श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1235 सारग महला ५ असटपदीआ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गुसाईं परतापु तुहारो डीठा ॥ करन करावन उपाइ समावन सगल छत्रपति बीठा ॥१॥ रहाउ ॥ राणा राउ राज भए रंका उनि झूठे कहणु कहाइओ ॥ हमरा राजनु सदा सलामति ता को सगल घटा जसु गाइओ ॥१॥ उपमा सुनहु राजन की संतहु कहत जेत पाहूचा ॥ बेसुमार वड साह दातारा ऊचे ही ते ऊचा ॥२॥ पवनि परोइओ सगल अकारा पावक कासट संगे ॥ नीरु धरणि करि राखे एकत कोइ न किस ही संगे ॥३॥ घटि घटि कथा राजन की चालै घरि घरि तुझहि उमाहा ॥ जीअ जंत सभि पाछै करिआ प्रथमे रिजकु समाहा ॥४॥ {पन्ना 1235} पद्अर्थ: गुसाई = हे गो+साई! हे धरती के मालिक! परतापु = समरथा। करन करावन = तू सब कुछ करने योग्य और जीवों से करवाने की समर्थता वाला है। उपाइ = पैदा कर के। समावन = समा लेने वाला। सगल = सब जीवों का। छत्रपति = राजा। बीठा = बैठा हुआ है, व्यापक है।1। रहाउ। राउ = राजा। रंका = कंगाल। उनि = उन्होंने। सलामति = कायम रहने वाला। ता को जसु = उसका यश। सगल घटा = सारे शरीरों ने।1। उपमा = महिमा, वडिआई। संतहु = हे संत जनो! जेत कहत = जो उपमा करते हैं। पाहूचा = (उसके चरणों में) पहुँच जाते हैं।2। पवनि = पवन से, प्राणों से, श्वासों से। अकारा = जगत, शरीर। पावक = आग। कासट = काठ, लकड़ी। संगे = साथ। नीरु = पानी। धरणि = धरती। ऐकत = एक जगह, इकट्ठे। किस ही = ('किसि' की 'सि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। संगे = साथ।3। घटि घटि = हरेक शरीर में राजन की = प्रभू पातशाह की। तुझहि = तेरे ही (दर्शन की)। उमाहा = चाव, उत्साह। सभि = सारे। पाछै = पीछे से, बाद में। प्रथमे = पहले। समाहा = पहुँचा।4। अर्थ: हे जगत के पति! (मैंने) तेरी (अजब) ताकत समर्था देखी है। तू सब कुछ कर सकने योग्य है, (जीवों से) करवा सकने में समर्थ है, तू (जगत) पैदा करके फिर इसको अपने आप में लीन कर लेने वाला है। तू सब जीवों पर बादशाह (बन के) बैठा हुआ है।1। रहाउ। हे भाई! (प्रभू की रजा अनुसार) राजे बादशाह कंगाल हो जाते हैं। उन राजाओं ने तो अपने आप को झूठा ही राजा कहलिवाया। हे भाई! हमारा प्रभू-पातशाह सदा कायम रहने वाला है। सारे ही जीवों ने उसका (सदा) यश गाया है।1। हे संत जनो! उस प्रभू-पातशाह की महिमा सुनो। जितने भी जीव उसकी वडिआई कहते हैं वे उसके चरणों में पहुँचते हैं। उसकी ताकत का अंदाजा नहीं लग सकता, सब जीवों को दातें देने वाला वह बड़ा शाहु है, वह ऊँचों से ऊँचा है।2। हे भाई! सारे शरीरों को श्वासों की हवा के साथ परो के रखा हुआ है, उसने आग को लकड़ी के साथ बाँध रखा है। उसने पानी और धरती एक साथ रखे हुए हैं। (इनमें से) कोई किसी के साथ (वैर नहीं कर सकता। पानी धरती को डूबाता नहीं, आग काठ को जलाती नहीं)।3। हे भाई! उस प्रभू-पातशाह की सिफतसालाह की कहानी हरेक के शरीर में चल रही है। हे प्रभू! हरेक हृदय में तेरे मिलाप के लिए उत्साह है। तू सारे जीवों को बाद में पैदा करता है, पहले उनके लिए रिज़क पहुँचाता है।4। जो किछु करणा सु आपे करणा मसलति काहू दीन्ही ॥ अनिक जतन करि करह दिखाए साची साखी चीन्ही ॥५॥ हरि भगता करि राखे अपने दीनी नामु वडाई ॥ जिनि जिनि करी अवगिआ जन की ते तैं दीए रुड़्हाई ॥६॥ मुकति भए साधसंगति करि तिन के अवगन सभि परहरिआ ॥ तिन कउ देखि भए किरपाला तिन भव सागरु तरिआ ॥७॥ हम नान्हे नीच तुम्हे बड साहिब कुदरति कउण बीचारा ॥ मनु तनु सीतलु गुर दरस देखे नानक नामु अधारा ॥८॥१॥ {पन्ना 1235} पद्अर्थ: आपे = (प्रभू ने) आप ही। मसलति = सलाह, मश्वरा। काहू = किस ने? दीनी = दीन्ही, दी। करि = कर के। करह = हम करते हैं (वर्तमान काल, उक्तम पुरख, बहुवचन)। दिखाऐ = दिखाए। साखी = शिक्षा, सबक। चीनी = चीन्ही, पहचानी, समझी।5। करि राखे अपने = अपने बना के रक्षा की। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। अवगिआ = निरादरी। ते = वे (बहुवचन)। तै = तू। दीऐ रुढ़ाई = रोढ़ दिए, मोह के समुंद्र में डुबो दिए।6। मुकति भऐ = विकारों से बच निकले। करि = कर के। सभि = सारे। परहरिआ = दूर कर दिए। कउ = को। देखि = देख के। किरपाला = दयावान। भव सागरु = संसार समुंदर।7। नाने = नान्हे, बहुत छोटे। साहिब = मालिक। कुदरति = ताकत, समर्था। कुदरति कउण = क्या ताकत है? बीचारा = मैं विचार सकूँ (तेरा प्रताप)। गुर दरस = गुरू का दर्शन। आधारा = आसरा।8। अर्थ: हे भाई! मैंने यह अटल सबक सीख लिया है (कि परमात्मा का प्रताप बेअंत है) जो कुछ वह करता है वह स्वयं ही करता है, किसी ने कभी उसको कोई सलाह नहीं दी। हम जीव चाहे (अपनी बुद्धि के प्रगटावे के लिए) दिखावे के अनेकों यत्न करते हैं।5। हे भाई! (ये परमात्मा का प्रताप है कि) परमातमा अपने भक्तों की अपना बना के रक्षा करता है, भक्तों को अपना नाम बख्शता है, वडिआई देता है। हे प्रभू! जिस-जिस ने कभी तेरे भगतों की निरादरी की, तूने उनको (विकारों के समुंदर में) बहा दिया।6। हे भाई! साध-संगति कर के (विकारी भी) विकारों से बच निकले, प्रभू ने उनके सारे अवगुण नाश कर दिए। गुरू की संगति में आने वालों को देख के प्रभू जी सदा मेहरवान होते हैं, और, वे लोग संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।7। हे मालिक-प्रभू! तू बहुत बड़ा है, हम जीव (तेरे सामने) बहुत ही छोटे और तुच्छ से (कीट समान) हैं। मेरी क्या ताकत है कि तेरे प्रताप का अंदाजा लगा सकूँ? हे नानक! कह- गुरू के दर्शन करके मनुष्य का मन-तन ठंडा-ठार हो जाता है, और, मनुष्य को प्रभू का नाम-आसरा मिल जाता है।8।1। सारग महला ५ असटपदी घरु ६ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ अगम अगाधि सुनहु जन कथा ॥ पारब्रहम की अचरज सभा ॥१॥ रहाउ ॥ सदा सदा सतिगुर नमसकार ॥ गुर किरपा ते गुन गाइ अपार ॥ मन भीतरि होवै परगासु ॥ गिआन अंजनु अगिआन बिनासु ॥१॥ मिति नाही जा का बिसथारु ॥ सोभा ता की अपर अपार ॥ अनिक रंग जा के गने न जाहि ॥ सोग हरख दुहहू महि नाहि ॥२॥ अनिक ब्रहमे जा के बेद धुनि करहि ॥ अनिक महेस बैसि धिआनु धरहि ॥ अनिक पुरख अंसा अवतार ॥ अनिक इंद्र ऊभे दरबार ॥३॥ {पन्ना 1235} पद्अर्थ: अगम कथा = अपहुँच प्रभू की सिफत सालाह। अगाधि = अथाह। जन = हे जनो! अचरज = आश्चर्यजनक, हैरान कर देने वाली। सभा = कचहरी, दरबार।1। रहाउ। सतिगुर नमसकार = गुरू को सिर झुकाओ। ते = से, के द्वारा। गुन अपार गाइ = बेअंत प्रभू के गुण गा के। परगासु = रोशनी। गिआन अंजनु = आत्मिक जीवन की सूझ का सुरमा। अगिआन = आत्मिक जीवन प्रति बेसमझी।1। मिति = हद बंदी, अंदाजा, माप। जा का = जिस (परमात्मा) का। बिसथारु = जगत पसारा। अपर = परे से परे (अ+पर)। रंग = करिश्मे। सोग = गम। हरख = खुशी।2। ब्रहमे = ('ब्रहमा' का बहुवचन)। जा के = जिस (प्रभू) के पैदा किए हुए। करहि = करते हैं। धुनि करहि = उचारते हें (ध्वनि = आवाज)। महेस = महेश, शिव। बैसि = बैठ के। अंसा = अंश, कुछ हिस्सा। अंसा अवतार = वह अवतार जिनमें परमात्मा की थोड़ी सी आत्मिक ताकत अवतरित हुई हो। अवतार = उतरे हुए, अवतरित हुए। ऊभे = खड़े हुए।3। अर्थ: हे संत जनो! अपहुँच और अथाह परमात्मा की सिफतसालाह सुना करो। उस परमात्मा का दरबार हैरान करने वाला है।1। रहाउ। हे संत जनो! सदा ही गुरू के दर पर सिर झुकाया करो। गुरू की मेहर से बेअंत प्रभू के गुण गा के मन में आत्मिक जीवन का प्रकाश पैदा हो जाता है, (गुरू से मिला हुआ) आत्मिक जीवन की सूझ का सुर्मा आत्मिक जीवन के प्रति अज्ञानता का नाश कर देता है।1। हे संत जनो! जिस परमात्मा का (यह सारा) जगत-पसारा (बनाया हुआ) है उस (की समर्था) की सीमा को नहीं आँका जा सकता उस प्रभू की वडिआई बेअंत है बेअंत है। हे संत जनो! जिस परमात्मा के अनेकों ही करिश्मे-तमाशे हैं, जो गिने नहीं जा सकते, वह परमात्मा खुशी और ग़मी दोनों से परे रहता है।2। हे संत जनो! (उस प्रभू का दरबार हैरान कर देने वाला है) जिसके पैदा किए हुए अनेकों ही ब्रहमा गण, (उसके दर पर) वेदों का उच्चारण कर रहे हैं, अनेकों ही शिव बैठ के उसका ध्यान धर रहे हैं, और अनेकों ही छोटे-छोटे उसके अवतार है, अनेकों ही इन्द्र और देवतागण उसके दर पर खड़े रहते हैं।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |