श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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राजास्रम मिति नही जानी तेरी ॥ तेरे संतन की हउ चेरी ॥१॥ रहाउ ॥ हसतो जाइ सु रोवतु आवै रोवतु जाइ सु हसै ॥ बसतो होइ होइ सुो ऊजरु ऊजरु होइ सु बसै ॥१॥ जल ते थल करि थल ते कूआ कूप ते मेरु करावै ॥ धरती ते आकासि चढावै चढे अकासि गिरावै ॥२॥ भेखारी ते राजु करावै राजा ते भेखारी ॥ खल मूरख ते पंडितु करिबो पंडित ते मुगधारी ॥३॥ नारी ते जो पुरखु करावै पुरखन ते जो नारी ॥ कहु कबीर साधू को प्रीतमु तिसु मूरति बलिहारी ॥४॥२॥ {पन्ना 1252}

पद्अर्थ: राजास्रम = राज+आश्रम (राज = बड़ा, ऊँचा। आश्रम = स्थान, महल, ठिकाना) हे ऊँचे स्थान वाले प्रभू! मिति = अंदाजा, माप, अंत। हउ = मैं। चेरी = दासी।1। रहाउ।

हसतो = हसता। बसतो = बसा हुआ। ऊजरु = उजाड़। सु = वह (जगह)। बसै = बस जाता है।1।

कूआ = कूँआ। कूप = कूँआ। मेरु = पर्वत।2।

भेखारी = मंगता। राजु = बादशाही, हकूमत। खल = कुंढ, मूढ़। करिबो = कर देता है (कर देगा)। मुगधारी = मूर्ख।3।

करावै = पैदा कराता है। पुरखन ते = मनुष्यों से।4।

नोट: नारी से पुरख और पुरख से नारी पैदा करने का विचार गुरू नानक देव जी ने बताया है। सतिगुरू जी भी अकाल पुरख की अगाध कथा बयान करते समय ये ख्याल प्रकट कररते हैं;

रामकली महला १॥ सागर महि बूँद, महि बूँद सागरु, कवणु बूझै बिधि जाणै॥ उतभुज चलत आपि करि चीनै, आपे ततु पछाणै॥१॥ अैसा गिआनु बीचारै कोई॥ तिस ते मुकति परम गति होई॥१॥ रहाउ॥ दिन महि रैणि, रैणि महि दिनीअरु, उसनु सीत बिधि सोई॥ ता की गति मिति अवरु न जाणै, गुर बिनु समझ न होई॥२॥ पुरख महि नारि, नारि महि पुरखा, बूझहु ब्रहम गिआनी॥ धुनि महि धिआनु, धिआन महि जानिआ, गुरमुखि अकथ कहानी॥३॥ मन महि जोति जोति महि मनूआ, पंच मिले गुरभाई॥ नानक तिन के सद बलिहारी, जिन ऐक सबदि लिव लाई॥४॥९॥   (पंना 878)

अर्थ: हे ऊँचे महल वाले (प्रभू!) मुझसे तेरी कुदरति का अंत नहीं पाया जा सकता, (तेरे संत ही तेरे गुणों का जिकर करते हैं, सो) मैं तेरे संतों की ही दासी बना रहूँ (यही मेरी तमन्ना है)।1। रहाउ।

(आश्चर्यजनक खेल है) जो हँसता जाता है वह रोता हुआ (वापस) आता है; जो रोता जाता है वह हँसता हुआ मुड़ता है। जो कभी बसता (नगर) होता है, वह उजड़ जाता है, और उजड़ी हुई जगह वस जाती है।1।

(हे भाई! परमात्मा की खेल आश्चर्यजनक है) पानी (भरी जगहों को) रेतीला बना देता है, रेतीली जगहों में कॅूँआ बना देता है, और कूँओं (की जगह) से पहाड़ कर देता है। ज़मीन पर पड़े हुए को आसमान पर चढ़ा देता है, आसमान पर चढ़े हुए को नीचे गिरा देता है।2।

भिखारी (को राजा बना के उस) से राज करवाता है, राजे को मँगता बना देता है; महाँ मूर्ख से विद्वान बना देता है और पण्डित को मूर्ख कर देता है।3।

(जो प्रभू) स्त्री से मर्द पैदा करता है, मर्दों (की बिंद) से सि्त्रयां पैदा कर देता है, हे कबीर! कह- मैं उस सुंदर स्वरूप से सदके जाता हूँ, वह संतजनों का प्यारा है।4।2।

शबद का भाव: दुनिया में कभी सुख है कभी दुख। ना सुख में अहंकार करे, ना दुख में नीचे उतर जाए। सुख-दुख का यह चक्कर प्रभू के हाथ में है।

सारंग बाणी नामदेउ जी की ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ काएं रे मन बिखिआ बन जाइ ॥ भूलौ रे ठगमूरी खाइ ॥१॥ रहाउ ॥ जैसे मीनु पानी महि रहै ॥ काल जाल की सुधि नही लहै ॥ जिहबा सुआदी लीलित लोह ॥ ऐसे कनिक कामनी बाधिओ मोह ॥१॥ जिउ मधु माखी संचै अपार ॥ मधु लीनो मुखि दीनी छारु ॥ गऊ बाछ कउ संचै खीरु ॥ गला बांधि दुहि लेइ अहीरु ॥२॥ माइआ कारनि स्रमु अति करै ॥ सो माइआ लै गाडै धरै ॥ अति संचै समझै नही मूड़्ह ॥ धनु धरती तनु होइ गइओ धूड़ि ॥३॥ काम क्रोध त्रिसना अति जरै ॥ साधसंगति कबहू नही करै ॥ कहत नामदेउ ता ची आणि ॥ निरभै होइ भजीऐ भगवान ॥४॥१॥ {पन्ना 1252}

पद्अर्थ: रे = हे! काऐं = क्यों? बिखिआ = माया। बन = जंगल। भूलौ = भुलेखे में पड़ा हुआ है। ठगमूरी = ठॅग बूटी, धतूरा।1। रहाउ।

मीनु = मछली। काल जाल की = मौत रूपी जाल की। सुधि = सूझ। लीलित = निकलती है। लोह = लोहे की कुंडी। कनिक = सोना। कामनी = स्त्री।1।

मधू = शहद। संचै = इकट्ठा करती है। मुखि = मुँह से। छारु = राख। बाछ कउ = बछड़े के लिए। खीरु = दूध। दुहि लेइ = दूह लेता है। अहीरु = गुज्जर।2।

स्रमु = श्रम, मेहनत। गाडै = (धरती में) दबा देता है। मूढ़ = मूर्ख। धूड़ि = धूल, मिट्टी।3।

जरै = जलता है। ता ची = उस (प्रभू) की। आणि = ओट, आसरा।4।

अर्थ: हे मन! तू माया-जंगल में क्यों जा फसा है? तू तो भुलेखे में पड़ के ठॅग-बूटी खाए जा रहा है।1। रहाउ।

जैसे मछली पानी में (निष्चिंत हो के) रहती (है और) मौत-जाल से अज्ञान रहती है (भाव, ये नहीं समझती कि ये जाल मेरी मौत का कारण बनेगा), जीभ के स्वाद के पीछे लोहे की कुंडी निगल लेती है (और पकड़ी जाती है); वैसे ही (हे भाई!) तू सोने और स्त्री के मोह में फंसा हुआ है (और अपनी आत्मिक मौत सहेड़ रहा है)।1।

जैसे मक्खी बहुत सारा शहद इकट्ठा करती है, पर मनुष्य (आ के) शहद ले लेता है और उस मक्खी के मुँह में राख डालता है (भाव, उस मक्खी को कुछ भी नहीं देता); जैसे गऊ अपने बछड़े के लिए दूध (थनों में) इकट्ठा करती है, पर, अहिर बछड़े का मुंह बाँध के दूध दुह लेता है।2।

वैसे ही मूर्ख मनुष्य माया की खातिर बहुत मेहनत करता है, उसको कमा के धरती में छुपा के रखता है, मूर्ख बहुत ज्यादा एकत्र किए जाता है पर समझता नहीं कि धन जमीन में ही दबा पड़ा रहता है और (मौत के आने पर) शरीर मिट्टी हो जाता है।3।

(मूर्ख मन) काम-क्रोध और तृष्णा में बहुत खिझता है, कभी भी साध-संगति में नहीं बैठता। नामदेव कहता है- हे भाई! उस (प्रभू) की ओट (ले) (जो सदा तेरे साथ निभने वाला है) निडर हो के भगवान का सिमरन करना चाहिए।4।1।

शबद का भाव: माया का साथ कच्चा है। इसके मोह में जीवन व्यर्थ जाता है। साध-संगत के आसरे प्रभू का सिमरन करना चाहिए।

बदहु की न होड माधउ मो सिउ ॥ ठाकुर ते जनु जन ते ठाकुरु खेलु परिओ है तो सिउ ॥१॥ रहाउ ॥ आपन देउ देहुरा आपन आप लगावै पूजा ॥ जल ते तरंग तरंग ते है जलु कहन सुनन कउ दूजा ॥१॥ आपहि गावै आपहि नाचै आपि बजावै तूरा ॥ कहत नामदेउ तूं मेरो ठाकुरु जनु ऊरा तू पूरा ॥२॥२॥ {पन्ना 1252}

पद्अर्थ: की न = क्यों नहीं? बदहु = मिथते, लाते। होड = शर्त। मो सिउ = मेरे साथ। बदहु....सिउ = हे माधो! मेरे साथ शर्त क्यों नहीं लगाते? हे माधो! मेरे साथ शर्त लगा के देख ले; हे माधो! मेरे साथ बहस कर के देख ले, जो मैं कहता हूँ ठीक है। खेलु = जगत रूपी खेल। तो सिउ = तेरे से। खेलु...सिउ = खेल सारा तेरे साथ (सांझा) हुआ है; ये तेरी और हमारी सांझी खेल है।1। रहाउ।

देउ = देवता। आपन = तू स्वयं ही। तरंग = लहरें। दूजा = अलग अलग।1।

तूरा = बाजा। ऊरा = कम।2।

अर्थ: हे माधव! मेरे साथ विचार कर के देख ले (यह बात सच्ची है कि) यह जगत-खेल तेरी और हमारे जीवों की सांझी खेल है (क्योंकि) मालिक से सेवक और सेवक से मालिक (की पीढ़ी चलती है, भाव, अगर मालिक हो तभी उसका कोई सेवक बन सकता है, और अगर सेवक हो तो ही उसका कोई मालिक कहलवा सकेगा। सो, मालिक-प्रभू और सेवक की हस्ती सांझी है)।1। रहाउ।

हे माधव! तू खुद ही देवता है, खुद ही मन्दिर है, तू खुद ही (जीवों को अपनी) पूजा में लगाता है। पानी से लहरें (उठती हैं), लहरों (के मिलने) से पानी (की हस्ती) है, ये सिर्फ कहने को और सुनने में ही अलग-अलग हैं (भाव, यह सिर्फ कहने मात्र बात है कि यह पानी है, और ये लहरें हैं)।1।

(हे माधो!) तू खुद ही गाता है, तू खुद ही नाचता है, तू स्वयं ही बाजा बजाता है। नामदेव कहता है- हे माधो! तू मेरा मालिक है, (यह ठीक है कि मैं) तेरा दास (तुझसे बहुत) छोटा हूँ और तू सम्पूर्ण है (पर, अगर दास ना हो तो तू मालिक कैसे कहलवाए? सो, मुझे अपना सेवक बनाए रख)।2।2।

शबद का भाव: जीवात्मा और परमात्मा का असल एक ही है, विक्त में फर्क है।

दास अनिंन मेरो निज रूप ॥ दरसन निमख ताप त्रई मोचन परसत मुकति करत ग्रिह कूप ॥१॥ रहाउ ॥ मेरी बांधी भगतु छडावै बांधै भगतु न छूटै मोहि ॥ एक समै मो कउ गहि बांधै तउ फुनि मो पै जबाबु न होइ ॥१॥ मै गुन बंध सगल की जीवनि मेरी जीवनि मेरे दास ॥ नामदेव जा के जीअ ऐसी तैसो ता कै प्रेम प्रगास ॥२॥३॥ {पन्ना 1252-1253}

पद्अर्थ: अनिंन = (सं: अनन्य) जिसका प्रेम किसी और के साथ ना हो। निज = अपना। निमख = (सं: निमेष) आँख झपकने जितने समय के लिए। ताप त्रई = तीनों ही ताप (आधि, व्याधि, उपाधि)। मोचन = नाश करने वाला। परसत = (चरण) छूने से। ग्रिह कूप = घर (के जंजाल) रूपी कूँआं।1। रहाउ।

मोहि = मुझसे। गहि = पकड़ के। बांधै = बाँध ले। तउ = तब। फुनि = दोबारा, फिर। मो पै = मुझसे। जबाबु = उज़र, ना नुकर।1।

गुन बंध = (भगत के) गुणों का बँधा हुआ। जीवनि = जिंदगी। जा के जीअ = जिसके चिक्त में (प्रीत के भेद की यह सोच)। ता कै = उसके हृदय में। प्रगास = रोशनी।2।

अर्थ: (हे नामदेव!) जो (मेरा) दास मेरे बिना किसी और के साथ प्यार नहीं करता, वह मेरा अपना स्वरूप है; उसका एक पल भर का दर्शन तीनों ही ताप दूर कर देता है, उस (के चरणों) की छोह गृहस्त के जंजाल-रूपी कूएं में से निकाल लेती है।1। रहाउ।

मेरे द्वारा बाँधी हुई (मोह की) गाँठ को मेरा भगत खोल लेता है, पर जब मेरा भगत (मेरे साथ प्रेम की गाँठ) बाँधता है वह मुझसे खुल नहीं सकती। अगर मेरा भगत एक बार मुझे पकड़ के बाँध ले, तो मैं आगे से कोई आना-कानी नहीं कर सकता।1।

मैं (अपने भगत के) गुणों का बँधा हुआ हूँ, मैं सारे जगत के जीवों की जिंदगी (का आसरा) हूँ, पर मेरे भगत मेरी जिंदगी (का आसरा) हैं।

हे नामदेव! जिसके मन में ये ऊँची सोच आ गई है, उसके अंदर मेरे प्यार का प्रकाश भी उतना ही बड़ा (भाव, बहुत अधिक) हो जाता है।2।3।

शबद का भाव: प्रीत का भाव: प्रीत की बरकति से, भगत प्रभू का रूप हो जाता है, प्रभू अपने भगत की प्रीति में बँध जाता है। 'भगति वसि केसव'।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh