श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः १ ॥ रंना होईआ बोधीआ पुरस होए सईआद ॥ सीलु संजमु सुच भंनी खाणा खाजु अहाजु ॥ सरमु गइआ घरि आपणै पति उठि चली नालि ॥ नानक सचा एकु है अउरु न सचा भालि ॥२॥ {पन्ना 1243}

पद्अर्थ: रंना = सि्त्रयां। बोधीआ = सलाहकार। पुरस = पुरुष। सईआद = शिकारी, जालिम। सीलु = मीठा स्वभाव। संजमु = जुगति में रहना। सचु = हृदय की पवित्रता, दिल की सफाई। भंनी = दूर हो रही है। खाजु = मन पसन्द खाना। अहाजु = ना हजम होने वाला, हराम। सरमु = शर्म। घरि आपणे = कहीं अपने घर में, कहीं अपने वतन को। पति = इज्जत, अणख। सचा = सदा कायम रहने वाला।

अर्थ: (ईश्वर से विछुड़ के) मनुष्य जालिम हो रहे हैं और सि्त्रयाँ इस जुल्म की सलाहकार बन रही हैं, मीठा स्वभाव, जगत में रहना, दिल की सफाई - ये सब बातें दूर हो गई हैं और रिश्वत आदि हराम माल इन लोगों का मन-पसनंद खाना हो गया है, शर्म-हया अपने वतन से कहीं (दूर) चली गई है (भाव, इन मनुष्यों से कहीं दूर हो गई है) अणख भी शर्म-हया के साथ ही चली गई है।

हे नानक! (अगर 'सील संजम सुच' आदि गुण ढूँढने हैं, तो उनका श्रोत) सिर्फ सदा कायम रहने वाला परमात्मा ही है, (इन गुणों के लिए) कोई और जगह ना तलाशो (भाव, प्रभू के बिना किसी अन्य जगह ये गुण नहीं मिल सकते)।2।

पउड़ी ॥ बाहरि भसम लेपन करे अंतरि गुबारी ॥ खिंथा झोली बहु भेख करे दुरमति अहंकारी ॥ साहिब सबदु न ऊचरै माइआ मोह पसारी ॥ अंतरि लालचु भरमु है भरमै गावारी ॥ नानक नामु न चेतई जूऐ बाजी हारी ॥१४॥ {पन्ना 1243}

पद्अर्थ: बाहरि = (भाव,) शरीर पर। भसम = राख। अंतरि = मन में। गुबारी = अंधेरा। खिंथा = गोदड़ी, खफ़नी। साहिब सबदु = प्रभू की सिफतसालाह की बाणी। पसारी = खिलारा। भरमु = भटकना। भरमै = भटकता है, ठोकरें खाता है। गावारी = मूर्ख।

अर्थ: जो मनुष्य शरीर पर (तो) राख मल लेता है (पर उसके) मन में (माया के मोह का) अंधेरा है, (बाहर) गोदड़ी और झोली (आदि) के कई भेष करता है और दुर्मति के कारण (इस भेष का) अहंकार करता है, प्रभू की सिफत-सालाह की बाणी नहीं उचारता, (सिर्फ) माया के मोह का पसारा ही (बनाए बैठा) है, उसके मन में लालच है भटकना है, मूर्ख ठोकरें खाता फिरता है, प्रभू का नाम नहीं सिमरता, हे नानक! (ऐसा मनुष्य, जैसे) जूए में (मनुष्य-जन्म की) बाज़ी हार जाता है।14।

सलोक मः १ ॥ लख सिउ प्रीति होवै लख जीवणु किआ खुसीआ किआ चाउ ॥ विछुड़िआ विसु होइ विछोड़ा एक घड़ी महि जाइ ॥ जे सउ वर्हिआ मिठा खाजै भी फिरि कउड़ा खाइ ॥ मिठा खाधा चिति न आवै कउड़तणु धाइ जाइ ॥ मिठा कउड़ा दोवै रोग ॥ नानक अंति विगुते भोग ॥ झखि झखि झखणा झगड़ा झाख ॥ झखि झखि जाहि झखहि तिन्ह पासि ॥१॥ {पन्ना 1243}

पद्अर्थ: लख जीवणु = लाखों वर्षों की जिंदगी। किआ खुसीआ = चाहे कितनी ही खुशियां हों। विछुड़िआ = शरीर और प्राणों के विछुड़ने के वक्त। विसु = विष, जहर (भाव, बहुत ही दुखद)। जाइ = (जीव) चल पड़ता है। खाजै = खाएं। कउड़ा = (मौत के विछोड़े का) कड़वा (घूँट)। चिति न आवै = याद नहीं रहता, बिसर जाता है। धाइ धाइ = गहरा असर डालता है। कउड़तणु = (भाव) विछोड़ा। मिठा कउड़ा = भोगों का मिलना और विछुड़ना। रोग = दुखदाई। भोग = भोगों के कारण। विगुते = ख्वार होते हैं। झखि झखि झखणा = बार बार झखें मारनी, बार बार विषौ भोगने। झगड़ा = रेड़का, ये लंबा चक्कर। झगड़ा झाख = झखें मारने का ये लंबा चक्र, विषौ भोगने ये लंबा चस्का। झखि झखि जाहि = झखें मार मार के (विषौ भोग = भोग के) यहाँ जगत से जाते हैं। तिन पासि = उन विषई पदार्थों के पास ही। झखहि = टक्करें मारते हें, भटकते हैं, वासना से बँधे रहते हैं।

अर्थ: लाखों लोगों से प्यार हो, लाखों सालों की जिंदगी हो, चाहे कितनी ही खुशियां और कितने ही चाव हों, पर मरने के वक्त बंदा एक घड़ी में ही उठ के चल पड़ता है और इनसे जुदाई बहुत दुखदाई होती है।

अगर सैकड़ों वर्ष भी स्वादिष्ट भोग भोगते रहें तो भी इनसे विछुड़ने का कड़वा घूँट भरना ही पड़ता है। भोगे हुए भोग तो भूल जाते हैं, पर इनसे विछुड़ने की चोट गहरा असर कर जाती है।

हे नानक! इन भोगों का मिलना और छिन जाना दोनों बातें ही दुखदाई हैं क्योंकि भोगों के कारण आखिर लोग दुखी ही होते हैं। नित्य-नित्य विषौ भोगने से विषौ भोगने का एक लंबा चस्का बन जाता है, विषौ भोग-भोग के जीव यहाँ जगत से चले जाते हैं, (और, वासना बंधे हुए) उन विषियों के ईर्द-गिर्द ही चक्कर मारते रहते हैं।1।

मः १ ॥ कापड़ु काठु रंगाइआ रांगि ॥ घर गच कीते बागे बाग ॥ साद सहज करि मनु खेलाइआ ॥ तै सह पासहु कहणु कहाइआ ॥ मिठा करि कै कउड़ा खाइआ ॥ तिनि कउड़ै तनि रोगु जमाइआ ॥ जे फिरि मिठा पेड़ै पाइ ॥ तउ कउड़तणु चूकसि माइ ॥ नानक गुरमुखि पावै सोइ ॥ जिस नो प्रापति लिखिआ होइ ॥२॥ {पन्ना 1243}

पद्अर्थ: कापड़ ु काठु = कपड़े और लकड़ी का सामान (पर्दे और कुर्सियां आदि)। रांगि = रंग से। गच = चूने से। बागे बाग = बग्गे ही बग्गे, सफेद ही सफेद। साद = स्वाद। सहज = सुख। साद करि = स्वादों से। खेलाइआ = खिलाया, परचाया। पासहु = पास से। कहणु = उलामा। कउड़ा = वे विषौ भोग जो आखिर में दुखदाई साबित होते हैं। तिनि = उस ने। तिनि कउड़ै = उस विषौ भोग के दुखद चस्के। तनि = शरीर में। मिठा = प्रभू का नाम रूप स्वादिष्ट पदार्थ। पेड़ै पाइ = पल्ले पड़े, मिल जाए। कउड़तणु = विषौ भोगों से पैदा हुआ दुख। माइ = हे माँ! सोइ = वह।

अर्थ: (मनुष्य ने) कपड़े और लकड़ी का सामान रंग से रंग लिया, घरों को चूने-गॅच से सफेद ही सफेद बना लिया, (ऐसे) स्वादों और सुखों से मन को बहलाता रहा, (पर इन कामों के कारण) हे प्रभू! तेरे से उलाहमा लिया (कि मनुष्य जन्म का मनोरथ ना कमाया), विषौ-विकार जो आखिर दुखदाई होते हैं स्वादिष्ट जान के भोगता रहा, उसी विषौ-भोग ने शरीर में रोग पैदा कर दिए।

हे माँ! अगर प्रभू का नाम-रूपी स्वादिष्ट भोजन दोबारा मिल जाए, तो विषौ-भोगों से पैदा होया हुआ दुख दूर हो जाता है; पर, हे नानक! यह 'मीठा' नाम उसी गुरमुखि को मिलता है जिसके भाग्यों में इसकी प्राप्ति लिखी हो।2।

पउड़ी ॥ जिन कै हिरदै मैलु कपटु है बाहरु धोवाइआ ॥ कूड़ु कपटु कमावदे कूड़ु परगटी आइआ ॥ अंदरि होइ सु निकलै नह छपै छपाइआ ॥ कूड़ै लालचि लगिआ फिरि जूनी पाइआ ॥ नानक जो बीजै सो खावणा करतै लिखि पाइआ ॥१५॥ {पन्ना 1243}

पद्अर्थ: बाहरु = बाहरी क्षेत्र (शरीर)। लालचि = लालच में। करतै = करतार ने। लिखि = लिख के। पाइआ = (भाग्यों में) दे दिया है।

अर्थ: जिन मनुष्यों के हृदय साफ नहीं, धोखा है, पर शरीर को बाहर से धो-धो के रखते हैं, वे (अपने हरेक कार्य-व्यवहार में) झूठ और धोखा ही बरतते हैं, पर झूठ उघड़ आता है, (क्योंकि) मन के अंदर जो कुछ होता है वह जाहिर हो जाता है, छुपाया छुप नहीं सकता।

झूठ लालच में लगने से (नतीजा यह निकलता है कि मनुष्य) बार-बार जूनियों में जा पड़ता है।

हे नानक! जो कुछ (मनुष्य अपने कर्मों का) बीज बीजता है वही (फल) खाता है, करतार ने (यह रज़ा जीवों के माथे पर) लिख के रख दी है।15।

सलोक मः २ ॥ कथा कहाणी बेदीं आणी पापु पुंनु बीचारु ॥ दे दे लैणा लै लै देणा नरकि सुरगि अवतार ॥ उतम मधिम जातीं जिनसी भरमि भवै संसारु ॥ अम्रित बाणी ततु वखाणी गिआन धिआन विचि आई ॥ गुरमुखि आखी गुरमुखि जाती सुरतीं करमि धिआई ॥ हुकमु साजि हुकमै विचि रखै हुकमै अंदरि वेखै ॥ नानक अगहु हउमै तुटै तां को लिखीऐ लेखै ॥१॥ {पन्ना 1243}

नोट: इस श्लोक में वेदों के ज्ञान और गुरू नानक देव जी की शिक्षा में अंतर स्पष्ट कर दिया गया है।

पद्अर्थ: बेदीं = वेदों ने। आणी = ले के आए। कथा कहाणी = (भाव,) शिक्षा। पापु पुंन बीचारु = ये विचार कि पाप क्या है और पुन्य क्या है। दे दे लैणा = खुद हाथ से दे के ही लेना है, अपना दिया ही आगे लिया जाता है। लै लै देणा = जो किसी से लेते हैं वह मोड़ना पड़ेगा। नरकि = नर्क में। अवतार = पैदा होना, जगह मिलनी। मधिम = मध्यम, नीची, निम्न। जातीं जिनसी भरमि = जातियों के और जिनसों के भ्रम में। ततु = अस्लियत, जगत का मूल परमात्मा। वखाणी = बयान करने वाली। गिआन धिआन विचि = तॅत के ज्ञान और तॅत के ध्यान के संबंध में, प्रभू के गुणों की विचार करने से प्रभू में सुरति जोड़ने से। आई = प्रकट हुई, उचारी गई। गुरमुखि आखी = गुरू ने उचारी। जाती = समझी। सुरतीं = सुरतियों ने, जिन्होंने इसमें सुरति जोड़ी। करमि = प्रभू की मेहर से। वेखै = संभाल करता है। अगहु = पहले। को = कोई, जीव। लिखीअै लेखै = लेखे में लिखा जाता है, प्रवान होता है।

अर्थ: (जो) शिक्षा वेद ले के आए ( भाव, वेदों ने दी) (उस में यह) विचार है कि पाप क्या है और पुंन्य क्या है, (उसने यह बताया है कि हाथों से) दे के ही (दोबारा वापस) लिया जाता है और जो कुछ किसी से लेते हैं वह (अगले जनम में) मोड़ना पड़ता है, (अपने किए कर्मों के अनुसार) दुनिया ऊँची-नीच जातियों और किस्मों के वहिमों में दुखी होती है।

(पर, जो) बाणी गुरू ने उचारी है, (जिसके गहरे भेद को) गुरू ने समझा है और (जिसको) सुरतियों ने जपा है वह बाणी नाम-अमृत से भरी हुई है, और प्रभू के गुण बयान करती है, यह बाणी प्रभू के गुणों की विचार करने और प्रभू में सुरति जोड़ने से प्रकट हुई है। (ये बाणी बताती है कि) परमात्मा ने अपना हुकम (-रूप सक्ता) रच के (सब जीवों को) अपने हुकम में ही रखा है और हुकम में ही संभाल करता है। हे नानक! (इस बाणी की बरकति से) पहले (जीव का) अहंकार दूर होता है तब जीव प्रभू की हजूरी में प्रवान होता है।1।

मः १ ॥ बेदु पुकारे पुंनु पापु सुरग नरक का बीउ ॥ जो बीजै सो उगवै खांदा जाणै जीउ ॥ गिआनु सलाहे वडा करि सचो सचा नाउ ॥ सचु बीजै सचु उगवै दरगह पाईऐ थाउ ॥ बेदु वपारी गिआनु रासि करमी पलै होइ ॥ नानक रासी बाहरा लदि न चलिआ कोइ ॥२॥ {पन्ना 1243}

पद्अर्थ: बेदु पुकारे = वेद पुकार के कहता है (भाव, वेदों की शिक्षा यह है कि)। बीउ = बीज, मूल, कारण। जो = जो कुछ। खांदा जीउ = (बीजे हुए फल) खाने वाला जीव। जाणै = जान लेता है। गिआनु = गुरू का (दिया हुआ) ज्ञान, उच्च विचार। सलाहे = प्रभू की सिफत सालाह करता है। वडा करि = (प्रभू को) बड़ा कह कह के। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। पाईअै थाउ = जगह मिलती है, प्रवान हो जाता है। वपारी = व्यापार की बातें करने वाला। रासि = (असल) पूँजी। करमी = प्रभू की मेहर से। बाहरा = बाहर का, वंचित। लदि = लाद के, नफा कमा के।

नोट: पिछले शलोक की तरह इसमें भी वेदों में बताए हुए कर्म-काण्ड और गुरू (नानक देव जी) द्वारा दिए गए ज्ञान का आपस में अंतर स्पष्ट किया गया है।

अर्थ: वेदों की शिक्षा ये है कि (जीव का किया हुआ) पुन्य कर्म (उसके वास्ते) स्वर्ग (मिलने) का कारण (बनता) है और पाप (जीव के लिए) नर्क (में पड़ने) का कारण हो जाता है; (अपने किए हुए पुन्य और पाप का फल) खाने वाला (हरेक) जीव (खुद ही) जान लेता है कि जो कुछ कोई बीजता है वही उगता है। (इस तरह, इस कर्म-काण्ड की शिक्षा में प्रभू की सिफत-सालाह और प्रभू की मेहर को कोई जगह नहीं दी गई है)।

(पर गुरू का बख्शा हुआ) ज्ञान परमात्मा को महान कह के (उसकी) सिफतसालाह करता है (और बताता है कि) प्रभू का नाम सदा कायम रहने वाला है, जो मनुष्य प्रभू का नाम (हृदय में) बीजता है उसके अंदर नाम ही प्रफुल्लित होता है और उसको प्रभू की हजूरी में आदर मिलता है।

(सो, पाप और पुन्य के फल बता के) वेद तो व्यापार की बातें करता है; (पर, मनुष्य के लिए असल) राशि-पूँजी (प्रभू के गुणों का) ज्ञान है और यह ज्ञान प्रभू की मेहर से (गुरू से) मिलता है; हे नानक! (इस ज्ञान-रूप) पूँजी के बिना कोई मनुष्य (जगत से) लाभ कमा के नहीं जाता।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh