श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक मः ३ ॥ गुरमुखि अम्रितु नामु है जितु खाधै सभ भुख जाइ ॥ त्रिसना मूलि न होवई नामु वसै मनि आइ ॥ बिनु नावै जि होरु खाणा तितु रोगु लगै तनि धाइ ॥ नानक रस कस सबदु सलाहणा आपे लए मिलाइ ॥१॥ {पन्ना 1250}

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के पास। अंम्रितु = सॅुचा पवित्र भोजन, आत्मिक जीवन देने वाला भोजन। जितु खाधे = जिसके खाने से। भुख = तृष्णा, माया की भूख। मनि = मन में। बिनु नावै = नाम को बिसार के। जि होर खाणा = खाने पीने का और जो भी चस्का है। तितु = उस (चस्के) के कारण। धाइ = दौड़ के, गहरा असर करके। रस कस = कई तरह के रस चस्के। सालाहणा = सिफत सालाह।

अर्थ: गुरू के पास प्रभू का नाम एक ऐसा पवित्र भोजन है जिसके खाने से (माया की) भूख सारी दूर हो जाती है, (माया की) तृष्णा बिल्कुल ही नहीं रहती, मन में प्रभू का नाम आ बसता है। प्रभू का नाम बिसार के खाने-पीने का जो भी कोई और चस्का (मनुष्य को लगता) है उससे (तृष्णा का) रोग शरीर में बड़ा गहरा असर डाल के आ ग्रसता है।

हे नानक! अगर मनुष्य (माया के) अनेकों किस्म के स्वादों की जगह गुरू के शबद को प्रभू की सिफत-सालाह को ग्रहण करे तो प्रभू स्वयं ही इसको अपने साथ मिला लेता है।1।

मः ३ ॥ जीआ अंदरि जीउ सबदु है जितु सह मेलावा होइ ॥ बिनु सबदै जगि आन्हेरु है सबदे परगटु होइ ॥ पंडित मोनी पड़ि पड़ि थके भेख थके तनु धोइ ॥ बिनु सबदै किनै न पाइओ दुखीए चले रोइ ॥ नानक नदरी पाईऐ करमि परापति होइ ॥२॥ {पन्ना 1250}

पद्अर्थ: जीउ = जिंद। सबदु = प्रभू की सिफतसालाह की बाणी। जितु = जिससे। सह = पति का। जगि = जगत में। परगटु = रोशनी। मोनी = मुनि लोक। भेख = भेखों वाले। तनु धोइ = (तीर्थों पर) शरीर को धो के। नदरि = मेहर की नजर से। करमि = बख्शिश से।

अर्थ: प्रभू की सिफतसालाह ही जीवों के अंदर जिंदगी है, इस सिफतसालाह से पति-प्रभू से (जीव का) मिलाप होता है; प्रभू की सिफतसालाह से टूट के जगत में (आत्मिक जीवन से) अंधेरा है, शबद से ही (अंधेरा दूर हो के, आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश होता है।

मुनि जन और पंडित (धार्मिक पुस्तकें) पढ़-पढ़ के हार गए, भेषधारी साधू तीर्थों पर स्नान कर-कर के थक गए, पर सिफत-सालाह की बाणी के बिना किसी को भी पति-प्रभू नहीं मिला, सब दुखी हो के रो के यहाँ से गए।

हे नानक! सिफतसालाह भी प्रभू की मेहर की नजर से मिलती है, प्रभू की बख्शिश से ही प्राप्त होती है।2।

पउड़ी ॥ इसत्री पुरखै अति नेहु बहि मंदु पकाइआ ॥ दिसदा सभु किछु चलसी मेरे प्रभ भाइआ ॥ किउ रहीऐ थिरु जगि को कढहु उपाइआ ॥ गुर पूरे की चाकरी थिरु कंधु सबाइआ ॥ नानक बखसि मिलाइअनु हरि नामि समाइआ ॥३३॥ {पन्ना 1250}

पद्अर्थ: अति नेहु = बहुत प्यार। बहि = बैठ के। मंदु = बुरी सलाह, विकार की चितवनी। चलसु = नाश हो जाएगी। जगि = जगत में। को उपाइआ = कोई उपाय। कढहु = ढूँढो। चाकरी = सेवा। थिरु = सदा कायम। कंधु = शरीर। सबाइआ = सारा। बखसि = मेहर कर के। मिलाइअनु = मिलाए हैं उस (प्रभू) ने। नामि = नाम में। सेवा = भगती। थिरु = अटल, अडोल, (विकारों से मुकाबले में) शक्तिशाली।

अर्थ: (अगर) मनुष्य का (अपनी) स्त्री के साथ बहुत प्यार है (तो इसका नतीजा आम तौर पर यही निकलता है कि) बैठ के कोई विकार की चितवनी ही चितवता है (और नाशवंत से मोह बढ़ता जाता है); पर, मेरे प्रभू की रज़ा यह है कि जो कुछ (आँखों से) दिखता है ये सब नाश हो जाना है।

फिर कोई ऐसा उपाय तलाशो जिससे जगत में हमेशा टिके रह सकें (भाव, सदा टिके रहने वाले प्रभू से एक-सुर हो सकें), (वह उपाय) पूरे सतिगुरू की (बताई हुई) सेवा-भगती ही है जिस के कारण सारा शरीर (भाव, सारी ज्ञानेन्द्रियां) (विकारों के मुकाबले में) अडोल रह सकती हैं।

हे नानक! जिन पर उस प्रभू ने मेहर करके (अपने साथ) मिलाया है वे उस हरी के नाम में लीन रहते हैं।33।

सलोक मः ३ ॥ माइआ मोहि विसारिआ गुर का भउ हेतु अपारु ॥ लोभि लहरि सुधि मति गई सचि न लगै पिआरु ॥ गुरमुखि जिना सबदु मनि वसै दरगह मोख दुआरु ॥ नानक आपे मेलि लए आपे बखसणहारु ॥१॥ {पन्ना 1250}

पद्अर्थ: हेतु = प्यार, हित। अपारु = बेअंत। अपारु हेतु = बेअंत प्यार (जो गुरू जीवों के साथ करता है)। लोभि = लोभ में। लोभि लहरि = लोभ रूप लहर में फस के। सुधि मति = बुद्धि होश। सचि = सच्चे प्रभू में। मोख दुआरु = (माया के मोह से) बचने का राह। भउ = डर, अदब।

अर्थ: माया के मोह में पड़ के मनुष्य गुरू का अदब भुला देता है, और (यह भी) बिसार देता है कि गुरू (कितना) बेअंत प्यार (इससे करता है); लोभ-लहर में फंस के इसकी अकल-होश गुम हो जाती है, सदा-स्थिर प्रभू में इसका प्यार नहीं बनता।

गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों के मन में गुरू का शबद बसता है, उनको प्रभू की हजूरी प्राप्त हो जाती है, उनको माया के मोह से बचने का राह मिल जाता है; हे नानक! बख्शणहार प्रभू स्वयं ही गुरमुखों को अपने साथ मिला लेता है।1।

मः ४ ॥ नानक जिसु बिनु घड़ी न जीवणा विसरे सरै न बिंद ॥ तिसु सिउ किउ मन रूसीऐ जिसहि हमारी चिंद ॥२॥ {पन्ना 1250}

पद्अर्थ: सरै न बिंद = एक घड़ी भी नहीं निभती। विसरै सरै न बिंद = (जिसे) बिसर के एक घड़ी भी नहीं सरता। जिसहि = जिस को। चिंद = फिकर।

अर्थ: हे नानक! कह- जिस प्रभू के बिना एक घड़ी भी नहीं जीया जा सकता, जिसको एक घड़ी के लिए भी बिसार के नहीं निभती, हे मन! जिस प्रभू को हमारा (हर वक्त) फिकर है, उससे रूठना ठीक नहीं।2।

मः ४ ॥ सावणु आइआ झिमझिमा हरि गुरमुखि नामु धिआइ ॥ दुख भुख काड़ा सभु चुकाइसी मीहु वुठा छहबर लाइ ॥ सभ धरति भई हरीआवली अंनु जमिआ बोहल लाइ ॥ हरि अचिंतु बुलावै क्रिपा करि हरि आपे पावै थाइ ॥ हरि तिसहि धिआवहु संत जनहु जु अंते लए छडाइ ॥ हरि कीरति भगति अनंदु है सदा सुखु वसै मनि आइ ॥ जिन्हा गुरमुखि नामु अराधिआ तिना दुख भुख लहि जाइ ॥ जन नानकु त्रिपतै गाइ गुण हरि दरसनु देहु सुभाइ ॥३॥ {पन्ना 1250}

पद्अर्थ: झिमझिमा = एक रस बरसने वाला, झड़ी लगा के बरसना। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख मनुष्य। काड़ा = काढ़ा, गर्मी। वुठा = बसता है। छहबर = झड़ी। हरीआवली = (हरी+आवली), हरियाली, सब्जी वाली। जंमिआ = पैदा होता है। बोहल = दानों के ढेर। पावै थाइ = कबूल करता है। कीरति = सिफतसालाह। भगति = बँदगी। त्रिपतै = तृप्त होता है। सुभाइ = स्वभाव अनुसार, मेहर से। अचिंतु = अ+चिंत, जिसे कोई चिंता छू नहीं सकती। गुरमुखि = गुरू के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य।

अर्थ: जो मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के हरी का नाम सिमरता है (उसके लिए, जैसे) झिमझिम बरसने वाला सावन (का महीना) आ जाता है, जब झड़ी लगा के वर्षा होती है, गर्मी और लोगों की भूख और दुख सब दूर कर देता है, (क्योंकि) सारी धरती पर हरियाली ही दिखती है और ढेरों के ढेर अन्न पैदा होता है, (इसी तरह, गुरमुख को) अचिंत प्रभू खुद ही मेहर करके अपने नजदीक लाता है, उसकी मेहनत को खुद ही प्रवान करता है।

हे संत जनो! उस प्रभू को याद करो जो आखिर (इन दुखों-भूखों से) खलासी दिलाता है। प्रभू की सिफतसालाह और बँदगी में ही (असल) आनंद है, सदा के लिए मन में सुख आ बसता है। जिन गुरमुखों ने नाम सिमरा है उनके दुख दूर हो जाते हैं, उनकी तृष्णा समाप्त हो जाती है। दास नानक भी प्रभू के गुण गा-गा के ही (माया की ओर से) तृप्त है (और अरज़ोई करता है-) हे हरी! मेहर कर के दीदार दे।3।

पउड़ी ॥ गुर पूरे की दाति नित देवै चड़ै सवाईआ ॥ तुसि देवै आपि दइआलु न छपै छपाईआ ॥ हिरदै कवलु प्रगासु उनमनि लिव लाईआ ॥ जे को करे उस दी रीस सिरि छाई पाईआ ॥ नानक अपड़ि कोइ न सकई पूरे सतिगुर की वडिआईआ ॥३४॥ {पन्ना 1250}

पद्अर्थ: दाति = बख्शिश। चढै सवाइआ = बढ़ती है। तुसि = त्रुठ के, प्रसन्न हो के। न छपै छपाइआ = छुपाए नहीं छुपती। उनमन = उन्मन में, चढ़दीकला में, पूर्ण खिलाव में। सिरि = सिर पर। छाई = राख। सिरि छाई पाइआ = नामोशी कमाता है।

अर्थ: पूरे सतिगुरू की दी हुई (नाम की) दाति जो वह सदा देता है बढ़ती रहती है; (गुरू की मेहर की नजर के कारण यह दाति) दयालु प्रभू खुद प्रसन्न हो के देता है, और किसी के छुपाने से छुपती नहीं;

(जिस मनुष्य पर गुरू की तरफ से बख्शिश हो उसके) हृदय का कमल फूल खिल उठता है, वह पूरन खिलाव में टिका रहता है (उसके हृदय में आनंदमयी अवस्था बनी रहती है); जो मनुष्य उसकी बराबरी करने का यतन करता है वह नामोशी ही कमाता है।

हे नानक! पूरे गुरू की बख्शी हुई वडिआई की कोई मनुष्य बराबरी नहीं कर सकता।34।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh