श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1236 अनिक पवन पावक अरु नीर ॥ अनिक रतन सागर दधि खीर ॥ अनिक सूर ससीअर नखिआति ॥ अनिक देवी देवा बहु भांति ॥४॥ अनिक बसुधा अनिक कामधेन ॥ अनिक पारजात अनिक मुखि बेन ॥ अनिक अकास अनिक पाताल ॥ अनिक मुखी जपीऐ गोपाल ॥५॥ अनिक सासत्र सिम्रिति पुरान ॥ अनिक जुगति होवत बखिआन ॥ अनिक सरोते सुनहि निधान ॥ सरब जीअ पूरन भगवान ॥६॥ {पन्ना 1236} पद्अर्थ: पवन = हवा। पावक = आग। अरु = और (अरि = वैरी)। नीर = पानी। सागर = समुंद्र। दधि = दही। खीर = दूध। सूर = सूरज। ससीअर = शशधर, चंद्रमा। नखिआति = तारे, नक्षत्र। बहु भांति = कई किस्मों के।4। बसुधा = धरती। कामधेन = (धेनु = गाय) मनों कामना पूरी करने वाली गउएं। पारजात = स्वर्ग का एक वृक्ष जो मन माँगी मुरादें पूरी करने वाला माना जाता है। मुखि = मुँह में। बेन = बाँसुरी। मुखि बेन = मुँह में बाँसुरी रखने वाला, कृष्ण। मुखी = मुँह से। जपीअै = जपा जा रहा है।5। जुगति = तरीका, ढंग। बखिआन = व्याख्यान, उपदेश। सरोते = श्रोते, सुनने वाले। सुनहि = सुनते हैं (बहुवचन)। निधान = खजाना हरी। सरब जीअ = सब जीवों में। पूरन = व्यापक।6। अर्थ: (हे संत जनो! परमात्मा का दरबार हैरान कर देने वाला है, उसके पैदा किए हुए) अनेकों ही हवा पानी और आग (आदि) हैं, (उसके पैदा किए हुए) अनेकों ही रत्नों के, दही के, दूध के समुंद्र हैं। (उसके बनाए हुए) अनेकों ही सूर्य चँद्रमा और तारे हैं, और कई किस्मों के अनेकों ही देवियाँ और देवतागण हैं।4। (हे संत जनो! परमात्मा का दरबार आश्चर्यजनक है, उसके पैदा की हुई) अनेकों धरतियाँ और अनेकों ही मनोकामना पूरी करने वाली स्वर्ग की गउएं हैं, अनेकों ही पारजात वृक्ष और अनेकों ही कृष्ण हैं, अनेकों ही आकाश और अनेकों ही पाताल हैं। हे संत जनो! उस गोपाल को अनेकों ही मुँहों द्वारा जपा जा रहा है। (अनेकों जीव उसका नाम जपते हैं)।5। (हे संत जनो! परमात्मा का दरबार हैरान कर देने वाला है,) अनेकों शास्त्रों-स्मृतियों और पुराणों के द्वारा अनेकों (ढंग) -तरीकों से (उसके गुणों का) उपदेश हो रहा है। हे संत जनो! अनेकों ही सुनने वाले उस गुणों के खजाने प्रभू की सिफतें सुना रहे हैं। हे संत जनो! वह भगवान सारे ही जीवों में व्यापक है।6। अनिक धरम अनिक कुमेर ॥ अनिक बरन अनिक कनिक सुमेर ॥ अनिक सेख नवतन नामु लेहि ॥ पारब्रहम का अंतु न तेहि ॥७॥ अनिक पुरीआ अनिक तह खंड ॥ अनिक रूप रंग ब्रहमंड ॥ अनिक बना अनिक फल मूल ॥ आपहि सूखम आपहि असथूल ॥८॥ अनिक जुगादि दिनस अरु राति ॥ अनिक परलउ अनिक उतपाति ॥ अनिक जीअ जा के ग्रिह माहि ॥ रमत राम पूरन स्रब ठांइ ॥९॥ {पन्ना 1236} पद्अर्थ: धरम = धर्मराज। कुमेर = कुबेर, धन का देवता। बरन = वरुण, समुंद्र का देवता। कनिक = सोना। सेख = शेशनाग। नवतन = नया। लेहि = लेते हैं। तेहि = उन्होंने।7। तह = वहाँ। खंड = धरतियों के टोटे। बना = जंगल। आपहि = आप ही। सूखम = सूक्ष्म, अदृश्य। असथूल = स्थूल, दृश्यमान।8। जुगादि = जुग आदि। परलउ = जगत का नाश। उतपाति = उत्पक्ति, पैदायश। जीअ = ('जीउ' से बहुवचन)। रमत = व्यापक। स्रब ठांइ = सब जगहों में।9। अर्थ: (हे संत जनो! उस परमात्मा के पैदा किए हुए) अनेकों धर्मराज हैं अनेकों ही धन के देवता कुबेर हैं, अनेकों समुंद्र के देवता वरुण हैं और अनेकों ही सोने के सुमेर पर्वत है, अनेकों ही उसके बनाए हुए शेशनाग हैं जो (हर रोज उसका) नया ही नाम लेते हैं। हे संत जनो! उनमें से किसी ने भी उसके (के गुणों) का अंत नहीं पाया।7। (हे संत जनो! परमात्मा का दरबार हैरान कर देने वाला है, उसके पैदा किए हुए) अनेकों रूपों-रंगों के ब्रहमंड हैं अनेकों पुरीयाँ हैं। उसके पैदा किए हुए अनेकों जंगल और उनमें उगने वाले अनेकों किस्मों के फल और कंद-मूल हें। वह परमात्मा ही स्वयं ही अदृश्य है, वह स्वयं ही इस दिखाई देते जगत-तमाशे के रूप में दृश्यमान है।8। हे संत जनो! उस परमात्मा के बनाए हुए अनेकों ही युग आदिक हैं, अनेकों ही दिन हैं और अनेकों ही रातें हैं। वह अनेकों बार जगत का नाश करता है और अनेकों बार जगत-उत्पक्ति करता है। हे संतजनो! (वह परमात्मा ऐसा गृहस्ती है) कि उसके घर में अनेकों ही जीव हैं, वह सब जगहों में व्यापक है सब जगहों में मौजूद है।9। अनिक माइआ जा की लखी न जाइ ॥ अनिक कला खेलै हरि राइ ॥ अनिक धुनित ललित संगीत ॥ अनिक गुपत प्रगटे तह चीत ॥१०॥ सभ ते ऊच भगत जा कै संगि ॥ आठ पहर गुन गावहि रंगि ॥ अनिक अनाहद आनंद झुनकार ॥ उआ रस का कछु अंतु न पार ॥११॥ सति पुरखु सति असथानु ॥ ऊच ते ऊच निरमल निरबानु ॥ अपुना कीआ जानहि आपि ॥ आपे घटि घटि रहिओ बिआपि ॥ क्रिपा निधान नानक दइआल ॥ जिनि जपिआ नानक ते भए निहाल ॥१२॥१॥२॥२॥३॥७॥ {पन्ना 1236} पद्अर्थ: जा की = जिस (परमात्मा) की (रची हुई)। लखी न जाइ = समझी नहीं जा सकती। कला = ताकत। हरि राइ = प्रभू पातशाह। ललित = सुंदर। धुनित = धुनियां हो रही हैं। गुपत चीत = चित्र गुप्त। तह = वहां।, उसके दरबार में।10। जा के संगि = जिस के साथ, जिसके दर पर। गावहि = गाते हैं। रंगि = प्रेम से। अनाहद = बिना बजाए बज रहे। झुनकार = मीठी आवाज। उआ का = उसका।11। सति = सदा कायम। निरबानु = वासना रहित। जानहि = तू जानता है। आपे = आप ही। घटि घटि = हरेक घट में। क्रिपा निधान = हे कृपा के खजाने! दइआल = हे दया के घर! जिनि = जिस जिस ने। ते = वे सारे। निहाल = प्रसन्न चिक्त।12। अर्थ: (हे संत जनो! परमात्मा का दरबार हैरान कर देने वाला है) जिस की (रची हुई) अनेकों रंगों की माया समझी नहीं जा सकती, वह प्रभू-पातशाह अनेकों करिश्मे रच रहा है। (उसके दर पर) अनेकों सुरीले रागों की धुनियां चल रही हैं। वहँ अनेकों ही चित्र-गुप्त प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे हैं।10। हे संत जनो! वह परमात्मा सबसे ऊँचा है जिसके दर पर अनेकों भगत प्रेम से आठों पहर उसकी सिफतसालाह के गीत गाते रहते हैं। उसके दर पर बिना बजाए बाजे बज रहे साजों की मीठी सुर का आनंद बना रहता है, उस आनंद का अंत अथवा परला छोर नहीं पाया जा सकता (वह आनंद अमुक है)।11। हे संत जनो! वह परमात्मा सदा कायम रहने वाला है, उसका स्थान भी अटल है। वह ऊँचों से ऊँचा है, पवित्र-स्वरूप है, वासना-रहित है। हे नानक! (कह-) हे प्रभू! अपने रचे (जगत) को तू स्वयं ही जानता है, तू स्वयं ही हरेक शरीर में मौजूद है। हे दया के खजाने! हे दया के श्रोत! जिस जिस ने (तेरा नाम) जपा है, वह सब प्रसन्न-चिक्त रहते हैं।12।1।2।2।3।7। वेरवा: नोट: गुरू अरजन साहिब जी की 1 अष्टपदी 'घरु १' की, दूसरी 'घरु ६' की है। सारग छंत महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सभ देखीऐ अनभै का दाता ॥ घटि घटि पूरन है अलिपाता ॥ घटि घटि पूरनु करि बिसथीरनु जल तरंग जिउ रचनु कीआ ॥ हभि रस माणे भोग घटाणे आन न बीआ को थीआ ॥ हरि रंगी इक रंगी ठाकुरु संतसंगि प्रभु जाता ॥ नानक दरसि लीना जिउ जल मीना सभ देखीऐ अनभै का दाता ॥१॥ {पन्ना 1236} पद्अर्थ: सभ = सारी सृष्टि में। देखीअै = दिखता है। अनभै = अनभय पद, वह अवस्था जिसमें कोई डर नहीं रह जाता। घटि घटि = हरेक शरीर में। अलिपाता = निर्लिप। पूरनु = व्यापक। करि = कर के। बिसथीरनु = जगत पसारा। तरंग = लहरें। रचनु कीआ = रचना रची है। हभि = सारे। घटाणे = हरेक घट में। आन = और। बीआ = दूसरा। को = कोई भी। रंगी = सब रंगों का रचने वाला। इक रंगी = एक रस व्यापक। संगि = संगति में। जाता = जाना जाता है। दरसि = दर्शन में। मीना = मछली।1। अर्थ: हे भाई! निर्भयता की अवस्था देने वाला प्रभू सारी सृष्टि में बसता दिख रहा है। वह प्रभू हरेक शरीर में व्यापक है, फिर भी निर्लिप रहता है। जैसे पानी की लहरों (में पानी मौजूद है) परमात्मा जगत-रचना का खिलारा रच के स्वयं हरेक शरीर में व्यापक है। हरेक शरीर में व्यापक हो के वह सारे रस भोगता है, (उसके बिना कहीं भी) कोई दूसरा नहीं है। हे भाई! सब रंगों का रचने वाला वह मालिक-हरी एक-रस सबमें व्यापक है। संत-जनों की संगति में टिक के उस प्रभू के साथ सांझ डाली जा सकती है। हे नानक! मैं उसके दर्शन में इस तरह लीन रहता हूँ जैसे मछली पानी में। निर्भयता का दान देने वाला वह प्रभू सारी सृष्टि में दिखाई दे रहा है।1। कउन उपमा देउ कवन बडाई ॥ पूरन पूरि रहिओ स्रब ठाई ॥ पूरन मनमोहन घट घट सोहन जब खिंचै तब छाई ॥ किउ न अराधहु मिलि करि साधहु घरी मुहतक बेला आई ॥ अरथु दरबु सभु जो किछु दीसै संगि न कछहू जाई ॥ कहु नानक हरि हरि आराधहु कवन उपमा देउ कवन बडाई ॥२॥ {पन्ना 1236-1237} पद्अर्थ: उपमा = (मा = मापना। उपमा = किसी के बराबर का कोई बताना) बराबर के बताने का उद्यम। देउ = दो, मैं दॅूँ। कउन उपमा देउ = मैं क्या बताऊँ कि उस जैसा और कौन है? मैं उसकी कोई बराबरी नहीं बता सकता। पूरन = व्यापक। स्रब ठाई = सब जगह। मन मोहन = मन को मोहने वाला। घट घट सोहण = हरेक शरीर को सुंदर बनाने वाला। खिंचे = खींच लेता है। छाई = राख, कुछ भी नहीं रह जाता। मिलि करि = मिल के। साधहु = हे संत जनो! घरी मुहतक = घड़ी आधी घड़ी तक। बेला = (यहाँ से चले जाने का) वक्त। दरबु = द्रव्य, धन। अरथु दरबु = धन पदार्थ। संगि = साथ। जाई = जाता।2। अर्थ: हे संत जनो! मैं उस परमात्मा के बराबर किसी को भी नहीं बता सकता। वह कितना बड़ा है- यह भी नहीं बता सकता। वह सर्व व्यापक है, सब जगह मौजूद है। वह प्रभू सर्व-व्यापक है, सबके मनों की आकर्षित करने वाला है, सब शरीरों को (अपनी ज्योति से) सुंदर बनाने वाला है। जब वह अपनी ज्योति खींच लेता है, तब कुछ भी नहीं रह जाता। हे संत जनो! घड़ी आधी घड़ी को (हरेक जीव का यहाँ से चले जाने का) वक्त आ ही जाता है, फिर क्यों ना मिल के उसके नाम की आराधना करो? हे संत जनो! धन-पदार्थ ये सब कुछ जो दिखाई दे रहा है, कोई भी चीज़ (किसी के) साथ नहीं जाती। हे नानक! कह- हे भाई! सदा परमात्मा का नाम सिमरा करो। मैं उसके बराबर का किसी को नहीं बता सकता। वह कितना बड़ा है- यह भी नहीं बता सकता।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |