श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पूछउ संत मेरो ठाकुरु कैसा ॥ हींउ अरापउं देहु सदेसा ॥ देहु सदेसा प्रभ जीउ कैसा कह मोहन परवेसा ॥ अंग अंग सुखदाई पूरन ब्रहमाई थान थानंतर देसा ॥ बंधन ते मुकता घटि घटि जुगता कहि न सकउ हरि जैसा ॥ देखि चरित नानक मनु मोहिओ पूछै दीनु मेरो ठाकुरु कैसा ॥३॥ {पन्ना 1237}

पद्अर्थ: पूछउ = मैं पूछता हूँ। संत = हे संत! हे गुरू! कैसा = किस तरह का? हींउ = हृदय, मन। अरापउ = अर्पित करूँ, मैं भेट करता हूँ। सदेसा = संदेशा, खबर। कह = कहाँ? मोहन परवेसा = मोहन प्रभू का ठिकाना। पूरन = सर्व व्यापक। ब्रहमाई = ब्रहम। पूरन ब्रहमाई = पूरन ब्रहम। थान थानंतर = थान थान अंतर, सब जगहों में। ते = से। मुकता = आजाद। घटि घटि = हरेक शरीर में। जुगता = मिला हुआ। कहि न सकउ = कह ना सकूँ, मैं बता नहीं सकता। जैसा = जिस तरह का। देखि = देख के। चरित = चोज तमाशे। पूछै = पूछता है। दीनु = गरीब सेवक।3।

अर्थ: हे भाई! (गुरू से) मैं पूछता हूँ- हे गुरू! मेरा मालिक प्रभू किस प्रकार का है? मुझे (ठाकुर की) खबर बता, मैं अपना हृदय (तेरे चरणों में) भेटा करता हूँ। हे गुरू! मुझे बता कि प्रभू जी किस तरह के हैं और उस मोहन-प्रभू का ठिकाना कहाँ है।

(आगे से उक्तर मिलता है-) वह पूर्ण प्रभू सब जगहों में सब देशों में सुख देने वाला है और (हरेक जीव के) अंग-संग बसता है। प्रभू हरेक शरीर में मिला हुआ है (फिर भी मोह के) बँधनों से आजाद है। पर जिस प्रकार का वह प्रभू है मैं बता नहीं सकता। हे नानक! (कह-) उसके चोज-तमाशे देख के मेरा मन (उसके प्यार में) मोहा गया है।

हे भाई! गरीब दास पूछता है- हे गुरू! बता, मेरा मालिक-प्रभू किस प्रकार का है।3।

करि किरपा अपुने पहि आइआ ॥ धंनि सु रिदा जिह चरन बसाइआ ॥ चरन बसाइआ संत संगाइआ अगिआन अंधेरु गवाइआ ॥ भइआ प्रगासु रिदै उलासु प्रभु लोड़ीदा पाइआ ॥ दुखु नाठा सुखु घर महि वूठा महा अनंद सहजाइआ ॥ कहु नानक मै पूरा पाइआ करि किरपा अपुने पहि आइआ ॥४॥१॥ {पन्ना 1237}

पद्अर्थ: करि = कर के। अपुने पहि = अपने (सेवक) के पास। धंनि = भाग्यशाली। रिदा = हृदय। जिह = जिस (मनुष्य) ने। संत संगाइआ = साध-संगति में (रह के)। अगिआन अंधेरु = आत्मिक जीवन से बेसमझी का अंधेरा। प्रगासु = रौशनी। रिदै = हृदय में। उलासु = उल्लास, खुशी। लोड़ीदा = जिसको चिरों से माँग रहे थे। नाठा = भाग गया। घर महि = हृदय घर में। वूठा = आ बसा। सहजाइआ = आत्मिक अडोलता का। नानक = हे नानक!।4।

अर्थ: हे भाई! प्रभू मेहर करके अपने सेवक के पास (स्वयं) आ जाता है। जो मनुष्य प्रभू के चरणों को अपने हृदय में बसा लेता है, उसका हृदय भाग्यशाली होता है।

हे भाई! जो मनुष्य साध-संगति में (टिक के) प्रभू के चरण (अपने हृदय में) बसा लेता है, वह (अपने अंदर से) आत्मिक जीवन की तरफ से अज्ञानता का अंधेरा दूर कर लेता है। (उसके अंदर) आत्मिक जीवन का प्रकाश हो जाता है, उसके हृदय में सदा उत्साह बना रहता है (क्योंकि) जिस प्रभू को पाने की वह चिरकाल से अभिलाषा कर रहा था उसको मिल जाता है। उसके अंदर से दुख दूर हो जाता है, उसके हृदय-घर में सुख आ बसता है, उसके अंदर आत्मिक अडोलता का आनंद पैदा हो जाता है।

हे नानक! कह- मैंने भी वह पूरन-प्रभू पा लिया है। वह तो मेहर करके अपने सेवक के पास स्वयं ही आ जाता है।4।1।

सारंग की वार महला ४ राइ महमे हसने की धुनि

क भाव:

पउड़ी-वार:

परमात्मा ने ये जगत-खेल अपने-आप से पैदा की है, त्रै-गुणी माया और उसका मोह भी उसने खुद ही बनाया है। जो मनुष्य गुरू-दर पे आ के उसकी रज़ा में चलते हैं वे माया के मोह से बच जाते हैं।

ये खेल भी उसी की है कि किसी मनुष्य को उसने गुरमुख बना दिया है जो गुरू के शबद की बरकति से प्रभू को मन में बसाता है और माया के अंधकार में ठोकरें नहीं खाता।

यह भी उसी की रज़ा है कि कई मनुष्य मन के मुरीद हैं, वे सदा कपट की कमाई करते हैं और पुत्र-स्त्री के मोह में फस के भटकते दुखी होते हैं।

गुरमुख तमन्ना से सदा नाम जपता हैऔर मन-पंछी को वश में रखता है, इसकी बरकति से वह सुख भोगता है क्योंकि 'नाम' सुखों का खजाना है।

गुरमुख मनुष्य उठते-बैठते हर वक्त प्रभू के नाम में सुरति जोड़ के रखता है, 'नाम' उसकी जिंदगी का आसरा बन जाता है, 'नाम' में जुड़ के ही उसको सुख प्रतीत होता है।

नाम में सुरति जोड़ना ही गुरमुख के लिए ऊँची कुल वाली इज्जत है। नाम में सुरति जोड़ने से ही उसके अंदर प्रफुल्लता और शांति उपजती है, माया के ओर से वह तृप्त रहता है और नाम जपने का चाव उसके मन में पैदा होता है।

नाम में सुरति जोड़ने से गुरमुख को ना करामाती ताकतों की लालसा रहती है ना ही धन-पदार्थ की। माया, मानो, उसकी दासी बन जाती है; संतोख और अडोलता में वह सिफत-सालाह की मौज लेता है।

नाम में सुरति जोड़ने से गुरमुख का मन पवित्र हो जाता है, मनुष्य जीवन का असल भेद वह समझ लेता है, सदा खिले-माथे रहता है, ना पाप और ना ही मौत का डर कोई उसके नजदीक फटकता है।

अगर नाम-सिमरन में मन लग जाए तो जीवन का सही रास्ता साफ-स्पष्ट दिखाई दे जाता है, कोई अड़चन नहीं आती, मन में सुख उपजता है और यह यकीन बन जाता है कि 'सिमरन' ही सही रास्ता है।

सिमरन में लगे हुए मन वाले लोगों की कुलें और साथी भी माया के असर से बच जाते हैं। जिन्होंने नाम में मन जोड़ लिया उनकी दुख और माया वाली भूख मिट जाती है।

नाम में लगन लगने से अच्छी मति चमक उठती है, अहंकार दूर हो जाता है, नाम सिमरन का चाव पैदा हो जाता है और मन में शांति आ बसती है।

अगर सिमरन में मन जुड़ जाए तो नाम में लिव लगती है, प्रभू की सिफत-सालाह वाली आदत बन जाती है, विकारों की तरफ से रुचि हट जाती है, यह यकीन बन जाता है कि नाम-सिमरन ही जीवन का सही रास्ता है।

प्रभू हर जगह बस रहा है, हमारे अंदर भी मौजूद है, पर पूरा गुरू ही यह दीदार करवा सकता है, और गुरू मिलता है प्रभू की मेहर से।

शरीर पर राख लगाई हुई हो, गोदड़ी, झोली आदि साधुओं वाला भेष बनाया हुआ हो, पर मन में माया का अंधकार हो, वह मनुष्य सिमरन से वंचित रह के, मानो, जूए में बाज़ी हार के जाता है।

अंदर मैल कपट और झूठ हो, पर बाहर से शरीर को (तीर्थों आदि पर) स्नान करवाता रहे, इस तरह अंदरूनी कपट छुप नहीं सकता। हरेक जीव को अपने किए कर्मों का फल खाना ही पड़ता है।

नीम का अंदरूनी कड़वापन बाहर से अमृत से धोने पर नहीं जाता, साँप की डंक मारने वाली आदत दूध पिलाने से दूर नहीं होती, पत्थर का अंदरूनी कोरा-पन बाहरी स्नान से नहीं मिटता, वैसे ही मनमुख का हाल समझो।

मनमुख की एक 'निंदा' की आदत को ही ले लें- लोगों में बदनामी कमाता है, उसका मुँह भ्रष्ट हुआ रहता है, ज्यों-ज्यों किसी भले मनुष्य की निंदा करके उसकी शोभा कम करने का यतन करता है, उसके अपने अंदरूनी गुण नष्ट होते चले जाते हैं; निंदा की आदत वह छोड़ता नहीं और दिन-ब-दिन ज्यादा दुखी होता है।

गुरू के सन्मुख हो के जिनके अंदर नाम-सिमरन का चाव पैदा हो जाता है उनको किसी जप, तप, तीथ्र, संयम की जरूरत नहीं रह जाती, उनका हृदय पवित्र हो जाता है, प्रभू के गुण गाते वह प्रभू के चरणों में जुड़े हुए सुंदर लगते हैं।

प्रभू का मिलाप सत्संग में से होता है गुरू की कृपा से; जैसे पारस को छूने से लोहा सोना बन जाता है, वैसे ही गुरू की छोह से प्रभू का 'नाम' मिल जाता है।

गुरू, मानो, अमृत का वृक्ष है, नाम-अमृत का रस गुरू से ही मिलता है; जो मनुष्य गुरू के बताए हुए राह पर चलता है, उसके अंदर ईश्वरीय ज्योति जाग उठती है, वह रॅब के साथ एक-रूप हो जाता है, मौत का डर उसे नहीं रह जाता।

क्या अमीर और क्या गरीब, सब माया को इकट्ठा करने के आहर (काम) में लगे हुए हैं, यदि दाँव लगे तो पराया धन भी चुरा लेते हैं, माया से इतना प्यार कि पुत्र-स्त्री का भी विश्वास नहीं करते। पर यह माया अपने मोह में फसा के (आगे) चली जाती है और इसको इकट्ठा करने वाले सिसकियाँ भरते रह जाते हैं।

पर, बँदगी करने वालों के मन में धन आदि का मोह घर नहीं कर सकता, वे रॅब-लेखे खर्च भी करते हैं; उन्हें तोट भी नहीं आती और रहते भी सुखी हैं।

राज और बादशाही, किले और सुंदर इमारतें, सोने से सजे हुए बढ़िया घोड़े, कई किस्मों के स्वादिष्ट खाने - जो मनुष्य इनके देवनहार को बिसार के मन की मौजों में लगता है वह दुख ही पाता है।

शरीर के श्रृंगार के लिए रंग-बिरंगे रेश्मी कपड़े, बढ़िया दुलीचियों पर महफ़िलें - इनसे भी मन में शांति नहीं आ सकती, क्योंकि शांति देने वाला और दुख से बचाने वाला हरी-नाम ही है।

जो मनुष्य नाम सिमरते हैं, वे जगत में अटल आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं; जो असल फल जीवन में कमाना था वह फल वे कमा लेते हैं, सदा कायम रहने वाली उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेते हैं।

नाम सिमरन वाले सदा प्रभू के पास बसते हैं, हर वक्त प्रभू के साथ रचे-मिचे रहते हैं, उनके मन से नाम का रंग कभी नहीं उतरता।

पर, मन का मुरीद मनुष्य नाम नहीं सिमरता, सदा आत्मिक मौत सहेड़ के रखता है, विकारों में लगे रहने के कारण अपने जीवन का रास्ता मुश्किल और डरावना बना लेता है।

सिमरन करने वालों पर कोई विकार दबाव नहीं डाल सकता, यमराज भी उनका आदर करता है, उनके अंदर सदा उल्लास रहता है और वे जगत में भी आदर पाते हैं।

जिनको प्रभू नाम की लगन लगाता है, वे प्रभू-दर से सदा दीदार की दाति माँगते हैं; गुरू की कृपा से उनको हर जगह प्रभू ही दिखाई देता है।

लंबी उमर समझ के मनुष्य प्रभू को बिसार के दुनियां की आशाएं बनाता रहता है, महल-माढ़ियों को सजाने में मस्त रहता हैऔर अगर वश चले तो औरों का धन ठॅग लेता है। मूर्ख को ये चेता ही नहीं आता कि जिंदगी की घड़ियां घटती जा रही हैं।

मनमुख तो आशा के चक्र में पड़ के दुखी होता है; पर गुरू के राह पर चलने वाला व्यक्ति आशाओं से ऊपर रहता है, सो निराशता और अफसोस उसके नजदीक नहीं फटकते, वह रज़ा में खुश रहता है।

मोह में फसा हुआ मनमुख पत्नी व पुत्रों को देख के खुश होता है, ठॅग-ठॅग के धन लाता है। पर एक तरफ तो धन से वैर-विरोध पैदा होता है, दूसरा, धन की खातिर किए पापों की मन में फिटकार पड़ती है और इस तरह दुख पाता है।

जिस मनुष्य को प्रभू की मेहर से ये समझ आ जाती है कि पत्नी-पुत्र-धन आदि का साथ नाशवंत है, वह पूरे गुरू की शरण पड़ता है और प्रभू के नाम में लीन होता है।

जिसको गुरू से नाम की ख़ैर मिलती है उसका हृदय खिल उठता है, कोई उसकी प्रतियोगता (रीस) नहीं कर सकता। उसका नाम से प्यार और हृदय का उल्लास हमेशा बढ़ते जाते हैं।

'पउड़ी महला ५'॥ जिस मनुष्य को गुरू ने प्रभू से मिला दिया, नाम उसकी जिंदगी का आसरा बन जाता है, सत्संग की ओट ले के वह संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है।

पूरे गुरू के शबद से प्रभू की वडिआई देखने वाले मनुष्य के अंदर उल्लास पैदा हो जाता है, शांति आ जाती है, उसको हर जगह प्रभू ही दिखाई देता है और वह रज़ा में प्रसन्न रहता है।

लड़ीवार भाव:

(1 से 5 तक) यह जगत-खेल प्रभू ने अपने आप से बनाई है, त्रैगुणी माया और उसका मोह भी प्रभू ने स्वयं ही रचा है। उसकी रजा में ही कोई मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के नाम सिमरता है और माया के अंधेरे में ठोकरें नहीं खाता, कोई मन का मुरीद हो के पत्नी-पुत्रों के मोह में फस के दुखी होता है। गुरमुख नाम-सिमरन के मन-पंछी को वश में रखता है, नाम उसकी जिंदगी का आसरा बन जाता है।

(6 से 13 तक) अगर नाम में सुरति जोड़ें तो मन में उल्लास और शांति पैदा होती है, नाम जपने का चाव पैदा होता है, संतोख वाला जीवन हो जाता है, मन पवित्र हो जाता है। अगर मन नाम-सिमरन में लग जाए तो यह यकीन बन जाता है कि सिमरन ही जिंदगी का सही रास्ता है, माया वाली भूख समाप्त हो जाती है, सिमरन का चाव पैदा हो जाता है, विकारों की तरफ से रुचि हट जाती है- ये सारी बरकति गुरू के द्वारा ही प्राप्त होती है।

(14 से 20) धार्मिक भेष, तीर्थ स्नान आदि मिथे हुए बाहरी धार्मिक कर्म मन की मैल को दूर नहीं कर सकते। अपने मन के पीछे चलने की जगह इस मन को गुरू के बताए हुए रास्ते पर चलाने से ही जिंदगी का सही रास्ता मिलता है। गुरू मनुष्य को परमात्मा के सिमरन में जोड़ता है।

(21 से 36) दुनिया की ओर ध्यान मार के देखो, लंबी उम्र समझ के हरेक मनुष्य माया इकट्ठी करने में लगा हुआ है, बेगाना हक छीनने में भी संकोच नहीं करता। पर, माया में से आत्मिक सुख नहीं मिल सकता। गुरू की कृपा से जो मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ता है, वह सुखी है, आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटकती। यह दाति परमात्मा की अपनी मेहर से ही मिलती है।

मुख्य भाव:

परमात्मा की सेवा-भगती ही मनुष्य के जीवन का असल मनोरथ है, आत्मिक आनंद हासिल करने का एक यही तरीका है। बेअंत धन-पदार्थ एकत्र करने से भी यह आनंद नहीं मिल सकता, क्योंकि माया का मोह तो मन को विकारों की मैल से मलीन किए जाता है। धार्मिक भेष, तीर्थ-स्नान आदि के उद्यम मन की इस मैल को दूर नहीं कर सकते। जिस पर परमात्मा मेहर करे वह गुरू की शरण पड़ कर गुरू के बताए हुए राह पर चल के परमात्मा की याद में जुड़ता है।

'वार' की संरचना:

यह 'वार' गुरू रामदास जी की लिखी हुई है। इसमें उनकी 35 पौड़ियां हैं। सो, इस 'वार' की पहले 35 पौड़ियां ही थीं। पउड़ी नं:34 के साथ पउड़ी नं. 35 गुरू अरजन साहिब ने लिख के अपनी तरफ़ से दर्ज कर दी। उस पउड़ी ़का शीर्षक है 'पउड़ी महला ५'।

हरेक पौड़ी की पाँच-पाँच तुकें हैं। सारी ही 'वार' में सारी पौड़ियों की काव्य-चाल तकरीबन एक-किस्म की है।

इस 'वार' में एक अनोखी बात यह है कि हरेक पउड़ी में शब्द 'नानक' बरता गया है। जो पउड़ी नं: 34 गुरू अरजन साहिब ने लिख के अपनी ओर से दर्ज की है उसमें भी शब्द 'नानक' प्रयोग हुआ है।

महला ५ की पउड़ी नंबर ३५

यह सारी 'वार' तो गुरू रामदास जी की लिखी हुई है। इसमें उनकी पौड़ी नं: 34 के साथ गुरू अरजन देव जी ने पउड़ी नं: 35 अपनी तरफ से दर्ज की है। यह पउड़ी श्री गुरू ग्रंथ साहिब में और कहीं नहीं है। सो, यह निरोल पउड़ी नं: 34 के संबन्ध में ही लिखी गई है। पाठकों की सहूलत के लिए वह दोनों पौड़ियां नं: 34 और 35 एक साथ यहाँ दी जा रही है, ताकि पाठक स्वयं इनका गहरा संबन्ध समझ सकें;

गुर पूरे की दाति, नित देवै, चढ़ै सवाईआ॥ तुसि देवै आपि दइआलु, न छपै छपाईआ॥ हिरदे कवलु प्रगासु, उनमनि लिव लाईआ॥ जे को करे उस दी रीस, सिर छाई पाईआ॥ नानक अपड़ि कोइ न सकई, पूरे सतिगुर की वडिआईआ॥३४॥

इसके साथ ही आगे पउड़ी नं: 35 (गुरू अरजन साहिब जी)

पउड़ी महला ५॥ सचु खाणा, सचु पैनणा, सचु नामु अधारु॥ गुरि पूरै मेलाइआ प्रभू देवणहारु॥ भागु पूरा तिन् जागिआ जपिआ निरंकारु॥ साधू संगति लगिआ तरिआ संसारु॥ नानक सिफति सालाह करि प्रभ का जैकारु॥३५॥

नोट: 'गुर पूरे की दाति'- वह कौन सी दाति है? इसका विस्तार से वेरवा गुरू अरजन देव जी वाली पौड़ी नं: 35 में है।

इस 'वार' के साथ सलोक:

इस ‘वार’ में कुल 36 पौड़ियाँ हैं। पउड़ी नं: 1 और 34 को छोड़ के बाकी 34 पौड़ियों में हरेक के

साथ दो–दो शलोक हैं। इनका जोड़ ---------------------68
पउड़ी नं: 1 और 34 के साथ तीन–तीन शलोक हैं -----6
कुल जोड़----------------------------------------------------74

गुरू व्यक्ति अनुसार

महला १ के – पउड़ी नं: 6 से 15 तक; 10 पउड़ियां।
हरेक पौड़ी के साथ दो–दो शलोक, जोड़-----------------20
पउड़ी नं: 1 के साथ: 2
पउड़ी नं: 2, 3, 16, 20, 21 के साथ एक–एक---------5
पउड़ी नं: 17, 19, और 22 के साथ दो–दो शलोक.-----6
जोड़----------------------------------------------------------33 शलोक
महला २ के – पउड़क्षी नं: 4, 5 के साथ दो–दो; जोड़..--4
नंबर: 1,2,3,16, 20 के साथ एक–एक ------------------5
जोड़---------------------------------------------------------09 शलोक
महला ३ के – पउड़ी नं: 24, 25; के दो–दो शलोक; जोड़ --20
पउड़ी नं: 27 से 33; नं: 35
पउड़ी नंबर 21, 26, 34 के साथ एक–एक ------------------3
जोड़----------------------------------------------------------------23 शलोक
महला ४ के – नं: 18, 23 के साथ दोनों; जोड़ --------4
नंबर 34 के साथ दो– 2 ----------------------------------6
महला ५ के –पउड़ी नं: 36 के साथ दोनों .--------------21
नं: 26 के साथ एक –74 --------------------------------3
कुल जोड़ ...........................33+9+23+3 ----------74


'वार' की पहली शकल:

यह 'वार' पहले सिर्फ 'पउडियों' का संग्रह था। काव्य-रचना के दृष्टिकोण से देखें, हरेक पौड़ी में पाँच-पाँच तुकें हैं, तुकों का आकार तकरीबन एक-सा है।

जिस गुरू-व्यक्ति ने 'वार' के अंदरूनी स्वरूप को इतने ध्यान से तैयार किया, इस 'वार' की हरेक पौड़ी के साथ शलोक दर्ज करने के समय भी उनके द्वारा उसी एक-सुरता की उम्मीद रखी जा सकती थी। पर शलोकों का आकार एक जैसा नहीं है, शलोकों की तुकें एक जितनी नहीं हैं।

पउड़ी नं: 26 के साथ दूसरा शलोक गुरू अरजन साहिब का है। आखिरी पउड़ी के साथ दोनों शलोक गुरू अरजन साहिब के हैं। अगर गुरू राम दास जी अपनी लिखी 'वार' की हरेक पौड़ी के साथ शलोक भी खुद ही दर्ज करते तो पौड़ी नं: 26 के साथ एक ही शलोक दर्ज ना करते, और आखिरी पउड़ी को खाली ना रहने देते।

दरअसल, बात यह है कि पहले 'वार' सिर्फ पौड़ियों का संग्रह थी। हरेक पौड़ी के साथ सलोक गुरू अरजन साहिब ने दर्ज किए थे। हरेक गुरू-व्यक्ति के लिखे शलोकों के संग्रह में से ले के। उन संग्रहों में से जो सलोक बढ़ गए, वह श्री गुरू ग्रंथ साहिब के आखिर में इकट्ठे दर्ज कर दिए गए। उनका शीर्षक ही ये बात स्पष्ट कर देता है- 'सलोक वारां ते वधीक'।

सारंग की वार महला ४ राइ महमे हसने की धुनि

महमा और हसना दो राजपूत सरदार थे; महमा कांगड़े का रहने वाला और हसना धौले का। हसने ने चालाकी से महमे को अकबर के पास कैद करवा दिया; पर महमे ने अपनी बहादुरी के कारनामे दिखा के बादशाह को प्रसन्न कर लिया और शाही फौज ले के हसने पर हमला कर दिया। काफी समय तक दोनों पक्षों में लड़ाई उपरांत महमे की जीत हुई। ढाढियों ने इस जंग की वार लिखी; इस वार की सुर पर गुरू राम दास जी की रची हुई सारंग राग की वार को गाने की हिदायत है।

उस वार में से बतौर नमूना निम्नलिखित पौड़ी है;

महमा हसना राजपूत राइ भारे भॅटी॥ हसने बे-ईमानगी नाल महमे थॅटी॥ भेड़ दुहां दा मॅचिआ सर वगे सफॅटी॥ महम पाई फतह रण गल हसने घॅटी॥ बंन् हसने नूं छॅडिआ जस महमे खॅटी॥

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोक महला २ ॥ गुरु कुंजी पाहू निवलु मनु कोठा तनु छति ॥ नानक गुर बिनु मन का ताकु न उघड़ै अवर न कुंजी हथि ॥१॥ {पन्ना 1237}

पद्अर्थ: पाहू = माया की पाह। निवलु = पशुओं के पैरों पर लगाने वाला ताला। ताकु = दरवाजा। उघड़ै = खुलता। अवर हथि = किसी और के हाथ में।

अर्थ: (मनुष्य का) मन (मानो) कोठा है और शरीर (इस कोठे की) छत है, (माया की) पाह (इस मन कोठे को) ताला (लगा हुआ) है, (इस ताले को खोलने के लिए) गुरू कुँजी है (भाव, मन पर से माया का प्रभाव गुरू ही दूर कर सकता है)। हे नानक! सतिगुरू के बिना मन का दरवाजा खुल नहीं सकता, और किसी और के हाथ में (इसकी) कूँजी नहीं है।1।

महला १ ॥ न भीजै रागी नादी बेदि ॥ न भीजै सुरती गिआनी जोगि ॥ न भीजै सोगी कीतै रोजि ॥ न भीजै रूपीं मालीं रंगि ॥ न भीजै तीरथि भविऐ नंगि ॥ न भीजै दातीं कीतै पुंनि ॥ न भीजै बाहरि बैठिआ सुंनि ॥ न भीजै भेड़ि मरहि भिड़ि सूर ॥ न भीजै केते होवहि धूड़ ॥ लेखा लिखीऐ मन कै भाइ ॥ नानक भीजै साचै नाइ ॥२॥ {पन्ना 1237}

पद्अर्थ: न भीजै = भीगता नहीं, प्रसन्न नहीं होता। नादी = नाद से, नाद बजाने से। बेदि = वेदों से, वेद पढ़ने से। सुरती = समाधि (लगाने) से। गिआनी = ज्ञान की बातें करने से। जोगि = जोगे साधना से। रोजि = हर रोज, सदा। रंगि = रंग तमाशे से। तीरथि = तीर्थों पर (नहाने से)। भविअै = नंगे भटकने से। पुंनि = पुन्य करने से। सुंनि = सुंन्न अवस्था में, चुप चाप रह के। भेड़ि = युद्ध में। भिड़ि = भिड़ के, लड़ के। सूर = सूरमे। केते = कई लोग। होवहि धूड़ि = मिट्टी में लिबड़ते हैं। लेखा = हिसाब, हमारे अच्छे बुरे होने की परख। लेखा लिखीअै = लेखा लिखा जाता है, हमारे अच्छे बुरे होने की परख की जाती है। मन कै भाइ = मन की भावना अनुसार, मन की अवस्था के अनुसार। साचै नाइ = सच्चे नाम से, सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम से।

अर्थ: राग गाने से, नाद बजाने से अथवा वेद (आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़ने से परमात्मा प्रसन्न नहीं होता; ना ही, समाधि लगाने से ज्ञान-चर्चा करने से या जोग का कोई साधन करने से। ना ही वह प्रसन्न होता है रोज शोक मनाने से (जैसे श्रावग सरेवड़े करते हैं); रूप, माल-धन और रंग-तमाशे में व्यस्त रहने से भी प्रभू (जीव पर) खुश नहीं होता; ना ही वह भीगता है तीर्थ पर नहाने से अथवा नंगे घूमने से। दान-पुन्य करने से ईश्वर रीझता नहीं, और बाहर (जंगलों में) सुंन-मुंन बैठने से भी नहीं पसीजता।

योद्धे लड़ाई में लड़ कर मरते हैं (इस तरह भी) प्रभू प्रसन्न नहीं होता, कई लोग (राख आदि मल के) मिट्टी में लिबड़ते हैं (इस तरह भी वह) खुश नहीं होता।

हे नानक! परमात्मा प्रसन्न होता है अगर उस सदा कायम रहने वाले के नाम में (जुड़ें), (क्योंकि, जीवों के अच्छे-बुरे होने की) परख मन की भावना के अनुसार की जाती है।2।

महला १ ॥ नव छिअ खट का करे बीचारु ॥ निसि दिन उचरै भार अठार ॥ तिनि भी अंतु न पाइआ तोहि ॥ नाम बिहूण मुकति किउ होइ ॥ नाभि वसत ब्रहमै अंतु न जाणिआ ॥ गुरमुखि नानक नामु पछाणिआ ॥३॥ {पन्ना 1237}

पद्अर्थ: नव = नौ व्याकरण। छिअ = छे शास्त्र। खट = छे वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छंद, निरुक्त, ज्योतिष)। निसि = रात। भार अठार = अठारह परवों वाला महाभारत ग्रंथ। तिनि = उसने। तोहि = तेरा। बिहूण = बगैर। मुकति = विकारों से मुक्ति। नाभि = कमल की नाभि। वसत = बसते हुए। ब्रहमै = ब्रहमा ने। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के, गुरू के बताए राह पर चल के।

अर्थ: जो मनुष्य (इतना विद्वान हो कि) नौ व्याकरणों, छह शास्त्रों और छह वेदांगों की विचार करे (भाव, इन पुस्तकों के अर्थ समझ ले), अठारह पर्वों वाले महाभारत ग्रंथ को दिन-रात पढ़ता रहे, उस ने भी (हे प्रभू!) तेरा अंत नहीं पाया, (तेरे) नाम के बिना मन विकारों से मुक्ति नहीं पा सकता।

कमल की नाभि में बसता ब्रहमा परमात्मा के गुणों का अंदाजा ना लगा सका। हे नानक! गुरू के बताए हुए राह पर चल के ही (प्रभू का) नाम (सिमरन का महातम) समझा जा सकता है।3।

पउड़ी ॥ आपे आपि निरंजना जिनि आपु उपाइआ ॥ आपे खेलु रचाइओनु सभु जगतु सबाइआ ॥ त्रै गुण आपि सिरजिअनु माइआ मोहु वधाइआ ॥ गुर परसादी उबरे जिन भाणा भाइआ ॥ नानक सचु वरतदा सभ सचि समाइआ ॥१॥ {पन्ना 1237}

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। जिनि = जिस (निरंजन) ने। आपु = अपने आप को। रचाइओनु = रचाया उसने। सिरजिअनु = सिरजे उसने। जिन = जिनको। सचि = सच में। निरंजन = (निर+अंजन) माया रहित।

अर्थ: माया-रहित प्रभू स्वयं ही (जगत का मूल) है उसने अपने आप को (जगत के रूप में) प्रकट किया है; ये सारा ही जगत-तमाशा उसने स्वयं ही रचा है।

माया के तीन गुण उसने स्वयं ही बनाए हैं (और जगत में) माया का मोह (भी उसने खुद ही) प्रबल किया है, (इस त्रै-गुणी माया के मोह में से सिर्फ) वह (जीव) बचते हैं जिन को सतिगुरू की कृपा से (प्रभू की) रज़ा मीठी लगती है।

हे नानक! सदा कायम रहने वाला प्रभू (हर जगह) मौजूद है, और सारी सृष्टि उस सदा-स्थिर में टिकी हुई है (भाव, उसके हुकम के अंदर रहती है)।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh