श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ सतसंगति नामु निधानु है जिथहु हरि पाइआ ॥ गुर परसादी घटि चानणा आन्हेरु गवाइआ ॥ लोहा पारसि भेटीऐ कंचनु होइ आइआ ॥ नानक सतिगुरि मिलिऐ नाउ पाईऐ मिलि नामु धिआइआ ॥ जिन्ह कै पोतै पुंनु है तिन्ही दरसनु पाइआ ॥१९॥ {पन्ना 1245}

पद्अर्थ: जिथहु = जिस जगह से, (भाव,) सत्संगति में से। गुर परसादी = गुरू की कृपा से। घटि = हृदय में। पारसि = पारस से। कंचनु = सोना। सतिगुरि मिलिअै = (पूरन कारदंतक, Locative Absolute) अगर गुरू मिले। मिलि = (गुरू को) मिल के। पोतै = खजाने में, भागों में (देखें पउड़ी नं:2 की चौथी तुक)। तिनी = उन्होंने।

अर्थ: सत्संग में परमात्मा का नाम-रूप खजाना है, सत्संग में ही परमात्मा मिलता है, (सत्संग में रहने से) सतिगुरू की कृपा से हृदय में (प्रभू के नाम का) प्रकाश हो जाता है और (माया के मोह का) अंधेरा दूर हो जाता है। (जैसे) पारस से छूने पर लोहा सोना बन जाता है, (इसी तरह) हे नानक! अगर सतिगुरू मिल जाए (तो गुरू की छोह से) नाम मिल जाता है, (गुरू को) मिल के नाम सिमरा जाता है। पर (प्रभू का) दीदार उनको प्राप्त होता है जिनके भाग्यों में (पिछली की हुई) अच्छाई मौजूद है।19।

सलोक मः १ ॥ ध्रिगु तिना का जीविआ जि लिखि लिखि वेचहि नाउ ॥ खेती जिन की उजड़ै खलवाड़े किआ थाउ ॥ सचै सरमै बाहरे अगै लहहि न दादि ॥ अकलि एह न आखीऐ अकलि गवाईऐ बादि ॥ अकली साहिबु सेवीऐ अकली पाईऐ मानु ॥ अकली पड़्हि कै बुझीऐ अकली कीचै दानु ॥ नानकु आखै राहु एहु होरि गलां सैतानु ॥१॥ {पन्ना 1245}

पद्अर्थ: जि = जो मनुष्य। नाउ = (तावीत व जंत्र मंत्र आदि की शकल में) प्रभू का नाम। किआ थाउ = (भाव,) कोई जगह नहीं, कहीं नहीं बनता। सरम = उद्यम। दादि = कद्र, शाबाश। बादि = व्यर्थं। सेवीअै = सिमरें। मानु = इज्जत। कीचै दानु = (वह समझ) औरों को भी सिखाऐं

अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा का नाम (तावीत व अन्य जंत्र-मंत्र की शकल में) बेचते हैं उनके जीवन को लाहनत है (धिक्कार है, अगर वे बँदगी भी करते हैं तो भी उनकी 'नाम' वाली फसल इस तरह साथ-साथ उजड़ती जाती है, और) जिनकी फसल (साथ-साथ) उजड़ती जाए उनका खलिहान कहाँ बनना हुआ? (भाव, उस बँदगी का अच्छा नतीजा नहीं निकल सकता, क्योंकि वे बँदगी के सही रास्ते से भटके हुए हैं)। सही मेहनत के बिना प्रभू की हजूरी में भी उनकी कद्र नहीं होती। (परमात्मा का नाम-सिमरन करना बड़ी सुंदर अकल की बात है, पर तावीत-धागे बना के देने में लग जाने पर यह) अकल व्यर्थ गवा लेना है- इसको अक्ल नहीं कहते।

अकल यह है कि परमात्मा का सिमरन करें और इज्जत कमाएं, अकल यह है कि (प्रभू की सिफत-सालाह वाली बाणी) पढ़ें (इसके गहरे भेद) समझें और औरों को समझाएं। नानक कहता है- जिंदगी का सही रास्ता सिर्फ यही है, (सिमरन से) लाभ की बातें (बताने वाला) शैतान है।

मः २ ॥ जैसा करै कहावै तैसा ऐसी बनी जरूरति ॥ होवहि लिंङ झिंङ नह होवहि ऐसी कहीऐ सूरति ॥ जो ओसु इछे सो फलु पाए तां नानक कहीऐ मूरति ॥२॥ {पन्ना 1245}

पद्अर्थ: अैसी बनी जरूरति = आवश्यक्ता ऐसी बनी हुई है, नियम ऐसा बना हुआ है। कहावै = कहलवाता है। लिंङ = लिंग, नरोए अंग। झिंङ = झिंग, झड़े हुए शिथिल अंग। अैसी कहीअै सूरति = ऐसी सूरति मनुष्य की सूरत कहें, मनुष्य का शरीर ऐसा ही होना चाहिए। ओसु = उस प्रभू को। ओसु इछे = उस प्रभू को मिलने के लिए चाहत रखता है। मूरति = मनुष्य जामा, मनुष्य अस्तित्व।

अर्थ: ऐसी ही मर्यादा बनी हुई है कि मनुष्य जिस प्रकार के कर्म करता है वैसा ही उसका नाम पड़ जाता है। (इस मर्यादा के अनुसार असल में) वही शरीर मनुष्य-शरीर कहलवाने के योग्य होता है जिसके नरोए अंग होते हैं, जिसके अंग शिथिल नहीं होते।

(इस तरह) हे नानक! वही अस्तित्व मनुष्य-अस्तित्व कहा जाना चाहिए जिसके अंदर प्रभू के मिलने की चाहत हो (तड़प हो), और (इस तमन्ना अनुसार प्रभू-मिलाप-रूप) फल प्राप्त हो जाए।2।

पउड़ी ॥ सतिगुरु अम्रित बिरखु है अम्रित रसि फलिआ ॥ जिसु परापति सो लहै गुर सबदी मिलिआ ॥ सतिगुर कै भाणै जो चलै हरि सेती रलिआ ॥ जमकालु जोहि न सकई घटि चानणु बलिआ ॥ नानक बखसि मिलाइअनु फिरि गरभि न गलिआ ॥२०॥ {पन्ना 1245}

पद्अर्थ: अंम्रित बिरखु = अमृत का वृक्ष, आत्मिक जीवन देने वाला नाम फल का वृक्ष। रसि = रस से। जिसु = जिस को। जिसु परापति = जिसको मिलना (संयोगों में लिखा हुआ है)। गुर सबदी = गुरू के शबद से। कै भाणै = की रज़ा में। सेती = साथ। जोहि न सकई = देख नहीं सकता, घूर नहीं सकता। बखसि = बख्शिश करके। मिलाइअनु = मिलाए हैं उसने। गरभि = गर्भ में (भाव, जूनियों में)।

अर्थ: गुरू (जैसे) अमृत का वृक्ष है जो अमृत के रस से फला हुआ है (भाव, जिसको अमृत-रस-रूप फल लगा हुआ है, जिससे नाम-अमृत का रस मिलता है)। (यह नाम-रस रूप अमृत-फल) गुरू के शबद से ही मिलता है, पर वही मनुष्य प्राप्त करता है जिसके भाग्यों में प्राप्त करना धुर से लिखा हुआ है। जो मनुष्य गुरू के हुकम में चलता है, वह परमात्मा के साथ एक-रूप हुआ रहता है। उस मनुष्य को जमकाल घूर नहीं सकता (भाव, मौत का डर उसको छू नहीं सकता) क्योंकि उसके हृदय में ईश्वरीय-ज्योति जाग उठती है।

हे नानक! जिन लोगों को उस प्रभू ने बख्शिश करके अपने साथ मिलाया है वे बार-बार जूनियों में नहीं गलते।20।

सलोक मः १ ॥ सचु वरतु संतोखु तीरथु गिआनु धिआनु इसनानु ॥ दइआ देवता खिमा जपमाली ते माणस परधान ॥ जुगति धोती सुरति चउका तिलकु करणी होइ ॥ भाउ भोजनु नानका विरला त कोई कोइ ॥१॥ {पन्ना 1245}

पद्अर्थ: गिआन = प्रभू के गुणों की विचार, जीवन आदर्श की समझ। धिआनु = प्रभू के चरणों में चिक्त जोड़ना। जपमाली = माला। परधान = जाने माने, पंच, सिर पर तुरने वाले, नायक, नेता, आगू। जुगति = जीने की जाच। करणी = उच्च आचरण। भाउ = प्रेम। त = पर। खिमा = सहने का स्वभाव।

अर्थ: जिन मनुष्यों ने सच को व्रत बनाया (भाव, सच धारण करने का प्रण लिया है), संतोख जिनका तीर्थ है, जीवन-उद्देश्य की समझ और प्रभू-चरणों में चिक्त जोड़ने को जिन्होंने तीर्थों का स्नान समझा है, दया जिनका ईष्ट-देव है, (दूसरों की ज्यादती) सहने की आदत (क्षमा) जिनकी माला है; (सदाचारी जीवन) जीने की जुगति जिनके लिए (देव-पूजा के वक्त पहनने वाली) धोती है, सुरति (को पवित्र रखना) जिनका (स्वच्छ) चौका है, ऊँचे आचरण का जिन्होंने माथे पर तिलक लगाया हुआ है, और प्रेम जिन (की आत्मा) की ख़ुराक है, हे नानक! वे मनुष्य सबसे अच्छे हैं; पर, ऐसा मनुष्य है कोई विरला-विरला।1।

महला ३ ॥ नउमी नेमु सचु जे करै ॥ काम क्रोधु त्रिसना उचरै ॥ दसमी दसे दुआर जे ठाकै एकादसी एकु करि जाणै ॥ दुआदसी पंच वसगति करि राखै तउ नानक मनु मानै ॥ ऐसा वरतु रहीजै पाडे होर बहुतु सिख किआ दीजै ॥२॥ {पन्ना 1245}

पद्अर्थ: नेम = नियम, नित्य कर्म। उचरै = उच्चरै (उच+चरै, उच+चरै) अच्छी तरह खा जाए। दसे दुआर = दसों ही इन्द्रियां। ठाकै = रोक के रखे। ऐकु करि जाणै = एक परमात्मा को हर जगह समझे। पंच = कामादिक पाँच विकार। वसगति करि राखै = काबू में रखे। मानै = मानता है, पतीजता है, वासना के पीछे दौड़ने से रुकता है, अमोड़पन से हटता है। वरतु = (रोटी ना खाने का) इकरार, प्रण, व्रत। रहीजै = निभाएं। सिख = शिक्षा।

अर्थ: जो मनुष्य सच धारण करने के नियम को नउमी (का व्रत) बनाए, काम-क्रोध और लालच को अच्छी तरह दूर कर ले; अगर दसों ही इन्द्रियों को (विकारों से) रोक के रखे (इस उद्यम को) दसमी (तिथि का व्रत) बनाए, एक परमात्मा को हर जगह व्यापक समझे- यह उसकी ऐकादशी का व्रत हो, पाँच-कामादिकों को काबू में रखे- और यह उसका द्वादशी का व्रत हो, तो, हे नानक! मन पतीज जाता है।

हे पण्डित! अगर इस तरह का व्रत निभा सकें तो किसी और शिक्षा की आवश्यक्ता नहीं पड़ती।2।

पउड़ी ॥ भूपति राजे रंग राइ संचहि बिखु माइआ ॥ करि करि हेतु वधाइदे पर दरबु चुराइआ ॥ पुत्र कलत्र न विसहहि बहु प्रीति लगाइआ ॥ वेखदिआ ही माइआ धुहि गई पछुतहि पछुताइआ ॥ जम दरि बधे मारीअहि नानक हरि भाइआ ॥२१॥ {पन्ना 1245}

पद्अर्थ: भूपति = (भू = धरती; पति = खसम) धरती का पति/ राजा/ बादशाह। रंग = रंक, कंगाल। राइ = अमीर। संचहि = इकट्ठी करते हैं। बिखु = जहर। करि करि = संचि कर कर के, जोड़ जोड़ के। हेतु = (माया से) हित। पर = पराया। दरबु = धन। कलत्र = पत्नी। विसहहि = विसाह करना, ऐतबार करना। धुहि गई = छल के चली गई। मारीअहि = मारे जाते हैं, मार खाते हैं (देखें पौड़ी नं: 3 की चौथी तुक)।

अर्थ: पातशाह, राजे, कंगाल और अमीर - सब माया-रूप जहर इकट्ठा करते हैं। संचित कर करके (इससे) हित बढ़ाते हैं (और अगर दाँव लगे तो) दूसरों का धन (भी) चुरा लेते हैं, माया से (इतना) ज्यादा हित जोड़ते हैं कि पुत्र और पत्नी का ऐतबार भी नहीं करते; (पर जब) आँखों के सामने ही माया ही माया छल के (भाव, अपने मोह में फसा के) चली जाती है तो (इसको जोड़ने वाले) आहें भरते हैं; (भाव, ऐसा प्रतीत होता है, जैसे वे) जम के दरवाजे पर बँधे हुए मार खा रहे हैं। हे नानक! (किसी के वश की बात नहीं) प्रभू का ऐसे ही अच्छा लगता है।21।

सलोक मः १ ॥ गिआन विहूणा गावै गीत ॥ भुखे मुलां घरे मसीति ॥ मखटू होइ कै कंन पड़ाए ॥ फकरु करे होरु जाति गवाए ॥ गुरु पीरु सदाए मंगण जाइ ॥ ता कै मूलि न लगीऐ पाइ ॥ घालि खाइ किछु हथहु देइ ॥ नानक राहु पछाणहि सेइ ॥१॥ {पन्ना 1245}

पद्अर्थ: विहूणा = वंचित, खाली, बग़ैर। गिआन = आत्मिक जीवन की समझ। घरे = घर में ही, घर की खातिर ही, रोटी की खातिर ही। मखटू = निखट्टू, जो कमा ना सके। कंन पड़ाऐ = कान फटवा लेता है, जोगी बन जाता है। फकरु करे = फकीर बन जाता है। जाति गवाऐ = कुल की अणख छोड़ बैठता है। होरु = एक और मनुष्य। सदाऐ = कहलवाता है। ता कै पाइ = उसके पैर पर। मूलि न = बिल्कुल नहीं। घालि = मेहनत कर के, मेहनत से कमा के। पछाणहि = पहचानते हैं। सेई = वही लोग (बहुवचन)।

अर्थ: (पण्डित का ये हाल है कि) परमात्मा के भजन तो गाता है पर खुद समझ से वंचित है (भाव, भजन गाने को वह रोजी का वसीला बनाए रखता है, समझ ऊँची नहीं हो सकी)। भूख के मारे हुए मुल्ला की मस्जिद भी रोजी की ही खातिर है (भाव, मुलला ने बाँग नमाज़ आदि मस्जिद की क्रिया को रोटी का वसीला ही बनाया हुआ है) (तीसरा एक) और है जो हॅड-हराम होने के कारण कान फड़वा लेता है, फकीर बन जाता है, कुल की अणख गवा बैठता है, (वैसे तो अपने आप को) गुरू-पीर कहलवाता है (पर रोटी दर-दर) माँगता-फिरता है; ऐसे लोगों के पैरों में भी कभी नहीं लगना चाहिए।

जो-जो मनुष्य मेहनत से कमा के (स्वयं) खाते हैं और उस कमाई में से कुछ (औरों को भी) देते हैं, हे नानक! ऐसे बंदे ही जिंदगी का सही रास्ता पहचानते हैं।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh