श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1240 पउड़ी ॥ नाइ सुणिऐ मनु रहसीऐ नामे सांति आई ॥ नाइ सुणिऐ मनु त्रिपतीऐ सभ दुख गवाई ॥ नाइ सुणिऐ नाउ ऊपजै नामे वडिआई ॥ नामे ही सभ जाति पति नामे गति पाई ॥ गुरमुखि नामु धिआईऐ नानक लिव लाई ॥६॥ {पन्ना 1240} पद्अर्थ: नाइ = (अधिकरण कारक, एकवचन)। नाइ सुणिअै = (पूर्व पूरन कारदंतक Locative Absolute) यदि नाम सुनें, अगर नाम से सुरति जोड़ें। रहसीअै = खिल उठता है। नामे = नाम में ही। (नोट: शब्द 'नाइ' और 'नाउ' का फर्क याद रखने योग्य है, शब्द 'नाउ' से शब्द 'नाय' अधिकरण कारक, एकवचन है)। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। अर्थ: यदि (प्रभू के) नाम में सुरति जोड़े रखें तो मन खिल उठता है, नाम में (जुड़ने से अंदर) शांति पैदा होती है। अगर नाम में ध्यान लग जाए तो मन (माया से) तृप्त हो जाता है और सारे दुख दूर हो जाते हैं; अगर प्रभू का नाम सुनते रहें तो (मन में) नाम (जपने का चाव) पैदा हो जाता है, नाम (सिमरन) में ही वडिआई (प्रतीत होती) है। गुरमुख मनुष्य नाम (सिमरन) में ही उच्च कुल वाली इज्जत समझता है, नाम सिमर के ही ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल करता है; हे नानक! गुरमुख (सदा) नाम सिमरता है और (नाम में ही) लिव लगाए रखता है।6। सलोक महला १ ॥ जूठि न रागीं जूठि न वेदीं ॥ जूठि न चंद सूरज की भेदी ॥ जूठि न अंनी जूठि न नाई ॥ जूठि न मीहु वर्हिऐ सभ थाई ॥ जूठि न धरती जूठि न पाणी ॥ जूठि न पउणै माहि समाणी ॥ नानक निगुरिआ गुणु नाही कोइ ॥ मुहि फेरिऐ मुहु जूठा होइ ॥१॥ {पन्ना 1240} पद्अर्थ: रागीं = राग (गाने) से। वेदीं = वेद (आदि धर्म पुस्तकें पढ़ने) से। भेदी = भेदों से। की भेदी = के भेदों से। चंद सूरज की भेदी = चँद्रमा और सूर्य के अलग अलग माने गए पवित्र दिनों (के समय अलग-अलग किस्म की पूजा) से। अंनी = अन्न (छोड़ देने) से, व्रत रखने से। नाई = (तीर्थों पर) नहाने से। वरि्अै = वर्हियै, बरसने से। धरती = धरती (का रटन करने) से, व गुफा आदि बनाने से। पाणी = पानी (में खड़े हो के तप करने) से। पउण = हवा, सांस। पउणै माहि समाणी = श्वासों में लीन होने से, प्राणायाम करने से, साँसों को रोकने के अभ्यास से। निगुरिआ = उन मनुष्यों में जो गुरू के बताए हुए रास्ते पर नहीं चलते। मुहि फेरिअै = अगर (गुरू की ओर से) मुँह फेर के रखें। जूठा = (निंदा आदि से) अपवित्र।1। अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य गुरू के बताए हुए राह पर नहीं चलते, (उनके अंदर आत्मिक जीवन ऊँचा करने वाला) कोई गुण नहीं (बढ़ता-फूलता)। अगर गुरू की ओर से मँुह मोड़ के रखें, तो मुँह (निंदा आदि करने की गंदी मैल से) अपवित्र हुआ रहता है। (हे भाई! रागों का गायन मनुष्य के अंदर कई तरह के हिल्लोरे पैदा करता है, पर मनुष्य के अंदर टिकी हुई निंदा की वादी की) यह मैल रागों (के गायन) से भी दूर नहीं होती, वेद (आदि धर्म-पुस्तकों के पाठ) से भी नहीं (धुलती)। (अमावस, संग्रांद, पूर्णमासी आदि) चँद्रमा और सूर्य के माने हुए अलग-अलग पवित्र दिन-त्यौहारों (के वक्त अलग-अलग किस्म की पूजा) से (मनुष्य के अंदर टिकी हुई निंदा आदि की) यह मैल साफ नहीं होती। हे भाई! अन्न (का त्याग करने) से (तीर्थों के) स्नान करने से भी यह मैल नहीं जाती। (इन्द्र देवते की पूजा से भी) यह अंदरूनी मैल दूर नहीं होती चाहे (ये माना जा रहा है कि उस देवते के द्वारा ही) सब जगह वर्षा होती है (और धरती व वनस्पति आदि की बाहरी मैल धुल जाती है)। (हे भाई! रमते साधू बन के) धरती रटन करने से, धरती में गॅुफा बना के बैठने से अथवा पानी (में खड़े हो के तप) करके भी ये मैल नहीं धुलती, और, हे भाई! प्राणायाम करने से (समाधियां लगाने से) भी (मनुष्य के अंदर टिकी हुई निंदा आदि करने की) यह मैल दूर नहीं होती।1। महला १ ॥ नानक चुलीआ सुचीआ जे भरि जाणै कोइ ॥ सुरते चुली गिआन की जोगी का जतु होइ ॥ ब्रहमण चुली संतोख की गिरही का सतु दानु ॥ राजे चुली निआव की पड़िआ सचु धिआनु ॥ पाणी चितु न धोपई मुखि पीतै तिख जाइ ॥ पाणी पिता जगत का फिरि पाणी सभु खाइ ॥२॥ {पन्ना 1240} पद्अर्थ: जे कोइ = यदि कोई मनुष्य। भरि जाणै = चुल्ला व चुल्ली भरना जानता हो, (जिसे) चुल्ली भरने का पता हो कि कैसे भरनी है। सुरता = विद्वान मनुष्य। गिआन = विचार। जतु = मन को कामना वासना से रोकना। गिरही = गृहस्ती। सतु = उच्च आचरण। दानु = सेवा। निआव = न्याय। पाणी = पानी से। धोपई = धुलता। मुखि = मुँह से। तिख = प्यास। जगत का पिता = सारी रचना का मूल कारण। सभु = सारे जगत को। खाइ = नाश करता है, पर्लय का कारण बनता है। अर्थ: हे नानक! (सिर्फ पानी से चुल्लियां करने से आत्मिक जीवन की सुच्चता नहीं आ सकती, पर) यदि कोई मनुष्य (सच्ची चुल्ली) भरनी जान ले तो (दरअसल सुच्ची) पवित्र चुल्लियां ये हैं- विद्वान के लिए चुल्ली विचार की है (भाव, विद्वान की विद्वता पवित्र है अगर उसके अंदर विचार भी है), जोगी का काम-वासना से बचे रहना जोगी के लिए पवित्र चुल्ली है, ब्राहमण के लिए चुल्ली संतोख है और गृहस्ती के लिए चुली है उच्च आचरण और सेवा। राजा के न्याय चुल्ली है। पानी से (चुल्ली करने से) मन नहीं धुल सकता, (हाँ) मुँह से पानी पीने से प्यास मिट जाती है; (पर पानी की चुल्ली से पवित्रता आने की जगह तो बल्कि सूतक का भ्रम पैदा होना चाहिए क्योंकि) पानी से सारा संसार पैदा होता है और पानी ही सारे जगत को नाश करता है।2। पउड़ी ॥ नाइ सुणिऐ सभ सिधि है रिधि पिछै आवै ॥ नाइ सुणिऐ नउ निधि मिलै मन चिंदिआ पावै ॥ नाइ सुणिऐ संतोखु होइ कवला चरन धिआवै ॥ नाइ सुणिऐ सहजु ऊपजै सहजे सुखु पावै ॥ गुरमती नाउ पाईऐ नानक गुण गावै ॥७॥ {पन्ना 1240} पद्अर्थ: सिधि रिधि = रिद्धि सिद्धि, करामाती ताकतें। नउ निधि = नौ खजाने (भाव, सारे जगत के पदार्थ)। मन चिंदिआ = मन का चितवा हुआ। कवला = माया। सहजु = अडोल अवस्था, आत्मिक अडोलता। अर्थ: प्रभू के नाम में सुरति जोड़े रखें तो सारी करामाती ताकतें पीछे लगी फिरती हैं (सहज ही प्राप्त हो जाती हैं); जगत के सारे पदार्थ हासिल हो जाते हैं, जो कुछ मन चितवता है मिल जाता है; (मन में) संतोख पैदा हो जाता है, माया भी सेवा करने लग जाती है, वह अवस्था पैदा हो जाती है जहाँ मन डोलता नहीं, और इस अडोल अवस्था में (पहुँच के) सुख प्राप्त हो जाता है। पर, हे नानक! गुरू की मति लेने पर ही नाम मिलता है, (और गुरू के राह पर चल के मनुष्य सदा प्रभू के) गुण गाता है।7। सलोक महला १ ॥ दुख विचि जमणु दुखि मरणु दुखि वरतणु संसारि ॥ दुखु दुखु अगै आखीऐ पड़्हि पड़्हि करहि पुकार ॥ दुख कीआ पंडा खुल्हीआ सुखु न निकलिओ कोइ ॥ दुख विचि जीउ जलाइआ दुखीआ चलिआ रोइ ॥ नानक सिफती रतिआ मनु तनु हरिआ होइ ॥ दुख कीआ अगी मारीअहि भी दुखु दारू होइ ॥१॥ {पन्ना 1240} पद्अर्थ: दुखि = दुख में। वरतणु = कार्य व्यवहार, बरतना। संसारि = संसार में। अगै = आगे आगे, सामने, ज्यों ज्यों दिन गुजरते हैं। पढ़ि = पढ़ के। करहि पुकार = पुकार करते हैं, विलकते हैं। हरिआ = हरा, शांति वाला। अगी = आग से। मारीअहि = मारते हैं। अर्थ: जीव का जनम दुख में और मौत भी दुख में होती है (भाव, जनम से मरने तक सारी उम्र जीव दुख में ही फसा रहता है) दुख में (ग्रसा हुआ ही) जगत में सारे काम-काज करता है। (विद्या) पढ़-पढ़ के भी (जीव) विलकते ही हैं, (जो कुछ) सामने (प्राप्त होता है उसको) दुख ही दुख कहा जा सकता है। (जीव के भाग्यों में) दुखों की (जैसे) गठड़ियाँ खुली हुई हैं, (इसके किसी भी उद्यम में से) कोई सुख नहीं निकलता; (सारी उम्र) दुखों में जिंद जलाता रहता है (आखिर,) दुखों का मारा हुआ रोता हुआ ही (यहां से) चल पड़ता है। हे नानक! अगर प्रभू की सिफत-सालाह में रंगे जाएं तो मन-तन हरे हो जाते हैं। जीव दुखों की तपश से (आत्मिक मौत) मरते हैं, पर फिर इसका इलाज भी दुख ही है। (सवेरे चारपाई पर सुख से सोया रहे तो यह दुख बन जाता है; पर अगर सवेरे उठ के बाहर जा के कसरत आदि करके कष्ट उठाए तो वह सुखदायी बनता है)। महला १ ॥ नानक दुनीआ भसु रंगु भसू हू भसु खेह ॥ भसो भसु कमावणी भी भसु भरीऐ देह ॥ जा जीउ विचहु कढीऐ भसू भरिआ जाइ ॥ अगै लेखै मंगिऐ होर दसूणी पाइ ॥२॥ {पन्ना 1240} पद्अर्थ: नानक = हे नानक! दुनीआ रंगु = दुनिया का आनंद। भसु = राख, स्वाह। भसू हू भसु = निरी राख ही राख। खेह = राख। देह = शरीर। भसू भरिआ = राख से लिबड़ा हुआ। जाइ = जाता है। अगै = परलोक में, मरने के बाद। लेखै मंगिअै = (पूरब पूरन कारदंतक, Locative Absolute) जब पिछले किए हुए कर्मों का लेखा माँगा जाता है। होर दसूणी = और दसगुनी (राख)। पाइ = पाय, लेता है। अर्थ: हे नानक! दुनिया का रंग-तमाशा राख (के समान) है, सिर्फ राख ही राख है, निरी स्वाह स्वाह है। (इन रंग-तमाशों में लग के जीव, जैसे) राख ही राख कमाता है, (जैसे-जैसे इस राख को इकट्ठा करता है त्यों-त्यों) इसका शरीर (विकारों की) राख से और ज्यादा लिबड़ता जाता है। (मरने पर) जब जिंद (शरीर) में से अलग की जाती है, तो यह जिंद (विकारों की) राख के साथ लिबड़ी हुई ही (यहाँ से) जाती है, और परलोक में जब किए कर्मों का लेखा होता है (तब) और दस गुना ज्यादा राख (भाव, शर्मिंदगी) इसको मिलती है।2। पउड़ी ॥ नाइ सुणिऐ सुचि संजमो जमु नेड़ि न आवै ॥ नाइ सुणिऐ घटि चानणा आन्हेरु गवावै ॥ नाइ सुणिऐ आपु बुझीऐ लाहा नाउ पावै ॥ नाइ सुणिऐ पाप कटीअहि निरमल सचु पावै ॥ नानक नाइ सुणिऐ मुख उजले नाउ गुरमुखि धिआवै ॥८॥ {पन्ना 1240} पद्अर्थ: सुचि = पवित्रता। संजमो = इंद्रियों को अच्छी तरह वश में लाना। घटि = हृदय में। आपु = आपने आप को। लाहा = लाभ। साचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभू। गुरमुखि = गुरू के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य। अर्थ: अगर नाम में सुरति जोड़ के रखें तो पवित्रता प्राप्त होती है, मन को वश में करने की समर्थता आ जाती है, जम (भी, भाव, मौत का डर) नजदीक नहीं फटकता, हृदय में (प्रभू की जोति का) प्रकाश हो जाता है (और आत्मिक जीवन की अज्ञानता का) अंधकार दूर हो जाता है, अपनी असलियत की समझ आ जाती है और प्रभू का नाम (जो मनुष्य जीवन का असल) लाभ (है) कमा लेते हैं, सारे पाप नाश हो जाते हैं, पवित्र सच्चा प्रभू मिल जाता है। हे नानक! अगर नाम में ध्यान जोड़ें तो माथे खिले रहते हैं। पर, ये नाम वही मनुष्य सिमर सकता है जो गुरू के बताए हुए राह पर चलता है।8। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |