श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1238 सलोक महला २ ॥ आपि उपाए नानका आपे रखै वेक ॥ मंदा किस नो आखीऐ जां सभना साहिबु एकु ॥ सभना साहिबु एकु है वेखै धंधै लाइ ॥ किसै थोड़ा किसै अगला खाली कोई नाहि ॥ आवहि नंगे जाहि नंगे विचे करहि विथार ॥ नानक हुकमु न जाणीऐ अगै काई कार ॥१॥ {पन्ना 1238} पद्अर्थ: वेक = अनेक, अलग अलग। धंधे = धंधे में। अगला = बहुत (धंधा)। आवहि = (जीव जगत में) आते हैं। विचे = बीच में ही, (नंगे आने और नंगे जाने के) बीच के हिस्से में ही, (भाव, यह जानते हुए भी कि जीव नंगे आते और नंगे ही चले जाते हैं)। नंगे = (भाव,) खाली हाथ। विथार = विस्तार, खिलारे। काई = कौन सी? अगै = आगे, परलोक में। अर्थ: हे नानक! प्रभू स्वयं (जीवों को) पैदा करता है और खुद ही (इनको) अलग-अलग (स्वभाव वाले) रखता है; (पर) सब जीवों का पति एक (खुद) ही है (इसलिए) किसी जीव को बुरा नहीं कहा जा सकता। प्रभू खुद ही सब जीवों का पति है (मालिक है), (खुद ही जीवों को) धंधों में जोड़ के (खुद ही) देख रहा है; कोई जीव (माया के धंधों से) बचा हुआ नहीं है, किसी को कम किसी को ज्यादा (धंधा उसने चिपकाया हुआ) है। (जीव जगत में) खाली-हाथ आते हैं और खाली हाथ (यहाँ से) चले जाते हैं, ये देख के भी (माया के) पसारे पसारते जाते हैं। हे नानक! (यहाँ से जा के) परलोक में कौन सी कार (करने को) मिलेगी- (इस संबन्ध में प्रभू का) हुकम नहीं जाना जा सकता।1। महला १ ॥ जिनसि थापि जीआं कउ भेजै जिनसि थापि लै जावै ॥ आपे थापि उथापै आपे एते वेस करावै ॥ जेते जीअ फिरहि अउधूती आपे भिखिआ पावै ॥ लेखै बोलणु लेखै चलणु काइतु कीचहि दावे ॥ मूलु मति परवाणा एहो नानकु आखि सुणाए ॥ करणी उपरि होइ तपावसु जे को कहै कहाए ॥२॥ {पन्ना 1238} पद्अर्थ: जिनसि थापि, जिनसि थापि = जिनस जिनस के (शरीर) बना के, भांति भांति के शरीर रच-रच के। उथापै = उखेड़ता है, नाश करता है। ऐते = इतने, कई किस्मों के। जेते जीअ = जितने भी जीव हैं, (भाव, सारे ही जीव)। अउधूती = मंगते। आपे = आप ही। भिखिआ = भिक्षा, ख़ैर। लेखै = लेखे में, हिसाब में (भाव, गिने चुने समय के लिए है)। काइतु = क्यों? किसलिए? कीचहि = किए जाएं। कीचहि दावे = दावे किए जाएं, अपना हक जमाया जाए। मूलु = जड़, तत्व। मूलु मति = मति का मूल। परवाणा = जाना माना। करणी = व्यवहारिक जीवन, किए हुए कर्म। तपावसु = न्याय, निबेड़ा। अर्थ: भांति-भांति के शरीर बना-बना के प्रभू स्वयं ही जीवों को (जगत में) भेजता है और (फिर यहाँ से) ले जाता है; प्रभू स्वयं ही पैदा करता है स्वयं ही नाश करता है, यह कई किसमों के (जीवों के) रूप खुद ही बनाता है। ये सारे ही जीव (जो जगत में) चलते-फिरते हैं (यह सारे प्रभू के दर के) मंगते हैं, प्रभू स्वयं ही इनको ख़ैर डालता है। हरेक जीव का बोलना-चालना गिने-चुने समय के लिए है, किस लिए इतने दावे किए जा रहे हैं? नानक कह के सुनाता है कि बुद्धिमक्ता की जानी-मानी सिरे की बात यही है; चाहे और जो कुछ भी कोई कहता रहे (दरअसल बात यह है कि) हरेक के अपने किए कर्मों के अनुसार निबेड़ा होता है।2। पउड़ी ॥ गुरमुखि चलतु रचाइओनु गुण परगटी आइआ ॥ गुरबाणी सद उचरै हरि मंनि वसाइआ ॥ सकति गई भ्रमु कटिआ सिव जोति जगाइआ ॥ जिन कै पोतै पुंनु है गुरु पुरखु मिलाइआ ॥ नानक सहजे मिलि रहे हरि नामि समाइआ ॥२॥ {पन्ना 1238} पद्अर्थ: गुरमुखि = वह मनुष्य जिसका मुँह गुरू की तरफ है, गुरू के सन्मुख मनुष्य। चलतु = तमाशा, खेल, करिश्मा। परगटी आइआ = प्रगट किए हैं। मंनि = मन में। सकति = माया (का प्रभाव)। भ्रमु = भटकना। सिव जोति = ईश्वरीय ज्योति। पोतै = खजाने में। गुरु पुरखु = महा पुरख सतिगुरू। जिन कै पोतै = जिनके खजाने में, जिनके भाग्यों में। पुंनु = (पिछली की) भलाई, नेक कमाई, नेकी। सहजे = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। नामि = नाम में। अर्थ: (प्रभू की जगत-रचना में) कोई मनुष्य गुरू के सन्मुख है यह करिश्मा भी उस (प्रभू) ने (ही) रचाया है (गुरमुखि मनुष्य में प्रभू ने अपने) गुण प्रकट किए हैं, (जिनकी बरकति से वह गुरमुखि) सदा सतिगुरू की बाणी उचारता है और प्रभू को मन में बसाए रखता है, उसके अंदर रॅबी-ज्योति जाग उठती है; (उसके अंदर से) माया (का अंधकार) दूर हो जाता है और भटकना समाप्त हो जाती है (भाव, जिंदगी के राह पर वह माया के अंधेरे में ठोकरें नहीं खाता)। जिनके भाग्यों में (पिछली की) नेक कमाई है (उनको प्रभू) महापुरुष सतिगुरू मिला देता है; और, हे नानक! वे आत्मिक अडोलता में टिक के (प्रभू में) मिले रहते हैं, प्रभू के नाम में टिके रहते हैं।2। सलोक महला २ ॥ साह चले वणजारिआ लिखिआ देवै नालि ॥ लिखे उपरि हुकमु होइ लईऐ वसतु सम्हालि ॥ वसतु लई वणजारई वखरु बधा पाइ ॥ केई लाहा लै चले इकि चले मूलु गवाइ ॥ थोड़ा किनै न मंगिओ किसु कहीऐ साबासि ॥ नदरि तिना कउ नानका जि साबतु लाए रासि ॥१॥ {पन्ना 1238} पद्अर्थ: साह वणजारिआ = शाह (-प्रभू) के (भेजे हुए) व्यापारी (जीव)। चले = (शाह की तरफ से) चल पड़े (और यहाँ जगत में आए)। लिखिआ = (किए कर्मों के अनुसार माथे पर) लिखा हुआ (लेख)। लिखे उपरि = उस लिखे लेख अनुसार। हुकम होइ = प्रभू का हुकम बरतता है। वसतु = (नाम रूप) वखर, वस्तु। वणजारई = वणजारों ने, व्यापारियों ने। इकि = कई जीव। साबतु = पूरी की पूरी। रासि = पूँजी, (श्वासों की) पूँजी। लाऐ = लगा ली, खर्च कर डाली, बरत ली। अर्थ: शाह (प्रभू) के (भेजे हुए जो-जो जीव-) व्यापारी (शाह से) चल पड़ते हैं (और यहाँ जगत में आते हैं, उनको प्रभू उनके कर्मों के अनुसार माथे पर) लिखे हुए लेख साथ दे कर भेजता है। उस लिखे लेख के अनुसार प्रभू का हुकम बरतता है और नाम-रूपी वखर (वस्तु, माल, असबाब) संभाल लिया जाता है। जो मनुष्य 'नाम' का व्यापार करते हैं उन्होंने नाम-पदार्थ हासिल कर लिया और प्राप्त करके पल्ले बाँध लिया। कई (जीव-व्यापारी यहाँ से) नफा कमा के जाते हैं, पर कई असल राशि-पूँजी भी गवा जाते हैं (दोनों पक्षों में से) कम चीज़ किसी ने नहीं माँगी (भाव, नाम-व्यापरियों को 'नाम' बहुत प्यारा लगता है और माया-धारी को 'माया')। फिर, इनमें से शाबाशी किसने ली (मेहर की नज़र किस पर हुई) ? मेहर की नज़र, हे नानक! उन पर हुई जिन्होंने (श्वासों की) सारी राशि-पूँजी (नाम का व्यापार करने में) लगा दी।1। महला १ ॥ जुड़ि जुड़ि विछुड़े विछुड़ि जुड़े ॥ जीवि जीवि मुए मुए जीवे ॥ केतिआ के बाप केतिआ के बेटे केते गुर चेले हूए ॥ आगै पाछै गणत न आवै किआ जाती किआ हुणि हूए ॥ सभु करणा किरतु करि लिखीऐ करि करि करता करे करे ॥ मनमुखि मरीऐ गुरमुखि तरीऐ नानक नदरी नदरि करे ॥२॥ {पन्ना 1237} पद्अर्थ: जुड़ि = जुड़ के, (शरीर जिंद को) मिल के; (भाव, जनम ले के)। जुड़ि जुड़ि = बार बार जनम ले के। विछुड़े = (जिंद शरीर से) विछुड़ती है (भाव, जीव मरते हैं)। विछुड़ि = शरीर से अलग हो के, मर के। जीवि जीवि = कई बार पैदा हो के। आगै पाछै = अब वाले जनम से पहले का और इससे आगे। गणत = गिनती, लेखा। सभु करणा = सारा जगत। किरतु = पिछले किए कर्मों का समूह। किरतु करि = किए कर्मों के अनुसार। मरीअै = जनम मरण के चक्कर में पड़ता है। नदरि = (मेहर की) नजर करने वाला प्रभू। करि करि, करे करे = बार बार करता जा रहा है। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। गुरमुखि = गुरू के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य। अर्थ: आत्मा और शरीर इकट्ठे हो के विछुड़ जाते हैं, विछुड़ के फिर मिलते हैं, (भाव,) जीव पैदा होते हैं मरते हैं, मरते हैं फिर पैदा होते हैं। (ये पैदा होने-मरने का सिलसिला इतना लंबा होता है कि जीव इस चक्कर में) कईयों के पिता और कईयों के पुत्र बनते हैं, कई (बार) गुरू और चेले बनते हैं। यह लेखा गिना नहीं जा सकता कि जो कुछ अब हम इस वक्त हैं इससे पहले हमारा कौन सा जनम था और आगे कौन सा होगा। पर, ये सारी जगत (-रचना-रूप लेखा जो लिखा जा रहा है ये जीवों के) किए कर्मों के अनुसार लिखा जाता है, करतार ये खेल इस तरह खेलता जा रहा है। मनमुख इस जनम-मरण के चक्र में पड़ा रहता है और गुरमुखि इसमें से पार लांघ जाता है क्योंकि, हे नानक! मेहर का मालिक प्रभू उस पर मेहर की नजर करता है।2। पउड़ी ॥ मनमुखि दूजा भरमु है दूजै लोभाइआ ॥ कूड़ु कपटु कमावदे कूड़ो आलाइआ ॥ पुत्र कलत्रु मोहु हेतु है सभु दुखु सबाइआ ॥ जम दरि बधे मारीअहि भरमहि भरमाइआ ॥ मनमुखि जनमु गवाइआ नानक हरि भाइआ ॥३॥ {पन्ना 1238} पद्अर्थ: मनमुखि = वह मनुष्य जिसका मुँह अपने मन की तरफ है, जो अपने मन के पीछे लगता है, मन का मुरीद, मन मर्जी वाला। दूजा भरमु = (प्रभू को छोड़ के) और तरफ की भटकना। दूजै = और तरफ ने। लोभाइआ = लुभा लिया, भरमा लिया। कूड़ो = झूठ ही। आलाइआ = बोलते हैं। कलत्रु = स्त्री (संस्कृत में यह शब्द नपुंसक लिंग Neutral Gender है, पुरानी पंजाबी में पुलिंग के तौर पर इस्तेमाल किया गया है; देखें 'गुरबाणी व्याकरण')। हेतु = हित। सबाइआ = सारा। दरि = दर पर, दरवाजे पर। मारीअहि = मारे जाते है, मार खाते हैं। भरमहि = भटकते हैं, ठोकरें खाते हैं। अर्थ: मन के मुरीद मनुष्यों को और ही तरफ की ललक लग जाती है, उनको औरों ने भरमा लिया होता है, वे झूठ और ठॅगी कमाते हैं और झूठ ही (मुँह से) बोलते हैं; (उनके मन में) पुत्रों का मोह-प्यार (बसता है) (उनके मन में) स्त्री (बसती) है (और ये रास्ता) निरोल दुखों का (मूल) है; (ईश्वर द्वारा) भरम में डाले हुए (मनमुख) ठोकरें खाते हैं, (जैसे) जम के दरवाजे पर बँधे हुए मार खा रहे हैं। हे नानक! मन के मुरीद मनुष्य (अपनी) जिंदगी व्यर्थ गवा लेते हैं, प्रभू को ऐसे ही भाता है।3। सलोक महला २ ॥ जिन वडिआई तेरे नाम की ते रते मन माहि ॥ नानक अम्रितु एकु है दूजा अम्रितु नाहि ॥ नानक अम्रितु मनै माहि पाईऐ गुर परसादि ॥ तिन्ही पीता रंग सिउ जिन्ह कउ लिखिआ आदि ॥१॥ {पन्ना 1238} पद्अर्थ: ते = (बहुवचन) वे मनुष्य। रते = रंगे हुए। अंम्रितु = अमर करने वाला जल, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। गुर परसादि = गुरू की कृपा से। रंग सिउ = मौज से, स्वाद से। आदि = आरम्भ से, धुर से। अर्थ: (हे प्रभू!) जिन मनुष्यों को तेरे नाम की शोभा (करने का सौभाग्य) मिला है वे मनुष्य अपने मन में (तेरे नाम के रंग से) रंगे रहते हैं। हे नानक! (उनके लिए) एक नाम ही अमृत है और किसी चीज़ को वे अमृत नहीं मानते। हे नानक! (यह नाम) अमृत (हरेक मनुष्य के) मन में ही है, पर मिलता है गुरू की कृपा से; जिनके भाग्यों में धुर से लिखा हुआ है; उन्होंने ही स्वाद से पीया है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |