श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1244 पउड़ी ॥ निमु बिरखु बहु संचीऐ अम्रित रसु पाइआ ॥ बिसीअरु मंत्रि विसाहीऐ बहु दूधु पीआइआ ॥ मनमुखु अभिंनु न भिजई पथरु नावाइआ ॥ बिखु महि अम्रितु सिंचीऐ बिखु का फलु पाइआ ॥ नानक संगति मेलि हरि सभ बिखु लहि जाइआ ॥१६॥ {पन्ना 1244} पद्अर्थ: बिरखु = वृक्ष। संचीअै = सींचें। पाइआ = पाया, पा के। बिसीअरु = साँप। मंत्रि = मंत्र से। विसाहीअै = ऐतबार करें। मनमुख = मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। अभिंनु = ना भीगने वाला, कोरा, रूखा। बिखु = जहर। सिंचीअै = सींचें। अर्थ: (अगर) नीम (के) वृक्ष को अमृत-रस डाल के (भी) बहुत सींचें (तो भी नीम का कड़वापन नहीं जाता); अगर बहुत सारा दूध पिला के मंत्र वश करके साँप को ऐतबारी बनाएं (भाव, साँप पर विश्वास करें,) (फिर भी वह डंक मारने का स्वभाव नहीं छोड़ता); (जैसे) पत्थर को स्नान कराएं (तो भी वह कोरे का कोरा, इसी तरह) मन के पीछे चलने वाला मनुष्य कोरा ही रहता है (उसका हृदय कभी) भीगता नहीं; अगर जहर को अमृत से सींचें (तो भी वह अमृत नहीं बन जाता) जहर का ही असर रहता है। (पर) हे नानक! अगर प्रभू (गुरमुखों की) संगति मिलाए तो (मन में से माया के मोह वाली) सारी जहर उतर जाती है।16। सलोक मः १ ॥ मरणि न मूरतु पुछिआ पुछी थिति न वारु ॥ इकन्ही लदिआ इकि लदि चले इकन्ही बधे भार ॥ इकन्हा होई साखती इकन्हा होई सार ॥ लसकर सणै दमामिआ छुटे बंक दुआर ॥ नानक ढेरी छारु की भी फिरि होई छार ॥१॥ {पन्ना 1244} पद्अर्थ: मरणि = मरने ने, मौत ने। मूरतु = महूरत। वारु = दिन (हफते का)। इकि = कई जीव। साखती = घोड़े की पूँछ में डालने वाला गोल रस्सा जो चलने के वक्त डाला जाता है चाहे काठी पहले ही डाली हुई हो। साखती होई = (भाव) तैयारी हो गई। सार = संभाल। सार होई = चलने का बुलावा आ गया। सणे = समेत। दमामे = धौंसे। बंक = बाँके, सुंदर। छुटे = साथ छूट गया। छारु = राख, मिट्टी। अर्थ: मौत ने (कभी) महूरत नहीं पूछा, कभी ये बात नहीं पूछी कि आज कौन सी तारीख है कौन सा वार है। कई जीवों ने (यहाँ से चलने के लिए, जैसे, अपना सामान) लाद लिया है, कई लाद के चल पड़े हैं और कई जीवों ने (सामान के) भार बाँध लिए हैं। कई जीवों की तैयारी हो गई है, और कई जीवों को चलने के बुलावे आ गए हैं; फौजें, दमामे और बाँके घर यहीं रह जाते हैं। हे नानक! यह शरीर जो मिट्टी की मुट्ठी थी (जो मिट्टी से बना था) दोबारा मिट्टी में जा मिला।1। मः १ ॥ नानक ढेरी ढहि पई मिटी संदा कोटु ॥ भीतरि चोरु बहालिआ खोटु वे जीआ खोटु ॥२॥ {पन्ना 1244} पद्अर्थ: संदा = दा। कोटु = किला। भीतरि = अंदर। खोटु = खोटा कर्म। वे जीआ = हे जिंदे! अर्थ: हे नानक! यह शरीर मिट्टी का किला था, सो आखिर मिट्टी का ये निर्माण गिर ही गया। हे जिंदे! तू (इस शरीर की खातिर) नित्य खोट ही कमाता रहा और अपने अंदर तूने चोर-मन को बैठाए रखा।2। पउड़ी ॥ जिन अंदरि निंदा दुसटु है नक वढे नक वढाइआ ॥ महा करूप दुखीए सदा काले मुह माइआ ॥ भलके उठि नित पर दरबु हिरहि हरि नामु चुराइआ ॥ हरि जीउ तिन की संगति मत करहु रखि लेहु हरि राइआ ॥ नानक पइऐ किरति कमावदे मनमुखि दुखु पाइआ ॥१७॥ {पन्ना 1244} पद्अर्थ: दुसटु = एैब, पाप। नकवढे = कटे हुए नाक वाले, बेशर्म। करूप = खराब रूप वाले, कोझे। काले मुह = काले मुँह वाले, भ्रष्ट हुए मुँह वाले। हिरहि = चुराते हैं। चुराइआ = चुराया जाता है, चोरी हो जाता है। किरति = किरत अनुसार, पिछले किए काम अनुसार। पइअै किरति = पिछले किए कर्मों के इकट्ठे हुए संस्कारों अनुसार। भलके = नित्य। दरबु = द्रव्य, धन। अर्थ: जिन (मन के मुरीद) मनुष्यों के मन में दूसरों की निंदा करने का बुरा स्वभाव होता है उनकी कहीं इज्जत नहीं होती (वे हर जगह) हल्के पड़ते हें; माया (के इस विकार में ग्रसे होने) के कारण वे बहुत कुरूप और भ्रष्ट मुँह वाले प्रतीत होते हैं और सदा दुखी रहते हैं। जो मनुष्य सदा नित्य उठ के (भाव, स्वभावत:) दूसरों का धन चुराते हैं (भाव, जो निंदा करके दूसरों की इज्जत रूप धन छीनने का यतन करते हैं) उन (के अपने अंदर) का हरी-नाम (-रूप धन) चोरी हो जाता है। हे हरी जीउ! हे हरी राय! हमारी सहायता करो, हमें उनकी संगति ना दो। हे नानक! मन के मुरीद मनुष्य पिछले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार (अब भी निंदा की किरत) कमाते हैं और दुख पाते हैं।17। सलोक मः ४ ॥ सभु कोई है खसम का खसमहु सभु को होइ ॥ हुकमु पछाणै खसम का ता सचु पावै कोइ ॥ गुरमुखि आपु पछाणीऐ बुरा न दीसै कोइ ॥ नानक गुरमुखि नामु धिआईऐ सहिला आइआ सोइ ॥१॥ {पन्ना 1244} पद्अर्थ: सभ को = हरेक जीव। खसमहु = पति से। सचु = सदा कायम रहने वाला (खसम, पति)। कोइ = कोई जीव। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। धिआईअै = सिमरें। सहिला = आसान, सुखी जीवन वाला। सोइ = वह मनुष्य। अर्थ: हरेक जीव पति-प्रभू का है पति-प्रभू से हरेक जीव पैदा होता है; जब जीव पति का हुकम पहचानता है तो सदा कायम रहने वाले प्रभू को प्राप्त कर लेता है। अगर गुरू के हुकम में चल के स्वै की सूझ हो जाए तो (जगत में) कोई जीव बुरा नहीं लगता। हे नानक! (जगत में) पैदा हुआ जीव सुखी जीवन वाला होता है जो गुरू के सन्मुख हो के नाम सिमरता है।1। मः ४ ॥ सभना दाता आपि है आपे मेलणहारु ॥ नानक सबदि मिले न विछुड़हि जिना सेविआ हरि दातारु ॥२॥ पद्अर्थ: दाता = देने वाला। आपे = स्वयं ही। मेलणहारु = (अपने साथ) मिलाने वाला। सबदि = शबद में। सेविआ = सिमरा। अर्थ: सब जीवों को (रोज़ी-रोटी आदि) देने वाला और (अपने साथ) मिलाने वाला प्रभू स्वयं ही है। हे नानक! जिन्होंने (सारे पदार्थ) देने वाले प्रभू को सिमरा है, जो गुरू के शबद में जुड़े रहते हैं वे कभी प्रभू से विछुड़ते नहीं हैं।2। पउड़ी ॥ गुरमुखि हिरदै सांति है नाउ उगवि आइआ ॥ जप तप तीरथ संजम करे मेरे प्रभ भाइआ ॥ हिरदा सुधु हरि सेवदे सोहहि गुण गाइआ ॥ मेरे हरि जीउ एवै भावदा गुरमुखि तराइआ ॥ नानक गुरमुखि मेलिअनु हरि दरि सोहाइआ ॥१८॥ {पन्ना 1244} पद्अर्थ: उगवि आइआ = प्रगट हो जाता है। नाउ उगवि आइआ = नाम (का चाव) पैदा हो जाता है। प्रभ भाइआ = प्रभू को प्यारे लगते हैं। सोहहि = सुंदर लगते हैं, शोभा देते हैं। ऐवै = इस तरह। मेलिअनु = उसी (प्रभू) ने मेले हैं। दरि = दर से, हजूरी में, चरनों में। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। अर्थ: जो मनुष्य गुरू के सन्मुख होते हैं उनके हृदय में शांति होती है, (उनके मन में) नाम (जपने का चाव) पैदा हुआ रहता है। (गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य) मेरे प्रभू को प्यारे लगते हैं, उन्होंने (जैसे) जप कर लिए हैं, तप साध लिए हैं, तीर्थों पर नहा लिया है और मन को वश में करने के साधन साध लिए हैं गुरमुखों का हृदय पवित्र होता है, वे प्रभू का सिमरन करते हैं और प्रभू की सिफत सालाह करके सुंदर लगते हैं। प्यारे प्रभू को भी यही बात भाती है, वह गुरमुखों को (संसार-समुंद्र से) पार लंघा लेता है। हे नानक! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों को प्रभू ने स्वयं अपने साथ मिला लिया होता है, वे प्रभू के दर पर सुंदर लगते हैं (शोभते हैं)।18। सलोक मः १ ॥ धनवंता इव ही कहै अवरी धन कउ जाउ ॥ नानकु निरधनु तितु दिनि जितु दिनि विसरै नाउ ॥१॥ {पन्ना 1244} पद्अर्थ: इव ही = इसी तरह ही, ऐसे ही। धन कउ = धन के लिए, धन एकत्र करने के लिए। जाउ = जाऊँ। निरधनु = कंगाल। तितु दिनि = उस दिन में, उस दिन। जितु दिनि = जिस दिन (शब्द 'तितु' और 'जितु', 'तिसु' और 'जिसु' के अधिकरण कारक एक वचन हैं)। अर्थ: धनवान मनुष्य (सदा) यूँ ही कहता है कि मैं और धन कमाने के लिए जाऊँ। पर, नानक तो उस दिन कंगाल (होगा) जिस दिन इसको परमात्मा का नाम बिसरेगा।1। मः १ ॥ सूरजु चड़ै विजोगि सभसै घटै आरजा ॥ तनु मनु रता भोगि कोई हारै को जिणै ॥ सभु को भरिआ फूकि आखणि कहणि न थम्हीऐ ॥ नानक वेखै आपि फूक कढाए ढहि पवै ॥२॥ {पन्ना 1244} पद्अर्थ: विजोगि = विछोड़े से, (दिन के) गुजरने से। सभसै = हरेक जीव की। आरजा = उम्र। रता = रंगा हुआ। भोगि = (माया के) भोगने में। सभु को = हरेक जीव। फूकि = अहंकार से। आखणि कहणि = कहने से कथन करने से, समझाने से। थंमीअै = रोका जाता। आपि = प्रभू स्वयं। फूक = प्राण, श्वास। जिणै = जीतता है। अर्थ: सूरज चढ़ता है (और डूबता है, इस तरह दिनों के) गुजरने से हरेक जीव की उम्र घट रही है, जिसका मन तन माया के भोगों में व्यस्त है वह तो मानस-जनम की बाजी हार जाता है, और, कोई (विरला, विरला, कोई एक) जीत के जाता है। (माया के कारण) हरेक जीव अहंकार से अफरा हुआ है, समझाने से अकड़ने से रुकता नहीं। हे नानक! परमात्मा स्वयं (जीव की अकड़ को) देख रहा है, जब वह इसकी सांसें समाप्त कर देता है तो यह (अहंकारी) धरती पर गिर जाता है (भाव, मिट्टी में मिल जाता है)।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |