहज समाधि सदा लिव हरि सिउ जीवां हरि गुन गाई ॥ गुर कै सबदि रता बैरागी निज घरि ताड़ी लाई ॥६॥ सुध रस नामु महा रसु मीठा निज घरि ततु गुसांईं ॥ तह ही मनु जह ही तै राखिआ ऐसी गुरमति पाई ॥७॥ सनक सनादि ब्रहमादि इंद्रादिक भगति रते बनि आई ॥ नानक हरि बिनु घरी न जीवां हरि का नामु वडाई ॥८॥१॥ {पन्ना 1232}

पद्अर्थ: माई = हे माँ! किउ जीवा = मैं कैसे जी सकूँ? मेरी जिंद व्याकुल होती है। जगदीस = हे जगत के ईश! (जगदीस = जगत+ईस। ईस = मालिक)। जसु = सिफत सालाह। जाचउ = मैं माँगता हूँ। रहनु न जाई = रहा नहीं जा सकता, मन डोलता हैं1। रहाउ।

पिआसी = मिलाप के लिए उतावली। कामनि = स्त्री। रैनि = रात। सबाई = सारी। स्रीधर = (श्री धर, श्री = लक्ष्मी। धर = आसरा), हे लक्ष्मी के आसरे! हे प्रभू! नाथ = हे पति प्रभू! पीर = पीड़ा।1।

गणत = चिंता, गिनती, फिक्र। सरीरि = शरीर में, हृदय में। पांई = मैं पा सकती हूँ। रहां समाई = समाई रहूँ, लीन रहूँ।2।

रहत रवहु = चाल चलो। बिसम = हैरान, आश्चर्य, मगन। मनोहर = मन को मोह लेनें वाला। सहजि = आत्मिक अडोलता में।3।

धुनि = लगन। निहचल = अडोल। निरधनु = कंगाल। सतिगुरि = गुरू ने। बूझ = समझ।4।

सुनि = सुन। सजनी = हे सखी! प्रान = जिंद। दूत = कामादिक विकार। खाई = खा के। रंगुल = रंगली। मनि = मन में। भाई = भा गई, प्यारी लगी है।5।

समाधि = टिकाव, एकाग्रता। जीवां = मैं जीवित हॅँ, मेरे अंदर धैर्य पैदा होता है। बैरागी = वैरागवान, प्रेमी। ताड़ी लाई = टिक जाता है।6।

सुध = पवित्र। गुसांई = हे धरती के पति!।7।

सनक सनादि = सनक, सनंदन, सनतकुमार, सनातन (ये चारों ब्रहमा के पुत्र हैं)। रते = रंगे गए। बनि आई = प्रीत बन गई।8।

अर्थ: हे मेरी माँ! परमात्मा के नाम के बिना मेरी जिंद व्याकुल होती है। हे जगत के मालिक! तेरी ही सदा जै (जीत) है। मैं (तुझसे) तेरी सिफत-सालाह (की दाति) माँगता हूँ।

परमात्मा के नाम सिमरन के बिना मेरा मन घबराता है।1। रहाउ।

जैसे स्त्री को अपने पति से मिलने की चाहत होती है वह सारी रात उसका इन्तजार करती है, वैसे ही मुझे हरी के दीदार की है, मैं सारी उम्र ही उसका इन्तजार करती चली आ रही हूँ। हे लक्ष्मी-पति! हे (जगत के) नाथ! मेरा मन तेरी याद में मस्त है।

(हे माँ!) परमात्मा ही पराई पीड़ समझ सकता है।

(हे माँ!) परमात्मा की याद के बिना मेरे हृदय में (और ही) चिंता-फिक्रें-तकलीफें टिकी रहती हैं। वह परमात्मा गुरू के शबद से ही मिल सकता है।

हे प्यारे हरी! मेरे पर दयावान हो, मेरे ऊपर कृपा कर, मैं तेरी याद में लीन रहूँ।2।

हे मेरे मन! ऐसा रास्ता पकड़ कि (तू) परमात्मा के चरणों में जुड़ा रहे। मन को मोहने वाले परमात्मा के गुण गा के (भाग्यशाली व्यक्ति आनंद में) मस्त रहते हैं, दुनिया वाले डर-सहम से निडर हो के वे आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं।3।

(हे मेरे मन!) अगर हृदय में प्रभू का नाम बस जाए, अगर (प्रभू-प्यार की) सदीवी अटल रौंअ चल जाए, तब वह कभी कम नहीं होती, दुनिया का कोई सुख, दुनिया का कोई पदार्थ उसकी बराबरी नहीं कर सकता। सतिगुरू ने मुझे बख्श दी है कि परमात्मा के नाम के बिना हरेक जीव कंगाल (ही) है (चाहे उसके पास कितना ही धन-पदार्थ हो)।4।

हे सहेलिऐ! (हे सत्संगी सज्जन!) सुन! (गुरू की कृपा से) मेरे मन को प्रीतम, प्यारा लग रहा है, मैं उसके प्रेम में रंगी गई हूँ, जब से (प्रभू-चरणों में प्रीति) पैदा हुई है, तब से वैसी ही कायम है (कम नहीं हुई), मेरी जिंद प्रीतम-प्रभू के साथ एक-मेक हो गई है, कामादिक वैरी (मेरी बाबत तो) मर गए हैं, उन्होंने (जैसे) जहर खा लिया है।5।

गुरू के शबद में रंगे जा के मैं (प्रभू-चरणों का) प्रेमी बन गया हूँ, अब मैं अपने अंदर ही प्रभू की याद में जुड़ा रहता हूँ, मैं सदा प्रभू में लिव लगाए रखता हूँ, और आत्मिक अडोलता में टिका रहता हूँ, ज्यों-ज्यों मैं हरी के गुण गाता हूँ मेरे अंदर आत्मिक जीवन विकसित होता है।6।

हे धरती के मालिक प्रभू! मुझे सतिगुरू की ऐसी मति प्राप्त हो गई है कि जहाँ (अपने चरणों में) तूने मेरा मन जोड़ा है वहीं पर जुड़ा हुआ है। हे प्रभू! पवित्रता का रस देने वाला तेरा नाम मुझे बहुत ही स्वादिष्ट रस वाला प्रतीत हो रहा है मुझे मीठा लग रहा है, तू जगत-का-मूल मुझे मेरे हृदय में ही मिल गया है।7।

इन्द्र जैसे देवता, ब्रहमा और उसके पुत्र सनक जैसे महापूरुष जब परमात्मा की भगती (के रंग) में रंगे गए, तब उनकी प्रीति प्रभू-चरणों के साथ बन गई।

हे नानक! (कह-) परमात्मा के नाम से एक घड़ी-मात्र विछुड़ने पर भी मेरे प्राण व्याकुल हो जाते हैं। परमात्मा का नाम ही मेरे वास्ते (सबसे श्रेष्ठ) आदर-मान है।8।1।

सारग महला १ ॥ हरि बिनु किउ धीरै मनु मेरा ॥ कोटि कलप के दूख बिनासन साचु द्रिड़ाइ निबेरा ॥१॥ रहाउ ॥ क्रोधु निवारि जले हउ ममता प्रेमु सदा नउ रंगी ॥ अनभउ बिसरि गए प्रभु जाचिआ हरि निरमाइलु संगी ॥१॥ चंचल मति तिआगि भउ भंजनु पाइआ एक सबदि लिव लागी ॥ हरि रसु चाखि त्रिखा निवारी हरि मेलि लए बडभागी ॥२॥ अभरत सिंचि भए सुभर सर गुरमति साचु निहाला ॥ मन रति नामि रते निहकेवल आदि जुगादि दइआला ॥३॥ मोहनि मोहि लीआ मनु मोरा बडै भाग लिव लागी ॥ साचु बीचारि किलविख दुख काटे मनु निरमलु अनरागी ॥४॥ गहिर ग्मभीर सागर रतनागर अवर नही अन पूजा ॥ सबदु बीचारि भरम भउ भंजनु अवरु न जानिआ दूजा ॥५॥ मनूआ मारि निरमल पदु चीनिआ हरि रस रते अधिकाई ॥ एकस बिनु मै अवरु न जानां सतिगुरि बूझ बुझाई ॥६॥ अगम अगोचरु अनाथु अजोनी गुरमति एको जानिआ ॥ सुभर भरे नाही चितु डोलै मन ही ते मनु मानिआ ॥७॥ गुर परसादी अकथउ कथीऐ कहउ कहावै सोई ॥ नानक दीन दइआल हमारे अवरु न जानिआ कोई ॥८॥२॥ {पन्ना 1232-1233}

पद्अर्थ: किउ धीरै = कैसे धैर्य करे? कोटि = करोड़। कलप = चार युगों का समुदाय। साचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभू। द्रिढ़ाइ = दृढ़ करने से, मन में टिकाने से। निबेरा = दुखों से निबेड़ा, दुख समाप्त हो जाते हैं।1। रहाउ।

निवारि = दूर कर के। हउ = मैं, अहम्। ममता = अपनत्व। नउ रंगी = नए रंग वाला, सदा नया रहने वाला। अन भउ = औरों का डर सहम। बिसरि गऐ = बिसर गया, भूल जाता है। जाचिआ = माँगा। निरमाइलु = पवित्र। संगी = साथी।1।

चंचल = सदा भटकते रहने वाली। तिआगि = त्याग के। भउ भंजनु = डर सहम का नाश करने वाला। लिव = लगन। चाखि = चख के। त्रिखा = (माया की) तृष्णा।2।

अभरत = ना भरे जा सकने वाले, जिनकी तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती थी। सिंचि = (परमात्मा का नाम-जल) सींच के। सुभर = नाको नाक भरे हुए। सर = तलाब, ज्ञानेन्द्रियां। निहाला = दर्शन कर लिया। रति = प्रीति। नामि = नाम में। निहकेवल नामि = पवित्र प्रभू के नाम में। जुगादि = जुगों के आदि से।3।

मोहनि = मोहन (प्रभू) ने। मोरा = मेरा। बीचारि = विचार के। किलविख = पाप। अनरागी = प्रेमी।4।

गहिर = गहरा। गंभीर = बड़े जिगरे वाला। रतनागर = रत्नों की खान। अन पूजा = किसी और की पूजा।5।

मनूआ = कोझा मन, गलत राह पर पड़ा हुआ मन। मारि = (विकारों की अंश) मार के। पदु = आत्मिक दर्जा। चीनि्आ = चीनह्या, पहचान लिया। अधिकाई = बहुत। सतिगुरि = गुरू ने। बूझ = समझ।6।

अगम = अगम्य, अपहुँच। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच ना हो सके। अनाथु = जिसके ऊपर और कोई मालिक पति नही, अपने आप का आप ही मालिक। मन ही ते = मन से ही अपने अंदर से ही। मानिआ = पतीज गया, टिक गया।7।

परसादी = कृपा से। अकथउ = जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। कथीअै = कहा जा सकता, सिमरा जा सकता है। कहउ = मैं कहता हूँ, मैं सिफत सालाह करता हूँ। सोई = वह प्रभू स्वयं ही। कहावै = सिफत सालाह करता है। दइआल = हे दयालु!।8।

अर्थ: परमात्मा के नाम से विछुड़ के मेरा मन (अब) किसी भी तरह से धैर्य नहीं धरता (टिकता नहीं) क्योंकि इसको अनेकों दुख-रोग आ व्याप्ते हैं। पर अगर करोड़ों युगों के दुख नाश करने वाले और सदा ही स्थिर रहने वाले परमात्मा को (मन में) टिका लें तो सारे दुखों-रोगों का नाश हो जाता है (मन ठिकाने पर आ जाता है)।1। रहाउ।

जिस मनुष्य ने प्रभू (के दर से नाम का दान) माँगा है, पवित्र-स्वरूप प्रभू उसका (सदा के लिए) साथी बन गया है, उसके क्रोध को (अपने अंदर से) निकाल दिया है, उसका अहंकार और ममता जल जाती है, नित्य नया रहने वाला प्रेम (उसके हृदय में जाग उठता है)।1।

जिस मनुष्य ने एक परमात्मा की सिफतसालाह के शबद में सुरति जोड़ी है उसने (मायावी पदार्थों के पीछे) भटकने वाली मति (की अगवाई) त्याग के डर नाश करने वाला परमात्मा पा लिया है। परमात्मा के नाम का स्वाद चख के उसने (अपने अंदर से माया की) प्यास दूर कर ली है, उस अति भाग्यशाली मनुष्य को प्रभू ने अपने चरणों में मिला लिया है।2।

जिस मनुष्य ने गुरू की मति ले के सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा का दर्शन कर लिया, प्रभू का नाम-जल सींच के उसकी वह ज्ञानेन्द्रियां नाको-नाक भर गई जिनकी तृष्णा पहले कभी खत्म नहीं होती थी। जिनके मन की प्रीति प्रभू के नाम में बन जाती है वे उस परमात्मा के प्यार में (सदा के लिए) रंगे जाते हैं जो शुद्ध-स्वरूप है और सदा से ही दया का श्रोत है।3।

मेरे अच्छे भाग्यों के कारण (गुरू की कृपा से) मेरी लिव (प्रभू चरणों में) लग गई है, मन को मोह लेने वाले प्रभू ने मेरा मन (अपने प्रेम में) मोह लिया है। सदा-स्थिर प्रभू (के गुणों) को सोच-मण्डल में लाने के कारण मेरे सारे पाप-दुख कट गए हैं, मेरा मन पवित्र हो गया है, (प्रभू-चरणों का) प्रेमी हो गया है।4।

गुरू के शबद को विचार के मैंने समझ लिया है कि सिर्फ परमात्मा ही डर-सहम का नाश करने वाला है, कोई और (देवी-देवता आदि) दूसरा नहीं है। मैं किसी और की पूजा नहीं करता, सिर्फ उसको ही पूजता हूँ जो बड़े गहरे और बड़े जिगरे वाला है, जो बेअंत रत्नों की खान-समुंद्र है।5।

गुरू ने मुझे बख्श दी है, (अब) एक परमात्मा के बिना मैं किसी और को (उस जैसा) नहीं जानता, अब मैं प्रभू के नाम-रंग में बहुत रंगा गया हूँ, मन (में से विकारों की अंश) मार के मैंने पवित्र आत्मिक दर्जे से गहरी सांझ डाल ली है।6।

गुरू की मति ले के सिर्फ उस प्रभू के साथ ही गहरी सांझ डाली है जो अपहुँच है, जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं, जो स्वयं ही अपना खसम-मालिक है, और जो जूनियों में नहीं आता। (इस सांझ की बरकति से) मेरी ज्ञानेन्द्रियां (नाम-रस से) नाको-नाक भर गई हैं, अब मेरा मन (माया की तरफ) डोलता नहीं है, अपने अंदर ही टिक गया है।7।

परमात्मा का स्वरूप बयान से परे है। गुरू की कृपा से ही उसका सिमरन किया जा सकता है। मैं तब ही उसकी सिफत-सालाह कर सकता हूँ जब वह स्वयं ही सिफत-सालाह करवाता है।

हे नानक! (कह-) हे मेरे दीन दयालु प्रभू! मुझे तेरे जैसा और कोई नहीं दिखता, मैंने तेरे साथ ही सांझ डाली है।8।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh