श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मलार महला ३ ॥ जिनी हुकमु पछाणिआ से मेले हउमै सबदि जलाइ ॥ सची भगति करहि दिनु राती सचि रहे लिव लाइ ॥ सदा सचु हरि वेखदे गुर कै सबदि सुभाइ ॥१॥ मन रे हुकमु मंनि सुखु होइ ॥ प्रभ भाणा अपणा भावदा जिसु बखसे तिसु बिघनु न कोइ ॥१॥ रहाउ ॥ त्रै गुण सभा धातु है ना हरि भगति न भाइ ॥ गति मुकति कदे न होवई हउमै करम कमाहि ॥ साहिब भावै सो थीऐ पइऐ किरति फिराहि ॥२॥ सतिगुर भेटिऐ मनु मरि रहै हरि नामु वसै मनि आइ ॥ तिस की कीमति ना पवै कहणा किछू न जाइ ॥ चउथै पदि वासा होइआ सचै रहै समाइ ॥३॥ मेरा हरि प्रभु अगमु अगोचरु है कीमति कहणु न जाइ ॥ गुर परसादी बुझीऐ सबदे कार कमाइ ॥ नानक नामु सलाहि तू हरि हरि दरि सोभा पाइ ॥४॥२॥ {पन्ना 1258}

पद्अर्थ: से = उन मनुष्यों को। सबदि = शबद से। जलाइ = जला के। सची = अटल रहने वाली। सचि = सदा कायम रहने वाले प्रभू में। लाइ = लगा के। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। कै सबदि = के शबद से। सुभाइ = प्रेम में (टिक के)।1।

रे मन = हे मन! हुकमु मंनि = हुकम को अपने भले के लिए जान, रजा में राजी रह। बिघनु = जीवन राह में रुकावट।1। रहाउ।

सभा धातु = निजी दौड़ भाग। भाइ = प्यार में। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। मुकति = विकारों से मुक्ति। कमाहि = करते रहते हैं। साहिब भावै = मालिक प्रभू को अच्छा लगता है।

पइअै किरति = किए कर्मों के संस्कारों अनुसार। फिराहि = भटकते फिरते हैं।2।

भेटिअै = अगर मिल जाए। मरि रहै = स्वै भाव दूर कर लेता है। मनि = मन में। आइ = आ के। चउथै = माया के तीन गुणों से ऊपर की अवस्था में। सचै = सदा स्थिर प्रभू में।3।

तिस की: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'की' के कारण हटा दी गई है।

अगमु = अपहुँच। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान इन्द्रियां। चरु = पहुँच) ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे। परसादी = कृपा से ही। कमाइ = कमाता है। दरि = दर पर। पाइ = पाता है (एक वचन)।4।

अर्थ: हे मन! (परमात्मा की) रजा में चला कर, (इस तरह) आत्मिक आनंद बना रहता है। हे मन! प्रभू को अपनी मर्जी प्यारी लगती है। जिस मनुष्य पर मेहर करता है (वह उसकी रजा में चलता है), उसके जीवन-राह में कोई रुकावट नहीं आती।1। रहाउ।

हे भाई! जिन मनुष्यों ने परमात्मा की रजा को मीठा करके माना है, प्रभू ने गुरू के शबद द्वारा (उनके अंदर से) अहंकार जला के उनको (अपने चरणों में) जोड़ लिया है। वह मनुष्य दिन-रात सदा-स्थिर प्रभू की भक्ति करते हैं, वे लिव लगा के सदा-स्थिर हरी में टिके रहते हैं। वे मनुष्य गुरू के शबद द्वारा प्रभू-प्रेम में (टिक के) सदा-स्थिर हरी को हर जगह बसता देखते हैं।1।

हे भाई! त्रैगुणी (माया में सदा जुड़े रहना) निरी भटकना ही है (इसमें फसे रहने से) ना प्रभू की भगती हो सकती है, ना ही उसके प्यार में लीन हुआ जा सकता है। (त्रैगुणी माया के मोह के कारण) ऊँची आत्मिक अवस्था नहीं हो सकती, विकारों से खलासी कभी नहीं हो सकती। मनुष्य अहंकार (बढ़ाने वाले) काम (ही करते रहते हैं)। (पर जीवों के भी क्या वश में?) जो कुछ मालिक-हरी को अच्छा लगता है वही होता है, पिछले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार जीव भटकते फिरते हैं।2।

हे भाई! अगर गुरू मिल जाए, तो मनुष्य का मन (अंदर से) स्वै भाव दूर कर लेता है, उसके मन में हरी-नाम बसता है, (फिर उसका जीवन इतना ऊँचा हो जाता है कि) उसका मूल्य नहीं पड़ सकता, उसका बयान नहीं किया जा सकता। वह मनुष्य उस अवस्था में जहाँ माया के तीन गुणों का जोर नहीं पड़ सकता, वह सदा कायम रहने वाले प्रभू में लीन हुआ रहता है।3।

हे भाई! मेरा हरी-प्रभू अपहुँच है ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे है, किसी दुनियावी पदार्थ के बदले में नहीं मिल सकता। गुरू की मेहर से ही उसकी जान-पहचान होती है (जिसको जान-पहचान हो जाती है, वह मनुष्य) गुरू के शबद अनुसार (हरेक) कार करता है। हे नानक! तू सदा हरी-नाम सिमरता रह। (जो सिमरता है) वह प्रभू के दर पर शोभा पाता है।4।2।

मलार महला ३ ॥ गुरमुखि कोई विरला बूझै जिस नो नदरि करेइ ॥ गुर बिनु दाता कोई नाही बखसे नदरि करेइ ॥ गुर मिलिऐ सांति ऊपजै अनदिनु नामु लएइ ॥१॥ मेरे मन हरि अम्रित नामु धिआइ ॥ सतिगुरु पुरखु मिलै नाउ पाईऐ हरि नामे सदा समाइ ॥१॥ रहाउ ॥ मनमुख सदा विछुड़े फिरहि कोइ न किस ही नालि ॥ हउमै वडा रोगु है सिरि मारे जमकालि ॥ गुरमति सतसंगति न विछुड़हि अनदिनु नामु सम्हालि ॥२॥ सभना करता एकु तू नित करि देखहि वीचारु ॥ इकि गुरमुखि आपि मिलाइआ बखसे भगति भंडार ॥ तू आपे सभु किछु जाणदा किसु आगै करी पूकार ॥३॥ हरि हरि नामु अम्रितु है नदरी पाइआ जाइ ॥ अनदिनु हरि हरि उचरै गुर कै सहजि सुभाइ ॥ नानक नामु निधानु है नामे ही चितु लाइ ॥४॥३॥ {पन्ना 1258}

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। नदरि = मेहर की निगाह। करेइ = करता है। गुर मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। लऐइ = लेता है, जपता है।1।

जिसनो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है।

मन = हे मन! अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। पाईअै = हासिल कर लिया जाता है। नामे = नाम में ही। समाइ = लीन रहता है।1। रहाउ।

मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। फिरहि = भटकते हैं। किस ही = ('किसि' की 'सि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। सिरि = सिर के भार। जमकालि = जमकाल ने, आत्मिक मौत ने। समालि = हृदय में बसा के।2।

करता = पैदा करने वाला। नित = सदा। करि वीचारु = विचार करके। देखहि = संभाल करता है (तू)। इकि = (शब्द 'इक' का बहुवचन) कई। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। बखसे = बख्शता है, देता है। आपे = आप ही। कर = मैं करूँ।3।

नदरी = मेहर की निगाह से। उचरै = उचारता है। गुर कै = गुरू से, गुरू की शरण पड़ के। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्यार में। निधानु = खजाना। नामे = नाम में। लाइ = लगाता है, जोड़ता है।4।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम चेते किया कर। जब गुरू मर्द मिल जाता है, तब हरी-नाम प्राप्त होता है (जिसको गुरू मिलता है) वह सदा हरी-नाम में लीन रहता है।1। रहाउ।

हे भाई! जिस मनुष्य पर प्रभू मेहर की निगाह करता है, वह कोई विरला गुरू के सन्मुख हो के (यह) समझता है (कि) गुरू के बिना और कोई (नाम की) दाति देने वाला नहीं है, जिस पर मेहर की निगाह करता है, उसको (नाम) बख्शता है। अगर गुरू मिल जाए, तो (मन में) शांति पैदा हो जाती है (और मनुष्य) हर वक्त परमात्मा का नाम सिमरता रहता है।1।

हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (परमात्मा से) विछुड़ के सदा भटकते फिरते हैं (वे यह नहीं समझते कि जिनके साथ मोह है, उनमें से) कोई भी किसी के साथ सदा साथ नहीं निभा सकता। उनके अंदर अहंकार का बड़ा रोग टिका रहता है, आत्मिक मौत ने उनको सिर के भार पटखनी दी होती है। जो मनुष्य गुरू की मति लेते हैं, वे हर वक्त परमात्मा का नाम (हृदय में) बसा के साध-संगति से कभी नहीं विछुड़ते।2।

हे प्रभू! सब जीवों को पैदा करने वाला सिर्फ तू ही है, और विचार करके तू सदा संभाल भी करता है। कई जीवों को गुरू के द्वारा तूने स्वयं (अपने साथ) जोड़ा हुआ है, (गुरू उनको तेरी) भगती के खजाने बख्शता है। हे प्रभू! मैं और किस के आगे फरियाद करूँ? तू स्वयं ही (हमारे दिलों की) हरेक माँग जानता है।3।

हे भाई! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला है, पर उसकी मेहर की निगाह से ही मिलता है। (जिस पर मेहर की निगाह होती है, वह मनुष्य) गुरू के माध्यम से आत्मिक अडोलता में टिक के हर वक्त परमात्मा का नाम उचारता है। हे नानक! (उस मनुष्य के लिए) हरी-नाम ही खजाना है, वह नाम में ही चिक्त जोड़े रखता है।4।3।

मलार महला ३ ॥ गुरु सालाही सदा सुखदाता प्रभु नाराइणु सोई ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ वडी वडिआई होई ॥ अनदिनु गुण गावै नित साचे सचि समावै सोई ॥१॥ मन रे गुरमुखि रिदै वीचारि ॥ तजि कूड़ु कुट्मबु हउमै बिखु त्रिसना चलणु रिदै सम्हालि ॥१॥ रहाउ ॥ सतिगुरु दाता राम नाम का होरु दाता कोई नाही ॥ जीअ दानु देइ त्रिपतासे सचै नामि समाही ॥ अनदिनु हरि रविआ रिद अंतरि सहजि समाधि लगाही ॥२॥ सतिगुर सबदी इहु मनु भेदिआ हिरदै साची बाणी ॥ मेरा प्रभु अलखु न जाई लखिआ गुरमुखि अकथ कहाणी ॥ आपे दइआ करे सुखदाता जपीऐ सारिंगपाणी ॥३॥ आवण जाणा बहुड़ि न होवै गुरमुखि सहजि धिआइआ ॥ मन ही ते मनु मिलिआ सुआमी मन ही मंनु समाइआ ॥ साचे ही सचु साचि पतीजै विचहु आपु गवाइआ ॥४॥ एको एकु वसै मनि सुआमी दूजा अवरु न कोई ॥ एकुो नामु अम्रितु है मीठा जगि निरमल सचु सोई ॥ नानक नामु प्रभू ते पाईऐ जिन कउ धुरि लिखिआ होई ॥५॥४॥ {पन्ना 1258-1259}

पद्अर्थ: सालाही = मैं सलाहता रहूँ। सोई = वह (गुरू) ही। परसादि = कृपा से। परमपदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। वडिआई = शोभा, इज्जत। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। गावै = गाता है (एक वचन)। सचि = सदा कायम रहने वाले प्रभू में।1। रहाउ।

गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। रिदै = हृदय में। तजि = छोड़ दे। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। समालि = याद रख, संभाल। चलणु = कूच, चलना।1। रहाउ।

होरु = (गुरू के बिना कोई) और। दाता = (नाम की) दाति देने वाला। जीअ दानु = आत्मिक जीवन की दाति। देइ = देता है। त्रिपतासे = तृप्त हो जाते हैं। सचै नामि = सदा स्थिर हरी नाम में। समाही = लीन रहते हैं (बहुवचन)। रविआ = मौजूद। रिद अंतरि = हृदय में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।2।

सबदी = शबद में। भेदिआ = भेदा गया। साची बाणी = सदा स्थिर हरी की सिफत सालाह की बाणी। अलखु = जिसका सही स्वरूप समझा नहीं जा सकता। गुरमुखि = गुरू से। अकथ = जिसका मुकम्मल रूप बयान ना हो सके। अकथ कहाणी = अकथ हरी की सिफत सालाह। जपीअै = जपा जासकता है। सारिंग पाणी = (सारिंग = धनुष। पाणी = पाणि, हाथ) जिसके हाथ में धनुष है, धर्नुधारी प्रभू।3।

बहुड़ि = दोबारा। मन ही ते = अंदर से ही। मनु मिलिआ = अपने आप की सूझ पड़ गई। मन ही = मन में ही, अंदर ही। मंनु = मन। साचे ही साचि = सदा ही सदा स्थिर प्रभू में। सचु = सदा कायम रहने वाला हरी। आपु = स्वै भाव।4।

मनि = मन में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। जगि = जगत में। ते = से। धुरि = धुर दरगाह से।5।

ऐकुो: अक्षर 'क' के साथ दो मात्राएं 'ो' और 'ु' हैं असल शब्द 'ऐकु' है यहाँ 'ऐको' पढ़ना है।

अर्थ: हे (मेरे) मन! गुरू की शरण पड़ कर हृदय में (परमात्मा के गुणों को) विचारा कर। हे भाई! झूठ छोड़, कुटंब (का मोह) छोड़, अहंकार त्याग, आत्मिक मौत लाने वाली तृष्णा छोड़। हृदय में सदा याद रख (कि यहाँ से) कूच करना (है)।1। रहाउ।

हे भाई! मैं तो सदा (अपने) गुरू को ही सलाहता हॅूँ, वह सारे सुख देने वाला है (मेरे लिए) वह नारायण प्रभू है। (जिस मनुष्य ने) गुरू की कृपा से सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया, उसकी (लोक-परलोक में) बड़ी इज्जत बन गई, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू के सदा गुण गाता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू में लीन रहता है।1।

हे भाई! परमात्मा के नाम की दाति देने वाला (सिर्फ) गुरू (ही) है, (नाम की दाति) देने वाला (गुरू के बिना) और कोई नहीं। जिन मनुष्यों को गुरू आत्मिक जीवन की दाति देता है, वे (माया की तृष्णा से) तृप्त हो जाते हैं, वे मनुष्य सदा-स्थिर हरी-नाम में लीन रहते हैं, उनके हृदय में परमात्मा (का नाम) हर वक्त बसा रहता है, वे आत्मिक अडोलता में हमेशा टिके रहते हैं।2।

हे भाई! मेरा प्रभू अलख है उसका सही स्वरूप समझा नहीं जा सकता। गुरू की शरण पड़ कर उस अकथ की सिफत सालाह की जा सकती है। जिस मनुष्य का यह मन गुरू के शबद से भेद जाता है, उसके हृदय में सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह टिकी रहती है। हे भाई! सारे सुख देने वाला धर्नुधारी प्रभू स्वयं ही जब मेहर करता है, तो उसका नाम जपा जा सकता है।3।

हे भाई! गुरू के सन्मुख हो के मनुष्य ने आत्मिक अडोलता में (टिक के) परमात्मा का नाम सिमरा, उसको दोबारा जनम-मरण का चक्कर नहीं रहता। उसको अपने अंदर से स्वयं की समझ हो जाती है, उसको मालिक-प्रभू मिल जाता है, उसका मन (फिर) अंदर ही लीन हो जाता है। सदा-स्थिर हरी को (हृदय में बसा के) वह हर वक्त सदा-स्थिर प्रभू में मगन रहता है, वह अपने अंदर से स्वै-भाव (अहम्) दूर कर लेता है।4।

हे नानक! (कह- हे भाई!) परमात्मा का नाम परमात्मा से ही मिलता है। (मिलता उनको है) जिनके भाग्यों में धुर-दरगाह से ही (नाम की प्राप्ति का लेख) लिखा होता है। उनके मन में सदा मालिक-प्रभू ही बसा रहता है, और कोई दूसरा नहीं बसता। उनको आत्मिक जीवन देने वाला सिर्फ हरी-नाम ही मीठा लगता है। जगत में (हर जगह उनको) वही दिखाई देता है जो पवित्र है और सदा कायम रहने वाला है।5।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh