श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः १ ॥ मनहु जि अंधे कूप कहिआ बिरदु न जाणन्ही ॥ मनि अंधै ऊंधै कवलि दिसन्हि खरे करूप ॥ इकि कहि जाणहि कहिआ बुझहि ते नर सुघड़ सरूप ॥ इकना नाद न बेद न गीअ रसु रस कस न जाणंति ॥ इकना सुधि न बुधि न अकलि सर अखर का भेउ न लहंति ॥ नानक से नर असलि खर जि बिनु गुण गरबु करंति ॥२॥ {पन्ना 1246}

पद्अर्थ: अंधे कूप = अंधे कूएँ, बहुत ही मूर्ख। बिरदु = (मानवीय) फर्ज। कहिआ = बताने पर भी, कहने पर भी। मनि अंधै = अंधे मन के कारण। ऊंधै कवलि = उल्टे हुए (हृदय) कंवल के कारण। खरे करूप = बहुत कुरूप। कहि जाणहि = बात कहनी जानते हैं। सुघड़ = सु+घड़, अच्छी घाड़त वाले, सुचॅजे। नाद रसु = नाद का रस। बेद रसु = वेद का रस। गीअ रसु = गीत का रस। रस कस = मीठे कसैले रस। सुधि = सूझ। बुधि = बुद्धि। सर = सार, समझ। भेउ = भेद। अखर का भेउ = पढ़ने की जाच। असलि खर = निरे गधे। गरबु = अहंकार। जि = जो।

अर्थ: जो मनुष्य मन से अंधे कूँए हैं (भाव, महा मूर्ख हैं), वे बताने पर भी मानवीय फर्ज को नहीं जानते; मन अंधा होने के कारण और हृदय-कमल (धर्म से) उल्टा होने के कारण वह लोग बहुत कोझे लगते हैं। कई मनुष्य ऐसे हैं जो बात करनी भी जानते हैं और किसी का कहा समझते भी हैं वे मनुष्य सुचॅजे और सुंदर लगते हैं।

कई लोगों को (तो) ना जोगियों के नाद का रस, ना वेद का शौक, ना राग के प्रति आकर्षण - किसी तरह के कोमल कला की तरफ रुचि ही नहीं है, ना सूझ, ना बुद्धि, ना अकल की सार, और एक अक्षर भी पढ़ना नहीं जानते। हे नानक! जिनमें कोई भी गुण ना हो और अहंकार किए जाएं, वे मनुष्य सिर्फ गधे हैं।2।

पउड़ी ॥ गुरमुखि सभ पवितु है धनु स्मपै माइआ ॥ हरि अरथि जो खरचदे देंदे सुखु पाइआ ॥ जो हरि नामु धिआइदे तिन तोटि न आइआ ॥ गुरमुखां नदरी आवदा माइआ सुटि पाइआ ॥ नानक भगतां होरु चिति न आवई हरि नामि समाइआ ॥२२॥ {पन्ना 1246}

पद्अर्थ: संपै = धन। जो = क्योंकि वह। तोटि = कमी, घाटा। सुटि पाइआ = हाथों से देते हैं। चिति = चिक्त में। आवई = आऐ, आता। नामि = नाम में। अरथि = अर्थ में, की खातिर।

अर्थ: जो मनुष्य गुरू के बताए हुए राह पर चलते हैं उनके लिए धन-पदार्थ माया आदि सब कुछ पवित्र है क्योंकि वे रॅब लेखे भी खर्चते हैं और (जरूरतमंदों को) देते हैं (ज्यों-ज्यों बाँटते हैं त्यो-त्यों) सुख पाते हैं। जो मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरते हैं (और माया जरूरतमंदों को देते हैं) उनको (माया की) कमी नहीं आती; गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों को (ये बात) साफ दिखती है, (इस वास्ते) वे माया (औरों को भी) हाथों से देते हैं।

हे नानक! भक्ति करने वाले बंदों को (प्रभू के नाम के बिना कुछ) और चिक्त नहीं आता (भाव, धन आदि का मोह उनके मन में घर नहीं कर सकता) वे प्रभू के नाम में लीन रहते हैं।22।

सलोक मः ४ ॥ सतिगुरु सेवनि से वडभागी ॥ सचै सबदि जिन्हा एक लिव लागी ॥ गिरह कुट्मब महि सहजि समाधी ॥ नानक नामि रते से सचे बैरागी ॥१॥ {पन्ना 1246}

पद्अर्थ: गिरह = गृहस्त। सहजि = सहज में, अडोल अवस्था में। नामि = नाम में। बैरागी = विरक्त।

अर्थ: वे मनुष्य बहुत भाग्यशाली हैं जो अपने गुरू के बताए हुए राह पर चलते हैं, गुरू के सच्चे शबद के द्वारा जिनकी सुरति एक परमात्मा में लगी रहती है, जो गृहस्त-परिवार में रहते हुए भी अडोल अवस्था में टिके रहते हैं। हे नानक! वे मनुष्य असल विरक्त हैं जो प्रभू के नाम में रंगे हुए हैं।1।

मः ४ ॥ गणतै सेव न होवई कीता थाइ न पाइ ॥ सबदै सादु न आइओ सचि न लगो भाउ ॥ सतिगुरु पिआरा न लगई मनहठि आवै जाइ ॥ जे इक विख अगाहा भरे तां दस विखां पिछाहा जाइ ॥ सतिगुर की सेवा चाकरी जे चलहि सतिगुर भाइ ॥ आपु गवाइ सतिगुरू नो मिलै सहजे रहै समाइ ॥ नानक तिन्हा नामु न वीसरै सचे मेलि मिलाइ ॥२॥ {पन्ना 1246}

पद्अर्थ: गणतै = लेखा करने से, बता बता के, तारीफ़ कर करके। थाइ न पाइ = कबूल नहीं होता। सादु = स्वाद, रस, आनंद। सचि = सच में, प्रभू के नाम में। भाउ = प्यार। आइओ = आया। हठि = हठ से। विख = कदम। भाइ = रज़ा अनुसार। आपु = स्वै भाव। सहजे = सहज में, आत्मिक अडोलता में ही।

अर्थ: अगर ये कहते रहे कि हमने फलाना काम किया, फलानी सेवा की तो इस तरह सेवा नहीं हो सकती, इस तरह किया हुआ कोई भी काम सफल नहीं होता। जिस मनुष्य को सतिगुरू के शबद का आनंद नहीं आता, प्रभू के नाम में उसका प्यार नहीं बन सकता। जिसको गुरू प्यारा नहीं लगता वह मन के हठ से ही (गुरू के दर पर) आता है (भाव, गुरू-दर पे जाने का उसको कोई लाभ नहीं होता, क्योंकि) अगर वह एक कदम आगे को उठाता है तो दस कदम पीछे जा पड़ता है।

अगर मनुष्य सतिगुरू के भाणे में चले, तब ही गुरू की सेवा-चाकरी प्रवान होती है। जो मनुष्य स्वै-भाव मिटा के गुरू के दर पर जाए तो वह अडोल अवस्था में टिका रहता है। हे नानक! ऐसे लोगों को प्रभू का नाम नहीं भूलता, वे सदा कायम रहने वाले प्रभू में जुड़े रहते हैं।2।

पउड़ी ॥ खान मलूक कहाइदे को रहणु न पाई ॥ गड़्ह मंदर गच गीरीआ किछु साथि न जाई ॥ सोइन साखति पउण वेग ध्रिगु ध्रिगु चतुराई ॥ छतीह अम्रित परकार करहि बहु मैलु वधाई ॥ नानक जो देवै तिसहि न जाणन्ही मनमुखि दुखु पाई ॥२३॥ {पन्ना 1246}

पद्अर्थ: मलूक = बादशाह। गढ़ = किले। गच गीरीआ = चूने-गच इमारतें, वह इमारतें जिनमें पकड़ चूने की हो (गीर = पकड़)। साखति = घोड़े की पूँछ में डालने वाला रस्सा, दुमची। वेग = रफतार। मैल = विष्टा।

अर्थ: (जो लोग अपने आप को) ख़ान और बादशाह कहलवाते हैं (तो भी क्या हुआ?) कोई (यहाँ सदा) नहीं रह सकता; अगर किले, सुंदर घर और चूने-गॅच इमारतें हों (तो भी क्या है?) कोई चीज़ (मनुष्य के मरने पर) साथ नहीं जाती, अगर सोने की दुमचियां वाले और हवा जैसी तेज़ रफतार वाले घोड़े हों (तो भी इन पर गुमान और) अकड़ दिखानी धिक्कार-योग्य है, अगर कई किस्मों के सुंदर-स्वादिष्ट खाने खाए हों (तो भी) बहुत विष्टा ही बढ़ाते हैं!

हे नानक! जो दातार प्रभू ये सारी चीज़ें देता है अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य उसके साथ गहरी सांझ नहीं डालते (इसलिए) दुख ही पाते हैं।23।

सलोक मः ३ ॥ पड़्हि पड़्हि पंडित मुोनी थके देसंतर भवि थके भेखधारी ॥ दूजै भाइ नाउ कदे न पाइनि दुखु लागा अति भारी ॥ मूरख अंधे त्रै गुण सेवहि माइआ कै बिउहारी ॥ अंदरि कपटु उदरु भरण कै ताई पाठ पड़हि गावारी ॥ सतिगुरु सेवे सो सुखु पाए जिन हउमै विचहु मारी ॥ नानक पड़णा गुनणा इकु नाउ है बूझै को बीचारी ॥१॥ {पन्ना 1246}

पद्अर्थ: मुोनी = मुनि, औरों के साथ बात ना करने वाले, मौनधारी (अक्षर 'म' के साथ 'ु' और 'ो' मात्राएं हैं, यहाँ पढ़ना है 'मोनी'; असल शब्द 'मुनि' है)। देसंतरु = देस+अंतरु, और और देश। भेखधारी = भेखी साधू। दूजै भाइ = प्रभू के बिना और (भाव, माया) में प्यार के कारण। त्रै गुण = रजो गुण, तमो गुण, सतो गुण (जब किसी आन = सम्मान धन आदि के लिए मनुष्य दौड़ = भाग करता है तो 'रजो' गुण प्रबल होता है, जब काम-क्रोध = निंदा = ईष्या आदि मन की नीच लहरों में बहता जाता है तब 'तमो' गुण का प्रभाव होता है; कई बार मनुष्य दान = पुन्य हमदर्दी आदि तरंगों के असर में शांत = सहज हो जाता है, उस वक्त 'सतो' गुण प्रधान होता है)। कपटु = खोट। उदरु = पेट। कै ताई = की खातिर। को वीचारी = कोई विचारवान। गुनणा = विचारना।

अर्थ: मुनि और पण्डित (वेद आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़-पढ़ के थक गए, भेखधारी साधू धरती का रटन कर के थक गए; इतना (व्यर्थ) तकलीफ़ें ही सहते रहे, (जब तक) प्रभू के बग़ैर किसी और के प्यार में मन फसा हुआ है (पंडित क्या और साधू क्या, कोई भी चाहे हो) प्रभू का नाम प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि माया के व्यापारी बने रहने के कारण मूर्ख अंधे मनुष्य तीन गुणों को ही सीते हैं (भाव, तीनों गुणों में ही रहते हैं)। वह मूर्ख (बाहर तो) रोजी कमाने की खातिर (धर्म-पुस्तकों का) पाठ करते हैं, पर (उनके) मन में खोट ही टिका रहता है।

जो मनुष्य गुरू के बताए हुए राह पर चलता है वह सुख पाता है (क्योंकि गुरू के राह पर चलने वाले मनुष्य) मन में से अहंकार दूर कर लेते हैं। हे नानक! सिर्फ परमात्मा का नाम ही पढ़ने और विचारने-योग्य है, पर कोई विचारवान ही इस बात को समझता है।1।

मः ३ ॥ नांगे आवणा नांगे जाणा हरि हुकमु पाइआ किआ कीजै ॥ जिस की वसतु सोई लै जाइगा रोसु किसै सिउ कीजै ॥ गुरमुखि होवै सु भाणा मंने सहजे हरि रसु पीजै ॥ नानक सुखदाता सदा सलाहिहु रसना रामु रवीजै ॥२॥ {पन्ना 1246}

पद्अर्थ: किआ कीजै = क्या किया जा सकता है? कोई ना = नुकर नहीं की जा सकती। किसै सिउ = किसी से? रोसु = गिला, रोश। गुरमुखि = गुरू के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य। सहजे = सहज अवस्था में रह के, अडोल रह के। रसना = जीभ से। नांगे = (भाव,) खाली हाथ।

अर्थ: जगत में हरेक जीव खाली हाथ आता है और खाली हाथ ही यहाँ से चला जाता है- प्रभू ने यही हुकम रखा है, इसमें कोई ना-नुकर नहीं की जा सकती; (यह जिंद) जिस प्रभू की दी हुई चीज़ है वही वापस ले जाता है, (इस बारे में) किसी से कोई गिला (-शिकवा) नहीं किया जा सकता।

गुरू के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य प्रभू की रज़ा को मानता है, और (किसी प्यारे के मरने पर भी) अडोल रहके नाम-अमृत पीता है।

हे नानक! सदा सुख देने वाले प्रभू को सिमरो, और जीभ से प्रभू का नाम जपो।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh