श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1255 मलार महला १ ॥ साची सुरति नामि नही त्रिपते हउमै करत गवाइआ ॥ पर धन पर नारी रतु निंदा बिखु खाई दुखु पाइआ ॥ सबदु चीनि भै कपट न छूटे मनि मुखि माइआ माइआ ॥ अजगरि भारि लदे अति भारी मरि जनमे जनमु गवाइआ ॥१॥ मनि भावै सबदु सुहाइआ ॥ भ्रमि भ्रमि जोनि भेख बहु कीन्हे गुरि राखे सचु पाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ तीरथि तेजु निवारि न न्हाते हरि का नामु न भाइआ ॥ रतन पदारथु परहरि तिआगिआ जत को तत ही आइआ ॥ बिसटा कीट भए उत ही ते उत ही माहि समाइआ ॥ अधिक सुआद रोग अधिकाई बिनु गुर सहजु न पाइआ ॥२॥ सेवा सुरति रहसि गुण गावा गुरमुखि गिआनु बीचारा ॥ खोजी उपजै बादी बिनसै हउ बलि बलि गुर करतारा ॥ हम नीच हुोते हीणमति झूठे तू सबदि सवारणहारा ॥ आतम चीनि तहा तू तारण सचु तारे तारणहारा ॥३॥ बैसि सुथानि कहां गुण तेरे किआ किआ कथउ अपारा ॥ अलखु न लखीऐ अगमु अजोनी तूं नाथां नाथणहारा ॥ किसु पहि देखि कहउ तू कैसा सभि जाचक तू दातारा ॥ भगतिहीणु नानकु दरि देखहु इकु नामु मिलै उरि धारा ॥४॥३॥ {पन्ना 1255} पद्अर्थ: साची = सदा कायम रहने वाली, अडोल। नामि = नाम में। त्रिपते = तृप्त होए हुए, माया की तृष्णा से पलटे हुए, संतुष्ट। हउमै = मैं मैं (मैं बड़ा मैं बड़ा = ये ही ख्याल)। रतु = रहित हुआ, मस्त। बिखु = जहर। चीनि = पहचान के, समझ के। मनि = मन में। मुखि = मुँह में। अजगरि = अजगर में। भारि = भार तले। अजगरि भारि = बहुत बड़े भार के नीचे।1। मनि = मन में। भावै = अच्छा लगता है। सुहाइआ = सुंदर हो गया। भ्रमि भ्रमि = भटक भटक के। गुरि = गुरू ने।1। रहाउ। तीरथि = तीर्थ पर। तेजु = क्रोध। निवारि = दूर कर के। भाइआ = अच्छा लगा। परहरि = दूर कर के। जत = जिस तरफ से। तत = उसी तरफ। उत ही ते = उसी कारण से। कीट = कीड़े। अधिकाई = बहुत। सहजु = अडोल अवस्था।2। रहसि = हर्ष में, पूरन खिड़ाव में। गावा = मैं गाऊँ। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। गिआनु = परमात्मा के साथ गहरी सांझ। बीचारा = मैं विचार करूँ। खोजी = खोज करने वाला। उपजै = पैदा हो जाता है, आत्मिक जीवन में पैदा होता है। बादी = झगड़ालू। बिनसै = आत्मिक मौत मरता है, विनाश होता है। हउ = मैं। बलि = बलिहार। गुर करतारा = हे गुरू! हे करतार! हुोते = थे, होते थे । (नोट: अक्षर 'ह' पर दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द 'होते' है, यहां 'हुते' पढ़ना है)। हीण मति = मूर्ख। आतम = आत्मा, अपना आप।3। बैसि = बैठ के, टिक के। सु थानि = श्रेष्ठ जगह में, सत्संग में। कहां = मैं कहूँ। किआ किआ = क्या क्या?, कौन कौन से? कथउ = मैं कह सकता हूँ। नाथणहारा = नाथ के रखने वाला, अपने वश में रखने वाला। किसु पहि कहउ = किस के पास मैं कहूँ? देखि = देख के। सभि = सारे। जाचकु = मंगते। हीणु = हीन, खाली। दरि = दर से। देखहु = ध्यान करो, मेहर की निगाह करो। उरि = हृदय में। धारा = धारण करूँ, मैं टिका के रखूँ।4। अर्थ: जिनके मन को (प्रभू की सिफतसालाह की) बाणी प्यारी लगती है उनका जीवन सुंदर बन जाता है। (पर, सिफतसालाह की बाणी से टूट के) अनेकों जूनियों में भटक-भटक के अनेकों जूनियों के भेष धारते रहे (भाव, जनम लेते रहे)। जिन की रक्षा गुरू ने की, उनको सदा कायम रहने वाला ईश्वर मिल गया।1। रहाउ। जिनकी सुरति अडोल हो के प्रभू के नाम में नहीं जुड़ी, वे माया की तृष्णा की तरफ से पलट नहीं सके (अतृप्त ही रहे), 'मैं बड़ा बन जाऊँ, मैं बड़ा बन जाऊँ' - ये कह-कहके उन्होंने अपना जीवन गवा लिया। उनका मन पराए धन पराई स्त्री और पराई निंदा में मस्त रहा है, वे (सदा पर धन पर नारी पर निंदा की) जहर खाते रहे (आत्मिक खुराक बनाए रखी), और दुख ही सहेड़ते रहे। सिफत-सालाह की बाणी को विचार के (भी) उनके दुनिया वाले डर और छल (-कपट) ना खत्म हुए, उनके मन में भी माया (की लगन) ही रही, उनके मुँह में भी माया (की द्वंद-कथा) ही रही। वे सदा (माया के मोह के) बेअंत बड़े भार तले लदे रहे, जनम-मरण के चक्करों में पड़ के उन्होंने जीवन व्यर्थ ही गवा लिया।1। क्रोध दूर कर के उन्होंने आत्म-तीर्थ में स्नान नही किया, उनको परमात्मा का नाम प्यारा नहीं लगा, (तृष्णा के अधीन रह के) उन्होंने प्रभू का अमूल्य-नाम सदा के लिए त्याग दिया, जिस चौरासी में से निकल के मनुष्य जन्म में आए थे, उसी चौरासी में दोबारा चले गए, जैसे विष्टा के कीड़े विष्टा में ही पैदा होते हैं, और विष्टा में ही फिर मर जाते हैं। (विषौ-विकारों के) जितने भी ज्यादा स्वाद वे लेते गए, उतने ही ज्यादा रोग उनको व्यापते गए। गुरू की शरण ना आने के कारण उनको शांत-अवस्था हासिल नहीं हुई।2। हे मेरे गुरू! हे मेरे करतार! मैं तुझसे कुर्बान जाता हूँ, (मेहर कर) मेरी सुरति तेरी सेवा (-भगती) में टिकी रहे, पूरन आनंद में टिक के मैं तेरे गुण गाता रहूँ; गुरू की शरण पड़ कर मैं सदा यह विचार करता रहूँ कि तेरे साथ मेरी गहरी सांझ बनी रहे। (तेरे साथ गहरी जान-पहचान के यतन) खोजने वाला मनुष्य आत्मिक जीवन में जनम ले लेता है, पर (नित्य माया के) झगड़े करने वाला जीव आत्मिक मौत मर जाता है। हे प्रभू! हम (तृष्णा में फस के बड़े) नीचे जीवन वाले हो चुके हैं, हम मूर्ख हैं, हम झूठे पदार्थों में फंसे हुए हैं; पर तू (अपनी सिफतसालाह की) बाणी में (जोड़ के) हमारा जीवन सवारने में स्मर्थ है। जहाँ स्वै की विचार होती है, वहाँ तू (संसार-समुंद्र की विकार-लहरों से) बचाने के लिए आ पहुँचता है। तू सदा कायम रहने वाला है, तू उद्धार करने के समर्थ है, (हमारा) उद्धार कर ले।3। (हे प्रभू! मेहर कर) सत्संग में टिक के मैं तेरे गुण गाता रहूँ। पर तू बेअंत है, तेरे सारे गुण मैं बयान नहीं कर सकता। तू अलख है, तू बयान से परे है, तू अपहुँच है, तू जूनियों से रहित है। तू (बड़े-बड़े) नाथ कहलवाने वालों को भी अपने वश में रखने वाला है। (हे प्रभू! तेरी रचना को) देख के मैं किसी के आगे यह कहने के लायक नहीं हूँ कि तू कैसा है (भाव, सारे संसार में तेरे जैसा कोई नहीं है)। सारे जीव (तेरे दर के) मँगते हैं, तू सबको दातें देने वाला है। (हे प्रभू!) तेरी भगती से टूटा हुआ (तेरा दास) नानक (तेरे) दर पर (आ गिरा है, इस पर) मेहर की निगाह कर। (हे प्रभू!) मुझे तेरा नाम मिल जाए, मैं (इस नाम को अपने) सीने से परो के रखॅूँ।4।3। मलार महला १ ॥ जिनि धन पिर का सादु न जानिआ सा बिलख बदन कुमलानी ॥ भई निरासी करम की फासी बिनु गुर भरमि भुलानी ॥१॥ बरसु घना मेरा पिरु घरि आइआ ॥ बलि जावां गुर अपने प्रीतम जिनि हरि प्रभु आणि मिलाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ नउतन प्रीति सदा ठाकुर सिउ अनदिनु भगति सुहावी ॥ मुकति भए गुरि दरसु दिखाइआ जुगि जुगि भगति सुभावी ॥२॥ हम थारे त्रिभवण जगु तुमरा तू मेरा हउ तेरा ॥ सतिगुरि मिलिऐ निरंजनु पाइआ बहुरि न भवजलि फेरा ॥३॥ अपुने पिर हरि देखि विगासी तउ धन साचु सीगारो ॥ अकुल निरंजन सिउ सचि साची गुरमति नामु अधारो ॥४॥ मुकति भई बंधन गुरि खोल्हे सबदि सुरति पति पाई ॥ नानक राम नामु रिद अंतरि गुरमुखि मेलि मिलाई ॥५॥४॥ {पन्ना 1255} पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। धन = स्त्री। जिनि धन = जिस जीव स्त्री ने। सादु = स्वाद, मिलाप का आनंद। बिलख = (विलक्ष embarrassed) व्याकुल। बदन = मुँह। निरासी = जिसकी आशाऐ पूरी ना हों, टूटे दिल वाली। भरमि = भटकना में।1। बरसु = बरखा कर। घना = हे घन! हे बादल! घरि = (मेरे) हृदय में। आणि = ला के। जिनि = जिस (गुरू) ने।1। रहाउ। नउतन = नई। सिउ = साथ। अनदिनु = हर रोज। सुहावी = सुखद। गुरि = गुरू ने। जुगि जुगि = हरेक युग में, सदा ही। सुभावी = शोभा वाली।2। थारे = तेरे। त्रिभवण जगु = तीन भवनों वाला जगत। हउ = मैं। सतिगुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। निरंजनु = (निर+अंजनु) माया की कालिख से रहित। बहुरि = फिर, दोबारा। भवजलि = भवजल में, संसार समुंद्र में।3। विगासी = खिल उठी। तउ = तब। साचु = सदा कायम रहने वाला, अटल। अकुल = जिसकी कोई खास कुल नहीं। सचि = सच्चे हरी में (जुड़ के)।4। गुरि = गुरू ने। सबदि = शबद में। पति = इज्जत। रिद = हृदय। मेलि = मेल में, संगति में।5। अर्थ: हे बादल! बरखा कर (हे गुरू! नाम की बरसात कर, तेरे नाम-वर्षा की बरकति से) मेरा पति-प्रभू मेरे हृदय में आ बसा है। मैं अपने प्रीतम गुरू से बलिहार हूँ, जिसने हरी-प्रभू से मुझे मिला दिया है।1। रहाउ। जिस जीव-स्त्री ने प्रभू-पति के मिलाप का आनंद नहीं समझा (भाव, आनंद नहीं पाया) वह सदा (दुनियावी झमेलों में ही) व्याकुल रहती है, उसका चेहरा कुम्हलाया रहता है; (दुनिया वाली आशाएं पूरी ना होने के कारण) उसका दिल टूटा सा रहता है, अपने किए कर्मों के संस्कारों का फंदा उसके गले में पड़ा रहता है; गुरू की शरण ना आने के कारण भटकना में पड़ के वह जीवन के सही रास्ते से वंचित रहती है।1। जिन जीवों को गुरू नें प्रभू के दर्शन करवा दिए हैं, वे माया के बँधनों से आजाद हो जाते हैं, वे सदा परमात्मा की भक्ति करते और शोभा कमाते हैं, प्रभू के साथ उनकी नई प्रीत बनी रहती है। (भाव, प्यार वाली उमंग कभी कम नहीं होती), वे हर रोज प्रभू की भक्ति करते हैं जो उनको आत्मिक सुख दिए रखती है।3। हे प्रभू! हम तेरे पैदा किए हुए हैं, तीन भवनों वाला सारा ही संसार तेरा ही रचा हुआ है (अपनी रची हुई माया के मोह से तू खुद ही सब जीवों को बचाता है)। हे प्रभू! तू मेरा (मालिक) है, मैं तेरा (दास) हूँ (मुझे भी कर्मों के फंदों से बचाए रख)। अगर गुरू मिल जाए, तो माया से रहित प्रभू मिल जाता है, और संसार-समुंद्र (के चक्कर) में नहीं आना पड़ता।3। (जीव-स्त्री अपने प्रभू-पति को प्रसन्न करने के लिए कई तरह के धार्मिक उद्यम-रूपी श्रृंगार करती है, पर) जीव-स्त्री का श्रृंगार तब ही सदीवी समझो (तब ही सफल जानो) जब वह प्रभू-पति को देख के उल्लास में उमंग में आती है, जब सच्चे के सिमरन के द्वारा कुल-रहित माया-रहित प्रभू के साथ एक-रूप हो जाती है, जब गुरू की शिक्षा पर चल के प्रभू का नाम उसके जीवन का सहारा बन जाता है।4। जो जीव-स्त्री माया के बँधनों से आज़ाद हो गई, जिसके माया के बँधन गुरू ने खोल दिए, वह प्रभू की सिफति-सालाह की बाणी में सुरति जोड़ के (प्रभू की हजूरी में) आदर हासिल करती है; हे नानक! प्रभू का नाम सदा उसके हृदय में बसता है, गुरू की शरण पड़ कर वह प्रभू-पति के मिलाप में मिल जाती है (अभेद हो जाती है)।5।4। महला १ मलार ॥ पर दारा पर धनु पर लोभा हउमै बिखै बिकार ॥ दुसट भाउ तजि निंद पराई कामु क्रोधु चंडार ॥१॥ महल महि बैठे अगम अपार ॥ भीतरि अम्रितु सोई जनु पावै जिसु गुर का सबदु रतनु आचार ॥१॥ रहाउ ॥ दुख सुख दोऊ सम करि जानै बुरा भला संसार ॥ सुधि बुधि सुरति नामि हरि पाईऐ सतसंगति गुर पिआर ॥२॥ अहिनिसि लाहा हरि नामु परापति गुरु दाता देवणहारु ॥ गुरमुखि सिख सोई जनु पाए जिस नो नदरि करे करतारु ॥३॥ काइआ महलु मंदरु घरु हरि का तिसु महि राखी जोति अपार ॥ नानक गुरमुखि महलि बुलाईऐ हरि मेले मेलणहार ॥४॥५॥ {पन्ना 1255-1256} पद्अर्थ: दारा = स्त्री। धनु = पदार्थ, माल। बिखै = विषौ। बिकार = बुरे कर्म। दुसट भाउ = बुरी नीयत। तजि = त्यागता है। चंडार = चंडाल।1। महल = शरीर। अगम = अपहुँच। अपार = बेअंत। भीतरि = (हृदय के) अंदर। सबदु रतनु = श्रेष्ठ शबद। आचार = नित्य की क्रिया, नित्य का आहर।1। रहाउ। सम = बराबर, एक समान। बुरा भला संसार = संसार का अच्छा बुरा सलूक। सुधि = सूझ। बुधि = अकल, बूझ। पाईअै = प्राप्त की जाती है।2। अहि = दिन। निसि = रात। लाहा = लाभ। सिख = शिक्षा।3। काइआ = शरीर। महलि = महल में।4। अर्थ: अपहुँच और बेअंत प्रभू जी हरेक शरीर में बैठे हुए हैं (मौजूद हैं), पर वही मनुष्य प्रभू जी का नाम-अमृत हासिल करता है जिसकी नित्य की क्रिया गुरू का श्रेष्ठ शबद (अपने अंदर बसाना) हो जाए।1। रहाउ। (जो मनुष्य गुरू का शबद हृदय में बसाता है और आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस हासिल करता है, वह) पराई स्त्री (का संग), पराया धन, बहुत लालच, अहंकार, विषियों (वाली रुचि), बुरे कर्म, बुरी नीयत, पराई निंदा, काम और चंडाल क्रोध- यह सब कुछ त्याग देता है।1। वह मनुष्य दुखों को एक-समान जानता है, जगत द्वारा मिलते अच्छे-बुरे सलूक को भी बराबर जान के सहता है (यह सब कुछ हरी-नाम की बरकति है)। पर यह सूझ-बूझ प्रभू के नाम में सुरति जोड़ने से ही प्राप्त होती है, साध-संगति में रह के गुरू-चरणों से प्यार करने से ही मिलती है।2। गुरू के सन्मुख हो के शिक्षा भी वही मनुष्य ले सकता है जिस पर करतार मेहर की नजर करता है। गुरू नाम की दाति देने वाला है देने के समर्थ है (जिस मनुष्य पर करतार की नजर होती है, उस मनुष्य को गुरू की तरफ से) दिन-रात प्रभू-नाम का लाभ मिला रहता है।3। यह मनुष्य शरीर परमात्मा का महल है परमात्मा का मंदिर है परमात्मा का घर है, बेअंत परमात्मा ने इसमें अपनी ज्योति टिका रखी है। (जीव अपने हृदय-महल में बसते प्रभू को छोड़ के बाहर भटकता फिरता है) हे नानक! (बाहर भटकता जीव) गुरू के द्वारा ही हृदय-महल में मोड़ के लाया जा सकता है, और तब ही मिलाने का समर्थ प्रभू उसको अपने चरणों में जोड़ लेता है।4।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |