श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक मः ३ ॥ विणु सतिगुर सेवे सुखु नही मरि जमहि वारो वार ॥ मोह ठगउली पाईअनु बहु दूजै भाइ विकार ॥ इकि गुर परसादी उबरे तिसु जन कउ करहि सभि नमसकार ॥ नानक अनदिनु नामु धिआइ तू अंतरि जितु पावहि मोख दुआर ॥१॥ {पन्ना 1248}

पद्अर्थ: वारो वार = बार बार। ठगउली = ठॅग बूटी, वह बूटी जो ठॅग किसी को खिला के बेहोश करके लूट लेते हैं। पाईअनु = पाई है उस (प्रभू) ने। बहु विकार = कई बुरे कर्मं। दूजै भाइ = (प्रभू को छोड़ के) किसी और के प्यार में। इकि = कई लोग (शब्द 'इक' का बहुवचन)। उबरे = बच जाते हैं। सभि = सारे जीव। करहि नमसकार = सिर झुकाते हैं। अनदिनु = हर रोज। अंतरि = हृदय में। जितु = जिस (सिमरन) की बरकति से। मोख दुआर = (मोह ठगॅबूटी से) बचने का राह।

अर्थ: सतिगुरू के बताए हुए राह पर चले बिना सुख नहीं मिलता (गुरू से टूटे हुए जीव) बार-बार पैदा होते मरते हैं, मोह की ठॅग-बूटी उस प्रभू ने (ऐसी) डाली है कि (ईश्वर से बे-सुरति हो के) माया के प्यार में (फस के) बहुत सारे बुरे कर्म करते हैं, पर कई (भाग्यशाली लोग) सतिगुरू की कृपा से (इस ठॅग-बूटी से) बच जाते हैं, (जो जो बचता है) उसको सारे लोग सिर झुकाते हैं।

हे नानक! तू भी हर रोज (अपने) हृदय में प्रभू का नाम सिमर, जिस (सिमरन की) बरकति से तू (इस 'मोह ठगउली' से) बचने का वसीला हासिल कर लेगा।1।

मः ३ ॥ माइआ मोहि विसारिआ सचु मरणा हरि नामु ॥ धंधा करतिआ जनमु गइआ अंदरि दुखु सहामु ॥ नानक सतिगुरु सेवि सुखु पाइआ जिन्ह पूरबि लिखिआ करामु ॥२॥ {पन्ना 1248}

पद्अर्थ: मोहि = मोह के कारण। सचु = अटल, सदा कायम रहने वाला। अंदरि = मन में। सहामु = सहता है। सेवि = सेवा करके, हुकम में चल के। पूरबि = आदि से। करामु = कर्म, काम (भाव, गुरू की सेवा करने का काम)। सुखु = आत्मिक आनंद।

अर्थ: मौत अटल है, प्रभू का नाम सदा-स्थिर रहने वाला है- पर, यह बात जिस मनुष्य ने माया के मोह में (फस के) भुला दी है, उसका सारा जीवन माया के धंधे करते हुए गुजर जाता है और वह अपने मन में दुख सहता है।

हे नानक! आदि से जिनके माथे पर (गुरू सेवा का लेख) लिखा हुआ है उन्होंने गुरू के हुकम में चल के आत्मिक आनंद पाया है।2।

पउड़ी ॥ लेखा पड़ीऐ हरि नामु फिरि लेखु न होई ॥ पुछि न सकै कोइ हरि दरि सद ढोई ॥ जमकालु मिलै दे भेट सेवकु नित होई ॥ पूरे गुर ते महलु पाइआ पति परगटु लोई ॥ नानक अनहद धुनी दरि वजदे मिलिआ हरि सोई ॥२८॥ {पन्ना 1248}

पद्अर्थ: लेखु = चित्र, पापों विकारों का मन में संचय। दरि = दर पर, हजूरी में। सद = सदा। ढोई = पहुँच, आसरा। भेट दे मिलै = भेटा आगे रख के मिलता है, आदर सत्कार करता है। महलु = ठिकाना, असल घर, प्रभू का मिलाप। पति = इज्जत। लोई = जगत में, लोक में (कहत कबीर सुनहु रे लोई। रे लोई = हे जगत!)। अनहद = (अन+हद) एक रस, बिना बजाए बजने वाले। धुनी = सुर। अनहद धुनी = एक रस सुर वाले बाजे। दरि = दर पर, हजूरी में, प्रभू की हजूरी में रहने वाली अवस्था में।

अर्थ: अगर हरी-नाम (सिमरन-रूपी) लेखा पढ़ें तो फिर विकार आदि के संस्कारों का चित्र मन में नहीं बनता; प्रभू की हजूरी में सदा पहुँच बनी रहती है, किसी विकार के बारे में कोई पूछ नहीं सकता (भाव, कोई भी ऐसा बुरा कर्म नहीं किया होता जिस के बाबत कोई उंगली उठा सके); जम काल (चोट करने की जगह) आदर-सत्कार करता है और सदा के लिए सेवक बन जाता है।

पर यह मेल वाली अवस्था पूरे गुरू से हासिल होती है और जगत में इज्जत बन जाती है। हे नानक! जब वह प्रभू मिल जाता है, उसकी हजूरी में (टिके रहने पर, अंदर, जैसे) एक-रस सुर वाले बाजे बजने लग जाते हैं।28।

सलोक मः ३ ॥ गुर का कहिआ जे करे सुखी हू सुखु सारु ॥ गुर की करणी भउ कटीऐ नानक पावहि पारु ॥१॥ {पन्ना 1248}

पद्अर्थ: सारु = श्रेष्ठ। पारु = ( 'भउ' के) उस पार। पावहि = तू पा लेगा।

अर्थ: अगर मनुष्य सतिगुरू के बताए हुए हुकम की पालना करे तो सुखों में से चुनिंदा श्रेष्ठ सुख मिलता है। सतिगुरू के द्वारा बताया हुआ कर्म करने से डर दूर हो जाता है, हे नानक! (यदि तू गुरू वाली 'करणी' करेगा तो) तू ('भउ' का) उस पार का किनारा पा लेगा (भाव, 'भउ'-सागर से पार लांघ जाएगा)।1।

मः ३ ॥ सचु पुराणा ना थीऐ नामु न मैला होइ ॥ गुर कै भाणै जे चलै बहुड़ि न आवणु होइ ॥ नानक नामि विसारिऐ आवण जाणा दोइ ॥२॥ {पन्ना 1248}

पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा, सदा कायम रहने वाले परमात्मा के साथ बना प्यार। मैला = विकारों से गंदा। पुराणा = कमजोर।

अर्थ: (हे भाई! यदि मनुष्य सदा-स्थिर परमात्मा के साथ प्यार डाल ले तो) परमात्मा के साथ बना हुआ वह प्यार कभी कमजोर नहीं होता। (जिस हृदय में) परमात्मा का नाम (बसता है, वह हृदय कभी) विकारों से गंदा नहीं होता।

अगर मनुष्य गुरू की रज़ा में चले तो दोबारा उसको जनम (मरन का चक्कर) नहीं होता। हे नानक! अगर नाम बिसार दें तो जनम-मरीण दोनों बने रहते हैं (भाव, जनम-मरण के चक्करों में पड़े रहते हैं)।2।

पउड़ी ॥ मंगत जनु जाचै दानु हरि देहु सुभाइ ॥ हरि दरसन की पिआस है दरसनि त्रिपताइ ॥ खिनु पलु घड़ी न जीवऊ बिनु देखे मरां माइ ॥ सतिगुरि नालि दिखालिआ रवि रहिआ सभ थाइ ॥ सुतिआ आपि उठालि देइ नानक लिव लाइ ॥२९॥ {पन्ना 1248}

पद्अर्थ: मंगत जनु = मंगता (मै मंगता)। जाचै = माँगता है। दानु = खैर। हरि = हे प्रभू! सुभाइ = स्वै भाइ, प्यार से। दरसनि = दर्शनों से, दीदार करने से। त्रिपताइ = तृप्त हो जाया जाता है, संतोख पैदा होता है। न जीवऊ = मैं जी नहीं सकता। माइ = हे माँ! सतिगुरि = गुरू ने। सभि थाइ = हर जगह। लिव लाइ = लगन लगा के। उठालि = जगा के।

अर्थ: हे प्रभू! मैं जाचक (मैं मँगता) एक ख़ैर माँगता हूँ, अपने हाथ से (वह ख़ैर) मुझे दे, मुझे, हे हरी! तेरे दीदार की प्यास है, दीदार से ही (मेरे अंदर) शीतलता आ सकती है।

हे माँ! मैं हरी के दर्शनों के बिना मरता हूँ एक पल भर घड़ी भर भी जी नहीं सकता।

जब मेरे गुरू ने मेरा प्रभू मेरे अंदर ही दिखा दिया तो वह सब जगह व्यापक दिखाई देने लग पड़ा।

हे नानक! (अपने नाम की) लगन लगा के वह स्वयं ही (माया में) सोए हुओं को जगा के (नाम की) दाति देता है।29।

सलोक मः ३ ॥ मनमुख बोलि न जाणन्ही ओना अंदरि कामु क्रोधु अहंकारु ॥ थाउ कुथाउ न जाणनी सदा चितवहि बिकार ॥ दरगह लेखा मंगीऐ ओथै होहि कूड़िआर ॥ आपे स्रिसटि उपाईअनु आपि करे बीचारु ॥ नानक किस नो आखीऐ सभु वरतै आपि सचिआरु ॥१॥ {पन्ना 1248}

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले लोग। कुथाउ = खराब जगह। ओना, जाणनी = (अक्षर 'न' के साथ आधा 'ह' है = जिसे पढ़ना है 'ओन्हा', 'जाणन्ही')। चितवहि = सोचते हैं। दरगह = प्रभू की हजूरी में। उपाईअनु = उपाई है उस प्रभू ने। किस नो आखीअै = किसी को भी बुरा नहीं कहा जा सकता। सभु = हर जगह। वरतै = मौजूद है। होहि = होते हैं। होहि कूड़िआर = नाशवंत पदार्थों के व्यापारी ही साबित होते हैं। सचिआरु = सत्य का श्रोत प्रभू।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले लोग सही बात करनी भी नहीं जानते क्योंकि उनके मन में काम क्रोध और अहंकार (प्रबल) होता है; वे सदा ही बुरी बातें ही सोचते हैं, उचित-अनुचित जगह भी नहीं समझते (भाव, उन्हें यह समझ भी नहीं होती कि यह काम यहाँ करना फबता भी है अथवा नहीं); जब प्रभू की हजूरी में किए कर्मों का हिसाब पूछा जाता है तब वह झूठे साबित होते हैं।

पर, हे नानक! उस प्रभू ने स्वयं ही सारी सृष्टि पैदा की है, (भाव, सबमें व्यापक हो के) वह स्वयं ही हरेक विचार कर रहा है, सब जगह वह सच का श्रोत प्रभू स्वयं (ही) मौजूद है, सो, किसी (मनमुख) को (भी बुरा) नहीं कहा जा सकता।1।

मः ३ ॥ हरि गुरमुखि तिन्ही अराधिआ जिन्ह करमि परापति होइ ॥ नानक हउ बलिहारी तिन्ह कउ जिन्ह हरि मनि वसिआ सोइ ॥२॥ {पन्ना 1248}

पद्अर्थ: गुरमुखि = वह लोग जो गुरू के सन्मुख रहते हैं। करमि = (प्रभू की) मेहर से। परापति होइ = मिला होता है, भाग्यों में लिखा होता है। हउ बलिहारी = मैं सदके। मनि = मन में। सोइ हरि = वह प्रभू।

अर्थ: गुरू के सन्मुख रह के उन मनुष्यों ने प्रभू को सिमरा है जिनके भाग्यों में प्रभू की मेहर से 'सिमरन' लिखा हुआ है। हे नानक! (कह-) मैं उन लोगों से सदके हूँ, जिनके मन में वह प्रभू बसता है।2।

पउड़ी ॥ आस करे सभु लोकु बहु जीवणु जाणिआ ॥ नित जीवण कउ चितु गड़्ह मंडप सवारिआ ॥ वलवंच करि उपाव माइआ हिरि आणिआ ॥ जमकालु निहाले सास आव घटै बेतालिआ ॥ नानक गुर सरणाई उबरे हरि गुर रखवालिआ ॥३०॥ {पन्ना 1248}

पद्अर्थ: सभ लोकु = सारा जगत। बहु जीवन = लंबी उम्र। जाणिआ = जान के, समझ के। गढ़ = किले। बलवंच = ठॅगियां। उपाव = उपाय, हीले। हिरि = चुरा के। आणिआ = लाए हैं। निहाले = देखता है, ध्यान से देखता है, गिनता है। आव = उम्र। बेतालिआ = भूतने जैसे मनुष्य की, सही जीवन चाल से टूटे हुए मनुष्य की। सास = सांस (बहुवचन)। जीवन कउ = जीने के लिए। चितु = दिल, तमन्ना।

अर्थ: लंबी जिंदगी समझ के सारा जग (भाव, हरेक दुनियादार मनुष्य) आशाएं बनाता है, सदा जीने की तमन्ना (रखता है और) किले-मड़ियां आदि सजाता (रहता) है, ठॅगियां और अन्य कई उपाय कर कर के (दूसरों का) माल ठॅग के ले के आता है, (ऊपर से) जमराज (इसकी) सांसें गिनता जा रहा है, जीवन-ताल से टूटे हुए इस मनुष्य की उम्र घटती चली जा रही है।

हे नानक! (आशाओं के इस लंबे जाल में से) वही बचते हैं जो गुरू की शरण पड़ते हैं जिनका रखवाला गुरू अकाल-पुरख स्वयं बनता है।30।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh