श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः १ ॥ अखीं परणै जे फिरां देखां सभु आकारु ॥ पुछा गिआनी पंडितां पुछा बेद बीचार ॥ पुछा देवां माणसां जोध करहि अवतार ॥ सिध समाधी सभि सुणी जाइ देखां दरबारु ॥ अगै सचा सचि नाइ निरभउ भै विणु सारु ॥ होर कची मती कचु पिचु अंधिआ अंधु बीचारु ॥ नानक करमी बंदगी नदरि लंघाए पारि ॥२॥ {पन्ना 1242}

पद्अर्थ: अखीं परणै = आँखों के भार। सभु आकारु = सारा जगत। माणसां = मनुष्यों को। करहि अवतार = पैदा होते हैं, बनते हें। जोध = योद्धे, सूरमे। सुणी = मैं सुनूं। दरबारु = प्रभू की हजूरी। सचि नाइ = सच्चे नाम से, नाम सिमरन से। भै विणु = डर रहित। सारु = जगत का मूल। कचु पिचु = कच्चा पिल्ला। अंधु बीचारु = अंधों वाला अंदाजा, अंधों की तरह टटोलना। करमी = प्रभू की मेहर से। नदरि = मेहर की नजर से।

अर्थ: अगर मैं आँखों के भार हो के फिरूँ और सारा जगत (घूम के) देख लूँ, और मैं ज्ञानवान पंडितों से वेदों के गहरे भेद पूछ लूँ; और देवताओं को जा के पूछूँ, उन लोगों को जा के पूछूँ जो बड़े-बड़े योद्धा बनते हैं; अगर समाधि लगाने वाले सिद्ध-हस्त योगियों की सारी मतें जा के सुनूँ कि प्रभू का दरबार मैं कैसे जा के देखूँ - (इन सभी उद्यमों के) समक्ष (एक ही सुमति है कि) सदा कायम रहने वाला प्रभू, जो निर्भय है जिसको किसी का डर नहीं और जो सारे जगत का मूल है, सिमरन के द्वारा ही मिलता है; (सिमरन के बिना) और सारी मतें कच्ची हैं, अन्य सारे उद्यम कच्चे-पिल्ले हैं (सिमरन से टूटे हुए) अंधों की अंधी-टटोलबाजी ही है।

हे नानक! ये सिमरन प्रभू की मेहर से मिलता है, प्रभू अपनी मेहर की नजर से ही पार लंघाता है।2।

पउड़ी ॥ नाइ मंनिऐ दुरमति गई मति परगटी आइआ ॥ नाउ मंनिऐ हउमै गई सभि रोग गवाइआ ॥ नाइ मंनिऐ नामु ऊपजै सहजे सुखु पाइआ ॥ नाइ मंनिऐ सांति ऊपजै हरि मंनि वसाइआ ॥ नानक नामु रतंनु है गुरमुखि हरि धिआइआ ॥११॥ {पन्ना 1242}

पद्अर्थ: दुरमति = बुरी मति। परगटी आइआ = प्रगट हो जाती है। नाइ मंनिअै =, नाउ उपजै = (देखें पउड़ी नं: 6 की तीसरी तुक) अगर नाम में मन पतीज जाए तो (मन में) नाम (जपने की तमन्ना) पैदा हुई रहती है। मंनि = मन में। रतंनु = कीमती मोती। गुरमुखि = वह मनुष्य जो गुरू के सन्मुख है।

अर्थ: अगर मन नाम सिमरन में पतीज जाए तो दुमर्ति दूर हो जाती है और (अच्छी) मति चमक उठती है, अहंकार दूर हो जाता है, सारे ही (मन के) रोग नाश हो जाते हैं, अगर नाम में मन पतीज जाए तो (मन में) नाम (जपने का चाव) पैदा हो जाता है और अडोल अवस्था में पहुँच के सुख प्राप्त होता है, मन में ठंड बरत जाती है, प्रभू मन में आ बसता है। हे नानक! (प्रभू का) नाम (जैसे) एक कीमती मोती है, पर हरी-नाम सिमरता वह मनुष्य है जो गुरू के सन्मुख होता है।11।

सलोक मः १ ॥ होरु सरीकु होवै कोई तेरा तिसु अगै तुधु आखां ॥ तुधु अगै तुधै सालाही मै अंधे नाउ सुजाखा ॥ जेता आखणु साही सबदी भाखिआ भाइ सुभाई ॥ नानक बहुता एहो आखणु सभ तेरी वडिआई ॥१॥ {पन्ना 1242}

पद्अर्थ: मै = मुझे। सुजाखा = आँखें देने वाला। जेता आखणु = जितना कुछ (बयान किया) है। साही = श्याही, सियाही से (लिख के)। सबदि = शबद से (बोल के)। भाखिआ = मैंने कहा है। भाइ सुभाइ = प्यार भरे स्वभाव से, प्यार की खींच में। बहुता ऐहो आखणु = सिरे की बात यही है।

(नोट: कई सज्जन शब्द 'साही' को दो शब्दों में बाँट के 'सा+ही' पाठ करते हैं और शब्द 'सा' को 'आखणु' का सर्वनाम समझते हैं, और अर्थ इस तरह करते हैं- जो कहना होता है वह सारा ही.....। पर व्याकरण के मुताबिक 'आखणु' पुलिंग है और 'सा' स्त्रीलिंग है, जैसे,

'सोई चंदु चढ़हि से तारै सोई दिनीअरु तपत रहै॥

सा धरती सो पवनु झुलारै.........॥'......;रामकली महला १

पुलिंग के लिए 'सो' अथवा 'सोई', स्त्रीलिंग के लिए 'सा' अथवा 'साई': 'साई भली कार')।

अर्थ: हे प्रभू! अगर कोई और तेरे बराबर का हो तो ही मैं उसके सामने तेरा जिकर करूँ (पर तेरे जैसा और कोई है ही नही, सो) तेरी सिफत-सालाह मैं तेरे आगे ही कर सकता हूँ (तेरे जैसा मैं तुझे ही कह सकता हूँ, और ज्यों-ज्यों मैं तेरी सिफत करता हूँ) तेरा नाम मुझ (आत्मिक जीवन से) अंधे की आँखों के लिए रौशनी देता है। लिख के अथवा बोल के जो कुछ मैंने तेरी सिफत में कहा है, वह सब तेरे प्यार के आकर्षण में ही कहा है, वरना सबसे बड़ी बात कहनी नानक को यही फबती है कि (जो कुछ है) सब तेरी ही वडिआई है।1।

मः १ ॥ जां न सिआ किआ चाकरी जां जमे किआ कार ॥ सभि कारण करता करे देखै वारो वार ॥ जे चुपै जे मंगिऐ दाति करे दातारु ॥ इकु दाता सभि मंगते फिरि देखहि आकारु ॥ नानक एवै जाणीऐ जीवै देवणहारु ॥२॥ {पन्ना 1242}

पद्अर्थ: जां = जब। न सिआ = नहीं था, अस्तित्व में नहीं आया था। चाकरी = नौकरी, कमाई। किआ = कौन सी? कार = किरत। सभि = सारे। वारो वार = बार बार, सदा। देखै = संभाल करता है। जे चुपै = अगर चुप कर रहें। जे मंगीअै = अगर कुछ मांगें। फिरि = फिर के, घूम के। आकारु = जगत। ऐवै = इस तरह। जाणीअै = समझ पड़ती है।

अर्थ: जब जीव अस्तित्व में नहीं आया था तब ये कौन सी कमाई कर सकता था, और जब पैदा हुआ तब भी कौन सी किरत की? (भाव, जीव के कुछ वश नहीं), जिसने पैदा किया है वह स्वयं ही सारे सबब बनाता है और सदा जीवों की संभाल करता है, चाहे चुप कर रहें चाहे माँगें, दाता देने वाला करतार खुद ही दातें देता है।

जब जीव सारा जगत फिर के (ये बात) देख लेते हैं (तो कहते हैं कि) एक परमात्मा दाता है और सारे जीव उसके मँगते हैं। हे नानक! इस तरह समझ आ जाती है कि दातें देने वाला प्रभू (सदा ही) जीवित रहता है।2।

पउड़ी ॥ नाइ मंनिऐ सुरति ऊपजै नामे मति होई ॥ नाइ मंनिऐ गुण उचरै नामे सुखि सोई ॥ नाइ मंनिऐ भ्रमु कटीऐ फिरि दुखु न होई ॥ नाइ मंनिऐ सालाहीऐ पापां मति धोई ॥ नानक पूरे गुर ते नाउ मंनीऐ जिन देवै सोई ॥१२॥ {पन्ना 1242}

पद्अर्थ: सुरति = जाग, चेता, समझ, लिव। सुखि = सुख में। सोई = सोता है, टिकता है। भ्रम = भटकना (देखें पौड़ी नं: 2 की तीसरी तुक)। धोई = धुल जाती है। नाउ मंनीअै = (देखें पउड़ी नं: 9 की पाँचवीं तुक) नाम (का सिमरन, जीवन का सही रास्ता) माना जा सकता है।

अर्थ: अगर मन नाम में पतीज जाए तो (अंदर नाम की) लिव पैदा हुई रहती है और नाम में ही मति (पवित्र होती) है, मनुष्य प्रभू के गुण कहने लग जाता है और नाम में सुख-आनंद से टिकता है, भटकना काटी जाती है, और फिर कोई दुख नहीं व्यापता; प्रभू की सिफतसालाह करने लग जाता है और पापों वाली मति धुल जाती है।

हे नानक! पूरे सतिगुरू से यह निश्चय आता है कि नाम (-सिमरन जीवन का सही रास्ता) है (ये दाति उनको मिलती है) जिनको वह प्रभू खुद देता है।12।

सलोक मः १ ॥ सासत्र बेद पुराण पड़्हंता ॥ पूकारंता अजाणंता ॥ जां बूझै तां सूझै सोई ॥ नानकु आखै कूक न होई ॥१॥ {पन्ना 1242}

पद्अर्थ: पूकारंता = पुकारता है, औरों को ऊँचा बोल बोल के सुनाता है। अजाणंता = अ+जाणंता, नहीं जानता, खुद कुछ नहीं समझता। जा = जब। सोई = वह प्रभू ही। सूझै = दिखे। कूक = ऊँचा ऊँचा बोलना। न होई = नहीं होता, खत्म हो जाता है।

अर्थ: (जब तक मनुष्य) शास्त्रों वेद पुराण (आदि धर्म-पुस्तकों को निरा) पढ़ता रहता है (तब तक) ऊँचा-ऊँचा बोलता है (औरों को सुनाता है) पर खुद समझता कुछ नहीं, (पर) जब (धर्म-पुस्तकों के उपदेश का) भेद पा लेता है तब (इसे हर जगह) प्रभू ही दिखाई देता है, और, नानक कहता है इसकी (प्रर्दशन वाली ऊँचा-ऊँचा बोल के सुनाने वाली ढोंगी) आवाज बंद हो जाती हैं।

मः १ ॥ जां हउ तेरा तां सभु किछु मेरा हउ नाही तू होवहि ॥ आपे सकता आपे सुरता सकती जगतु परोवहि ॥ आपे भेजे आपे सदे रचना रचि रचि वेखै ॥ नानक सचा सची नांई सचु पवै धुरि लेखै ॥२॥ {पन्ना 1242}

पद्अर्थ: हउ = मैं। सकता = जोर वाला। सुरता = सुरति वाला। सकती = अपनी सक्ता (के धागे) में। वेखै = संभाल करता है, देखभाल करता है। नांई = वडिआई (अरबी 'स्ना' का पंजाबी रूप 'नाई' और 'असनाई' हैं, देखें 'गुरबाणी व्याकरण')। लेखै पवै = प्रवान होता है।

अर्थ: जब मैं तेरा बन जाता हूँ तब जगत में सब कुछ मुझे अपना प्रतीत होता है (क्योंकि उस वक्त) मेरा अपनत्व नहीं होता, मुझे तू ही दिखाई देता है, तू खुद ही जोर का मालिक, तू खुद ही सुरति का मालिक मुझे लगता है, तू खुद ही जगत को अपनी सक्ता (के धागे) में परोने वाला प्रतीत होता है।

हे नानक! प्रभू स्वयं ही (जीवों को यहाँ) भेजता है, स्वयं ही (यहाँ से वापस) बुला लेता है, सृष्टि पैदा करके आप ही संभाल कर रहा है, वह सदा-स्थिर रहने वाला है, उसकी वडिआई सदा कायम रहने वाली है, उसके नाम का सिमरन ही उसकी हजूरी में कबूल होता है।2।

पउड़ी ॥ नामु निरंजन अलखु है किउ लखिआ जाई ॥ नामु निरंजन नालि है किउ पाईऐ भाई ॥ नामु निरंजन वरतदा रविआ सभ ठांई ॥ गुर पूरे ते पाईऐ हिरदै देइ दिखाई ॥ नानक नदरी करमु होइ गुर मिलीऐ भाई ॥१३॥ {पन्ना 1242}

पद्अर्थ: अलखु = (अ+लख) जिसका कोई खास चिन्ह ना दिखे, अदृश्य। लख = (संस्कृत लख्य, to see, to indicate, characterise) बयान करना। रविआ = व्यापक है। देइ दिखाई = दिखा देता है। नदरी = (प्रभू की कृपा भरी) निगाह से। करमु = मेहर, बख्शिश। गुर मिलीअै = अगर गुरू को मिलें।

अर्थ: माया-रहित प्रभू का नाम (ऐसा है जिस) का कोई खास चिन्ह नहीं दिखता, (तो फिर) उसको बयान कैसे किया जाए?

हे भाई! निरंजन का नाम सब जगह व्यापक है और मौजूद है, (हमारे) साथ (भी) है, पर वह मिले कैसे?

(यह नाम) पूरे सतिगुरू से मिलता है, (पूरा गुरू प्रभू का नाम हमारे) हृदय में दिखा देता है।

हे नानक! (कह-) हे भाई! जब (प्रभू की मेहर भरी) निगाह से मेहर हो तो गुरू मिलता है।13।

सलोक मः १ ॥ कलि होई कुते मुही खाजु होआ मुरदारु ॥ कूड़ु बोलि बोलि भउकणा चूका धरमु बीचारु ॥ जिन जीवंदिआ पति नही मुइआ मंदी सोइ ॥ लिखिआ होवै नानका करता करे सु होइ ॥१॥ {पन्ना 1242}

पद्अर्थ: कलि = कलियुगी सृष्टि, वह दुनिया जो ईश्वर से विछुड़ी हुई है (गुरू आशय के अनुसार वह समय 'कलियुग' है जब गुरू परमात्मा बिसर जाए, जैसे: 'इक घड़ी न मिलते ता कलिजुगु होता')। कुते मुही = कुत्ते के मुँह वाली, कुत्ते की तरह जिसे खाने का हलक लगा हो। मुरदारु = हराम, रिश्वत आदि हराम चीज। कूड़ ु = झूठ। चूका = खत्म हो गया। पति = इज्जत। सोइ = शोभा। मंदी सोइ = बदनामी। लिखिआ होवै = माथे के लिखे लेख ही उघड़ते हैं। खाजु = मन भाता खाना।

अर्थ: ईश्वर से विछुड़ी हुई दुनिया को कुत्ते की तरह खाने का हलक लगा रहता है और रिश्वत आदि हराम चीज़ इसका मन-पसंद खाना हो जाता है (जेसे कुत्ते का मन-पसंद खाना मुरदार है), (ये दुनिया) सदा झूठ बोलती है, (जैसे, मुरदार खाने वाले कुत्ते की तरह) भौंक रही है, (इस तरह इसके अंदर से) धर्म (की अंश) और (ईश्वरीय गुणों की) विचार समाप्त हो जाती है, जब तक ऐसे लोग (जगत में) जीते हैं इनकी (कोई व्यक्ति) इज्जत नहीं (करता), जब मर जाते हैं, (लोग इनको) बुरों के रूप में ही याद करते हैं।

(पर) हे नानक! (इनके भी क्या वश? पिछले किए कर्मों के अनुसार) माथे पर लिखा लेख ही उघड़ता है (और उस लेख के अनुसार) जो कुछ करतार करता है वही होता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh