श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मलार महला ३ ॥ जीउ पिंडु प्राण सभि तिस के घटि घटि रहिआ समाई ॥ एकसु बिनु मै अवरु न जाणा सतिगुरि दीआ बुझाई ॥१॥ मन मेरे नामि रहउ लिव लाई ॥ अदिसटु अगोचरु अपर्मपरु करता गुर कै सबदि हरि धिआई ॥१॥ रहाउ ॥ मनु तनु भीजै एक लिव लागै सहजे रहे समाई ॥ गुर परसादी भ्रमु भउ भागै एक नामि लिव लाई ॥२॥ गुर बचनी सचु कार कमावै गति मति तब ही पाई ॥ कोटि मधे किसहि बुझाए तिनि राम नामि लिव लाई ॥३॥ जह जह देखा तह एको सोई इह गुरमति बुधि पाई ॥ मनु तनु प्रान धरीं तिसु आगै नानक आपु गवाई ॥४॥७॥ {पन्ना 1260}

पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। सभि = सारे (बहुवचन)। तिस के = उस (परमात्मा) के ('तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'के' के कारण हटा दी गई है)। घटि घटि = हरेक शरीर में। ना जाणा = मैं नहीं जानता। सतिगुरि = गुरू ने। दीआ बुझाई = समझा दिया है।1।

मन = हे मन! नामि = नाम में। रहउ = मैं रहता हूं। लिव = सुरति। रहउ लाई = मैं लगाए रखता हूँ। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान इन्द्रियां।) जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। अपरंपर = परे से परे। करता = करतार। कै सबदि = के शबद से। धिआई = मैं ध्यान धरता हूँ।1। रहाउ।

भीजै = भीग जाता है। सहजे = आत्मिक अडोलता में ही। परसादी = कृपा से। भ्रमु = भटकना। नामि = नाम में।2।

गुर बचनी = गुरू के बचनों पर चल के। सचु = सदा स्थिर हरी नाम (का सिमरन)। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। गति मति = ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त करने वाली सूझ। तब ही = तब ही। कोटि = करोड़ों। किसहि = किसी विरले को ('किसि' की 'सि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। तिनि = उस (मनुष्य) ने। नामि = नाम में।3।

जह = जहाँ। देखा = मैं देखता हूँ। सोई = वह ही। बुधि = अकल। धरीं = मैं धरता हूँ। आपु = स्वै भाव।4।

अर्थ: हे मेरे मन! मैं (तो सदा) परमात्मा के नाम में ही लगन लगाए रखता हूँ। जो करतार (इन आँखों से) नहीं दिखता, जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच हो नहीं सकती, जो बेअंत ही बेअंत है, मैं उसको गुरू के शबद द्वारा ध्याता हूँ।1। रहाउ।

हे भाई! गुरू ने (मुझे) समझ बख्शी है कि जो परमात्मा हरेक शरीर में समा रहा है, उसके ही दिए हुए ये जिंद ये शरीर ये प्राण ये सारे अंग हैं। हे भाई! उस एक के बिना मैं किसी और के साथ गहरी सांझ नहीं डालता।1।

हे भाई! (जिन मनुष्यों की) लगन एक परमात्मा के साथ लगी रहती है उनका मन उनका तन (नाम-रस से) भीगा रहता है, वे मनुष्य आत्मिक अडोलता में लीन रहते हैं। हे भाई! जो मनुष्य गुरू की कृपा से सिर्फ हरी-नाम में सुरति जोड़े रखता है, उसकी भटकना उसका हरेक डर दूर हो जाता है।2।

हे भाई! (जब मनुष्य) गुरू के बचनों पर चल के सदा-स्थिर हरी-नाम सिमरन की कार करता है, तब ही वह ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर सकने वाली समझ सीखता है। हे भाई! करोड़ों में से किसी विरले मनुष्य को (गुरू आत्मिक जीवन की) सूझ देता है, उस मनुष्य ने (सदा के लिए) परमात्मा के नाम में सुरति जोड़ ली।3।

हे नानक! (कह- हे भाई!) मैं जिधर-जिधर देखता हूँ, उधर-उधर एक परमात्मा ही बसता (दिखाई देता) है - यह बुद्धि मुझे गुरू की मति से आई है। उस (गुरू) के आगे मैं स्वै-भाव गवा के अपना मन अपना शरीर अपने प्राण भेट धरता हूँ।4।7।

मलार महला ३ ॥ मेरा प्रभु साचा दूख निवारणु सबदे पाइआ जाई ॥ भगती राते सद बैरागी दरि साचै पति पाई ॥१॥ मन रे मन सिउ रहउ समाई ॥ गुरमुखि राम नामि मनु भीजै हरि सेती लिव लाई ॥१॥ रहाउ ॥ मेरा प्रभु अति अगम अगोचरु गुरमति देइ बुझाई ॥ सचु संजमु करणी हरि कीरति हरि सेती लिव लाई ॥२॥ आपे सबदु सचु साखी आपे जिन्ह जोती जोति मिलाई ॥ देही काची पउणु वजाए गुरमुखि अम्रितु पाई ॥३॥ आपे साजे सभ कारै लाए सो सचु रहिआ समाई ॥ नानक नाम बिना कोई किछु नाही नामे देइ वडाई ॥४॥८॥ {पन्ना 1260}

पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। दूख निवारणु = दुखों को दूर करने वाला। सबदे = शबद से ही। पाइआ जाई = मिल सकता है। राते = रंगे हुए। सद = सदा। बैरागी = माया के मोह से निर्लिप। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभू के दर पर। पति = इज्जत।1।

मन सिउ = मन से, सुरति जोड़ के। रहउ समाई = (प्रभू के चरणों में) लीन रहता हूँ। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। नामि = नाम में। सेती = साथ। लिव = लगन।1 रहाउ।

अति = सदा स्थिर प्रभू। साखी = शिक्षा। जोति = जिंद, सुरति। काची = नाशवंत। पउणु = हवा, सांस। वजाऐ = बजा रहा है, चला रहा है। अंमितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल।3।

आपे = स्वयं ही। साजे = पैदा करता है। सभ = सारी सृष्टि। कारै = कार में, काम काज में। नामे = नाम में ही। वडाई = इजजत।4।

अर्थ: हे (मेरे) मन! मैं (तो गुरू के सन्मुख हो के प्रभू के चरणों में) टिका रह सकता हूँ। गुरू की शरण पड़ कर ही (मनुष्य का) मन परमात्मा के नाम में भीगता है, (गुरू के सन्मुख र हके ही मनुष्य) प्रभू के साथ सुरति जोड़े रखता है।1। रहाउ।

हे भाई! मेरा प्रभू सदा कायम रहने वाला है। (जीवों के) दुखों को दूर करने वाला है (वह प्रभू गुरू के) शबद द्वारा मिल सकता है। (जो मनुष्य गुरू के शबद द्वारा परमात्मा की) भगती में रंगे रहते हैं, वे सदा निर्लिप रहते हैं, उनको सदा-स्थिर प्रभू के दर पर आदर मिलता है।1।

हे भाई! प्यारा प्रभू (तो) बहुत अपहुँच है उस तक ज्ञान-इन्द्रियों की (भी) पहुँच नहीं हो सकती, (पर, जिस मनुष्य को वह प्रभू) गुरू की मति के द्वारा (आत्मिक जीवन की) समझ बख्शता है, वह मनुष्य परमात्मा में सुरति जोड़ के रखता है, सदा-स्थिर हरी-नाम का सिमरन उस मनुष्य का संजम बनता है, प्रभू की सिफत सालाह उसकी कार हो जाती है।2।

हे भाई! जिन मनुष्यों की सुरति (गुरू के द्वारा) प्रभू की ज्योति में जुड़ती है (उनको यह निष्चय बन जाता है कि) सदा-स्थिर प्रभू स्वयं ही (गुरू का) शबद है प्रभू स्वयं ही (गुरू की) शिक्षा है। हे भाई! (इस) नाशवंत शरीर में (जिसको) हरेक श्वास चला रही है, गुरू के द्वारा (ही) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पड़ता है।3।

हे नानक! (गुरू के द्वारा ही यह समझ पड़ती है कि) जो प्रभू स्वयं ही सारी सृष्टि को पैदा करता है, और काम काज में लगाए रखता है वह सदा-स्थिर प्रभू सब जगह व्यापक है। प्रभू के नाम के बिना कोई भी जीव कोई अस्तित्व नहीं रखता, (कोई पायां नहीं रखता), (जीव को) आदर (प्रभू अपने) नाम से ही बख्शता है।4।8।

मलार महला ३ ॥ हउमै बिखु मनु मोहिआ लदिआ अजगर भारी ॥ गरुड़ु सबदु मुखि पाइआ हउमै बिखु हरि मारी ॥१॥ मन रे हउमै मोहु दुखु भारी ॥ इहु भवजलु जगतु न जाई तरणा गुरमुखि तरु हरि तारी ॥१॥ रहाउ ॥ त्रै गुण माइआ मोहु पसारा सभ वरतै आकारी ॥ तुरीआ गुणु सतसंगति पाईऐ नदरी पारि उतारी ॥२॥ चंदन गंध सुगंध है बहु बासना बहकारि ॥ हरि जन करणी ऊतम है हरि कीरति जगि बिसथारि ॥३॥ क्रिपा क्रिपा करि ठाकुर मेरे हरि हरि हरि उर धारि ॥ नानक सतिगुरु पूरा पाइआ मनि जपिआ नामु मुरारि ॥४॥९॥ {पन्ना 1260}

पद्अर्थ: बिखु = (आत्मिक मौत लाने वाला) जहर। अजगर भारी = अजगर जितना भारी, बहुत भार से। गरुड़ ु = गारुड़ी मंत्र, साँप का जहर दूर करने वाला मंत्र। मुखि = मुँह में।1।

भवजलु = संसार समुंद्र। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। तारी = बेड़ी।1। रहाउ।

त्रै गुण = रजो गुण तमो गुण सतो गुण। पसारा = खिलारा। सभ आकारी = सारे आकारों (शरीरों) में। वरतै = प्रभाव डाल रहा है। तुरीआ गुणु = वह गुण जो माया के तीन गुणों से परे है। नदरी = मेहर की निगाह से।2।

सु्रगंध = अच्छी वासना। बहकारि = महकार, महक। कीरति = शोभा, सिफत। जगि = जगत में। बिसथारि = बिखेरी हुई है।3।

ठाकुर = हे ठाकुर! उर = हृदय। मनि = मन में। मुरारि = परमात्मा (मुर = अरि। मुर दैत्य का वैरी)।4।

अर्थ: हे (मेरे) मन! अहंकार एक बड़ा दुख है (माया का) मोह भारी दुख है (अहंकार और मोह के कारण) इस संसार-समुंद्र से पार नहीं लांघा जा सकता। तू गुरू की शरण पड़ के हरी-नाम की बेड़ी में (इस संसार-समुंद्र से) पार लांघ।1। रहाउ।

हे भाई! अहंकार (आत्मिक मौत लाने वाला) जहर है, (मनुष्य का) मन (इस जहर के) मोह में फसा रहता है, (इस अहंकार के) बहुत बड़े भार से लदा रहता है। गुरू का शबद (इस जहर को मारने के लिए) गारुड़ी मंत्र है, (जिस मनुष्य ने यह शबद मंत्र अपने) मुँह में रख लिया, परमात्मा ने उसके अंदर से यह अहंकार का जहर खत्म कर दिया।1।

हे भाई! त्रै-गुणी माया का मोह (अपना) पसारा (पसार के) सार जीवों पर सारे जीवों पर अपना प्रभाव डाल रहा है। (इन तीन गुणों से ऊपर है) तुरीआ गुण (यह गुण) साध-संगति में से हासिल होता है (जो मनुष्य इस अवस्था को प्राप्त कर लेता है, परमात्मा) मेहर की निगाह करके (उसको) संसार-समुंद्र से पार लंघा लेता है।2।

हे भाई! जैसे चंदन की सुगंधि है जैसे चँदन में से महक निकलती है, वैसे ही परमात्मा के भक्तों की करणी श्रेष्ठ होती है, (भक्तों ने) परमात्मा की सिफतसालाह (की सुगंधि) जगत में बिखेरी हुई है।3।

हे मेरे मालिक प्रभू! हे हरी! (मेरे पर) मेहर कर (मेरे) हृदय में अपना नाम बसाए रख। हे नानक! जिस मनुष्य ने पूरा गुरू पा लिया, उसने (सदा) अपने मन में परमात्मा का नाम जपा।4।9।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh