श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1247 पउड़ी ॥ गड़्हि काइआ सीगार बहु भांति बणाई ॥ रंग परंग कतीफिआ पहिरहि धर माई ॥ लाल सुपेद दुलीचिआ बहु सभा बणाई ॥ दुखु खाणा दुखु भोगणा गरबै गरबाई ॥ नानक नामु न चेतिओ अंति लए छडाई ॥२४॥ {पन्ना 1247} पद्अर्थ: गढ़ि = किले पर। काइआ = शरीर। बहु भांति = कई किस्मों के। रंग परंग = रंग बिरंगी। कतीफिआ = (अरबी: कतीफ़त) रेश्मी कपड़े। धर माई = माया धारी। सुपेद = सफेद। सभा = मजलिस। गरबै = अहंकार में, अकड़ में। गरबाई = गरब में, अहंकार में। अंति = आखिर को। अर्थ: माया-धारी मनुष्य शरीर (-रूप) किले पर कई तरह के श्रृंगार बनाते हैं, रंग-बिरंगे रेशमी कपड़े पहनते हैं, लाल और सफेद गलीचों पर बैठ कर बड़ी-बड़ी सभाएं लगाते हैं, अहंकार में ही अकड़ में ही (सदा रहते हैं)। (इसलिए उनको) खाने और भोगने को दुख ही मिलता है (भाव, मन में शांति नहीं होती, क्योंकि) हे नानक! वे परमात्मा का नाम नहीं सिमरते जो आखिर (दुख से) निजात दिलवाता है।24। सलोक मः ३ ॥ सहजे सुखि सुती सबदि समाइ ॥ आपे प्रभि मेलि लई गलि लाइ ॥ दुबिधा चूकी सहजि सुभाइ ॥ अंतरि नामु वसिआ मनि आइ ॥ से कंठि लाए जि भंनि घड़ाइ ॥ नानक जो धुरि मिले से हुणि आणि मिलाइ ॥१॥ {पन्ना 1247} पद्अर्थ: सबदि समाइ = गुरू के शबद में लीन हो के। सुखि सुती = सुख में टिक गई। प्रभि = प्रभू ने। गलि लाइ = गले से लगा के, बड़े प्यार से। दुबिधा = दोचिक्तापन। (दो+विधा, दो किस्म का)। जि = जिन्होंने। भंनि घड़ाइ = मन के पहले स्वभाव को तोड़ के नए सिरे से घड़ा है। धुरि = पहले से। आणि = ला के। हुणि = इस जनम में। सुभाइ = प्रेम में। अर्थ: जो जीव-स्त्री गुरू के शबद में लीन हो के अडोल अवस्था में टिकती है, उसको प्रभू ने स्वयं ही प्यार से मिला लिया है, आत्मिक अडोलता में प्रेम में टिके रहने के कारण उसका दोचिक्ता-पन दूर हो जाता है, उसके अंदर मन में प्रभू का नाम आ बसता है। उन जीवों को प्रभू अपने गले से लगा लेता है जो (जो अपने मन के पहले वाले स्वभाव को) तोड़ के (नए सिरे से घड़ के) सुंदर बनाते हैं। हे नानक! जो मनुष्य धुर से ही प्रभू के साथ मिले चले आ रहे हैं, उनको इस जनम में भी ला के अपने साथ मिलाए रखता है।1। मः ३ ॥ जिन्ही नामु विसारिआ किआ जपु जापहि होरि ॥ बिसटा अंदरि कीट से मुठे धंधै चोरि ॥ नानक नामु न वीसरै झूठे लालच होरि ॥२॥ {पन्ना 1247} पद्अर्थ: किआ जापहि = जपने का क्या लाभ? किआ जपु जापहि = जप जपने का कोई लाभ नहीं। होरि = (किसी) और (रस) में। कीट = कीड़े। से = वह लोग। मुठे धंधै चोरि = धंधे रूप चोर से ठॅगे हुए। धंधै = धंधे ने, जंजाल ने। चोरि = चोर ने। होरि लालच = (प्रभू के बिना) और और ख्वाहिशें। झूठे = व्यर्थ। अर्थ: जिन मनुष्यों ने प्रभू का नाम बिसारा है, किसी और रस में पड़ कर जप, जपने का, उनको कोई लाभ नहीं मिल सकता, क्योंकि जिनको दुनिया के जंजाल-रूप चोर ने ठॅगा हुआ वे (ऐसे विलूं-विलूं करते) हैं जैसे विष्टा में कीड़े। हे नानक! (यही अरदास कर कि) प्रभू का नाम ना भूले, और सारे लालच व्यर्थ हैं।2। पउड़ी ॥ नामु सलाहनि नामु मंनि असथिरु जगि सोई ॥ हिरदै हरि हरि चितवै दूजा नही कोई ॥ रोमि रोमि हरि उचरै खिनु खिनु हरि सोई ॥ गुरमुखि जनमु सकारथा निरमलु मलु खोई ॥ नानक जीवदा पुरखु धिआइआ अमरा पदु होई ॥२५॥ {पन्ना 1247} पद्अर्थ: सालाहनि = सराहना करते हैं। मंनि = मन में (बसाते हैं)। असथिरु = अटल जीवन वाले।, अडोल आत्मिक जीवन वाले, वे जो माया के हाथों में नहीं नाचते। जगि = जगत में। हिरदै = हृदय में। चितवै = चेते करता है (एकवचन)। रोमि रोमि = हरेक रोम से, पूरी तौर पर तन से मन से। उचरै = उचारता है। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। सकारथा = सफल, कामयाब। निरमलु = पवित्र जीवन वाला। खोई = दूर कर लेता है, नाश कर लेता है। जीवदा = सदा कायम रहने वाला। पुरखु = सर्व व्यापक। पदु = दर्जा। अमरा पदु = अटल आत्मिक जीवन वाला दर्जा। अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा की सिफत-सालाह करते हैं, परमात्मा का नाम (अपने) मन में (बसाए रखते हैं) वही जगत में अटल आत्मिक जीवन वाले बनते हैं। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाला जो मनुष्य (अपने) हृदय में हर वक्त परमात्मा को याद करता है (परमात्मा के बिना) किसी और को (मन में) नहीं बसाता, जो मनुष्य रोम-रोम प्रभू को याद करता है हर छिन उस परमात्मा को ही याद करता रहता है, उसकी जिंदगी कामयाब हो जाती है, वह पवित्र जीवन वाला हो जाता है (वह मनुष्य अपने अंदर से विकारों की मैल) दूर कर लेता है। हे नानक! जो मनुष्य सदा कायम रहने वाले सर्व-व्यापक परमात्मा को याद करता रहता है उसको अटल आत्मिक जीवन वाला दर्जा मिल जाता है (वह मनुष्य आत्मिक जीवन की उस उच्चता पर पहुँच जाता है जहाँ माया के हल्ले उसको डोला नहीं सकते)।25। सलोकु मः ३ ॥ जिनी नामु विसारिआ बहु करम कमावहि होरि ॥ नानक जम पुरि बधे मारीअहि जिउ संन्ही उपरि चोर ॥१॥ {पन्ना 1247} पद्अर्थ: मारीअहि = मार खाते हैं। जम पुरि = जम की पुरी में, जमराज की हजूरी में। होर करम = और और करम (शब्द 'होरि' बहुवचन)। अर्थ: जिन मनुष्यों ने परमात्मा को भुला दिया है और अन्य कई तरह के काम करते हैं, हे नानक! वे मनुष्य जमराज के सामने बँधे हुए इस तरह मार खाते हैं जैसे सेंध पर (रंगे हाथ) पकड़े गए चोर।1। मः ५ ॥ धरति सुहावड़ी आकासु सुहंदा जपंदिआ हरि नाउ ॥ नानक नाम विहूणिआ तिन्ह तन खावहि काउ ॥२॥ {पन्ना 1247} पद्अर्थ: तिन तन = उन के शरीरों को। काउ = कौए (भाव, विषौ विकार)। अर्थ: परमात्मा का नाम सिमरने वाले बंदों को धरती और आकाश सुहावने लगते हैं (क्योंकि उनके अंदर शांति-शीतलता बनी रहती है); पर, हे नानक! जो मनुष्य नाम से वंचित हैं, उनके शरीर को विषौ-विकार कौऐ ही खाते रहते हैं (और, उनके अंदर विषौ-विकार होने के कारण उनको प्रभू की कुदरति में कोई सुंदरता सोहावनी नहीं लगती)।2। पउड़ी ॥ नामु सलाहनि भाउ करि निज महली वासा ॥ ओइ बाहुड़ि जोनि न आवनी फिरि होहि न बिनासा ॥ हरि सेती रंगि रवि रहे सभ सास गिरासा ॥ हरि का रंगु कदे न उतरै गुरमुखि परगासा ॥ ओइ किरपा करि कै मेलिअनु नानक हरि पासा ॥२६॥ {पन्ना 1247} पद्अर्थ: भाउ = प्रेम। भाउ करि = प्रेम कर के, पे्रम से। निज = निरोल अपना। बाहुड़ि = फिर, दोबारा। आवनी = (आवन्ही) आते। बिनासा = नाश। रंगि = प्रेम से। रवि रहे = रच मिच जाते हैं। सास गिरासा = सांस लेते हुए और ग्रास लेते हुए, हरेक सांस के साथ खाते पीते हुए। रंगु = प्यार। ओइ = (शब्द 'ओहु' का एक वचन है, 'ओइ' बहुवचन है) वे लोग। मेलिअनु = मेल लिए हैं उस (प्रभू) ने। गुरमुखि = गुरू के बताए हुए रास्ते पर चलने वाला मनुष्य। अर्थ: जो मनुष्य प्रेम से परमात्मा का नाम सिमरते हैं वे निरोल अपने (हृदय-रूप, प्रभू की हजूरी-रूप) महल में टिके रहते हैं, वे लोग बार-बार ना जूनियों में आते हैं ना मरते हैं; सांस-सांस, खाते-पीते (हर वक्त) वे प्रेम से प्रभू में रचे-मिचे रहते हैं; उन गुरमुखों के अंदर हरी-नाम का प्रकाश हो जाता है, हरी-नाम का रंग कभी (उनके मन से) उतरता नहीं है। हे नानक! प्रभू ने अपनी मेहर करके उनको अपने साथ मिला लिया होता है, वे सदा प्रभू के नजदीक बसते हैं।26। सलोक मः ३ ॥ जिचरु इहु मनु लहरी विचि है हउमै बहुतु अहंकारु ॥ सबदै सादु न आवई नामि न लगै पिआरु ॥ सेवा थाइ न पवई तिस की खपि खपि होइ खुआरु ॥ नानक सेवकु सोई आखीऐ जो सिरु धरे उतारि ॥ सतिगुर का भाणा मंनि लए सबदु रखै उर धारि ॥१॥ {पन्ना 1247} पद्अर्थ: सादु = स्वाद, रस। थाइ न पवई = कबूल नहीं होता। उतारि = उतार के। सिरु धरे उतारि = अपना सिर उतार के रख दे, अपनी चतुराई चालाकी छोड़ दे। उरधारि = हृदय में टिका के। अर्थ: जब तक मनुष्य का यह मन (माया की) लहरों में (डोलता रहता है) तब तक इसके अंदर बहुत अहंकार है बड़ा गुमान होता है, इसको सतिगुरू के शबद का रस नहीं आता, प्रभू के नाम में इसका प्यार नहीं बनता, इसकी की हुई सेवा कबूल नहीं होती (और अहंकार के कारण) खिझ-खिझ के दुखी रहता है। हे नानक! वही मनुष्य असली सेवक कहलवाता है जो अपनी चतुराई-चालाकी छोड़ देता है, सतिगुरू का भाणा (मर्जी) कबूल करता है और गुरू-शबद को हृदय में परोए रखता है।1। मः ३ ॥ सो जपु तपु सेवा चाकरी जो खसमै भावै ॥ आपे बखसे मेलि लए आपतु गवावै ॥ मिलिआ कदे न वीछुड़ै जोती जोति मिलावै ॥ नानक गुर परसादी सो बुझसी जिसु आपि बुझावै ॥२॥ {पन्ना 1247} पद्अर्थ: जो = जो काम। खसमै भावै = मालिक प्रभू को अच्छा लगता है। चाकरी = नौकरी, सेवा। आपतु = स्वै भाव, अहंकार। जोति = आत्मा। गुर परसादी = गुरू की कृपा से। बुझसी = (इस भेद को) समझ लेता है। अर्थ: जो काम मालिक-प्रभू को पसंद आ जाए, वही काम सेवक का जप है तप है और सेवा-चाकरी है; जो मनुष्य स्वै भाव मिटाता है उसको प्रभू स्वयं मेहर करके (अपने साथ) मिला लेता है, और (प्रभू-चरणों में) मिला हुआ ऐसा व्यक्ति दोबारा कभी विछुड़ता नहीं है उसकी आत्मा प्रभू की आत्मा के साथ एक-मेक हो जाती है। हे नानक! (इस भेद को) गुरू की कृपा से वही मनुष्य समझता है जिसको प्रभू स्वयं समझ बख्शता है।2। पउड़ी ॥ सभु को लेखे विचि है मनमुखु अहंकारी ॥ हरि नामु कदे न चेतई जमकालु सिरि मारी ॥ पाप बिकार मनूर सभि लदे बहु भारी ॥ मारगु बिखमु डरावणा किउ तरीऐ तारी ॥ नानक गुरि राखे से उबरे हरि नामि उधारी ॥२७॥ {पन्ना 1247-1248} पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। लेखे विचि = हुकम में, निहित मर्यादा में, उस मर्यादा में जो प्रभू ने संसार की जुगति को चलाने के लिए मिथ दी है। मनमुख = मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। सिरि = सिर पर। मनूर = जला हुआ व जंग लगा लोहा ( भाव, व्यर्थ भार)। मारगु = रास्ता, जीवन यात्रा का मार्ग। बिखमु = मुश्किल। गुरि = गुरू ने। उबरे = बच निकले। नामि = नाम ने। किउ तरीअै = पार लंघाना मुश्किल है। अर्थ: हरेक जीव (को उस) मर्यादा के अंदर (चलना पड़ता है जो प्रभू ने जीवन-जुगति के लिए मिथी हुई) है, पर मन का मुरीद मनुष्य अहंकार करता है (भाव, उस मर्यादा से आकी होने का यतन करता है), कभी प्रभू का नाम नहीं सिमरता (जिसके कारण) जमकाल (उसके) सिर पर (चोट) मारता है (भाव, वह सदा आत्मिक मौत सहेड़ी रखता है)। पापों और दुष्कर्मों के व्यर्थ व बोझल भार से लदे हुए जीवों के लिए जिंदगी का रास्ता बहुत मुश्किल और डरावना हो जाता है (इस संसार-समुंद्र में से) उनके द्वारा तैरा नहीं जा सकता। हे नानक! जिनकी सहायता गुरू ने की है वे बच निकलते हैं, प्रभू के नाम ने उनको बचा लिया होता है।27। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |