श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1234 सारग महला ३ ॥ मन मेरे हरि का नामु अति मीठा ॥ जनम जनम के किलविख भउ भंजन गुरमुखि एको डीठा ॥१॥ रहाउ ॥ कोटि कोटंतर के पाप बिनासन हरि साचा मनि भाइआ ॥ हरि बिनु अवरु न सूझै दूजा सतिगुरि एकु बुझाइआ ॥१॥ प्रेम पदारथु जिन घटि वसिआ सहजे रहे समाई ॥ सबदि रते से रंगि चलूले राते सहजि सुभाई ॥२॥ रसना सबदु वीचारि रसि राती लाल भई रंगु लाई ॥ राम नामु निहकेवलु जाणिआ मनु त्रिपतिआ सांति आई ॥३॥ पंडित पड़्हि पड़्हि मोनी सभि थाके भ्रमि भेख थके भेखधारी ॥ गुर परसादि निरंजनु पाइआ साचै सबदि वीचारी ॥४॥ {पन्ना 1234} पद्अर्थ: मन = हे मन! अति = बहुत। किलविख = पाप। भउ = डर। किलविख भंजन = पापों का नाश करने वाला। भउ भंजन = डर दूर करने वाला प्रभू। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर।1। रहाउ। कोटि = किले। कोटि = करोड़ों। कोटि कोटंतरु के = करोड़ों शरीर किलों के, करोड़ों जन्मों के। साचा = सदा कायम रहने वाला। मनि = मन में। सतिगुरि = गुरू ने। बुझाइआ = समझ बख्शी।1। जिन घटि = जिनके हृदय में। सहजे = आत्मिक अडोलता में ही। सबदि = शबद में। से = वह (बहुवचन)। रंगि चलूले = रंग में गूढ़े रंगे हुए। सुभाई = सुभाय, प्रेम में।2। रसना = जीभ। सबदु वीचारि = शबद को मन में बसा के। रसि = रस में। रंगु = प्रेम। निहकेवलु = शुद्ध स्वरूप प्रभू। जाणिआ = सांझ डाल ली। त्रिपतिआ = तृप्त हो गया, अघा गया।3। पढ़ि = पढ़ के। सभि = सारे। भ्रमि = भटकना में पड़ के। परसादि = कृपा से। निरंजनु = निर्लिप प्रभू। साचै सबदि = सच्चे शबद में, सदा स्थिर प्रभू की सिफतसालाह के शबद में। वीचारी = विचारता है, मन में बसाता है।4। अर्थ: हे मेरे मन! (जिस मनुष्य को) गुरू की शरण पड़ कर प्रभू का नाम बहुत प्यारा लगने लग जाता है, वह मनुष्य अनेकापें जन्मों के पाप और दुख नाश करने वाले प्रभू को ही (हर जगह) देखता है।1। रहाउ। हे भाई! (जिस मनुष्य को) सतिगुरू ने एक परमात्मा की समझ बख्श दी, उसको परमात्मा के बिना और कोई दूसरा (कहीं बसता) नहीं सूझता, करोड़ों जन्मों के पाप नाश करने वाला सदा-स्थिर प्रभू ही उसको (अपने) मन में प्यारा लगता है।1। हे भाई! जिन मनुष्यों के हृदय में (प्रभू का) अमूल्य प्रेम आ बसता है, वे सदा आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं। गुरू के शबद-रंग में गाढ़े रंगे हुए वे मनुष्य आत्मिक अडोलता और प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं।2। हे भाई! गुरू का शबद मन में बसा के जिस मनुष्य की जीभ नाम के स्वाद में गिझ जाती है, नाम-रंग लगा के गाढ़ी रंगी जाती है, वह मनुष्य शुद्ध-स्वरूप हरी के नाम के साथ गहरी सांझ डाल लेता है, उसका मन (माया के प्रति) तृप्त हो जाता है, उसके अंदर शांति पैदा हो जाती है।3। पर, हे भाई! पण्डित लोग (वेद आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़-पढ़ के थक जाते हैं, समाधियाँ लगाने वाले (समाधियां लगा-लगा के) थक जाते हैं, भेखधारी मनुष्य धार्मिक भेखों में भटक-भटक के थक जाते हैं (उनको हरी-नाम की दाति प्राप्त नहीं होती)। जो मनुष्य गुरू की कृपा से सदा-स्थिर प्रभू के शबद में सुरति जोड़ता है वह मनुष्य निर्लिप प्रभू का मिलाप हासिल कर लेता है।4। आवा गउणु निवारि सचि राते साच सबदु मनि भाइआ ॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाईऐ जिनि विचहु आपु गवाइआ ॥५॥ साचै सबदि सहज धुनि उपजै मनि साचै लिव लाई ॥ अगम अगोचरु नामु निरंजनु गुरमुखि मंनि वसाई ॥६॥ एकस महि सभु जगतो वरतै विरला एकु पछाणै ॥ सबदि मरै ता सभु किछु सूझै अनदिनु एको जाणै ॥७॥ जिस नो नदरि करे सोई जनु बूझै होरु कहणा कथनु न जाई ॥ नानक नामि रते सदा बैरागी एक सबदि लिव लाई ॥८॥२॥ {पन्ना 1234} पद्अर्थ: आवागउणु = जनम मरन का चक्कर (आवा = आना, पैदा होना। गउणु = जाना, मरना)। निवारि = दूर कर के। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। साच सबदु = सदा स्थिर प्रभू का शबद, सदा स्थिर हरी की सिफत सालाह। मनि = मन में। भाइआ = प्यारा लगा। पाईअै = प्राप्त करते हैं। जिनि = जिस (गुरू) ने। आपु = स्वै भाव।5। साचै सबदि = सदा स्थिर प्रभू के शबद से। सहज धुनि = आत्मिक अडोलता की रौंअ। मनि = मन में। साचै = सदा कायम रहने वाले हरी में। लिव = लगन। अगम = अपहुँच। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान इन्द्रियां। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। निरंजनु = (निर+अंजन) माया के मोह की कालिख से रहित, निर्लिप। गुरमुखि = गुरू से। मंनि = मनि, मन में।6। ऐकस महि = एक (प्रभू) में ही। पछाणे = समझ लेता है, सांझ डालता है। सबदि = शबद से। मरै = स्वै भाव दूर करे। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त।7। जिस नो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है। सोई = वही। होरु = कोई और तरीका (समझने का)। नामि = नाम में। बैरागी = वैरागवान। सबदि = शबद में। लिव = लगन। लाई = लगा के।8। अर्थ: हे भाई! जिस (गुरू) ने (अपने अंदर से) स्वै भाव दूर किया हुआ है, उस गुरू की शरण पड़ कर (ही) सदा आत्मिक आनंद मिलता है। जिन मनुष्यों को सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह वाला गुरू-शबद मन में प्यारा लगता है, वह (गुरू-शबद की बरकति से) जनम-मरण के चक्कर मिटा के सदा-स्थिर प्रभू (के नाम-रंग) में रंगे रहते हैं।5। हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू की सिफतसालाह के शबद में जुड़ के अपने मन में सदा-स्थिर प्रभू में सुरति जोड़े रखता है, (उसके अंदर) आत्मिक अडोलता की रौंअ पैदा हो जाती है। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य ही अपहुँच अगोचर और निर्लिप प्रभू का नाम अपने मन में बसाता है।6। हे भाई! (गुरू के सन्मुख रहने वाला ही) कोई विरला मनुष्य एक परमात्मा के साथ सांझ डालता है (और समझ लेता है कि) सारा संसार एक परमात्मा (के हुकम) में ही काम कर रहा है। जब कोई मनुष्य गुरू के शबद के माध्यम से (अपने अंदर से) आपा-भाव दूर करता है, तब उसको (ये) सारी सूझ आ जाती है, तबवह हर वक्त सिर्फ परमात्मा के साथ ही गहरी सांझ डाले रखता है।7। हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है, वही (जीवन का सही रास्ता) समझता है (प्रभू की मेहर के बिना कोई) और (रास्ता) बताया नहीं जा सकता। हे नानक! (हरी की कृपा से ही) प्रभू की सिफत-सालाह वाले गुरू-शबद में सुरति जोड़ के हरी-नाम में मगन रहने वाले मनुष्य (दुनिया के मोह से) सदा निर्लिप रहते हैं।8।2। सारग महला ३ ॥ मन मेरे हरि की अकथ कहाणी ॥ हरि नदरि करे सोई जनु पाए गुरमुखि विरलै जाणी ॥१॥ रहाउ ॥ हरि गहिर ग्मभीरु गुणी गहीरु गुर कै सबदि पछानिआ ॥ बहु बिधि करम करहि भाइ दूजै बिनु सबदै बउरानिआ ॥१॥ हरि नामि नावै सोई जनु निरमलु फिरि मैला मूलि न होई ॥ नाम बिना सभु जगु है मैला दूजै भरमि पति खोई ॥२॥ किआ द्रिड़ां किआ संग्रहि तिआगी मै ता बूझ न पाई ॥ होहि दइआलु क्रिपा करि हरि जीउ नामो होइ सखाई ॥३॥ सचा सचु दाता करम बिधाता जिसु भावै तिसु नाइ लाए ॥ गुरू दुआरै सोई बूझै जिस नो आपि बुझाए ॥४॥ {पन्ना 1234} पद्अर्थ: मन = हे मन! अकथ = बयान करने से कभी ना खत्म होने वाली। कहाणी = कहानी, गुणों का वर्णन, सिफत सालाह। नदरि = मेहर की निगाह। सोई = वही। गुरमुखि विरलै = गुरू के सन्मुख रहने वाले किसी विरले मनुष्य ने। जाणी = जान ली है, कद्र समझी है।1। रहाउ। गहिर = गहरा। गंभीरु = बड़े जिगरे वाला। गुणी गहीरु = सारे गुणों का खजाना। कै सबदि = के शबद से। बहु बिधि = कई तरीकों से। करहि = करते हैं। भाइ दूजै = (प्रभू के बिना) किसी और प्यार में (टिके रह के)। बउरानिआ = कमले।1। नामि = नाम (-जल) में। नावै = स्नान करता है। निरमलु = पवित्र जीवन वाला। मूलि न = बिल्कुल नहीं। सभु जगु = सारा जगत। दूजै भरमि = और और भटकना में। पति = इज्जत। खोई = गवा लेता है।2। द्रिढ़ां = मैं (अपने मन में) पक्की करूँ, दृढ़ करूँ। संग्रहि = इकट्ठी कर के। तिआगी = मैं त्याग दूँ, मैं छोड़ दूँ। बूझ = समझ। होहि = अगर तू हो जाए। करि = कर के। हरि जीउ = हे प्रभू जी! नामो = नाम ही। सखाई = मित्र।3। सचा सचु = सदा ही कायम रहने वाला। करम बिधाता = (जीवों के किए) कर्मों अनुसार, (जीवों को) जन्म देने वाला। नाइ = नाम में। गुरू दुआरै = गुरू के दर पर आ के, गुरू से।4। जिस नो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे मेरे मन! जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की कृपा करता है वही मनुष्य प्रभू की कभी ना समाप्त होने वाली सिफतसालाह (की दाति) हासिल करता है। गुरू के सन्मुख रहने वाले किसी विरले मनुष्य ने (इसकी) महानता समझी है।1। रहाउ। हे भाई! गुरू के शबद से ये बात समझ में आती है कि परमात्मा बड़े ही गहरे जिगरे वाला है और सारे गुणों का खजाना है। जो मनुष्य (प्रभू के बिना) और-और के प्यार में (टिके रह के) कई तरीकों से (मिथे हुए धार्मिक) कर्म (भी) करते हैं, वे मनुष्य गुरू के शबद के बिना झल्ले (पागल) ही रहते हैं।1। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम (-जल) में (आत्मिक) स्नान करता रहता है, वही मनुष्य पवित्र (जीवन वाला) होता है, वह दोबारा कभी भी (विकारों की मैल से) मैला नहीं होता। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना सारा जगत (पापों की मैल से) लिबड़ा रहता है, अन्य भटकनों में पड़ कर अपनी इज्जत गवा लेता है।2। हे प्रभू! मैं कौन सी बात अपने मन में दृढ़ कर लूँ; कौन से गुण (हृदय में) एकत्र कर के कौन से अवगुण त्याग दूँ? - मुझे अपने आप तो समझ नहीं आ सकती। हे प्रभू जी! मेहर कर के अगर तू (स्वयं मेरे ऊपर) दयावान हो जाए (तब ही मुझे समझ आती है कि तेरा) नाम ही असल साथी बनता है।3। हे भाई! जो परमात्मा सदा ही कायम रहने वाला है, जो सब दातें देने वाला है, उसको जो जीव प्यारा लगता है उसको अपने नाम से जोड़ता है। गुरू के दर पर आ के वही मनुष्य (जीवन का सही रास्ता) समझता है जिसको प्रभू स्वयं समझ बख्शता है।4। देखि बिसमादु इहु मनु नही चेते आवा गउणु संसारा ॥ सतिगुरु सेवे सोई बूझै पाए मोख दुआरा ॥५॥ जिन्ह दरु सूझै से कदे न विगाड़हि सतिगुरि बूझ बुझाई ॥ सचु संजमु करणी किरति कमावहि आवण जाणु रहाई ॥६॥ से दरि साचै साचु कमावहि जिन गुरमुखि साचु अधारा ॥ मनमुख दूजै भरमि भुलाए ना बूझहि वीचारा ॥७॥ आपे गुरमुखि आपे देवै आपे करि करि वेखै ॥ नानक से जन थाइ पए है जिन की पति पावै लेखै ॥८॥३॥ {पन्ना 1234} पद्अर्थ: देखि = देख के। बिसमादु = हैरान करने वाला जगत तमाशा। नही चेते = प्रभू को याद नहीं करता। आवागउणु = जनम मरन (का चक्कर)। संसारा = संसार चक्र। सोई = वही मनुष्य। मोख दुआरा = विकारों से मुक्ति का राह।5। जिन = जिनको। दरु = प्रभू का दरवाजा। से = वे (बहुवचन)। विगाड़हि = (अपना जीवन) बिगाड़ते। सतिगुरि = गुरू ने। बूझ = सूझ, सूझ। संजमु = इन्द्रियों को विकारों से रोकने का यतन। करणी किरति = करने योग्य काम। रहाई = समाप्त हो जाता है।6। से = वह लोग। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभू के दर पर। साचु कमावहि = सदा स्थिर हरी नाम सिमरन की कमाई करते हें। अधारा = आसरा। साचु = सदा स्थिर हरी नाम। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। भुलाऐ = गलत राह पर पड़े हुए।7। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख। करि = कर के। आपे = आप ही। थाइ पऐ = प्रवान हो गए। पति = इज्जत। पावै लेखै = लेखे में डालता है, कबूल करता है।8। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का मन यह हैरान कर देने वाला जगत-तमाशा देख के परमात्मा को याद नहीं करता, उसके लिए जनम-मरण का चक्कर संसार-चक्र बना रहता है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वही (जीवन का सही रास्ता) समझता है, वही विकारों से मुक्ति का रास्ता पाता है।5। हे भाई! जिन मनुष्यों को गुरू ने (आत्मिक जीवन की) सूझ बख्श दी, जिनको परमात्मा का दरवाजा दिखाई दे गया, वे कभी भी (विकारों में अपना जीवन) खराब नहीं करते। वे मनुष्य हरी-नाम सिमरन और विकारों से बचे रहने का यतन आदि कर्तव्य करते रहते हैं, (इस तरह उनका) जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है।6। हे भाई! जिन मनुष्यों को गुरू के द्वारा सदा-स्थिर हरी-नाम का आसरा मिल जाता है, वे मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू के दर पे (चरणों में) टिक के सदा-स्थिर हरी-नाम सिमरन की कमाई करते हें। पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य माया की भटकना के कारण गलत राह पर पड़े रहते हैं, उनको (आत्मिक जीवन वाली सही) विचार नहीं सूझती।7। हे भाई! प्रभू स्वयं ही (जीव को) गुरू की शरण में डाल के स्वयं ही (अपने नाम की दाति) देता है, स्वयं ही (ये सारा तमाशा) कर-कर के देखता है। हे नानक! वही व्यक्ति कबूल होते हैं, जिनकी इजजत प्रभू स्वयं ही रखता है।8।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |