श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1259 मलार महला ३ ॥ गण गंधरब नामे सभि उधरे गुर का सबदु वीचारि ॥ हउमै मारि सद मंनि वसाइआ हरि राखिआ उरि धारि ॥ जिसहि बुझाए सोई बूझै जिस नो आपे लए मिलाइ ॥ अनदिनु बाणी सबदे गांवै साचि रहै लिव लाइ ॥१॥ मन मेरे खिनु खिनु नामु सम्हालि ॥ गुर की दाति सबद सुखु अंतरि सदा निबहै तेरै नालि ॥१॥ रहाउ ॥ मनमुख पाखंडु कदे न चूकै दूजै भाइ दुखु पाए ॥ नामु विसारि बिखिआ मनि राते बिरथा जनमु गवाए ॥ इह वेला फिरि हथि न आवै अनदिनु सदा पछुताए ॥ मरि मरि जनमै कदे न बूझै विसटा माहि समाए ॥२॥ {पन्ना 1259} पद्अर्थ: गण = देवताऔं की एक श्रेणी जो शिव जी की उपासक मानी जाती है। गंधरब = गंधर्व, देवताओं के रागी। नामे = नाम से ही। उधरे = संसार समुंद्र से पार लांघे। वीचारि = विचार के, मन में बसा के। मारि = मार के। सद = सदा। मंनि = मन में। उरि = हृदय में। जिसहि = ('जिसि' की 'सि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। आपे = आप ही। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सबदे = (गुरू के) शबद से। गावै = गाता है (एकवचन)। साचि = सदा स्थिर प्रभू में। लिव लाइ = सुरति जोड़ के।1। जिस नो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है। मन = हे मन! खिनु खिनु = हरेक छण। समालि = चेते करता रह। सबद सुखु = शबद का आनंद। अंतरि = हृदय में। निबहै = साथ बनाए रखता है।1। रहाउ। मनमुख पाखंडु = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का दिखावा। चूकै = समाप्त। दूजै भाइ = माया के मोह में। विसारि = भुला के। बिखिआ = माया। मनि = मन से। राते = रति हुए, मस्त। हथि न आवै = नहीं मिलता। हथि = हाथ में। मारि = मर के। माहि = में।2। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम हर पल याद करता रह। गुरू के बख्शे हुए शबद का आनंद तेरे अंदर टिका रहेगा। हे मन! (यह हरी-नाम) तेरा साथ सदा बनाए रखेगा।1। रहाउ। हे भाई! गण-गंधर्व (आदि देव-श्रेणियों के लोग) सारे परमात्मा के नाम के द्वारा ही, गुरू का शबद मन में बसा के ही संसार-समुंद्र से पार लांघे हैं। (जिन्होंने) परमात्मा को अपने हृदय में टिकाए रखा, उन्होंने (अपने अंदर से) अहंकार को समाप्त करके प्रभू के नाम को सदा अपने मन में बसा लिया। हे भाई! वही मनुष्य (इस सही जीवन-राह को) समझता है, जिसको परमात्मा स्वयं ही समझ बख्शता है, जिसको स्वयं (अपने चरणों में) जोड़ता है। वह मनुष्य गुरू की बाणी से गुरू के शबद से (प्रभू के सिफतसालाह के गीत) गाता है, और सदा-स्थिर प्रभू में सुरति जोड़े रखता है।1। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का पाखण्ड कभी समाप्त नहीं होता। वह माया के मोह में दुख सहता रहता है। प्रभू-नाम को भुला के अपने मन में माया के साथ रंगा होने के कारण वह अपनी जिंदगी व्यर्थ गवाता है। उसको यह (मनुष्य जनम का) समय दोबारा नहीं मिलता, (इस वास्ते) सदा हाथ मलता रहता है। वह सदा जनम-मरण के चक्करों में पड़ा रहता है (सही जीवन-राह को) समझ नहीं सकता, और (विकारों की) गंदगी में लीन रहता है।2। गुरमुखि नामि रते से उधरे गुर का सबदु वीचारि ॥ जीवन मुकति हरि नामु धिआइआ हरि राखिआ उरि धारि ॥ मनु तनु निरमलु निरमल मति ऊतम ऊतम बाणी होई ॥ एको पुरखु एकु प्रभु जाता दूजा अवरु न कोई ॥३॥ आपे करे कराए प्रभु आपे आपे नदरि करेइ ॥ मनु तनु राता गुर की बाणी सेवा सुरति समेइ ॥ अंतरि वसिआ अलख अभेवा गुरमुखि होइ लखाइ ॥ नानक जिसु भावै तिसु आपे देवै भावै तिवै चलाइ ॥४॥५॥ {पन्ना 1259} पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। नामि = नाम (-रंग) में। से = वे (बहुवचन)। जीवन मुकति = जिनको जीते हुए ही विकारों से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। उरि = हृदय में। निरमलु = पवित्र। बाणी = बोल चाल। जाता = जान लिया, गहरी सांझ डाल ली।3। आपे = स्वयं ही। नदरि = मेहर की निगाह। करेइ = करता है (एकवचन)। राता = रंगा हुआ। सेवा = भक्ति। समेइ = समाई रहती है, लीन रहती है। अंतरि = अंदर। अलख = जिसका सही स्वरूप बयान ना किया जा सके। जिसु भावै = जो तिसु भावै, जो उसका प्यार लगता है। भावै = जैसे उसकी रजा होती है। चलाइ = जीवन राह पर चलाता है।4। अर्थ: हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य हरी-नाम-रंग में रंगे रहते हैं, वे गुरू के शबद को मन में बसा के (संसार-समुंद्र से) पार लांघ जाते हैं। जो मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरते हैं, परमात्मा को अपने हृदय में बसाए रखते हैं, वे जीवित ही (दुनिया की किरत-व्यवहार करते हुए ही) विकारों से खलासी पाए रखते हैं। उनका मन पवित्र हो जाता है, उनका शरीर पवित्र हो जाता है, उनकी मति भी ऊँची हो जाती है, उनके बोल-चाल उक्तम हो जाते हैं। वे मनुष्य एक सर्व-व्यापक प्रभू के साथ गहरी सांझ डाले रखते हैं (प्रभू के बिना) कोई और दूसरा (उनको कहीं) नहीं (दिखता)।3। हे भाई! प्रभू स्वयं ही सब कुछ करता है और (जीवों से) करवाता है, स्वयं ही मेहर की निगाह (जीवों पर) करता है। (जिस मनुष्य पर मेहर की निगाह करता है, उसका) मन (उसका) तन गुरू की बाणी (के रंग) में रंगा रहता है, उसकी सुरति (प्रभू की) भगती में लीन रहती है। उसके अंदर अलख और अभेव प्रकट हो जाता है। गुरू के सन्मुख हो के (वह अंदर बसते प्रभू को) देख लेता है। हे नानक! जो मनुष्य प्रभू को भा जाता है उसको यह दाति बख्शता है। जै। से उसकी रज़ा होती है वह (जीवों को) जीवन-राह पर चलाता है।4।5। मलार महला ३ दुतुके ॥ सतिगुर ते पावै घरु दरु महलु सु थानु ॥ गुर सबदी चूकै अभिमानु ॥१॥ जिन कउ लिलाटि लिखिआ धुरि नामु ॥ अनदिनु नामु सदा सदा धिआवहि साची दरगह पावहि मानु ॥१॥ रहाउ ॥ मन की बिधि सतिगुर ते जाणै अनदिनु लागै सद हरि सिउ धिआनु ॥ गुर सबदि रते सदा बैरागी हरि दरगह साची पावहि मानु ॥२॥ इहु मनु खेलै हुकम का बाधा इक खिन महि दह दिस फिरि आवै ॥ जां आपे नदरि करे हरि प्रभु साचा तां इहु मनु गुरमुखि ततकाल वसि आवै ॥३॥ इसु मन की बिधि मन हू जाणै बूझै सबदि वीचारि ॥ नानक नामु धिआइ सदा तू भव सागरु जितु पावहि पारि ॥४॥६॥ {पन्ना 1259-1260} पद्अर्थ: ते = से। घरु दरु महलु = परमात्मा का घर दर महल। सु = वह। सबदी = शबद से। चूकै = समाप्त होता है।1। लिलाटि = माथे पर। धुरि = धुर दरगाह से। अनदिनु = हर रोज। धिआवहि = ध्याते हैं (बहुवचन)। साची = सदा कायम रहने वाली। मानु = आदर, सत्कार।1। रहाउ। बिधि = तरीका। जाणै = समझता है। सद = सदा। सिउ = साथ। सबदि = शबद में। बैरागी = माया मोह से स्वतंत्र।2। खेलै = खेलता है। बाधा = बंधा हुआ। दह दिस = दसों दिशाओं में। दिस = दिशाओं में, तरफ। नदरि = मेहर की निगाह। साचा = सदा कायम रहने वाला। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। ततकाल = उसी वक्त। वसि = वश में।3। मन हू = मन से ही। सबदि = शबद से। वीचारि = विचार के, मन में बसा के। भव सागरु = संसार समुंद्र। जितु = जिस (नाम) से। पावहि = तू हासिल कर ले।4। अर्थ: हे भाई! जिन मनुष्यों के लिए (उनके) माथे पर धुर-दरगाह से नाम (का सिमरन) लिखा होता है, वे मनुष्य हर वक्त सदा-सदा ही नाम सिमरते रहते हैं, और सदा कायम रहने वाली दरगाह में वे आदर प्राप्त करते हैं।1। रहाउ। हे भाई! मनुष्य गुरू से ही परमात्मा का घर प्रभू का दर प्रभू का महल और जगह पा सकता है। गुरू के शबद से ही (मनुष्य के अंदर से) अहंकार समाप्त होता है।1। हे भाई! (जो मनुष्य) गुरू से मन (को जीतने) का ढंग सीख लेता है, उसकी सुरति हर वक्त सदा ही परमात्मा (के चरणों) के साथ लगी रहती है। जो मनुष्य गुरू के शबद में रंगे रहते हैं, वे सदा (माया के मोह से) निर्लिप रहते हैं, वे सदा-स्थिर-प्रभू की हजूरी में आदर पाते हैं।2। हे भाई! (मनुष्य का) यह मन (परमात्मा के) हुकम का बंधा हुआ ही (माया की खेल) खेलता रहता है, और एक छिन में ही दसों-दिशाओं में दौड़-भाग आता है। जब सदा-स्थिर प्रभू स्वयं ही (किसी मनुष्य पर) मेहर की निगाह करता है, तब उसका यह मन गुरू की शरण की बरकति से बड़ी जल्दी वश में आ जाता है।3। हे भाई! जब मनुष्य गुरू के शबद द्वारा (परमात्मा के गुणों को) अपने मन में बसा के (सही जीवन-राह को) समझता है, तो वह अपने अंदर से ही इस मन को वश में रखने की जाच सीख लेता है। हे नानक! (कह- हे भाई!) तू सदा परमात्मा का नाम सिमरा कर, जिस नाम के द्वारा तू संसार-समुंद्र से पार लांघ जाएगा।4।6। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |