श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मलार महला १ घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ पवणै पाणी जाणै जाति ॥ काइआं अगनि करे निभरांति ॥ जमहि जीअ जाणै जे थाउ ॥ सुरता पंडितु ता का नाउ ॥१॥ गुण गोबिंद न जाणीअहि माइ ॥ अणडीठा किछु कहणु न जाइ ॥ किआ करि आखि वखाणीऐ माइ ॥१॥ रहाउ ॥ ऊपरि दरि असमानि पइआलि ॥ किउ करि कहीऐ देहु वीचारि ॥ बिनु जिहवा जो जपै हिआइ ॥ कोई जाणै कैसा नाउ ॥२॥ कथनी बदनी रहै निभरांति ॥ सो बूझै होवै जिसु दाति ॥ अहिनिसि अंतरि रहै लिव लाइ ॥ सोई पुरखु जि सचि समाइ ॥३॥ जाति कुलीनु सेवकु जे होइ ॥ ता का कहणा कहहु न कोइ ॥ विचि सनातीं सेवकु होइ ॥ नानक पण्हीआ पहिरै सोइ ॥४॥१॥६॥ {पन्ना 1256}

नोट: यहाँ से 'घरु २' के शबद शुरू होते हैं जो गिनती में 4 हैं।

पद्अर्थ: पवणै = पवन की, हवा की। जाणै = (अगर) जान ले, जाने। जाति = असल, मूल, आदि। अगनि = (तृष्णा की) आग। भरांति = भटकना। निभरांति = भटकना का अभाव, शांति। जाणै जे थाउ = अगर (वह) जगह जान ले (जहाँ से)। जीअ = जीव जंतु। सुरता = अच्छी सुरति वाला, समझदार।1।

ना जाणीअहि = नहीं जाने जा सकते। माइ = हे माँ! किआ करि = किस तरह? आखि = कह के। वखाणीअै = बयान किया जा सके।1। रहाउ।

दरि = अंदर, नीचे। असमानि = आसमान में। पइआलि = पाताल में। देहु = (उक्तर) दे। वीचारि = विचार के। बिनु जिहवा = जीभ (के प्रयोग) के बिना, बगैर जीभ के, हरेक को सुनाए बग़ैर, दिखावे के बिना। हिआइ = हृदय में। कोई जाणै = कोई ऐसा मनुष्य ही जानता है। कैसा नाउ = नाम कैसा है, नाम जपने का आनंद कैसा है।2।

कथनी बदनी = कहने बोलने से (बद् = बोलना। वक्ता = बोलने वाला)। रहै निभरांति = शांति बनी रहे, रोक पड़ी रहे। सो बूझै = (प्रभू के गुणों को कुछ-कुछ) वही मनुष्य समझता है। दाति = बख्शिश। अहि = दिन। निसि = रात। जि = जो। सचि = सदा कायम रहने वाले प्रभू में।3।

कुलीनु = अच्छी कुल का। ता का कहणा = उस मनुष्य बाबत कुछ कहना। कहहु न कोइ = कोई कुछ भी ना कहो। सनातीं विचि = नीच जाति वालों में। पण्हीआ = जूती (उपान्ह्), मेरी चमड़ी की जुतियां।4।

अर्थ: हे माँ! गोबिंद के गुण (पूरी तरह से) जाने नहीं जा सकते, (वह गोबिंद इन आँखों से) दिखता नहीं, (इस वास्ते उसके सही स्वरूप बाबत) कुछ नहीं कहा जा सकतर। हे माँ! क्या कह के उसका स्वरूप बयान किया जाए? (जो मनुष्य अपने आप को विद्वान समझ के उस प्रभू का असल स्वरूप बयान करने का यतन करते हैं, वे भूल करते हैं। इस प्रयास में कोई शोभा नहीं)।1। रहाउ।

(हाँ) उस मनुष्य का नाम समझदार पण्डित (रखा जा सकता) है, जो हवा पानी आदि तत्वों के मूल को जान ले (भाव, जो यह समझे कि सारे तत्वों को बनाने वाला परमात्मा स्वयं ही है, और उसके साथ गहरी सांझ डाल ले), जो अपने शरीर की तृष्णा अग्नि को शांत कर ले, जो उस असल के साथ जान-पहचान डाले जिससे सारे जीव-जंतु पैदा होते हैं।1।

ऊपर नीचे आसमान में पाताल में (हर जगह परमात्मा व्यापक है, फिर भी उसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। हे भाई!) विचार कर के कोई भी (अगर दे सकते हो तो) उक्तर दो कि (उस प्रभू के बारे में) कैसे कुछ कहा जा सकता है। परमात्मा का स्वरूप बयान करना तो असंभव है, (पर) अगर कोई मनुष्य दिखावा छोड़ के अपने हृदय में उसका नाम जपता रहे, तो कोई ऐसा मनुष्य ही यह समझ लेता है कि उस परमात्मा का नाम जपने में आनंद कैसा है।2।

जिस मनुष्य पर परमात्मा की बख्शिश हो वह (चोंच-ज्ञान की बातें) कहने-बोलने से रूक जाता है और वह समझ लेता है (कि सारी सृष्टि का रचनहार मूल प्रभू खुद ही है)। (फिर) वह दिन-रात (हर वक्त) अपने अंतरात्मे प्रभू-चरणों में सुरति जोड़े रखता है। (हे भाई!) वही है असल मनुष्य जो सदा कायम रहने वाले परमात्मा (की याद) में लीन रहता है।3।

अगर कोई मनुष्य उच्च जाति व ऊँची कुल का हो के (जाति-कुल का अहंकार छोड़ के) परमात्मा का भगत बन जाए, उसका तो कहना ही क्या हुआ? (भाव, उसकी पूरी सिफत की ही नहीं जा सकती)।

(पर) हे नानक! (कह-) नीच जाति में भी पैदा हो के अगर कोई प्रभू का भगत बनता है, तो (बेशक) वह मेरी चमड़ी की जुतियाँ बना के पहन ले।4।1।6।

मलार महला १ ॥ दुखु वेछोड़ा इकु दुखु भूख ॥ इकु दुखु सकतवार जमदूत ॥ इकु दुखु रोगु लगै तनि धाइ ॥ वैद न भोले दारू लाइ ॥१॥ वैद न भोले दारू लाइ ॥ दरदु होवै दुखु रहै सरीर ॥ ऐसा दारू लगै न बीर ॥१॥ रहाउ ॥ खसमु विसारि कीए रस भोग ॥ तां तनि उठि खलोए रोग ॥ मन अंधे कउ मिलै सजाइ ॥ वैद न भोले दारू लाइ ॥२॥ चंदन का फलु चंदन वासु ॥ माणस का फलु घट महि सासु ॥ सासि गइऐ काइआ ढलि पाइ ॥ ता कै पाछै कोइ न खाइ ॥३॥ कंचन काइआ निरमल हंसु ॥ जिसु महि नामु निरंजन अंसु ॥ दूख रोग सभि गइआ गवाइ ॥ नानक छूटसि साचै नाइ ॥४॥२॥७॥ {पन्ना 1256}

पद्अर्थ: विछोड़ा = परमात्मा के चरणों से विछोड़ा, प्रभू की याद से टूटे हुए। भूख = माया की तृष्णा। सकतवार = शक्तिवाले, ताकतवर। तनि = तन में। वैद भोले = हे भोले अंजान वैद! दारू न लाइ = दवा ना दे।1।

रहै = टिका रहता है। बीर = हे वीर! लगै न = नहीं लगता, असर नहीं करता।1। रहाउ।

विसारि = भुला के। रस भोग = रसों के भोग। उठि खलोऐ = पैदा हो गए। रोग = कई रोग् ।2।

(नोट: शब्द 'रोगु' एकवचन है, शब्द 'रोग' बहुवचन है)।

चंदन वासु = चंदन की सुगंधि। घट = शरीर। सासु = सांस। सासि गइअै = अगर सांस निकल जाए। काइआ = शरीर। ढलि पाइ = ढह जाती है, मिट्टी हो जाती है। ता कै पाछै = शरीर के मिट्टी हो जाने के बाद। कोइ = कोई भी मनुष्य।3।

कंचन काइआ = सोने जैसा शरीर। निरमल = विकारों से बचा हुआ। हंसु = जीवात्मा। जिसु महि = जिस (काया) में। अंसु = हिस्सा, जोति। सभि = सारे। नाइ = नाम में (जुड़ के)। छूटसि = (तृष्णा आदि दुखों से) निजात पा लेगा।4।

अर्थ: हे अंजान वैद्य! ऐसी दवाई देने का कोई लाभ नहीं, ऐसी दवा कोई असर नहीं करती (जिस दवाई के बरतने पर भी) शरीर का दुख-दर्द टिका रहे।1। रहाउ।

हे भोले वैद्य! तू दवा ना दे (तू किस-किस रोग का इलाज करेगा? देख, मनुष्य के लिए सबसे बड़ा) रोग है परमात्मा के चरणों से विछोड़ा, दूसरा रोग है माया की भूख। एक और भी रोग है, वह है ताकतवार जमदूत (भाव, जमदूतों का डर, मौत का डर)। और यह वह दुख है वह रोग है जो मनुष्य के शरीर में आ चिपकता है (जब तक शारीरिक रोग पैदा करने वाले मानसिक रोग मौजूद हैं, तेरी दवाई कोई असर नहीं कर सकती)।1।

जब मनुष्य ने प्रभू-पति को भुला के (विषौ-विकारों के) रस भोगने शुरू कर दिए, तो उसके शरीर में बिमारियां पैदा होने लग पड़ीं। (गलत रास्ते पर पड़े मनुष्य को सही रास्ते पर डालने के लिए, इसके) माया-मोह में अंधे हुए मन को (शारीरिक रोगों के द्वारा) सज़ा मिलती है। सो, हे अंजान वैद्य! (शारीरिक रोगों को दूर करने के लिए दी गई) तेरी दवाई का कोई लाभ नहीं (विषौ-विकारों के कारण यह रोग तो बार-बार पैदा होएंगे)।2।

चंदन का पौधा तब तक चंदन है जब तक उसमें चँदन की सुगंधि है (सुगंध के बिना यह साधारण लकड़ी ही है)। मनुष्य का शरीर तब तक मनुष्य का शरीर है जब तक इस शरीर में साँसें चल रही हैं। श्वास निकल जाने पर यह शरीर मिट्टी हो जाता है। शरीर के मिट्टी हो जाने के बाद कोई भी मनुष्य दवाई नहीं खाता (पर इस शरीर में निकल जाने वाली जीवात्मा तो विछोड़े और तृष्णा आदि रोगों में ग्रसित हुई चली जाती है। हे वैद्य! दवाई की असल आवश्यक्ता तो उस जीवात्मा को है)।3।

(हे वैद्य!) जिस शरीर में परमात्मा का नाम बसता है, परमात्मा की जोति (लिश्कारे मारती) है, वह शरीर सोने जैसा शुद्ध रहता है, उसमें बसती जीवात्मा भी नरोई रहती है। वह जीवात्मा अपने सारे रोग दूर करके यहाँ से जाती है।

हे नानक! सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम में जुड़ के ही जीव (तृष्णा आदि रोगों से) खलासी हासिल करेगा।4।2।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh