श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1239 महला २ ॥ कीता किआ सालाहीऐ करे सोइ सालाहि ॥ नानक एकी बाहरा दूजा दाता नाहि ॥ करता सो सालाहीऐ जिनि कीता आकारु ॥ दाता सो सालाहीऐ जि सभसै दे आधारु ॥ नानक आपि सदीव है पूरा जिसु भंडारु ॥ वडा करि सालाहीऐ अंतु न पारावारु ॥२॥ {पन्ना 1239} पद्अर्थ: कीता = पैदा किया हुआ जीव। करे = जो पैदा करता है। सोइ = उसी को। ऐकी बाहरा = एक प्रभू के बिना। जिनि = जिस (करतार) ने। आकारु = ये दिखाई देता जगत। जि = जो। सभसै = सबको। आधारु = आसरा। सदीव = सदा ही (कायम रहने वाला)। जिसु भंडारु = जिसका खजाना। पारावारु = परला और उरला छोर, (पार+अवार)। अर्थ: पैदा किए हुए जीव की वडिआई करने का क्या लाभ? उस (प्रभू) की सिफत-सालाह करो जो (सबको पैदा) करता है; (क्योंकि) हे नानक! उस एक प्रभू के बिना कोई और दाता नहीं है। जिस करतार ने यह सारा जगत बनाया है उसकी उपमा करो, उस एक दातार के गुण गाओ जो हरेक जीव को आसरा देता है। हे नानक! वह प्रभू स्वयं सदा ही कायम रहने वाला है, उसका खजाना भी सदा भरा रहता है। उसको बड़ा कहो, उसकी उपमा करो, उस (की महिमा वडिआई) का अंत नहीं पाया जा सकता, इस पार और उस पार का किनारा नहीं मिल सकता।2। पउड़ी ॥ हरि का नामु निधानु है सेविऐ सुखु पाई ॥ नामु निरंजनु उचरां पति सिउ घरि जांई ॥ गुरमुखि बाणी नामु है नामु रिदै वसाई ॥ मति पंखेरू वसि होइ सतिगुरू धिआईं ॥ नानक आपि दइआलु होइ नामे लिव लाई ॥४॥ {पन्ना 1239} पद्अर्थ: निधान = खजाना। सेविअै = अगर सेवें, अगर सिमरन करें। पति = इज्जत। पंखेरू = पंछी। नामे = नाम में ही। गुरमुखि बाणी नामु है = गुरमुखि की बाणी प्रभू का नाम है, गुरमुख नाम ही उचारता है। गुरमुखि = गुरू के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य। वसि = वश में। अर्थ: परमात्मा का नाम (सारे सुखों का) खजाना है, जो नाम सिमरें तो सुख मिलता है। मैं माया-रहित प्रभू का नाम सिमरूँ और इज्जत से (अपने) घर में जाऊँ - (गुरमुख की सदा यही तमन्ना होती है) गुरमुख सदा नाम ही उचारता है और नाम को हृदय में बसाता है। (ज्यों ज्यों) गुरू के द्वारा (गुरमुखि) नाम सिमरता है, पंछी (की तरह उड़ने वाली ये) मति (उसके) वश में आ जाती है। हे नानक! (गुरमुख पर) प्रभू स्वयं दयाल होता है और वह नाम में ही लिव लगाए रखता है।4। सलोक महला २ ॥ तिसु सिउ कैसा बोलणा जि आपे जाणै जाणु ॥ चीरी जा की ना फिरै साहिबु सो परवाणु ॥ चीरी जिस की चलणा मीर मलक सलार ॥ जो तिसु भावै नानका साई भली कार ॥ जिन्हा चीरी चलणा हथि तिन्हा किछु नाहि ॥ साहिब का फुरमाणु होइ उठी करलै पाहि ॥ जेहा चीरी लिखिआ तेहा हुकमु कमाहि ॥ घले आवहि नानका सदे उठी जाहि ॥१॥ {पन्ना 1239} पद्अर्थ: तिसु सिउ = उस (प्रभू) से। (नोट: शब्द 'जिसु' 'तिसु' की (ु) मात्रा कई संबंधकों के साथ बनी रहती है; जैसे कि संबंधक 'सिउ' के साथ; पर कई संबंधकों के साथ ये 'ु' की मात्रा हट जाती है, जैसे कि तीसरी तुक में 'जिस की')। जि = जो। जाणु = अंतरजामी। चीरी = चिट्ठी, परवाना, हुकम। ना फिरै = मोड़ी नहीं जा सकती। परवाणु = जाना माना। मीर = पातशाह। सलार = फौज के सरदार। कार = काम। हथि = हाथ में, वश में। करला = रास्ता, राह। करलै = रास्ते पर। पाहि = पड़ जाते हैं। अर्थ: जो अंतरजामी प्रभू स्वयं ही (हरेक के दिल की) जानता है उसके आगे बोलना फबता नहीं (भाव, उसके आगे बोला नहीं जा सकता), वह जाना-माना मालिक है क्योंकि उसका हुकम कोई मोड़ नहीं सकता। पातशाह मालिक और फौजों के सरदार सबको उसके हुकम में चलना पड़ता है, (इस वास्ते) हे नानक! वही काम अच्छा (मानना चाहिए) जो उस प्रभू को अच्छा लगता है। इन जीवों के वश में कुछ नहीं क्योंकि इन्होंने तो उसके हुकम में ही चलना है, (जिस वक्त) मालिक का हुकम होता है (ये जीव) उठ के रास्ते पर पड़ जाते हैं। जिस तरह का हुकम लिखा हुआ आता है, (जीव) उसी तरह हुकम की पालना करते हैं। हे नानक! (उस मालिक के) भेजे हुए (यहाँ जगत में) आ जाते हैं उसके बुलाए हुए (यहाँ से) उठ के चल पड़ते हैं।1। महला २ ॥ सिफति जिना कउ बखसीऐ सेई पोतेदार ॥ कुंजी जिन कउ दितीआ तिन्हा मिले भंडार ॥ जह भंडारी हू गुण निकलहि ते कीअहि परवाणु ॥ नदरि तिन्हा कउ नानका नामु जिन्हा नीसाणु ॥२॥ {पन्ना 1239} पद्अर्थ: बखसीअै = बख्शी जाती है, बख्शीश के तौर पर मिलती है। पोतेदार = खजानची। भंडार = खजाने। जह भंडारी हू = जिन (हृदय-रूप) भण्डारियों में से। निकलहि = प्रकट होते हैं। ते = वे (हृदय)। कीअहि = किए जाते हैं। परवाणु = कबूल। नदरि = मेहर की निगाह। नीसाणु = झण्डा। अर्थ: वही मनुष्य असल खजानों के मालिक हैं, जिनको प्रभू की सिफतसालाह (प्रभू के दर से) बख्शिश के तौर पर मिली है; जिनको प्रभू (नाम के खजाने की) कूँजी खुद देता है उनको (सिफतसालाह के) खजानों के खजाने मिल जाते हैं। (फिर इस सिफतसालाह की बरकति से) जिन (हृदय-रूप) खजानों में से (प्रभू के) गुण निकलते हैं वे (प्रभू के दर पर) कबूल किए जाते हैं। हे नानक! जिनके पास प्रभू का नाम (-रूप) झण्डा है, उन पर मेहर की निगाह होती है।2। पउड़ी ॥ नामु निरंजनु निरमला सुणिऐ सुखु होई ॥ सुणि सुणि मंनि वसाईऐ बूझै जनु कोई ॥ बहदिआ उठदिआ न विसरै साचा सचु सोई ॥ भगता कउ नाम अधारु है नामे सुखु होई ॥ नानक मनि तनि रवि रहिआ गुरमुखि हरि सोई ॥५॥ {पन्ना 1239} पद्अर्थ: निरंजनु = (निर+अंजन) माया रहित। निरमला = मल रहित, पवित्र। सुणिअै = अगर सुनें। मंनि = मनि, मन में। जनु कोई = कोई (विरला) मनुष्य। अधारु = आसरा। नामे = नाम में ही। गुरमुखि मनि तनि = गुरमुख के मन में तन में। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। रवि रहिआ = बसा रहता है। अर्थ: (प्रभू का) नाम माया (के प्रभाव से) रहत है और पवित्र है, अगर ये नाम सुनें (भाव, अगर इस नाम में सुरति जोड़ें) और जोड़-जोड़ के मन में बसा लें तो सुख (प्राप्त) होता है; (पर) कोई विरला मनुष्य (इस बात को) समझता है; (जो गुरमुख ये बात समझ लेता है उसको) वह सदा कायम रहने वाला सच्चा प्रभू उठते-बैठते कभी भी भूलता नहीं है; (गुरमुख) भगतों को (आत्मिक जीवन के लिए) नाम का आसरा हो जाता है, नाम में जुड़ने से ही उनको सुख (प्रतीत) होता है। हे नानक! गुरमुख के मन में और तन में वह प्रभू सदा बसा रहता है।5। सलोक महला १ ॥ नानक तुलीअहि तोल जे जीउ पिछै पाईऐ ॥ इकसु न पुजहि बोल जे पूरे पूरा करि मिलै ॥ वडा आखणु भारा तोलु ॥ होर हउली मती हउले बोल ॥ धरती पाणी परबत भारु ॥ किउ कंडै तोलै सुनिआरु ॥ तोला मासा रतक पाइ ॥ नानक पुछिआ देइ पुजाइ ॥ मूरख अंधिआ अंधी धातु ॥ कहि कहि कहणु कहाइनि आपु ॥१॥ {पन्ना 1239} पद्अर्थ: नानक = हे नानक! तुलीअहि = तोले जाते हैं, तुलते हैं। तोल तुलीअहि = तोल तोले जाते हैं, तोल में पूरे उतरते हैं। जीउ = जिंद, स्वै। पिछै = पिछले छाबे में, तकड़ी के दूसरे छाबे में। बोल = बचन, प्रभू की सिफतसालाह के बचन। इकसु बोल न पुजहि = सिफति सालाह के एक बचन से तोल पूरा नहीं हो सकता (पूजा नहीं जा सकता)। पूरे = पूर्ण प्रभू को। पूरा करि = तोल पूरा कर के। वडा आखणु = प्रभू को बड़ा कहना, प्रभू की सिफतसालाह करनी। भारा तोलु = वजनदार चीज। कंडै = काँटे पर। पाइ = रख के। देइ पुजाइ = पूरा कर दिखाता है, घर पूरा कर देता है। धातु = दौड़ भाग। अंधी धातु = अंधों वाली दौड़ भाग। कहाइनि = कहलाते हैं। आपु = अपने आप को। कहि कहि कहणु = कह कह के कहना, बार बार कहना। अर्थ: हे नानक! अगर तराजू के दूसरे छाबे में जिंद रख दें तो तोल पूरा हो जाता है (भाव, मनुष्य के जीवन की प्रवानगी का एक ही माप-दण्ड है कि स्वै-भाव प्रभू पर से वार दिया जाय); अगर मनुष्य (प्रभू की सिफतसालाह के द्वारा मनुष्य-जीवन की प्रवानगी वाले तोल से अपने आप को) बराबर करके (प्रभू को) मिल जाए तो सिफतसालाह के शबद के (और कोई उद्यम) बराबर (तुल्य और कुछ) नहीं हो सकता। प्रभू की सिफतसालाह वज़नदार चीज़ है (जिससे जिंद वाला छाबा प्रवानगी के तोल से बराबर का हो जाता है), (वरना, सिफतसालाह के बिना) और हर तरह की बुद्धि तुच्छ व अन्य (सभी प्रकार के) वचन हल्के हैं (बुद्धि व वचनों की मदद से जिंद वाला छाबा पूरा नहीं उतर सकता) (भला कोई) सोनियारा तोले-मासे-रक्तियाँ डाल के धरती-पानी और पर्वतों के भार को (छोटे से) तराजू में कैसे तोल सकता है? (यही हाल अन्य सभी मतों और बातों का समझें, जो, मानो, तोले मासे और रक्ती ही हैं); (पर) हे नानक! अगर (सोनियारे को) पूछें तो (वह बातों से) घर पूरा कर देता है। (अंधे मूर्ख लोग प्रभू की सिफतसालाह छोड़ के) अपने आप को बड़ा कहलवाते हैं, और बार-बार (अपने आप को अच्छा) कहना मूर्ख अंधों की अंधों वाली दौड़-भाग है (भाव, ठोकरें खा के चोटें ही लगवाते रहते हैं)।1। महला १ ॥ आखणि अउखा सुनणि अउखा आखि न जापी आखि ॥ इकि आखि आखहि सबदु भाखहि अरध उरध दिनु राति ॥ जे किहु होइ त किहु दिसै जापै रूपु न जाति ॥ सभि कारण करता करे घट अउघट घट थापि ॥ आखणि अउखा नानका आखि न जापै आखि ॥२॥ {पन्ना 1239} पद्अर्थ: आखणि अउखा सुनणि अउखा = (प्रभू का स्वरूप) किसी तरह से भी बयान करना मुश्किल है। आखि न जापी आखि = आखि आखि न जापी। न जापी = लगता नहीं, अनुभव नहीं होता, समझ में नहीं आता। आखि आखि = कह कह के, बार बार बयान करते हैं। भाखहि = उचारते हैं। अरध = नीचे। उरध = ऊपर। अरध उरध = ऊपर नीचे हो के, बड़ी मेहनत से। किहु = कुछ, कोई (पंच-तत्वी) स्वरूप। न जापै = नहीं दिखता। सभि = सारे। अउघट = मुश्किल। घट = जगह। थापि = बना के, थाप के। (नोट: पहली और पाँचवीं तुक का हू = ब = हू एक ही भाव है; 'आखि न जापी आखि', 'आखि न जापै आखि', 'जापी', 'जापै'; 'आखणि अउखा सुनणि अउखा', 'आखणि अउखा')। अर्थ: (परमात्मा का स्वरूप) किसी भी तरह से बयान करना मुश्किल है, बार-बार बयान करने से भी समझ में नहीं आता। कई लोग बड़ी मेहनत से दिन-रात (लग के) (प्रभू का स्वरूप) बार-बार बयान करते हैं (और स्वरूप बयान करने वाले) शब्द बोलते हैं; पर, अगर कोई (पाँच-तत्वी) स्वरूप ही हो, और दिखाई भी दे, उसका ना तो कोई रूप प्रतीत होता है ना ही कोई जाति दिखती है। हे नानक! मुश्किल-आसान जगहें (हरेक किस्म के बर्तन) स्वयं रच के प्रभू खुद ही (जगत के) सारे सबब बनाता है; उसका स्वरूप बयान करना मुश्किल है, बार-बार बयान करने से भी समझ में नहीं आता।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |