श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1249

सलोक मः ३ ॥ पड़ि पड़ि पंडित वादु वखाणदे माइआ मोह सुआइ ॥ दूजै भाइ नामु विसारिआ मन मूरख मिलै सजाइ ॥ जिन्हि कीते तिसै न सेवन्ही देदा रिजकु समाइ ॥ जम का फाहा गलहु न कटीऐ फिरि फिरि आवहि जाइ ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ सतिगुरु मिलिआ तिन आइ ॥ अनदिनु नामु धिआइदे नानक सचि समाइ ॥१॥ {पन्ना 1249}

पद्अर्थ: वादु = बहस, झगड़ा, चर्चा। सुआइ = स्वाद में। सजाइ = सजा। जिनि् = जिस (प्रभू) ने। समाइ देदा = पहुँचता है ( = संबाहि)। जाइ = जनम ले के। आवहि जाइ = जनम ले के आते हैं। सचि = सच में, सदा कायम रहने वाले परमात्मा में। गलहु = गले से।

अर्थ: पंडित (धर्म-पुस्तकें) पढ़-पढ़ के (सिर्फ) चर्चा ही करते हैं और माया के मोह के चस्के में (फसे रहते हैं; माया के प्यार में) प्रभू का नाम भुलाए रखते हैं (इस वास्ते) मूर्ख मन को सजा मिलती है; जिस (प्रभू) ने पैदा किया है जो (सदा) रिज़क पहुँचाता है उसको याद नहीं करते, (इस कारण) उनके गले से जमों की फाही काटी नहीं जाती, वे (जगत में) बार-बार पैदा होते (मरते) हैं।

जिनके भाग्यों में धुर से (सिमरन का लेख) लिखा हुआ है उन्हें गुरू आ मिलता है, हे नानक! वे सदा-स्थिर प्रभू में लीन रह के हर रोज नाम सिमरते हैं।1।

मः ३ ॥ सचु वणजहि सचु सेवदे जि गुरमुखि पैरी पाहि ॥ नानक गुर कै भाणै जे चलहि सहजे सचि समाहि ॥२॥ {पन्ना 1249}

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रह के। सचि = सच में, सदा स्थिर प्रभू में। सचु = सदा कायम रहने वाला नाम। वणजहि = व्यापार करते हैं। सहजे = आत्मिक अडोलता में टिक के।

अर्थ: जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ के (गुरू के) चरणों में लगते हैं, वे प्रभू के नाम का व्यापार करते हैं, नाम सिमरते हैं। हे नानक! जो गुरू के हुकम में चलते हैं, वे आत्मिक अडोलता में टिक के सच्चे नाम में लीन हो जाते हैं।

(नोट: ऊपर दिए गए 'समाइ' और यहाँ के 'समाहि' में अंतर है, याद रखें)।

पउड़ी ॥ आसा विचि अति दुखु घणा मनमुखि चितु लाइआ ॥ गुरमुखि भए निरास परम सुखु पाइआ ॥ विचे गिरह उदास अलिपत लिव लाइआ ॥ ओना सोगु विजोगु न विआपई हरि भाणा भाइआ ॥ नानक हरि सेती सदा रवि रहे धुरि लए मिलाइआ ॥३१॥ {पन्ना 1249}

पद्अर्थ: अति घणा = बहुत ज्यादा। मनमुखि = मन का मुरीद मनुष्य, अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। निरास = (निर+आस) आशाओं से निराले। परम = सबसे ऊँचा। गिरह = घर, गृहस्त। विचे = बीच में ही। अलिपत = (अ+लिप्त) जो लिपे नहीं जाते, जिन पर असर नहीं होता, निराले, अछोह। ओना = (ओन्हा)। सोगु = शोक, अफसोस। विजोगु = विछोड़ा। न विआपई = ना व्यापे, दबाव नहीं डालता। भाणा = रजा। भाइआ = अच्छा लगता है। रवि रहे = रले मिले रहते हैं। धुरि = धर से, हजूरी से। सेती = साथ, से।

अर्थ: मन के पीछे चलने वाला मनुष्य आशाओं में चिक्त जोड़ता है (भाव, आशाएं बनाता रहता है, पर) आशाओं (चितवनी) में बहुत ज्यादा दुख होता है। जो मनुष्य गुरू के बताए हुए राह पर चलते हैं वे आशाएं नहीं चितवते, इसलिए उन्हें बहुत ही ऊँचा सुख मिलता है; वे गृहस्त में रहते हुए ही (प्रभू चरणों में) सुरति जोड़ते हैं और आशाओं से ऊपर रहते हैं, उन पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता, सो, उनको (माया का) विछोड़ा नहीं सताता और ना ही (इस वियोग से पैदा होने वाला) ग़म आ के दबाव डालता है, उन्हें प्रभू की रज़ा अच्छी लगती है; हे नानक! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य परमात्मा के साथ रले-मिले रहते हैं, उनको धुर से ही प्रभू ने अपने साथ मिला लिया होता है।31।

सलोक मः ३ ॥ पराई अमाण किउ रखीऐ दिती ही सुखु होइ ॥ गुर का सबदु गुर थै टिकै होर थै परगटु न होइ ॥ अंन्हे वसि माणकु पइआ घरि घरि वेचण जाइ ॥ ओना परख न आवई अढु न पलै पाइ ॥ जे आपि परख न आवई तां पारखीआ थावहु लइओु परखाइ ॥ जे ओसु नालि चितु लाए तां वथु लहै नउ निधि पलै पाइ ॥ घरि होदै धनि जगु भुखा मुआ बिनु सतिगुर सोझी न होइ ॥ सबदु सीतलु मनि तनि वसै तिथै सोगु विजोगु न कोइ ॥ वसतु पराई आपि गरबु करे मूरखु आपु गणाए ॥ नानक बिनु बूझे किनै न पाइओ फिरि फिरि आवै जाए ॥१॥ {पन्ना 1249}

नोट: इस शलोक की दूसरी तुक से ऐसा लगता है कि गुरू अमरदास जी ने यह गुरू रामदास जी को गुरुता-गद्दी सौंपते वक्त संन् 1574 में लिखीं थीं।

पद्अर्थ: अमाण = अमानत। गुर थै = गुरू में। होरथै = किसी और के अंदर। माणकु = मोती। परख = सार, कद्र। अढु = आधी कौड़ी। पलै न पाइ = नहीं मिलती। थावहु = से, पास से। परखाइ लइओु = परखवा लेना, कोई भी चाहे मूल्यांकन करवा लेवे (लइउ = हुकमी भविष्यत, अॅन पुरख, एक वचन, Imperative mood, Third Person, Singular Number)। वथु = नाम वस्तु, नाम सेती। नउ निधि = नौ खजाने। तिथै = उस मन तन में। गरबु = अहंकार। आपु गणाऐ = अपने आप को अच्छा जानता है। पाइओ = ('लइओु' 'पाइओ' में फर्क याद रखने योग्य है)। घरि घरि = हरेक घर में।

अर्थ: बेगानी अमानत संभाल नहीं लेनी चाहिए, इसके देने से ही सुख मिलता है; सतिगुरू का शबद सतिगुरू में ही टिक सकता है, किसी और के अंदर (पूरे जोबन में) नहीं चमकता; (क्योंकि) अगर एक मोती किसी अंधे को मिल जाए तो वह उसको बेचने के लिए घर-घर फिरता है, आगे से उन लोगों को उस मोती की कद्र नहीं होती, (इस लिए इस अंधे को) आधी कौड़ी भी नहीं मिलती।

मोती की कद्र यदि स्वयं करनी ना आती हो, तो बेशक कोई पक्ष किसी पारखी से (उसका) मूल्यांकन करवा के देख ले। उस पारखी से प्रेम लगाने से वह नाम-मोती मिला रहता है (भाव, हाथ से व्यर्थ नहीं जाता) और (जैसे) नौ खजाने प्राप्त हो जाते हैं।

(हृदय) घर में (नाम) धन होते हुए भी जगत भूखा (भाव, तृष्णा का मारा) मर रहा है, ये समझ गुरू के बिना नहीं आती; जिसके मन में तन में ठंड डालने वाला शबद बसता है उसको (प्रभू से) विछोड़ा नहीं होता और ना ही सोग व्यापता है।

(पर, यह नाम-) वस्तु मूर्ख के लिए तो बेगानी रहती है (भाव, मूर्ख के हृदय में नहीं बसती) वह अहंकार करता हैऔर अपने आप को बड़ा जताता है। हे नानक! जब तक (गुरू-शबद के द्वारा) समझ नहीं पड़ती, तब तक किसी ने (ये नाम धन) प्राप्त नहीं किया (और इस नाम-धन के बिना जीव) बार-बार पैदा होता मरता रहता है।1।

मः ३ ॥ मनि अनदु भइआ मिलिआ हरि प्रीतमु सरसे सजण संत पिआरे ॥ जो धुरि मिले न विछुड़हि कबहू जि आपि मेले करतारे ॥ अंतरि सबदु रविआ गुरु पाइआ सगले दूख निवारे ॥ हरि सुखदाता सदा सलाही अंतरि रखां उर धारे ॥ मनमुखु तिन की बखीली कि करे जि सचै सबदि सवारे ॥ ओना दी आपि पति रखसी मेरा पिआरा सरणागति पए गुर दुआरे ॥ नानक गुरमुखि से सुहेले भए मुख ऊजल दरबारे ॥२॥ {पन्ना 1249}

पद्अर्थ: मनि = मन में। सरसे = (स+रसे) खिल उठे, प्रसन्न हो गए। सजण = गुरमुख। धुरि = धुर से, आदि से। जि = जिनको। रविआ = प्रकट हुआ, बसा। निवारे = दूर किए। अंतरि उरधारे = हृदय में धार के। बखीली = चुगली। सचै = सच्चे प्रभू ने। सबदि = गुरू शबद द्वारा। पति = इज्जत। सहेले = सुखी। दरबारे = प्रभू की हजूरी में। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य।

अर्थ: वे गुरमुख प्यारे संत खिले माथे रहते हैं, उनके मन में खुशी बनी रहती है, जिनको प्रीतम प्रभू मिल जाता है; जो धुर से प्रभू के साथ मिले हुए होते हैं, जिनको करतार ने खुद अपने साथ मिलाया है, वे कभी उससे विछुड़ते नहीं हैं।

जिनके अंदर गुरू का शबद बसता है, जिनको गुरू मिल जाता है, उनके सारे दुख दूर हो जाते हैं, (उनके अंदर यह तमन्ना होती है-) मैं सुख देने वाले प्रभू की सदा सिफत-सालाह करूँ, मैं प्रभू को सदा हृदय में संभाल के रखूँ।

जिनको गुरू-शबद के द्वारा सच्चे प्रभू ने खुद सुंदर बना दिया है, कोई मनमुख उनकी क्या निंदा कर सकता है? प्यारा प्रभू उनकी लाज खुद रखता है, वह सदा गुरू के दर पर प्रभू की शरण में टिके रहते हैं।2।

पउड़ी ॥ इसतरी पुरखै बहु प्रीति मिलि मोहु वधाइआ ॥ पुत्रु कलत्रु नित वेखै विगसै मोहि माइआ ॥ देसि परदेसि धनु चोराइ आणि मुहि पाइआ ॥ अंति होवै वैर विरोधु को सकै न छडाइआ ॥ नानक विणु नावै ध्रिगु मोहु जितु लगि दुखु पाइआ ॥३२॥ {पन्ना 1249}

पद्अर्थ: पुरखै = मनुष्य की। मिलि = (स्त्री को) मिल के। कलत्रु = स्त्री। विगसै = खुश होता है। मोहि = मोह के कारण। देसि = अपने देश में से। परदेसि = और देश में से। आणि = ला के। मुहि = मुँह में। अंति = आखिर को। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। जितु = जिस में।

अर्थ: मनुष्य की (अपनी) पत्नी के साथ बड़ी प्रीत होती है, (पत्नी को) मिल के बड़ा मोह करता है; नित्य (अपने) पुत्र को और (अपनी) पत्नी को देखता है और माया के मोह के कारण खुश होता है; देस-परदेस से धन ठॅग के ला के उनको खिलाता है;

आखिर, ये धन वैर-विरोध पैदा कर देता है (और धन की खातिर किए पापों से) कोई बचा नहीं सकता। हे नानक! नाम से वंचित रह के ये मोह धिक्कार-योग्य है, क्योंकि इस मोह में लग के मनुष्य दुख पाता है।32।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh