श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक मः ३ ॥ अमरु वेपरवाहु है तिसु नालि सिआणप न चलई न हुजति करणी जाइ ॥ आपु छोडि सरणाइ पवै मंनि लए रजाइ ॥ गुरमुखि जम डंडु न लगई हउमै विचहु जाइ ॥ नानक सेवकु सोई आखीऐ जि सचि रहै लिव लाइ ॥१॥ {पन्ना 1251}

पद्अर्थ: अमरु = अ+मरु, अटल। वेपरवाहु = बे मुथाज। हुजति = दलील। आपु = स्वै भाव। रजाइ = रज़ा। सचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य।

अर्थ: परमात्मा अटल है, बे-मुथाज, उसके साथ कोई चालाकी नहीं चल सकती, ना ही (उसके हुकम के आगे) कोई दलील पेश की जा सकती है; गुरमुख मनुष्य स्वै-भाव छोड़ के उसकी शरण पड़ता है, उसकी रज़ा के आगे सिर झुकाता है, (तभी तो) गुरमुख को जमराज प्रताड़ित नहीं कर सकता, उसके मन में से अहंकार दूर हो जाता है।

हे नानक! प्रभू का सेवक उसको कहा जा सकता है जो (स्वै-भाव छोड़ के) सच्चे प्रभू में सुरति जोड़े रखता है।1।

मः ३ ॥ दाति जोति सभ सूरति तेरी ॥ बहुतु सिआणप हउमै मेरी ॥ बहु करम कमावहि लोभि मोहि विआपे हउमै कदे न चूकै फेरी ॥ नानक आपि कराए करता जो तिसु भावै साई गल चंगेरी ॥२॥ {पन्ना 1251}

पद्अर्थ: जोति = जिंद, प्राण। सूरति = शरीर। विआपे = ग्रसे हुए, फसे हुए। फेरी = जनम मरण का चक्कर। साई = वही। गल = बात। मेरी = ममता।

अर्थ: (हे प्रभू!) ये जिंद और ये शरीर सब तेरी ही बख्शी हुई दाति है, (तेरा शुकर करने की बजाए) बड़ी-बड़ी चालाकियां (करनी) अहंम् और ममता के कारण ही है। अगर मनुष्य (तेरी याद भुला के) लोभ और मोह में फसे हुए अन्य कर्म करते हैं, अहंकार के कारण उनका जनम-मरण का चक्र खत्म नहीं होता; (पर) हे नानक! (किसी को बुरा नहीं कहा जा सकता), करतार सब कुछ खुद करा रहा है, जो उसको अच्छा लगता है उसको अच्छी बात समझना (-यही है जीवन का सही रास्ता)।2।

पउड़ी मः ५ ॥ सचु खाणा सचु पैनणा सचु नामु अधारु ॥ गुरि पूरै मेलाइआ प्रभु देवणहारु ॥ भागु पूरा तिन जागिआ जपिआ निरंकारु ॥ साधू संगति लगिआ तरिआ संसारु ॥ नानक सिफति सलाह करि प्रभ का जैकारु ॥३५॥ {पन्ना 1251}

नोट: यह पौड़ी पाँचवे सतिगुरू गुरू अरजन साहिब जी की है, जो पौड़ी नं: 34 की और ज्यादा व्याख्या करने के लिए है (देखें मलार की वार महला १ पौड़ी नं: 27)

पद्अर्थ: खाणा = खुराक। पैनणा = पोशाक। आधारु = आसरा। गुरि = गुरू ने। निरंकारु = आकार रहित प्रभू, वह प्रभू जिसका कोई खास स्वरूप नहीं। जैकारु = वडिआई। करि = कर के।

अर्थ: पूरे सतिगुरू ने (जिस मनुष्य को) सब दातें देने वाला सतिगुरू मिला दिया है उसकी (जिंद की) खुराक और पोशाक प्रभू का नाम हो जाता है, नाम ही उसका आसरा हो जाता है (जैसे खुराक और पोशाक शरीर के लिए आवश्यक हैं)।

उन लोगों की किस्मत पूरी खुल जाती है जो निरंकार को सिमरते हैं।

हे नानक! सत्संग का आसरा ले के, परमात्मा की सिफतसालाह परमात्मा की वडिआई कर के वे मनुष्य संसार-समुंद्र से पार लांघ जाते हैं।35।

सलोक मः ५ ॥ सभे जीअ समालि अपणी मिहर करु ॥ अंनु पाणी मुचु उपाइ दुख दालदु भंनि तरु ॥ अरदासि सुणी दातारि होई सिसटि ठरु ॥ लेवहु कंठि लगाइ अपदा सभ हरु ॥ नानक नामु धिआइ प्रभ का सफलु घरु ॥१॥ {पन्ना 1251}

पद्अर्थ: समालि = संभाल, सार ले। मुचु = बहुत। उपाइ = पैदा कर। दालदु = गरीबी, दरिद्रता। तरु = तार ले। दातारि = दातार ने। सिसटि = सृष्टि। ठरु = ठंड, शांति। अपदा = मुसीबत। हरु = दूर कर। सफलु = फल देने वाला। भंनि = तोड़ के, दूर कर के।

अर्थ: हे प्रभू! अपनी मेहर कर और सारे जीवों की संभाल कर; बहुत सारा अन्न-पानी पैदा कर, जीवों के दुख-दरिद्र दूर कर के बचा ले - (सृष्टि की यह) अरदास दातार ने सुनी और सृष्टि शांत हो गई। (इसी तरह) हे प्रभू! जीवों को अपने नजदीक रख और (इनकी) सारी बिपता दूर कर दे।

हे नानक! (कह- हे भाई!) प्रभू का नाम सिमर, उसका घर मुरादें पूरी करने वाला है।1।

मः ५ ॥ वुठे मेघ सुहावणे हुकमु कीता करतारि ॥ रिजकु उपाइओनु अगला ठांढि पई संसारि ॥ तनु मनु हरिआ होइआ सिमरत अगम अपार ॥ करि किरपा प्रभ आपणी सचे सिरजणहार ॥ कीता लोड़हि सो करहि नानक सद बलिहार ॥२॥ {पन्ना 1251}

पद्अर्थ: मेघ = बादल। वुठे = बरसे, बरखा की। करतारि = करतार ने। उपाइओनु = पैदा किया उसने। अगला = बहुता। संसारि = संसार में। कीता लोड़हि = जो तू करना चाहता है।

अर्थ: जब करतार ने हुकम दिया, सोहाने बादल आ के बरस पड़े, और उस प्रभू ने बेअंत रिज़क (जीवों के लिए) पैदा किया, सारे जगत में ठंड पड़ गई, (इसी तरह करतार की मेहर से गुरू-बादल के उपदेश की बरसात से बेअंत नाम-धन पैदा हुआ और गुरू की शरण आने वाले भाग्यशालियों के अंदर ठंड पड़ी) अपहुँच और बेअंत प्रभू का सिमरन करने से उनका तन-मन खिल उठा।

हे नानक! (अरजोई कर-) हे सदा कायम रहने वाले सृजनहार प्रभू! अपनी मेहर कर (मुझे भी यही नाम-धन दे), जो तू करना चाहता है वही तू करता है, मैं तुझसे सदके हूँ।2।

पउड़ी ॥ वडा आपि अगमु है वडी वडिआई ॥ गुर सबदी वेखि विगसिआ अंतरि सांति आई ॥ सभु आपे आपि वरतदा आपे है भाई ॥ आपि नाथु सभ नथीअनु सभ हुकमि चलाई ॥ नानक हरि भावै सो करे सभ चलै रजाई ॥३६॥१॥ सुधु ॥ {पन्ना 1251}

पद्अर्थ: अगंमु = (अ+गंमु) अपहुँच, जिस तक पहुँच ना हो सके। वडिआई = गुण, बुजुर्गी। गुर सबदी = गुरू के शबद से। विगसिआ = खिल उठा, अंदर खिड़ाव पैदा हुआ। अंतरि = मन में। सभु = हर जगह। आपे = आप ही। वरतदा = मौजूद है। भाई = हे भाई! सभ = सारी सृष्टि। नथीअनु = नाथी है उसने, एक धागे में परोई हुई है, वश में रखी हुई है। हुकमि = हुकम में। रजाई = (उसकी) रज़ा में।

अर्थ: प्रभू (इतना) बड़ा है (कि) उस तक पहुँच नहीं हो सकती, उसकी वडिआई भी बड़ी है (भाव, उस बड़े ने जो रचना रची है वह भी बेअंत है); जिस मनुष्य ने गुरू के शबद द्वारा (उसकी महिमा) देखी है उसके अंदर आनंद की अनुभति पैदा हो गई है, शांति आ बसी है।

हे भाई! (अपनी रची हुई रचना में) हर जगह प्रभू खुद ही मौजूद है; प्रभू स्वयं पति है, सारी सृष्टि को उसने अपने वश में रखा हुआ है, अपने हुकम में चला रहा है।

हे नानक! जो प्रभू को अच्छा लगता है वही करता है, सारी सृष्टि उसकी रज़ा में चल रही है।36।1। सुधु।

रागु सारंग बाणी भगतां की ॥ कबीर जी ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ कहा नर गरबसि थोरी बात ॥ मन दस नाजु टका चारि गांठी ऐंडौ टेढौ जातु ॥१॥ रहाउ ॥ बहुतु प्रतापु गांउ सउ पाए दुइ लख टका बरात ॥ दिवस चारि की करहु साहिबी जैसे बन हर पात ॥१॥ ना कोऊ लै आइओ इहु धनु ना कोऊ लै जातु ॥ रावन हूं ते अधिक छत्रपति खिन महि गए बिलात ॥२॥ हरि के संत सदा थिरु पूजहु जो हरि नामु जपात ॥ जिन कउ क्रिपा करत है गोबिदु ते सतसंगि मिलात ॥३॥ मात पिता बनिता सुत स्मपति अंति न चलत संगात ॥ कहत कबीरु राम भजु बउरे जनमु अकारथ जात ॥४॥१॥ {पन्ना 1251}

पद्अर्थ: गरबसि = तू अहंकार करता है। नर = हे मनुष्य! थोरी बात = थोड़ी सी बात के पीछे। मन = मण (भार)। नाजु = अनाज। टका चारि = चार टके, थोड़ी सी माया। गांठी = पल्ले। अैडौ = इतना।1। रहाउ।

गांउ = गाँव। बरात = जागीर। साहिबी = सरदारी। बन = जंगल के। हर पात = हरे पत्ते।1।

अधिक = ज्यादा। छत्रपति = राजे। गऐ बिलात = चले गए, गायब हो गए।2।

जपात = जपते। मिलात = मिलते हैं।3।

बनिता = पत्नी। सतु = पुत्र। संपति = धन। संगात = साथ। बउरे = हे कमले! अकारथ = व्यर्थ।4।

अर्थ: हे बँदे! थोड़ी सी बात के पीछे (भाव, इस कुछ दिनों की जिंदगी के पीछे) क्यों माण कर रहा है? दस मन दाने या चार टके जो पल्ले आ गए (तो क्या हुआ? क्यों) इतना अकड़ के चलता है?।1। रहाउ।

अगर इससे भी ज्यादा प्रताप हो गया तो सौ गाँवों की मालिकी हो गई या (लाख) दो लाख टके की जागीर मिल गई, हे बंदे! तो भी चार दिन की सरदारी कर लोगे (और आखिर में छोड़ जाओगे) जैसे जंगल के हरे पत्ते (चार दिन ही हरे रहते हैं, और सूख-सड़ जाते हैं)।1।

(दुनिया का) यह माल-धन ना कोई बंदा (पैदा होने के वक्त) अपने साथ ले के आया है और ना ही कोई (मरने के वक्त) यह धन साथ ले के जाता है। रावण से भी बड़े-बड़े राजे एक पलक में यहाँ से चल बसे।2।

(हे बँदे! जनम-मरण का चक्कर हरेक के सिर पर है, सिर्फ) प्रभू के संत ही हैं जो सदा अटल रहते हैं (जो बार-बार मौत का शिकार नहीं होते), उनकी सेवा करो, वह प्रभू का नाम (खुद सिमरते हैं और औरों से) जपाते हैं। परमात्मा जिन पर मेहर करता है उनको (ऐसे) संत-जनों की संगति में मिलाता है।3।

कबीर कहता है- हे कमले! माता, पिता, पत्नी, पुत्र, धन - इनमें से कोई भी आखिर में साथ नहीं जाती। (एक प्रभू ही साथी बनता है) प्रभू का नाम सिमर, (सिमरन के बिना) जीवन व्यर्थ जा रहा है।4।1।

शबद का भाव: धन, सम्पक्ति, संबंधियों का मान झूठा है, सदा साथ नहीं निभता।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh